बच्चों में समझ और संस्कार के बीज बोना सदैव ही एक कठिन कार्य रहा है । आज के दौर में तो यह काम और भी दुष्कर हो चला है । होना ही है । बच्चों के जीवन के सभी पहलुओं को सँभालते संवारते हुए उन्हें स्वस्थ सहभागिता का पाठ पढ़ना सरल हो भी कैसे सकता है ? आजकल कितने ही अभिभावकों, विशेषकर माओं को इस द्वंद्व से जूझते हुए देखती हूँ । जो अपनी तरफ से हर वो प्रयास करना चाहतीं हैं जिससे बच्चे संस्कारित बनें, सभ्य बनें । कहा भी जाता है कि बच्चे की पहली पाठशाला, उसके पहले शिक्षक माता-पिता ही होते हैं । जिनका अनुसरण करते हुए बच्चे बहुत कुछ बिन कहे ही सीख-समझ जाते हैं । ऐसे में वर्तमान समय में अभिभावकों के लिए इस उत्तरदायित्व की विकटता और बढ़ गई है । कई बार तो उनके लिए समझना मुश्किल हो जाता है कि बच्चों से जुड़े मुद्दों को कैसे सभालें और क्या क्या संभालें ?
अपने बच्चों में अच्छी आदतों और अच्छे व्यवहार की अपेक्षा हर अभिभावक को होती है । तभी तो अच्छी परवरिश का यह चुनौतीपूर्ण कार्य करने के लिए बड़ों की हर संभव कोशिश जारी रहती है। कई बार गौर करती हूँ तो लगता है कि माता पिता प्रयास भी खूब करते हैं । पर कई बार ये सभी कोशिशें बच्चों को साथियों और सहपाठियों की संगत में मिलने वाली सीख के सामने हल्की पड़ती दिखती हैं जो उन्हें एक अलग ही मार्ग पर ले जाती है । बच्चों का मन मस्तिष्क भी घर के बाहर जो कुछ सुनते हैं, जानते हैं उसको अधिक सहजता से स्वीकार कर पाता है । बच्चों को हर तरह के अवगुणों से बचाने और सुसंस्कृत करने की कोशिशें आज के समय में काम ही नहीं कर पातीं । क्योंकि वो सामाजिक वातावरण ही नहीं है जो उन संस्कारों को पोषित कर सके जो अभिभावक बड़े परिश्रम से बोते हैं ।
आज के बच्चों को ना तो चाहरदीवारी में कैद करके रखा जा सकता है और न ही उन्हें कोई टोकाटाकी अच्छी लगती है । अभिभावक चिंतित रहते हैं और डरे डरे भी । करें तो क्या करें ? बच्चों के साथ कुछ कहा सुनी भी होती है तो अपराधबोध बड़ों के हिस्से ही आता है । इसी को कम करने के लिए उनकी कई तरह की मांगें भी मान लीं जाती हैं । बड़ों को भी लगता है कि वे बच्चों का मन रखने लिए कुछ करें तो बुरा क्या है ? अभिभावकों का ऐसा व्यव्हार कई बार तो बच्चों में आक्रामकता और नकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देने वाला भी साबित होता है ।
आज के बच्चों को ना तो चाहरदीवारी में कैद करके रखा जा सकता है और न ही उन्हें कोई टोकाटाकी अच्छी लगती है । अभिभावक चिंतित रहते हैं और डरे डरे भी । करें तो क्या करें ? बच्चों के साथ कुछ कहा सुनी भी होती है तो अपराधबोध बड़ों के हिस्से ही आता है । इसी को कम करने के लिए उनकी कई तरह की मांगें भी मान लीं जाती हैं । बड़ों को भी लगता है कि वे बच्चों का मन रखने लिए कुछ करें तो बुरा क्या है ? अभिभावकों का ऐसा व्यव्हार कई बार तो बच्चों में आक्रामकता और नकारात्मक व्यवहार को बढ़ावा देने वाला भी साबित होता है ।
आज के अभिभावक एक अजीब सी दुविधा के घेरे में हैं । बच्चों को खुली छूट दें तो समस्या और न दें तो और भी बड़ी समस्या । क्योंकि जब तक जिम्मेदारी का भाव समझ ना आये सीमा से अधिक स्वतंत्रता भी उन्हें दिशाहीन ही करती है । आज बच्चों के पास संवाद के साधन भी पहले से कहीं ज्यादा है । तो निश्चित रूप से घर के बाहर उनका किसी मिलना जुलना किन लोगों के साथ है इससे भी अभिभावक कई बार तो अनजान ही रहते हैं । कितनी घटनाएँ कुछ इसी तरह की होती हैं जब माता -पिता को गलती करने के बाद पता चलता है की उनका बच्चा किस राह पर है ? इसे चाहे औरों से पीछे छूट जाने का भय कहें या अपनी भागदौड़ का अपराधबोध हल्का करने की जुगत । बच्चों को वो सब कुछ उपलब्ध भी करवाया जाता है जो अब बच्चों की आश्यकता नहीं उनकी इच्छा भर होता है । कभी उनका मन रखने के लिए तो कभी स्वयं को दिलासा देने हेतु। अभिभावक भी वे सारे उपक्रम करते नज़र आते हैं जो चाहे अनचाहे जाने अनजाने बच्चों के जीवन की दिशा ही मोड़ देते है । बच्चों को उपलब्ध करवाई गयी सुविधाओं का दुरूपयोग कब और कैसे शुरू हो जाता है स्वयं अभिभावक भी नहीं समझ पाते । कई मामलों में जब तक समझ पाते हैं बहुत देर हो चुकी होती है । बच्चों का उचित पालन पोषण करने के लिए जाने कितनी बातों से जूझना आज के अभिभावकों के लिए आवश्यक हो गया है । ऐसे में घर के साथ ही बाहर का परिवेश भी सहयोगी बने तो संभवतः यह जिम्मेदारी सभी के लिए कुछ सरल हो ।
54 comments:
अपने बचपन की कमी को अपने बच्चो में न देखने की -अनुभव हमें कुछ अनजान पथ पर धकेल देती है । अनुभाविपरक लेख । बधाई मोनिकाजी ।
सबसे कारगर तरीका है बच्चों से संवाद बनाये रखें.....एक दूरी रखते हुए उनके दोस्त बनें....
and never preach what we don't practice....
अनु
ऐसी ही परिस्थिति से झुझने के दौरान
साँप-छुछुंदर की गति वाली कहावत बनी होगी
सार्थक अभिव्यक्ति
सार्थक लेख
हमेशा की तरह बहुत ही संवेदनशील प्रस्तुति। पैरेंटिंग पर आपके विचार आज बेंगलूर से प्रकाशित हिंदी दैनिक "दक्षिण भारत' के संपादकीय पृष्ठ (पेज-8) पर प्रकाशित करने की अनुमति चाहता हूं। कृपया कल (मंगलवार, 24 सितंबर) के अंक में इसे यहां http://www.dakshinbharat.com/e-paper/ देखें।
हमेशा की तरह बहुत ही संवेदनशील प्रस्तुति। पैरेंटिंग पर आपके विचार आज बेंगलूर से प्रकाशित हिंदी दैनिक "दक्षिण भारत' के संपादकीय पृष्ठ (पेज-8) पर प्रकाशित करने की अनुमति चाहता हूं। कृपया कल (मंगलवार, 24 सितंबर) के अंक में इसे यहां http://www.dakshinbharat.com/e-paper/ देखें।
बहुत बड़ी चुनौती है ये। आप की ये बात सच है कि बच्चों को माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों को अपेक्षित सामाजिक पोषण नहीं मिल पा रहा है। बात वहीं घूम के आ गई ना। या तो आधुनिक सुविधाओं का लाभ लें या पीढ़ी को हाथ से जाने दें। सरकार-समाज-परिवार-मातापिता-बच्चे इस श्रृंखला में आज अनैतिकता बुरी तरह से हावी है। कुल मिला कर संस्कारित बच्चे अपवाद स्वरुप ही मिलेंगे आज। वे भी अपने कम प्रतिशत के साथ कब तक युद्ध करेंगे।
एक बार फिर सार्थक विषय पर सटीक आलेख सही कहा आपने आजकल बच्चे घर से ज्यादा बाहर से सीख जाते हैं। ……… चाल बहुत तेज़ हैं आजकल के बच्चों की उन्हें नियंत्रण में रख पाना मुश्किल होता जा रहा है । समाज जिस तेज़ी से पतन के गर्त में गिरता जा रहा है उससे ये चिंता स्वाभाविक है की आने वाले पीढ़ी को कैसे बचाया जाये |
bahut sundar aur sarthk aalekh ...
सही और अच्छी परवरिश दुनिया का सबसे कठिन काम है आज की तारीख में ...विचारिणीय आलेख।
सार्थक चिंतन
बाहरी परिवेश, आन्तरिक परिवेश में अधिक हस्तक्षेप करता है।
पठनीय एवं सार्थक आलेख ।
मेरी नई रचना :- चलो अवध का धाम
सार्थक लेख.
नई पोस्ट : अद्भुत कला है : बातिक
सार्थक अभिव्यक्ति
इस सार्थक चिंतन के लिए आभार! बालपालन ज़िम्मेदारी का ऐसा काम है जिसमें कोइ भी चूक उन बच्चों के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी दुखदाई हो सकती है. संतुलन बनाए रखना कठिन है लेकिन सतत प्रयास और शिक्षा द्वारा असंभव भी संभव होता है.
आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आप का वहाँ हार्दिक स्वागत है ।
सचमुच वातावरण के प्रदूषण से बच्चों को बचाना मुश्किल होता जा रहा है
ले जाती है । बच्चों का मन मस्तिष्क भी घर के बाहर जो कुछ सुनते हैं, जानते हैं उसको अधिक सहजता से स्वीकार कर पाता है । बच्चों को हर तरह के अवगुणों से बचाने और सुसंस्कृत करने की कोशिशें आज के समय में काम ही नहीं कर पातीं । क्योंकि वो सामाजिक वातावरण ही नहीं है जो उन संस्कारों को पोषित कर सके जो अभिभावक बड़े परिश्रम से बोते हैं ।
सही बात है संग का रंग चढ़ता है खूब बढ़ चढ़के चढ़ता है और यहाँ अमरीका में तो आप बच्चों से डरे हुए ही रहतें हैं हाथ नहीं दिखा सकते उनको मारना तो दूर पुलिस आजायेगी ,पड़ोसी बुलवा लेगा।
माइन क्राफ्ट जैसे कंप्यूटर गेम्स ओबसेशन बनते जा रहें हैं कई बार लगता है बच्चे ऐसे रोबोट हो चले हैं जो कोई कमांड फोलो ही नहीं करते हैं ,इनका अपना सॉफ्ट वेअर सर्वोपरि बन रहा है।
विचारणीय पोस्ट फिर भी आज भी बुजुर्ग बहुत कुछ बदल सकते हैं खासकर बच्चे जब घर में दस साल से नीचे नीचे के हों।
बहुत सुन्दर विश्लेषण !
Latest post हे निराकार!
latest post कानून और दंड
बहुत सुन्दर विश्लेषण !
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मुझे तो एक ही बात समझ आती है कि सारा दिन में से कम से कम एक घण्टा बच्चों के साथ बैठकर गप्प मारनी चाहिए। इसमें कभी भी उपदेश नहीं होना चाहिए। कुछ अपनी सुनाओ और कुछ उनकी सुनो। गप्पबाजी से ही समझ आता है कि वे किस रास्ते चल रहे हैं और उनके दोस्त कैसे हैं।
बच्चों की परवरिश आजकल काफ़ी जटिल कार्य हो गया है. संवाद हीनता की स्थिति तो बिल्कुल भी नही होनी चाहिये, बहुत सारगर्भित आलेख.
रामराम.
आज के भौतिकवादी समाज में बच्चों को सुसंस्कृत करने का दायित्व काफ़ी जटिल हो गया है, आपका लेख इस दिशा में स्वागत योग्य है
कामकाजी मॉं बाप आज अधिक से अधिक समय बच्चों के साथ्ा बिताने को ही इतिश्री मान लेते हैं . और संस्कारों का उत्तरदायित्व स्कूलों के भरोसे आउटसोर्स कर देते हैं
sahi likha aapne aaj ke bachhon ko samjhna bhi ek shodh se kam nahi hai .............
.विचारिणीय आलेख।
जायज़ है चिंतन आपका |अगर आप बच्चों को बहुत समय देतीं हैं और घर का माहौल खुशहाल है तो बच्चे संस्कारी निकलते हैं !!उन्हें बाहर का वातावरण भी असर नहीं करता ...!!
बहुत ज्वलंत समस्या उठाई है आपने । यदि माता पिता जो संस्कार बच्चों मेंभरना चाहते हैं वैसा आचरण अपना भी रखें और बच्चोंको व्यस्त रकें किसी ना किसी खेल या व्यासंग से उनका समय भरें तो उन पर िन बाहरी ीजों का असर कम होगा सात ही रोज बच्चों से बातें करें उनकाी समस्याएं सुनें सुलजाने काप्यास करें उनके मित्र बनें तो आज भी िसका हल निकल जाता हे।
बहुत ही सुन्दर विचारिणीय आलेख ।
नई रचना : सुधि नहि आवत.( विरह गीत )
आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {बृहस्पतिवार} 26/09/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" पर.
आप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
बहुत सार्थक प्रासंगिक अर्थ पूर्ण रचनाएं लिए आतीं हैं आप। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का।
सचमुच बढ़ते बच्चों को समझाने की अनगिनत दिक्कते हैं। घर से बाहर भी एक सुरक्षित समाज हमारा अधिकार है और इसकी निर्मिती हमारा कर्तव्य !
अभिभावक - ये बस तलवार की धार ही है ..
आज के परिवेश में तो बच्चों को कुछ सही -गलत बताने में भी डर लगता है की कहीं वे हमारी बातों को उनके स्वतंत्र जीवन में रूकावट न समझे. और ऐसे ही बच्चों को उनके हाल में छोड़ देना भी माँ-पिता के लिए असहनीय है..अभिभावक के लिए अपने बच्चों को सही राह दिखाना एक चुनौती की तरह है..
सार्थक और विचारणीय आलेख..:-)
puri tarah se sahmat ....
puri tarah se sahmat ...
रोके कौन रुका है भाई,
अच्छी बाते ही समझाई।
आजकल के दूषित वातावरण में बच्चों की अच्छी तरह से परवरिश करना माता पिता के लिए सच में बड़ा ही कठिन काम है, बच्चों को कूछ भी अच्छा सिखाने ने से पहले घर में बड़ों का आचरण ठीक होना चाहिए क्योंकि बच्चे बहुत जल्दी अपने बड़ों का आचरण देख कर ही सिखते है , जितना हो सके बच्चों के साथ प्रामाणिक दोस्ताना व्यवहार रखे इसके आलावा सकारात्मक उर्जा ग्रहण करने के लिए योगा,डांस,पेन्टिंग,म्यूजिक रूचि के अनुसार क्लासेस वगैरे से बच्चों के शारीरिक मानसिक विकास में मदद मिलती है और बाहरी गलत संगत के संपर्क में जाने से बचाया भी जा सकता है ! एक निश्चित समय के साथ बच्चों को थोड़ी स्वतंत्रता के साथ विवेक भी देंगे तो बच्चे एक निश्चित समय में खुद समझदार होंगे ! एक माँ होने के नाते यही मेरा अनुभव रहा है !
बच्चों का फोकस में रहना माँ बाप के लिए आज बहुत ज़रूरी है वह ज्यादातर अवसरों पर माँ बाप के फील्ड आफ व्यू से बाहर ही रहते हैं आजकल बहुविध कारणों से।अद्यतन टेक्नालाजी का अल्पायु में उनके हत्थे चढ़ जाना उनमें से एकएहम कारण बनता जा रहा है। समायाभाव भी।
बच्चों की परवरिश आसान नहीं ..
हर माता पिता का सबसे बड़ा कर्तव्य यही है !
सार्थक लेख
आजकल के जीवन में अगर किसी चीज़ की वाकई कमी है तो वह है समय...किसी के पास किसी के लिए समय नहीं ....और इसका सबसे बड़ा खामियाजा भुगतते हैं ...माता पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते ....नौकरी करने वाले माता पिता ...समय के आभाव में अपनी कमी को पूरा करने के लिए बच्चों के लिए हर वह चीज़ मोह्या करने की कोशिश करते हैं जो पैसे से खरीदी जा सके .....रिजल्ट..किसी भी चीज़ की कोई कीमत नहीं रह जाती ...और यह खाई और गहरी होती जाती है
शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
निरंतर कोंसेलिंग समझाइश देते रहना ज़रूरी है बच्चों को -अति सर्वत्र वर्ज्यते भले वह कटिंग एज टेक्नालाजी ही हो।
जीवन का स्वरूप कुछ ऐसा हो गया है कि अभिभावकों के पास बच्चों के लिए धन अधिक और समय कम है .....ग्लानि-भाव अधिक और अधिकार की भावना कम है ...ऐसे में अभिभावक स्वयं भी कहाँ निश्चित कर पाते हैं कि सही राह क्या होगी उनके बच्चों के लिए .
समाज को मिलकर ही हल निकालना होगा .....धन और निजी महत्वाकांक्षाओं की दौड़ को जीवन की प्राथमिकता पर हावी नहीं होने देना होगा ...तब ही इसका हल निकाला जा सकता है
आज के माहोल में बच्चों को सही गलत की जानकारी देना जरूरी है पर ये काम बहुत ही चुनौतीपूर्ण है ... क्योंकि बहुत सी जानकारी उन्हें पहले से ही उपलब्ध है ओर तर्क करने में बहुत माहिर हैं ... बहुत सोच समझ के उनके साथ इंटरेक्शन करना पड़ता है ...
मोनिका जी ,
बच्चे बहुत सी बातें मां बाप के आचरण से अप्रत्यक्ष रूप से सीखते हैं -प्रत्यक्षतः भले ही उन्हें कुछ सिखाया पढाया जाता रहे .
आदरणीया डॉ मोनिका जी ..आज के बच्चे हमारी भावी पीढ़ी बहुत ही तेज है दिमागी रूप से.... जरुरत है सामंजस्य बनाये रखने की... एक समझ अपनी संस्कृति करुना साहस प्रेम हम सब उसमे भर डालें तो आनंद और आये
सार्थक और विचारणीय लेख
भ्रमर ५
बचे तर्क बहुत करते हैं समझाइश भी तर्क पूर्ण रहे लाजिकल तभी बात बनेगी। चीखने चिल्लाने से कुछ हना हवाना नहीं है।
बिलकुल सही है. बच्चों को संस्कारित करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी ही नहीं, चुनौती भी है. जैसे माली पौधे को सींचता है, खाद-पानी और धूप देता है, बाड़ लगता है तब जाकर वृक्ष फलदार, फूलदार और छायादार बनता है.
यह सचमुच एक बड़ी और समसामयिक चिंता है. इस पर सोचा जाना चाहिए. जब तक आस-पड़ोस का भय और बड़ों का लिहाज था, तब तक हमारा परिवेश कुछ बेहतर था. पर अब तो यही ख़त्म सा होता जा रहा है. इस दिशा में सोचा जाना चाहिए.
शक्ति उपासना के इस पर्व पर महिलाएं भी अंर्तमन की शक्ति को साधें और जागरूक बनें। एक चेतनासंपन्न स्त्री ही सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सरोकारों के प्रति जागरूक हो सकती है। समाज में फैली कुप्रथाओं के खिलाफ के खड़ी होने का संबल जुटा सकती है। जो कि महलाओं के सशक्तीकरण के दिशा में पहला कदम है।
आदरणीया मोनिका जी बहुत सुन्दर बात ..काश सब नारियां इस शक्ति को जगा लें तो आनंद और आये
भ्रमर ५
प्रतापगढ़ साहित्य प्रेमी मंच
बच्चे सब कुछ घर के और आस पास के माहौल से सीखते हैं .... सबसे पहले सीखते हैं माता - पिता से ..... हर अभिभावक ये सोचते हैं कि हम जो सीखा रहे हैं या जैसा आचरण बच्चों के साथ कर रहे हैं वो सही है ...लेकिन आज के माहौल में अभिभावक ही इतना ज्यादा तनाव ग्रस्त रहते हैं कि सही दिशा निर्देश नहीं कर पाते ...
बहुत सुंदर...सटीक और उम्दा अभिव्यक्ति...बधाई...
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