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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

18 December 2015

देहरी के अक्षांश पर- संतोष चौधरी जी की मर्मस्पर्शी टिप्पणी

कुछ अपने से लगने वालों भावों में संजोकर संतोष जी ने मेरे कविता संग्रह को पढ़ते हुए अपनी टिप्पणी दी है ।जितनी सहजता से उन्होंने इन कविताओं के मर्म को समझा उतनी ही सरलता से उन्हें स्त्री जीवन की परस्थितियों से जोड़कर  भी  देखा  है । आभार संतोष जी  । 




व्यस्तताओं को परे कर आज जब ले कर बैठी मोनिका जी की " देहरी के अक्षांश पर" किताब को तो जब तक पूरा ना उतार लिया इसे मन पटल पर , तब तक नहीं  छोड़  पाई इसे....

एक एक कविता जैसे जैसे पढ़ती गई ,लगा कि ये तो हर देहरी का चित्रण हैं,,जैसे मेरी ही देहरी का चित्रण हैं ।
एक अनवरत यात्रा करती स्त्री,उपलब्धियों को परे कर गृहणी रुप स्वीकारती ,हर दिन कुछ आता भी हैं तुम्हें सुनती स्त्री,अनचाहें अघात को अनुबंधित परिचारिका बन निभाती,दिनभर फिरकनी सी खटती , फिर भी सुनती की दिन भर घर में करती क्या हों ?

अपनी अनुपस्थिति में याद होती , अलसाई भोर और सिंदूरी क्षितित की अभिलाषा को निहारने का मन ले कर, स्वादहीन व्यंजनों को भी गुड की डली संग ले कर, एक ही प्रश्न पूछती कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें?

अपने ही प्रतिबिम्ब से अनजान,   गृहिणी  बन ठहर गई एक जगह,, नहीं देखती खिड़की  के पार क्यूंकि सीमा पूर्व निर्धारित  हैं, अपने एकांत और बेस्वाद जीवन का स्वाद रसोईघर के स्वाद नें  ढूँढती स्त्री, मावठ में भीगे बावले मन को समझाती, अधूरे सपनों को सहेजती, देह के,मन के घाव छुपाती.....  

सात फेरों संग मिले रिश्तो को सहेजती, सूत्रधार बनी सबके जीवन की गतिशीलता को निभाती,,अपने घर रुपी संसार में अनकही बंदिशो के बीच, अपने अस्तित्व को ढूढती, हर रूप को निभाने की अनथक प्रयासो के बीच माँ जैसा पवित्र रूप निभाने में अपना जीवन लगाती स्त्री, माँ के रूप को जितना समझा हैं, आत्मसात किया हैं , वो एक बेटी ही कर सकती हैं, एक माँ बनने के बाद.....

क्यूंकि अब वो माँ को समझती  हैं,
अपने स्त्रीत्व पर  गर्व  करती स्त्री,
अन्त मैं इतना ही सार  कि 
घर- परिवार की
धुरी वह
फिर भी
अधूरी वह
स्त्री मन के चित्रण को इतना सुन्दर रुप देने के लिये मोनिका जी का धन्यवाद और बहुत बहुत बधाई....

7 comments:

JEEWANTIPS said...

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

rashmi ravija said...

संतोष जी ने बहुत ही सारगर्भित टिप्पणी की है .

Quotes Greetings said...

निसंदेह सार्थक लेखन

Himkar Shyam said...

बहुत बढ़िया समीक्षा

गिरधारी खंकरियाल said...

मर्मस्पर्शी समीक्षा।

दिगम्बर नासवा said...

वाह ... लगता है इतने दिन ब्लॉग जगत से दूर रहने का खामियाजा है ... इतनी अच्छी पुस्तक कीजानकारी से वंचित रहा ....

Amrita Tanmay said...

आकर्षक ....

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