सड़क, स्कूल या घर का आँगन हमारे यहाँ सबसे सस्ती चीज़ अगर कोई है तो वो है जीवन । कोई घटना या दुर्घटना हो जाय उसे भूलने और फिर दोहराने में कोई हमारी बराबरी नहीं कर सकता । इतना ही नहीं किसी बड़ी से बड़ी त्रासदी पर राजनीति कर जिम्मेदार लोग न केवल बच निकलते हैं बल्कि ऐसे दुखद हादसों से भी अपना स्वार्थ सिद्ध करने का ही मार्ग तलाशते हैं ।
बच्चे पढाई जारी रखें, स्कूल आना न छोड़े इसके लिए दोपहर का भोजन यानि की मिड डे मील देने की योजना शुरू की गयी थी । हाल ही में में विषाक्त भोजन के चलते कई घरों के चिराग बुझ गए । मासूम बच्चे अपने जीवन से ही हाथ धो बैठे । क्या यह केवल एक दुर्घटना है ? या फिर कुप्रबंधन और अव्यवस्था का परिणाम । अव्यवस्था जो मात्र इसी एक स्कूल में नहीं है । दुर्घटनाएं तो मानवीय चूक के चलते होती हैं । पर उनका दोहराव तो लापरवाही के चलते ही हो सकता है । मिड डे मील के विषय में भी यही बात लागू होती है । तभी तो आये दिन यह भोजन खाकर बच्चों के बीमार पड़ने या उनके जान पर बन आने की ख़बरें आती ही रहती हैं ।
यूँ भी बात केवल स्कूलों में दिए जाने वाले भोजन की ही नहीं है । अगर गुणवत्ता की बात करें तो इन शिक्षण संस्थाओं में पीने के पानी की गुणवत्ता को जांचने वाला भी कोई नहीं । हाल ही में हुयी इस घटना के अलावा भी यह योजना तो शुरू से ही सवालों के घेरे में रही है । ऐसे हादसे तकरीबन हर प्रदेश में हुए हैं । लेकिन न स्कूल प्रशासन सचेत हुआ और न ही सरकारी स्तर पर निगरानी रखने के लिए कोई ठोस कदम उठाये गए । परिणाम हम सबके सामने हैं और चिंता इस बात की है कि यह जिम्मेदारी लेने वाला कोई नहीं कि भविष्य में ऐसी घटनाएँ नहीं होंगीं ।
भोजन पौष्टिक और साफ सुथरा ही न हो तो सिर्फ पेट भरने के लिए ऐसी योजनाओं को प्रारम्भ करना कहाँ तक सही है ? यदि लापरवाही और गैर जिम्मेदारी के चलते इन योजनाओं का भावी परिणाम ऐसा होना होता है तो यही अच्छा है कि इन्हें शुरू ही न किया जाय । क्योंकि इस तरह आये दिन होने वाले हादसे स्कूलों के नामांकन बढ़ायेंगें नहीं बल्कि कम ही करेंगें । कोई भी अभिभावक अपने बच्चों के जीवन से खेलकर शिक्षित होने के लिए स्कूल नहीं भेजेगा । तो फिर जिस उद्देश्य से ये योजना शुरू की गयी है उसका अर्थ ही क्या रह जायेगा ?
जिन बच्चों का जीवन इस अव्यवस्था के चलते छिन गया है उनके परिवार का दुःख समझने और आगे से ऐसे हादसे न हों इसके लिए उचित दिशा निर्देश देने बजाय यूँ राजनीति का खेल खेलना मन को व्यथित करता है । जो बच्चे इस देश के भावी नागरिक हैं उनके स्वास्थ्य, उनके जीवन से बढ़कर कुछ नहीं । जाने कब यहाँ जीवन का मोल समझा जायेगा । लगता है मानो सब कुछ राजनीतिक दावपेच और स्वार्थ सिद्धि तक ही सिमट कर रह गया है ।
68 comments:
यही तो सबसे बड़ा दुःख है कि उनके जीवन का कोई मोल ही नहीं है..सच कहा..
सम्वेदनाएं कुंद हो चुकी है। मानवीय जीवन मूल्यों का पतन है।
समसामायिक चिंतन!! आभार
हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा नजर आता है !!
बेहद दुखद है......
व्यवस्था बदलनी चाहिए...मानसिकता में कुछ तो सुधार हो..
अनु
. छपरा में जो कुछ हुआ है सब राजनेता और कर्मचारियों की धन लोलुपता ,लापरवाही,अकर्मणता के कारण हुआ है.. जनता को उन सबका मुखौटा उतर देना चाहिए. वे करोडो हजम कर रहे है और दो लाख मुआबजा देकर मुह बंद करना चाहते हैं.
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राजनैतिक दल सिर्फ़ अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये विभिन्न योजनाएं घोषित करता है, उनके सही संचालन की जिम्मेदारी नही लेता. यही वजह है कि मिड मील हों, पानी की व्यवस्था हो या सडक इत्यादि.
इस परिपेक्ष में यही कहा जा सकता है कि राजनैतिक नेतृत्व संवेदना हीन हो चुका है, जनता चीख पुकार मचाकर अगले हादसे के लिये तैयार हो जाती है.
रामराम.
लेखन में सोन्दर्य है ...
ये मानवी भूल नही ...ये लापरवाही है ..इसकी सज़ा भी सख्त होनी चाहिए ! काश! कि ऐसा हो !
हमारे यहाँ कब जीवन का मोल समझा जायेगा? तार्तिक चिंतन
यहाँ यही होता है..योजनायें बनती हैं, कुछ भलाई के लिए पर कार्यान्वयन कभी सही रूप से नहीं होता. योजना बनते ही बन्दर बाँट शुरू हो जाती है .आम जनता को क्या मिलेगा..यही भुखमरी और मौत.
इसे दुर्घटना बिलकुल भी नहीं कहा जा सकता. सही कहा है आपने सब कुछ स्वार्थ सिद्धि और राजनीतिक दांव पेंच तक सिमट के रह गया है, जीवन का कोई मोल नहीं रहा...
बालपन से जीवन को स्वस्थ रखने और सार्थक बनाने की चिन्ता यहां कौन करता है !
पहला दायित्व जन्म देनेवाले माता-पिता का - कितना पूरा करते हैं वे? दूसरा दायित्व शासन का- वह बातें बनाने के सिवा और क्या करता है?
यहाँ तो स्वयं को ही समझने की कोशिश नहीं की जाती फिर जीवन को समझना
तो बहुत दूर की कौड़ी है--
जब जीवन मूल्य घट रहें हैं, ऐसे समय में आपका यह आलेख
संजीवनी बटी है---
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारें
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
sab politics hai aaj hi pata laga hai ki khadya tel me keetnashak mila tha par dukh ye hai ki shikar hamesha janta hoti hai .
oh.bahot dukh huaa
अंधेर नगरी चौपट राजा वाला हिसाब है।
शर्म से आँख चुराना हम बिहारियों का नसीब बन गया है ........
शर्म से आँख चुराना हम बिहारियों का नसीब बन गया है
सच , सामयिक और सटीक पोस्ट.....
हम भारतीय (ज़्यादातर) स्वयं को समाज के प्रति उत्तरदायी नहीं मानते। 'मेरा देश महान' चिल्लाना तो आता है परन्तु ये देश हमारी करनी से ही महान होता है - इसका किसी को भी ध्यान नहीं।
जीवन का मोल तो है - उस प्रिंसिपल का अपना बच्चा अगर उस स्कूल में पढ़ रहा होता तो क्या वो ऐसा करती? नहीं। दुर्भाग्यवश हम बस दूसरों की ज़िन्दगी की परवाह नहीं करते। रंग दे बसंती बनी थी मिग विमानों की दुर्घटनाओं पर- और पिछले ही हफ्ते फिर से एक मौत हुई। क्यों? क्योंकि जिसने डील की, उसकी ज़िन्दगी दाव पर नहीं है। ऐसे हज़ारों उदाहरण है। पुलें सस्ती बनाते हैं, और बसें गिर जाती हैं, मुम्बई के आसपास कई रिहायशी बिल्डिंग्स बारिश से ढह जाती हैं और कितनी सारी मौतें होती हैं, गोरखपुर में इन्सेफिलाइटीस से २०११ में ५०० बच्चे मरें - और अगली साल फिर उतनी ही संख्या में मरें ... क्यों? क्योंकि स्वास्थय मंत्री का अपना बच्चा नहीं रहता उस संक्रमित इलाके में।
जीवन का मोल है- गरीब का कोई मोल नहीं - बस मृत्यु के बाद मुआवज़ा- वो भी इसलिए ताकि उन रहनुमाओं की अपनी साख और गद्दी बची रहे।
ये देश का दुर्भाग्य है कि इस तरह की योजनायें तो बना दी जाती है, पर गलाकाट राजनीति स्पर्धा के कारण सब कुछ स्वाहा हो जाता है ..ये कितना शर्मनाक है कि इतनी बड़ी साजिश या लापरवाही के बाद भी हम चेतने को तैयार नहीं हैं..नेताओं का क्या जाता है ??
bilkul sach kaha :(
बिल्कुल सही लिखा है डॉ. मोनिका जी, हमारे देश में बच्चे बच्चे नहीं और इंसान इंसान नहीं घास-फूस हो गया है। ऐसे हजारों प्रसंग जिसमें इंसान मरता है और मारा जाता है जिसमें हमारी संवेदनाएं और उपाय करवाने की दृष्टि लापरवाही की हदों को पार कर जाती है। बम विस्फोट हुआ, आतंकवादी हमला हुआ, प्राकृतिक हादसे हो गए या कोई भी दुर्घटना हुई कि भारतीय लोग अपनी पीठ ठोंकना शुरू करते हैं कि इतनी बरबादी और नुकसान के बावजूद हमारा देश रूका नहीं चल रहा है। ...बंबई गतिशील है। पर यह गतिशीलता गतिशीलता नहीं मानवीय भावना मरने का और मनुष्य जीवन घास-फूस होने का संकेत है।
बिल्कुल सही लिखा है डॉ. मोनिका जी, अपने देश में मानवीय जीवन जीवन नहीं रहा घास-फूस हो गया है। हजारों हादसों में हमारी संवेदनाएं पत्थर होने के संकेत मिलते हैं। लापरवाही की हदों को तो हमने कब का पार किया है। अपने देश में हम अपने जीवन के प्रति लापरवाह है दूसरों का तो छोड ही दीजिए। बंबई की गतिशीलता का उदाहरण हमेशा दिया जाता है कि इतने आतंकवादी हमलों एवं बम विस्फोटों के बावजूद भी उसकी गतिशीलता पर कोई असर नहीं हुआ। भई गतिशीलता की बात छोडिए पर मानवीय भावनाएं और संवेदनाएं मर रही है उसका करें क्या? राजनीति और सत्तालोलुपता हमारे देश को कौनसे घाट का पानी पिलाने पर तुली है भगवान जाने!
देश के कर्णधारो द्वारा देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ है ये.
in midst of politics and commercialisation.. the pain and suffering of poor hapless people go unnoticed.
बात पढ़ाने की थी, हर बच्चे को, हम खाना खिलाने को ध्येय मान बैठे, और मान बैठे कि खाकर सब पढ़ जायेंगे। पैसा सीधे घर क्यों न भेज दिया जाये, खाना तो घर में भी बनता ही होगा।
बड़ी बड़ी योजनाएँ बनती हैं पर क्रियान्वयन या तो होता ही नहीं या फिर घोर लापरवाही .....बहुत दुखद स्थिति है .....!!
अत्यंत खेदपूर्ण ....!!
योजनाएँ भले ही अच्छे के लिए बनती हैं पर उनका क्रियान्वन सही रूप में नहीं होता ..... सब बंदरबाँट में लग जाते हैं ... सार्थक लेख
bahut sundar lekhan . yah sab sarkar kii galat nitiyon ka pratifal hai . isi sambandh me meri kavita padhe http://kavineeraj.blogspot.in/2013/07/blog-post_18.html .
बहुत ही दर्दनाक घटना.... व्यवस्था को बदलना होगा..
यह एक चिंतन का बिषय है ....
ये सब कमीशनखोरी का परीणाम है।
ये मानवीय चूक या कोई भूल नहीं है ... दरअसल संवेदनहीनता इस कदर आ गई है हमारे खून में की अगर अपना दर्द न हो तो कोई एहसास नहीं होता ... बल्कि मज़ा आने लगा है की चलो अपना स्वार्थ कहीं न कहीं शायद पूरा हो सके ऐसी घटनाओं से ... सरकार, तंत्र, सामाजिक इकाइयां सभी बस अपना पल्ला झाड़ने में लगी हुई हैं ... इस व्यवस्था को बदलना आसान नहीं होने वाला ...
हमारे देश में क़ानून के हर पहलु पर दोबारा रिव्यु की ज़रुरत है .............
हमारे देश में क़ानून के हर पहलु पर दोबारा रिव्यु की ज़रुरत है .............
हम सबकी यह मानसिकता होती है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे तो गरीबों के ही होते हैं उन्हें खाना ही दे दो चाहे जैसा हो पर्याप्त है। इस मानसिकता को बदलने की जरूरत है। क्या उन्हें वैसे ही बेहतर जीवन जीने का अधिकार नहीं है जैसे शहरों में पढ़ने वाले बच्चे जीते हैं।
बहुत दुखद ....
~सादर!!!
In andheronme bhee raushani dhoondhnawale hote hain....ikke dukke.....unka bhi sahas wardhan karna chahiye!
In sab baton kee hai kise parwah?
.........बहुत सुंदर !
पहली बार आपके ब्लॉग को पढ़ा मुझे आपका ब्लोग बहुत अच्छा लगा ! मेरे ब्लोग मे आपका स्वागत है
राज चौहान
http://rajkumarchuhan.blogspot.in
सच में इस देश में सबसे सस्ती गरीब की जान ही है और इसमें हम सब जिम्मेदारी से बाख भी नहीं सकते !
Rightly said. Awesome writing. Keep writing.
Sniel Shekhar
आज 22/07/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
कितनी भी लापरवाही हो खाना बनाने वाला इतना तो जानता ही है कि वह क्या और किसके लिए खाना बना रहा है.
- दूध उबलने पर चढ़ा हो और वह ध्यान चूकने से निकल जाए … यह समझ आता है.
- सब्जी / दाल में नमक कम या ज़्यादा पड़ जाए …. यह भी समझ आता है.
- रोटी कुशलता की कमी के कारण जल्दबाजी में जल जाए …. यह भी क्षम्य है.
- खुले में खाना पकाने पर भी उसके ऊपर चाँदनी (कवर) लगायी जाती है. विषैले जंतु गिर जाए तो भी बाँटने वाले को पता चल जाता है. और तो और यहाँ तो दिन की रोशनी में पाचक की सचेतता के बावजूद यह काण्ड हुआ है.
बच्चों को मारने की मंशा पहले से ही थी ….एक खबर के अनुसार … स्कूल की प्रिंसिपल के घर से कीटनाशकों के पैकेट मिले हैं.
गहराई से तहकीकात हो तो जरूर पता चलेगा …. इसमें किसी क्रूर राजनीतिक व्यक्ति का हाथ है.
मेरा अंदाजा है … "पशुओं के मुख से उनका निवाला छीनने वाला ही बच्चों के मुख में मर्डर-मील डालने का दोषी है."
इस घटना पर हरेक संवेदनशील ह्रदय में टीस, हूक उठ रही है.
बहुत दुखद था ये हादसा......बढे दिनों बाद आपको कोई लेख पढने को मिला.....सही कहा आपने ऐसी योजनाओं को लागू ही न किया जाये तो बेहतर है क्योंकि हमारे देश में योजनाओं के बनते के साथ ही उसमें भ्रष्टाचार कि संभावनाओं को तलाश कर लिया जाता है :-((
बहुत दुखद...सच में भारत में सबसे सस्ती आदमी की जान ही है..
bahut hi dukhad hai poore smaaj ke liye
सचमुच जीवन का कोई मोल नहीं लेकिन मूल कथा सदा कुछ और होती है क्योकि मैं भी अध्यापक हूँ
अगर मां बाप समझदार होते तो यह घटना टल सकती थी ...
मैं समझ नहीं पाती कि ये लोग ऐसी योजना ही क्यों बनाते हैं,जिसे सफलतापूर्वक चला नहीं सकते.,या फिर इनका उसमें भी स्वार्थ छुपा होता है...
भाव का कोई मोल नही, संवेदना रहित हो गए है
यहाँ भी पधारे
गुरु को समर्पित
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_22.html
बहुत सुन्दर प्रस्तुति,मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं आप को,
समयोचित लेखन।
behtreen lekhan....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति है
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें
http://saxenamadanmohan.blogspot.in/
मीड डे मिल योजना को लेकर आपकी चिंता बिल्कुल जायज है .... छपरा जैसी घटनाओं से सबक लेते सरकार को उचित कदम उठाते हुए दोषियों को सजा दी जानी चाहिए और भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए सरकार को उचित कदम उठाने चाहिए! ..... पर सरकार?
सच कह रही हैं मोनिका जी जीवन सबसे सस्ता है हमारे देश में और इस समस्या को सुलझाने के बजाय
राजनीती बाज़ अपनी अपनी स्वार्थसिध्दी में लगे हुए हैं । पालकों की ही एक समिती बनाी जाये क्यों कि
बात उनके बच्चों की है जो खाने के पदार्थों की (कच्चे सामान की और पके खाने की ० समय समय पर जांच करे
और इस समिती के सदस्य समय समय पर बदलते रहें यही समिती अपनी रिपोर्ट स्कूल संस्थान को दें और मीडिया को भी ।
सटीक सार्थक विचारणीय लेख है !
हर चीज में मिलावट है राजनितिक साजिश है,
किस किस से बच पाएंगे चारो ओर जैसे
मौत के सौदागर खड़े है !
जनहित के कार्यों को जानलेवा बनाने वाली राजनीति ! तुझे धिक्कार है !
जब तक इस देश में राजनीति छाती पर सवार रहेगी, जीवन ही नहीं, किसी का भी मोल नहीं समझा जाएगा।
सुन्दर और विचारणीय लेख इसी विषय वस्तु पर मेरी कविता http://www.kavineeraj.blogspot.in/2013/07/blog-post_18.html "नापाकशाला" पढ़ें .
ghor bhrastachar
DALDAL KA PARYAAY BN CHUKI HAI RAJNITI ..BAHUT HI SATIK LEKH ...
जब मन में ही मिलवात हो मन वचन कर्म में कोई समन्वय न हो तब ऐसा होना नियम बन जाता है अनहोनी नहीं। जो अनहोनी समझते हैं उन्हें मुआवजा मिलता है। प्रजा तंत्र की इस देश में यही कीमत है जान दो मुआवजा लो। धंधे बाजों का तंत्र है यह प्रजा तंत्र नहीं हैं।
सुंदर रचना.....
सच कहा मोनिका जी पिछले दिनों स्कूल के पानी को पीकर खुद मैंने 10 दिनों तक खामियाजा भुगता है और मिड डे मील तो क्या कहें !!!!
bilkul sahi hai, is desh me jeevan se sasta kuchh nahi
sahi hai....
ऐसी योजनाए नेता लोग अपने फायदे के लिए ज्यादा चलते हौं, नरेगा जैसे कार्यकर्म मे उनकी ही पो-बारह होती है
आप जनता को क्या मिलता है
शैतान का राज्य है फिलवक्त इसके अलावा और हो भी क्या सकता है यहाँ सब कुछ संभव है। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का।
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