कुछ अपने से लगने वालों भावों में संजोकर संतोष जी ने मेरे कविता संग्रह को पढ़ते हुए अपनी टिप्पणी दी है ।जितनी सहजता से उन्होंने इन कविताओं के मर्म को समझा उतनी ही सरलता से उन्हें स्त्री जीवन की परस्थितियों से जोड़कर भी देखा है । आभार संतोष जी ।
व्यस्तताओं को परे कर आज जब ले कर बैठी मोनिका जी की " देहरी के अक्षांश पर" किताब को तो जब तक पूरा ना उतार लिया इसे मन पटल पर , तब तक नहीं छोड़ पाई इसे....
एक एक कविता जैसे जैसे पढ़ती गई ,लगा कि ये तो हर देहरी का चित्रण हैं,,जैसे मेरी ही देहरी का चित्रण हैं ।
एक अनवरत यात्रा करती स्त्री,उपलब्धियों को परे कर गृहणी रुप स्वीकारती ,हर दिन कुछ आता भी हैं तुम्हें सुनती स्त्री,अनचाहें अघात को अनुबंधित परिचारिका बन निभाती,दिनभर फिरकनी सी खटती , फिर भी सुनती की दिन भर घर में करती क्या हों ?
अपनी अनुपस्थिति में याद होती , अलसाई भोर और सिंदूरी क्षितित की अभिलाषा को निहारने का मन ले कर, स्वादहीन व्यंजनों को भी गुड की डली संग ले कर, एक ही प्रश्न पूछती कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें?
अपने ही प्रतिबिम्ब से अनजान, गृहिणी बन ठहर गई एक जगह,, नहीं देखती खिड़की के पार क्यूंकि सीमा पूर्व निर्धारित हैं, अपने एकांत और बेस्वाद जीवन का स्वाद रसोईघर के स्वाद नें ढूँढती स्त्री, मावठ में भीगे बावले मन को समझाती, अधूरे सपनों को सहेजती, देह के,मन के घाव छुपाती.....
सात फेरों संग मिले रिश्तो को सहेजती, सूत्रधार बनी सबके जीवन की गतिशीलता को निभाती,,अपने घर रुपी संसार में अनकही बंदिशो के बीच, अपने अस्तित्व को ढूढती, हर रूप को निभाने की अनथक प्रयासो के बीच माँ जैसा पवित्र रूप निभाने में अपना जीवन लगाती स्त्री, माँ के रूप को जितना समझा हैं, आत्मसात किया हैं , वो एक बेटी ही कर सकती हैं, एक माँ बनने के बाद.....
क्यूंकि अब वो माँ को समझती हैं,
अपने स्त्रीत्व पर गर्व करती स्त्री,
अन्त मैं इतना ही सार कि
एक एक कविता जैसे जैसे पढ़ती गई ,लगा कि ये तो हर देहरी का चित्रण हैं,,जैसे मेरी ही देहरी का चित्रण हैं ।
एक अनवरत यात्रा करती स्त्री,उपलब्धियों को परे कर गृहणी रुप स्वीकारती ,हर दिन कुछ आता भी हैं तुम्हें सुनती स्त्री,अनचाहें अघात को अनुबंधित परिचारिका बन निभाती,दिनभर फिरकनी सी खटती , फिर भी सुनती की दिन भर घर में करती क्या हों ?
अपनी अनुपस्थिति में याद होती , अलसाई भोर और सिंदूरी क्षितित की अभिलाषा को निहारने का मन ले कर, स्वादहीन व्यंजनों को भी गुड की डली संग ले कर, एक ही प्रश्न पूछती कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें?
अपने ही प्रतिबिम्ब से अनजान, गृहिणी बन ठहर गई एक जगह,, नहीं देखती खिड़की के पार क्यूंकि सीमा पूर्व निर्धारित हैं, अपने एकांत और बेस्वाद जीवन का स्वाद रसोईघर के स्वाद नें ढूँढती स्त्री, मावठ में भीगे बावले मन को समझाती, अधूरे सपनों को सहेजती, देह के,मन के घाव छुपाती.....
सात फेरों संग मिले रिश्तो को सहेजती, सूत्रधार बनी सबके जीवन की गतिशीलता को निभाती,,अपने घर रुपी संसार में अनकही बंदिशो के बीच, अपने अस्तित्व को ढूढती, हर रूप को निभाने की अनथक प्रयासो के बीच माँ जैसा पवित्र रूप निभाने में अपना जीवन लगाती स्त्री, माँ के रूप को जितना समझा हैं, आत्मसात किया हैं , वो एक बेटी ही कर सकती हैं, एक माँ बनने के बाद.....
क्यूंकि अब वो माँ को समझती हैं,
अपने स्त्रीत्व पर गर्व करती स्त्री,
अन्त मैं इतना ही सार कि
घर- परिवार की
धुरी वह
फिर भी
अधूरी वह
धुरी वह
फिर भी
अधूरी वह
स्त्री मन के चित्रण को इतना सुन्दर रुप देने के लिये मोनिका जी का धन्यवाद और बहुत बहुत बधाई....
7 comments:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
संतोष जी ने बहुत ही सारगर्भित टिप्पणी की है .
निसंदेह सार्थक लेखन
बहुत बढ़िया समीक्षा
मर्मस्पर्शी समीक्षा।
वाह ... लगता है इतने दिन ब्लॉग जगत से दूर रहने का खामियाजा है ... इतनी अच्छी पुस्तक कीजानकारी से वंचित रहा ....
आकर्षक ....
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