बरसते सावन में पीछे छूटे मायके लो याद करते हुए ये विचार भी आया -
गाँव -घर तो पुरुषों के भी
छूटते हैं
कि वे भी निकल पड़ते हैं
ज़रूरतें जुटाने अनजान दिशा में -अनभिलाषित दशा में
अनचाही दूरियों को जीने और अकेलेपन का गरल पीने |
बदलती रुत और बरसती बूंदों में
वे भी तो याद करते होंगें
माँ-बाबा और अपना आँगन
अपनी हरियल देहरी से परे देश-विदेश में
अपनों का सुख बटोरने की
जद्दोज़हद में जुटे पिता, भाई या पति का
मन कितना उदास और शुष्क होता होगा ?
10 comments:
Sataya hai. yeh bhi toh hota hai. par ajkal ke rishton mein kahan kuch bacha hai yeh anubhaw karne ke liye. sundar anubhuti.
आभार आपका
परुषों के मन के भावों को बहुत सहजता से सहेजा है ... घर से दूर रहने पर तीज त्योहारों पर पुरुष भी घर की ड्योढ़ी याद करते ही होंगे .
Bahut hi Sundar lines hai
बस वही कसक लिए हुए ।
प्राय: पुरूष अपनी पीडा छुपा जाता है इसलिये दूसरा जान नही पाता वर्ना पुरूष और स्त्री मन में शायद ही कोई ज्यादा फ़र्क होता होगा. सुंदरता से अभिव्यक्त किया आपने, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
bahut sundar ...yah bhi ek peeda hai ..jise shabd dena jaroori hai ..
ज़रूर याद करते होंगे, पर सोचने का दोनो का अपना-अपना ढंग होता है .
पुरुषों की इस अनुभूति को आपने सुंदरता से उकेरा है । पुरुष को जब अपना ‘मायका’ याद आता है तो वे बहन और बेटी को याद करते हैं ।
पुरुष की भावनाओं का सटीक वर्णन ... सच है याद को हर किसी को आती है अपनी देहरी की ...
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