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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

13 April 2019

बेटे रुलाते नहीं यह सीख भी जरूरी


 NBT में प्रकाशित

लड़का होकर रोता है  ? या लड़के रोते नहीं। जैसी सीख हमारे परिवेश में आम है | परिवार, रिश्तेदार, दोस्त यहाँ तक कि अभिभावक भी, बेटों को यही सिखाते हैं कि लड़के रोते नहीं |  इतना ही नहीं फिल्मों और टीवी सीरियलों में यह वाक्य आम है |  ऐसे में जब घरेलू हिंसा के आंकड़े सामने आते हैं तो लगता है कि लड़के रुलाते नहीं यह भी तो  सिखाया जाना चाहिए | बेटों को अपने जज़्बातों पर काबू पाने का पाठ  पढ़ाना सही है पर औरों के जज़्बात समझने की संवेदनशीलता भी तो उनके सबक का हिस्सा बननी चाहिए | जाने-अनजाने  बेटों को ना रोने की सीख देते हुए यह भी सिखा दिया गया कि घर हो या बाहर किसी महिला का रोना कोई बड़ी बात नहीं | उन हालातों को समझने की दरकार ही नहीं जिसके चलते किसी बेटी, बहू, पत्नी या माँ की आँखें गीली हैं |  दरअसल, यह असंवेदनशीलता और अनदेखी ही लैंगिक भेदभाव और यौन हिंसा की जड़ है |   घरेलू हिंसा की सबसे बड़ी वजह यह भावनात्मक असहिष्णुता ही है |  मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि  घर हो या बाहर महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के पीछे पुरुषों की परवरिश की अहम् भूमिका होती है | दरअसल, बुनियादी सोच में बदलाव आये बिना घर के भीतर सम्मानजनक और सुरक्षित व्यवहार स्त्रियों के हिस्से नहीं आ सकता है | यह मनुष्यता के मान का मामला है | स्त्री- पुरुष के भेद से परे हर इंसान के आत्मसम्मान का मोल समझने का विषय है | ऐसे में बेटों की परवरिश के मोर्चे पर सोचा जाना बेहद जरूरी है | माएं इस भूमिका में समाज को बदलने वाला रोल निभा सकती हैं |  ( लेख का अंश )

9 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-04-2019) को "भीम राव अम्बेदकर" (चर्चा अंक-3306) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी

HARSHVARDHAN said...

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति राष्ट्रीय अग्निशमन सेवा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

दिगम्बर नासवा said...

ये बातें कई बार बेटों पर उलट भी पड़ जाती हैं वो अपना दुःख पीते रहते हैं और टूट भी जाते हैं ... नारी अपना दुःख कह के बाँट लेती है पर पुरुष अपने दंभ में जहर पीता रहता है ...
मेरा मानना है बीटा बेटी कोई फर्क नहीं होना चाहिए किसी भी बात के लिए ... दुःख में दुखी होना, रो उठाना स्वाभाविक होना चहिये ...

सुशील कुमार जोशी said...

सटीक

Pammi singh'tripti' said...


जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 17 अप्रैल 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

Sudha Devrani said...

बहुत खूब...

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

आपकी बात बिल्कुल सही है. जो व्यक्ति रो नहीं सकता उसके मनुष्य होने में संदेह है, चाहे वो पुरुष हो या स्त्री. मुझे आज भी याद है कि मेरे दादा जी घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा करके मुझे रश्मिरथी का पाठ करने को कहते थे. और प्रत्येक सर्ग के किसी न किसी अंश में उनके रोना नहीं रुकता था और आँसू नहीं थमते थे. यही बात हम सब भाइयोंंके साथ है. कोई अच्छा गीत, कविता या फिल्म का कोई सम्वाद सुनते ही आँखें भर आती हैं.

संजय भास्‍कर said...

अच्छा लगा !किसी ने तो समझी मन की उलझन

डॉ. मोनिका शर्मा said...

हाँ , ऐसा भी होता है | वैसे मानवीय मूल्य तो सभी लिए जरूरी हैं |

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