आये दिन बाज़ार में उतरने वाली नई तकनीक जीवन में क्या क्या बदलाव ला रही है यह तो हम सब समझ ही सकते हैं पर जो परिवर्तन सबसे ज्यादा नज़र आ रहा है वो है असामाजिकता | यानि तकनीक के सीमा से ज्यादा इस्तेमाल ने कई तरह से हमारी सामाजिक सोच और साझे जीवन को प्रभावित किया है | खासकर नई पीढ़ी इन चीज़ों अपने जीवन में कुछ इस तरह से शामिल कर रही है कि समाज और परिवार तो दूर उन्हें खुद अपने विषय में भी सोचने का समय नहीं है |
ऐसा ही एक शौक पिछले कुछ वर्षों से युवा पीढ़ी के सर चढ़कर बोल रहा है.........हर समय संगीत सुनने का शौक या कहूं की लत | खास बात यह है कि सुरों के साज है मोबाइल फोन और आइपॉड जैसे यंत्र । इन पोर्टेबल यंत्रों ने नौजवानों की दिनचर्या कुछ ऐसी बना दी है कि सुबह आंख खुलने से लेकर रात को बिस्तर में जाने तक सिर्फ संगीत में ही डूबे रहते हैं। जगह कोई भी हो घर, ऑफिस, सड़क, पार्क, ट्रेन , बस या फिर खाने की टेबल ..........!
पार्क में जॉगिग कर रहे हों या गाड़ी चला रहें हों , संगीत कानों में बजना जरुरी है। मानो कानों को संगीत सुनने की लत-सी पड़ हो गई हो। यह एक ऐसा नशा बन गया है कि बाहर की दुनिया की आवाजें कोई मायने नहीं रखतीं। कानों में क्या बज रहा है....? और क्यों बज रहा है.......? इसके बारे में सोचने तक की फुरसत नहीं। बस है तो एक जुनून की कानों में कुछ आवाज बजती रहे।
मोबाइल हो या आईपॉड, दो बटन कानों में लगाओ और सारी दुनिया से कट जाओ। जिसके चलते बाहर की दुनिया में क्या घट रहा है.......? इसे न वे सुन पाते हैं........! न ही समझ सकते हैं.......! नतीजतन कुछ सोचने-विचारने की तो आदत ही नहीं रहती। हरदम संगीत में खोये रहने वाले लोग न कुछ सुनना चाहते हैं और न ही कुछ कहना। ऐसे में धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक और सामाजिक संवेदनशीलता भी खत्म हो रही है।
असामाजिक सोच के अलावा अनगिनत मानसिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी यह आदत न्योता दे रही है | हरदम अपने परिवेश से कटे रहने वाले इन्हीं लोगों के साथ कार या बाइक चलाते समय सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं घट रही हैं | जब सड़क पर होते हैं तो कानों में बजने वाले संगीत कि आवाज़ भी तेज़ होती है और अपने आस पास कि कई आवाजें कानों तक पहुँच ही नहीं पातीं नतीजा कई तरह की दुर्घटनाओं के रूप में सामने आता है | इतना ही नहीं घर में किसी सदस्य की बात सुनने के लिए कानों को इस शोर से मुक्त नहीं किया जाता |
कानों से सटाकर संगीत सुनने वाले इन उपकरणों के जरिए अनगिनत परेशानियां सौगात में मिल रही हैं | हर समय कानों के अंदर बजने वाले म्युजिक के कारण सुनने और बोलने की क्षमता बहुत प्रभावित होती है। लगातार म्युजिक सुनते रहने से सुनने की ताकत हमेशा के लिए भी खो सकती हैं। बहरेपन के साथ ही निरंतर संगीत में खोए रहने वाले लोगों को उंचा बोलने की आदत भी हो जाती है। ऐसे लोगों को शब्द कई बार दोहराने पर ही समझ आते हैं।
इन उकरणों के एक सीमा से ज्यादा प्रयोग की वजह से कान में तेज दर्द और सूजन जैसी समस्या भी हो सकती है। इयरप्लग या इयरफोन लगाये रहने वालों के कानों में बड़ी संख्या में बैक्टीरिया जमा होने के चलते इन्फेक्सन की समस्या भी हो जाती है | 80 डेसीबल या इससे ज्यादा की आवाजें हमारी श्रवण शक्ति को नुकसान पहुंचाती हैं। इतना ही नहीं यदि कम डेसीबल की आवाजें भी लम्बे समय तक लगातार सुनी जाएं, तो वे भी हमारी सुनने की क्षमता पर बुरा असर डालती हैं। हर समय कान में म्युजिक बजते रहने के चलते मानसिक बैचेनी और चिड़चिड़ापन भी पैदा होने लगता है।
सुबह सुबह पार्क में लोगों को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो हमें प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है।
कितना सच कहा है जी.. मेरे यहां तो अब सुबह सुबह खेत लोग जाता है तो भोजपूरी गीत बजाता हुआ....
ReplyDeleteयह बीमारी कुछ बढ़ती ही जा रही है.
ReplyDeleteजिसको भी देखो वह कानो में इयरफोन लगाये फिर रहा है.
निश्चित है इसके नुकसान भी हैं.
आभार
bilkul sahi ......:)))
ReplyDeleteजब तक आदमी सिर्फ बाहरी स्रोतों से ख़ुशी तलाशेगा...उसे टीवी चाहिए या आई-पोड...प्रकृति और अन्दर की आवाज़ उसे कैसे सुनाई देगी...रोज़ नई-नई तकनीकें युवाओं को भ्रमित करने के लिए काफी हैं...
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है ..आये दिन ईयर फोन की वजह से ढेरों दुर्घटनाएं हो रहीं हैं ..कई तो जानलेवा भी ...पर जब लोग समझ पायें तब न ...
ReplyDeletesarthak lekh hai ..
यह और ऐसी सारी आदतें हमारे जीवन संघर्ष से बचने के त्वरित उपाय होते हैं जो टाईम-पास की तरह आकर व्यसन बन जाते है। और अन्ततः स्वास्थ्य को ही नुक्सान पहुंचाते है। आपने एक ज्वलंत समस्या की निशानदेही की है। आभार
ReplyDeleteसुबह सुबह पार्क में लोगों को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो हमें प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है।
ReplyDeleteआपने मेरे दिल की बात लिख दी है...आप के इस लेख में लिखी हर बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ...
नीरज
वाकई सुरों से ये बेमेल दोस्ती कभी-कभी तो बच्चों के साथ कार में बैठते ही खलने लगती है । शेष दुष्परिणामों का जिक्र आप कर ही चुकी हैं जो लम्बे समय तक इन आदतों के पाले रखने पर होना अवश्यंभावी है ही । यदि ऐसे लोग समझ सकें तो जागरुक करने वाली पोस्ट...
ReplyDeletebilkul sahi kha aapne ...yuva sathi nakl jyada hi hi kr rha hai ....jab nkl krta to vo shi glt nhi dekh rha hai
ReplyDeleteसही कहा आपने। कई बार यह दुर्घटना का कारण भी बनती है। पर किसी को समझाया भी तो नहीं जा सकता।
ReplyDelete---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
आज हम यही बात का जिक्र कर रहे थे। सुबह घूमने जाते हैं और हर आदमी अपने मोबाइल पर गाने बजाता है। सुबह-सुबह इतना सुन्दर दृश्य होता है और तरह-तरह की चिड़ियाएं अपना संगीत सुनाती है लेकिन कुछ-कुछ देर में मोबाइल वाले पास से निकलते हैं और चिडियों का संगीत दब जाता है। आपने अच्छा विषय उठाया है कि नवीन पीढी सारी ही सामाजिकता से कटी हुई रहती है।
ReplyDeleteदूसरों की भी सुनने के लिये कान खुले रखना चाहिये..
ReplyDeleteमुझे भी यह बुरी आदत है ...खासकर सिस्टम पर जब बैठा होता हूँ हेडफोन पर कोई न कोई गाना बजता रहता है पर रस्ते में कहीं आते जाते अब नहीं सुनता हूँ. पहले भी बहुत डांट खाने और आज आपका लेख पढ़ने के बाद सोचता हूँ इस आदत को सुधारना ही पड़ेगा.
ReplyDeleteआँखें खोलने वाला लेख प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
सादर
बहुत सुन्दरता से आपने सच्चाई को प्रस्तुत किया है! बिल्कुल सटीक लिखा है आपने! इस शानदार और उम्दा लेख के लिए बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा सटीक विचारणीय पोस्ट .... आभार
ReplyDeleteयह शौक सच ही बीमारी का रूप ले रहा है ..आने वाले समय में कितना नुक्सान होगा यह जानने की भी फुर्सत नहीं है ... बहुत सार्थक और सटीक लेख
ReplyDeletethis is very true and I'll not hesitate in accepting that I also fall in this category of ppl who seeks peace in their iPods. Music gives a kind of relaxation which is beyond words to explain.
ReplyDeleteBut I agree with you
that everything is good in limits.
हम तो स्वयं यही बात बच्चों से कहा करते हैं लेकिन नई पीढ़ी का खुमार अपने-आप ही उतरेगा!
ReplyDeleteआपने एक सामयिक मुद्दे को उठाया है,धन्यवाद !
bilkul sahi bat kahi hai aapne .aabhar
ReplyDeletejanha aadhunik upkarno ke suprabhaav hain vahi dushprabhaav bhi hain.log prakarti se door hote ja rahe hain.vicharniye lekh ke liye bahut badhaai.
ReplyDeleteचिड़ियों का कलरव और मित्रो से हँसी ठिठोली सुबह बना देते है . उम्मीद है लोग सबक लेंगे आपके इस आलेख से .जो दिन भर कानों में ठेपी लगाये रहते है .
ReplyDeleteसमस्या को बहुत सही पकड़ा है आपने...आजकल केवल संगीत में डूबे लोग बाकी दुनिया से तो एकदम कट ही गए हैं...संगीत सुनना अच्छी बात है पर इतनी भी क्या अति? अति सर्वत्र वर्ज्यते...
ReplyDeleteऐसे लोग सामाजिक नहीं रह पते व उनमे एकाकी प्रवृति आने लगती है...
अच्छा विवरण...आभार...
बहुत ही सही कहा आपने यह एक बीमारी ही है निश्चित है इसके नुकसान भी हैं. विचारणीय पोस्ट .... आभार
ReplyDeletemonika ji aapki post har kisi kee niji zindgi se judi hoti hain .hamari tarf trector aur jugad chalte hain aur in par savar logon ke vahan me bhi gane bajte hi rahte hain.bas aur ab shayad kuchh rah hi nahi gaya hai.
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय , सार्थक लेख....
ReplyDeleteआधुनिकता की अंधी दौड़ जाने कहाँ तक ले जायेगी ...
आज की पीढ़ी को कुंठा और संत्रास मिलने के कारणों में यह भी एक है |
विचारणीय पोस्ट ...बिल्कुल सटीक लिखा है आपने
ReplyDeleteआपकी हर बात विचारणीय है ....काश हम समय रहते इन बातों को समझ लेते ...आपका आभार
ReplyDeleteयंहा शेखावाटी के गावो और कस्बो में तो हालत और भी ज्यादा खराब है | इयरफ़ोन रखते ही नहीं है उनका कान फाडू संगीत सुनना आपकी मजबूरी है | मेरी दूकान में जब भी कोइ मोबाईल पर गाना बजाते हुए सामान खरीदने आता है तो मै उससे पैसे ले लेता हूँ बाद में जब तक वो अपना पूरा गाना मुझे नहीं सुनाता है तब तक सामान नहीं देता हूँ |मोबाईल धारक जाने की जल्दी मचाता है लेकिन मै कहता हूँ भाई आपका गाना मुझे बहुत पसंद आया है ये पूरा सुने बगैर मै आपको नहीं जाने दूंगा | अब वो लोग मेरे पास आते है तो उससे पहले ही अपना गाना बजाना बंद कर देते है |
ReplyDeleteमोनिका जी,
ReplyDeleteसहमत हूँ आपसे.....अति हर चीज़ की बुरी होती है.....हैट्स ऑफ आपको ऐसे मुद्दों पर जो समाज से जुड़े हैं अपनी सोच को साझा करने के लिए |
संगीत नहीं, यमराज की फाँसी गले और कानो में लटकती है .
ReplyDeleteसार्थक एवं विचारणीय प्रस्तुति ।
ReplyDeletesach kaha
ReplyDeleteसंगीत के प्रति लोगों के जुड़ाव के बारे में बहुत सटीक आकलन किया है आपने...
ReplyDeleteबहुत ही जरूरी आलेख...युवा पीढ़ी तो खासकर इसकी शिकार है.
ReplyDeleteकानो पर इसका बहुत ही बुरा असर पड़ता है...जिसे वे अभी समझ नहीं पा रहे.
Really very true.....
ReplyDeleteसच कहा आपने, आजकल सब अपने में मगन हैं, इसका सामाजिकता पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
ReplyDeleteएक एक शब्द मेरे मन की कह दी आपने....
ReplyDeleteसचमुच अत्यंत चिंताजनक स्थिति है यह...पर सबसे अफ़सोस की बात तो यह कि लाख कोशिश कर भी अपने परिवार के बच्चों को भी हम बराज नहीं पाते...
स्थिति यह बनकर रह गयी है मानो,यदि सब कर रहे हैं और जो ऐसा नहीं करेगा समूह में वह छोटा और गंवार माना जायेगा...
एक तरह से देखिये तो मनोरंजन के अधिकाँश साधन आज सुखदायी नहीं अभिशाप बनते जा रहे हैं...
nishchit roop se yah ek gambhir chinta ka vishya hai....lakh samjayish ke baad bhi is mobile kee lat ko aaj kee yuwa peedi chhod nahi paa rahi hai...
ReplyDeleteवाकई ..बिलकुल सच लिखा है ये एअर फोन एक बीमारी बन गए हैं.हर जगह ये युवा कान में कनखजूरा लगाये ही रहते हैं.बहुत खतरनाक परिणाम होंगे इसके.
ReplyDeleteसार्थक एवं विचारणीय प्रस्तुति ।
ReplyDeleteआज के लोगो में आधुनिकता का भुत सवार है ! भुत डस लेगा ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपने एक गंभीर बुराई को उजागर किया है |
ReplyDeletemonika ji aapki baat sesahmat hu ek kadva such hai ye jo hum nakaar nahi sakte kuch waqt pahle tak mere chote bhai khud is lat se bimaar the wo unka ear phon and michal ke song aapka ye post kafi madadgaar hai humaare liye thanks
ReplyDeleteBILKUL SAHI BAAT LIKHI HAI AAPANE ISASE HONE WALE KU PARBHAW KO SAB JANATE HAI PER FIR BHI WAHI KARATE HAI
ReplyDeleteBILKUL SAHI LIKHA HAI AAPANE ISASE HONE WALE KU PARBHAW KO SAB JANATE HAI PER FIR BHI WAHI KARATE HAI
ReplyDeleteआपने मेरे दिल की बात लिख दी है...आप के इस लेख में लिखी हर बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ...
ReplyDeleteमेरे लडके भी ऎसा करते हे, कई बार गुस्सा करता हुं, आई पाड हर समय कानो से लगा रहता हे, एक खराब होगया तो मोबाईल जिन्दा वाद, मुझे कोई इलाज बताये तो मान जाऊ, गुस्सा करता हुं तो बाद मे तरस आता हे, नुकसान हे लेकिन कहां सुनते हे यह बच्चे
ReplyDeleteTrue..But who will listen and act...
ReplyDeleteसुरों से दोस्ती एक सीमा से आगे निकलके ओबसेशन में बदल चुकी है .सुबह की सैर का मजा और लाभ शरीर को तब ही मिलता है जब हमारा मन और तन दोनों रिलेक्स हों ,प्रकृति का सुबह और शाम का अपना संगीत है ,दूर कहीं मंदिर से गौ -धूलि में आती आवाज़ तन और मन दोनों को सहलाती बहलाती तनाव मुक्त करती है रिलेक्शेशन थिरेपी की श्रेणी में आजाती है ।
ReplyDeleteहियरिंग लोस लगातार इन उपकरणों से बढ़ रहा है .प्रकृति और परिवेश से कटा व्यक्ति सिमटकर अपने तक ही महदूद रह जाता है ।
बहुत सटीक आलेख है आपका सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दे उठाए है डॉ मोनिका आपने .साधुवाद आपका .
सही कहा आपने दूसरी की सुनने का वक्त ही नहीं है
ReplyDeleteआपने मेरे दिल की बात लिख दी. वाकई एह भी एक समस्या बनाता जा रहा है.
ReplyDeleteमैं तो अभी यह भी सोचती हूँ कि जब मोबाइल फोन नहीं था तब कितनी शांति थी.
गंभीर प्रश्न.
एक कडवा सच
ReplyDeleteआविष्कार का उद्देश्य सामजिक लाभ होता है परन्तु उसका गुलाम बनना और खुद अपना तथा समाज का अहित करना उस प्रवृति का द्योतक है जो अहंकारमय है और जिसमें अपने अलावा दुसरे को तुच्छ समझा जाता है.जब तक दुसरे को भी अपने समान समझने की प्रवृति न अपना ली जाये तब तक किसी को भी समझाना काम नहीं आ सकता.
ReplyDeleteलेकिन आपने अपना कर्तव्य बखूबी निर्वहन किया.
मेरे ब्लाग पर जो सद्भावनाएं आपने व्यक्त कीं उनके लिए हार्दिक आभार एवं धन्यवाद.
लेख के अंत में ज्वलंत समस्या का हल भी दे दिया आपने..देखना यह है कि हम कैसे बच्चों में इस बात की समझ और आकर्षण पैदा करते हैं..
ReplyDeleteकृत्रिम वस्तुओं में खो कर व्यक्ति प्रकृति को भूलता जा रहा है :(
ReplyDeleteसचेत करता आलेख।
ReplyDeleteमैं इस का भुक्तभोगी हूं। आज से 15 वर्ष पहले वाकमैन का चलन था। अपने संगीत शौक, उस पर आइवा वाकमैन की दमदार आवाज के कारण मैं घंटों इयरफोन लगाए रहता था। फलस्वरूप मेरे एक कान से पानी बहने लगा जो काफी दिनों के बाद ठीक हुआ।
संगीत अब भी सुनता हूं लेकिन इयरफोन कभी नहीं लगाता।
आभार आपका !
ReplyDeleteसबेरे सबेरे पत्तों की सरसराहट का संगीत तो अब बहुत दूर की बात हो गई और प्रकृति की उपेक्षा से कितनी परेशानिया उठा रहा है आदमी । हंसी मजाक के लिये ये चैनल परोस रहे है कुछ तो भी ।
ReplyDeleteऐसे में धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक और सामाजिक संवेदनशीलता भी खत्म हो रही है।
ReplyDeletebilkul sahi baat hai monika ji ,tabhi to dooriya badh rahi hai ,apne me vyast jyada ho gaye hum .
बहुतों के मन की बात आपने कह दी है.युवा पीढ़ी में ऐसी चीजों के प्रति क्रेज पैदा करना और उसे लत की हद तक ले जाना प्रोडक्ट की मार्केटिंग का ही फंदा है. उनका मॉल बिक रहा है.प्राफिट बढ़ रहा है. उपभोक्ता पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से उन्हें क्या लेना देना ? पर उपभोक्ता को तो सोचना ही चाहिए.
ReplyDeleteसच कहा है आपने,
ReplyDeleteसाभार
- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
सुविधा , आनंद, मनोरंजन के लिए उपयोगी नई तकनीक हमें समाज और प्रकृति से कहीं दूर ले जा रही है ये एक विकृति, समस्या और विडम्बना है । बहुत अच्छा लेख ।
ReplyDeleteये तो आज कल फेशन बन चूका है .. अच्छा लगा पढ़ कर !
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है : Blind Devotion
बिल्कुल सच कहा है आपने ।
ReplyDeleteसुबह सुबह पार्क में लोगों को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो हमें प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है।
ReplyDeleteसही कहा, आपसे एकदम सहमत ।
sarthak post sahmat hun aapse ......
ReplyDeleteबिल्कुल सच कहा है आपने ।
ReplyDeleteसही कहा आपने दूसरी की सुनने का वक्त ही नहीं है|
ReplyDeleteधन्यवाद|
वह दिन दूर नहीं जब ई एन टी डाक्टरों के चैम्बरों पे लम्बी लाइन होगी ...
ReplyDeleteबहरों की संख्या जो बढ़ जाएगी .....:))
आप हर बार ज्वलंत मुद्दा उठती हैं .....
सही लिखा आपने. शोर-शराबे का अभ्यस्त हो जाने पर संगीत का एहसास ही खो जाता है.दुर्भाग्य से यही हो रहा है.तन तो बीमार हो ही रहा है, मन भी.
ReplyDeleteमोनिका जी आपने आज दुखती नस पे हाथ रख दिया .........मैं इसका भुक्त भोगी रहा हूँ ....शाश्त्रीय संगीत का चस्का लग गया मुझे ......और फिर वो एक नशा बन गया ...१८ -१८ घंटे सुनने लगा ......ऊपर से करेला नीम पे चढ़ गया ........श्रीमती जी हमसे ज्यादा शौकीन निकल गयी..........अब रोग बढ़ा ...तो concerts भी सुनने लगे ...फिर रोग ने विकराल रूप धारण कर लिया .........तो पूरे देश में घूम घूम के कंसर्ट्स सुनने लगे .......मुझे याद है उन दिनों मैं दुनिया से एकदम कट गया था ......खैर अब वो नशा कुछ कम हुआ है ...पर हेरोइन छूटी तो अब कोकीन की लत पड़ गयी है ....पढने की ....और ये कमबख्त उस से भी खराब है ........दिन रात पढ़ते हैं ....चाहे जो मिले पर कुछ चाहिए ...चाहे १० साल पुराना अखबार ही क्यों न हो .....अब इसका क्या इलाज करें .........
ReplyDeleteajit singh
मोनिका जी,,,,
ReplyDeleteबहुत बहुत उम्दा लेख प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
Right article at right time.Pl continue yr mission against smoking
ReplyDeletegood article.
dr.bhoopendra
rewa
mp
आपने एक तेजी से बढ़ती समस्या की और ध्यान दिलाया है -आभार !
ReplyDelete