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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

09 January 2013

सड़कों पर आन्दोलन सही पर देहरी के भीतर भी झांकें




दिल्ली में हुए वीभत्स हादसे ने पूरे देश को हिला दिया । इसके बारे में अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । अनशन ,धरने और कैंडल मार्च सब हुआ और हो रहा है । अनगिनत लोग सड़कों पर उतर आये । जनता का आक्रोश उचित भी है  । पर अफ़सोस तो यह है कि इस विरोध के साथ ही ऐसी घटनाओं का होना भी जारी है |


ऐसे में यह प्रश्न उठना वाजिब है कि क्या सड़कों पर उतर आना ही काफी है ? इस घटना के बाद देश भर में लोग घरों से बाहर  निकले । सबने खुलकर विरोध किया । अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग की और आज भी कर रहे हैं । ऐसे में इस ओर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि आन्दोलन कर अपनी आवाज़ उठाने के आलावा हमें अपनी ही देहरी के भीतर भी झांकना होगा ।  यह जानना ही होगा कि आज की पीढ़ी को संस्कारित करने में क्या और कहाँ चूक हो रही है ? क्योंकि दिल्ली में हुआ यह हादसा सिर्फ शरीरिक शोषण और जोर ज़बरदस्ती का केस भर नहीं हैं । यह हमारे ही समाज से निकले मानवीयता की हदें पार करने वाले अमानुषों का उदाहरण है|  जिनको मिलने वाला दंड उनके ही जैसी प्रवृति पाले बैठे लोगों की मानसिकता नहीं बदल पायेगा । ऐसे कृत्यों को रोकने में परिवार की भूमिका ही सबसे बढ़कर हो सकती है । 

ज़रा सोचिये तो हमारे समाज में ऐसी घटनाएँ कैसे रोकी जा सकती जा सकतीं हैं जहाँ  स्वयं परिवार वाले ही ऐसे भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने  निकल पड़ते हैं ?  ऐसे समाज में इस तरह के हादसे क्यों भला थमें, जहाँ  शारीरिक और मानसिक पीड़ा भोगने वाली लड़की को ही  गलत ठहराया जाता है ? कोई आध्यामिक सलाह देकर तो  कोई पहनावे और घर से निकलने के वक़्त को लेकर | इतना ही नहीं, हमारे समाज में जहाँ शारीरिक शोषण के अधिकतर मामलों में परिचित ही पिशाच बन बैठते हैं वहां प्रशासनिक  मुस्तैदी कहाँ तक काम आएगी ?


समाज में आये दिन होने वाली इन वीभत्स घटनाओं को रोकने के लिए हमें ही समग्र रूप से प्रयास करने होंगें ।  ज़रूरी है कि ये प्रयास  सड़कों पर आवाज़ बुलंद करने से लेकर हमारी अपनी देहरी के भीतर तक किये जाएँ । अपने बच्चों को ऐसे आपराधिक कृत्य करने वाली मानसिकता से बचाने के लिए उन्हें संस्कारित करने के साथ ही उनके मन में यह भय भी पैदा किया जाय कि अगर वे जीवन में कभी ऐसे कुकृत्य करते हैं तो सबसे पहले उनका अपना परिवार ही उनका साथ छोड़ देगा । 

इस घटना के बाद हमें ऐसा पारिवारिक और सामाजिक माहौल तैयार करना होगा कि इस तरह के अमानवीय अपराध करने  वाले अगर लचर सरकारी व्यव्स्था के चलते सजा पाने से बच भी जाएँ तो भी समाज और परिवार उन्हें निश्चित रूप से दंडित करेगा ऐसे अपराधियों को यह आभास होना चाहिए कि ऐसे कुकृत्य करने बाद न परिवार उनका रहा न समाज अब जियें भी तो क्यों? उनका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हो । इस सीमा तक कि वे दंड से बचने की तरकीबें न खोजें बल्कि स्वयं अपने लिए सजा मांगें । 

यह सब सिर्फ हम कर सकते हैं । परिवार और समाज कर सकता है । क्योंकि सरकार ऐसे अपराधियों को सिर्फ सजा दे सकती है | निश्चित रूप से कठोर से कठोर सजा देनी  चाहिए भी   पर परिवार संस्कार देकर बच्चों को मानवीयता का पाठ पढ़ा सकते हैं । उन्हें अपराधी बनने  से ही रोक सकते हैं,  सुनागरिक बना सकते हैं ।

53 comments:

अशोक सलूजा said...

समाज के हर वर्ग को अपना काम पूरी इमानदारी से
करना होगा ....

हम सब को शुभकामनायें!

Arun sathi said...

sahi kaha he aapne.....ham sudhrege yug sudhrega

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस पोस्ट की चर्चा 10-01-2013 के चर्चा मंच पर है
कृपया पधारें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत करवाएं

जयकृष्ण राय तुषार said...

हर कोई कटघरे में है नेता, न्याय ,पुलिस ,आयोग,समाज सभी कई ,कई चेहरे ओढ़े बैठे हैं |रसोईघर कितना भरा -पूरा हो खानसामा जब तक दुरुस्त नहीं होगा व्यंजन भी अच्छा नहीं होगा |कानून बना दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम तो दहेज़ की रकम कई गुना बढ़ गयी ,एंटी करप्सन एक्ट बना तो भ्रष्टाचार कई गुना बढ़ गया |दलबदल बना तो पार्टियाँ बड़े पैमाने पर टूटने लगीं |समस्या का हल जब तक हम ईमानदार होकर नहीं निकालेंगे तब तक कोई हल नहीं निकलेगा जुलुस में बलात्कारी और व्यभिचारी भी रहते हैं भ्रष्टाचार आंदोलनों में भ्रष्टाचारी और घुसखोर भी थे |मीडया खुद खबर बेचता है केवल टी ० आर ० पी० बढ़ाता है |कुछ गंभीरता से सोचना होगा |न्याय में इतना बिलम्ब होगा की तब तक लोग दामिनी को ही भूल जायेंगे | क्षणिक आवेग से समस्या का हल नही होगा |

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@Jaikrishn Rai Tushar ji

क्षणिक आवेग से समस्या का हल नही होगा ..... इसीलिए परिवार की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है । समय और ऊर्जा दोनों का व्यय करना होगा पीढ़ियों को संस्कारित करने में ......

amit kumar srivastava said...

एकदम दुरुस्त बात ।

Sunil Kumar said...

सार्थक और जरुरी पोस्ट आँखें खोलने में सक्षम....

सुज्ञ said...

सही बात है, देहरी के भीतर भी, और बाहर का वातावरण भी अनुकूल होना आवश्यक है.

मेरा मन पंछी सा said...

सभी अपनी - अपनी तरफ से कोशिश करे..
परिवार संस्कार दे..कानून भी कड़ा हो...
तो शायद ऐसा कुछ नहीं हो.....

गिरधारी खंकरियाल said...

सही समय पर सही राय।

Dr. sandhya tiwari said...

bilkul sahi baat kahi hai aapne pahle hame khud ko jagana hoga aur har atyachar ke khilaaph aavaj uthani hogi, usse ladna hoga.

Shalini kaushik said...

बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति मोहन -मो./संस्कार -सौदा / क्या एक कहे जा सकते हैं भागवत जी?

rashmi ravija said...

सच कहा, अपने भीतर ही झांककर देखना होगा ,कहाँ गलती हो रही है, क्या कुछ किया जा सकता है

Karupath said...

यही हमारे देश का दुर्भाय है

Karupath said...

यही हमारे देश का दुर्भाग्‍य है

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

ऐसे कुकृत्य करने वाले का सामाजिक और पारिवारिक बहिस्कार होना ही चाहिए,,,,

recent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...

Unknown said...

BILKUL SAHI

ओंकारनाथ मिश्र said...

स्त्रियों को मजबूत करने की ज़रुरत है. सबको शिक्षा का अवसर देकर, सबको समान अधिकार देकर, १६ साल की उम्र में शादी का दवाब ना देकर इत्यादि.

जिसने गाँव में स्त्रियों का हाल नहीं देखा है वो आज भी कल्पना नहीं कर सकते कि उनकी ज़िन्दगी कितनी मुश्किल है. सच्चे बदलाव के लिए गाँव को बदलना होगा. बस हर कोई अपने परिवार ठीक कर ले.

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

देहरी के भीतर झाँकना बहुत जरूरी है, सार्थक आलेख.

वाणी गीत said...


सच है , कानून , प्रशासन के साथ परिवार और समाज की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी तय हो !

अजित गुप्ता का कोना said...

हमें अपनी संतानों को तो संस्‍कारित करना ही पड़ेगा और इनके बचाव में नहीं उतरेंगे ऐसा प्रण भी लेना पड़ेगा।

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

आपकी बात बिल्कुल सही है मोनिका जी! मगर ये बात आप-हम जैसे कुछ लोग समझते हैं! जिनकी अक़्ल पर पत्थर पड़े हैं...वो ये सोचते ही नहीं...-दुख इसी बात का है! हम सभी अपने बच्चों को सही संस्कार देने की पूरी कोशिश करते हैं... मगर ऐसे कुकृत्य करने वाला तबका कोई और ही है, जिसके लिए ये सब बातें मायने ही नहीं रखतीं! ऐसे लोगों के लिए जो ना पढ़ने-लिखने में विश्वास रखते हैं, ना ही किन्हीं संस्कारों में...उन्हें सबक़ देने का सिर्फ़ एक ही उपाय हमें समझ में आता है और वो ये कि... उन अपराधियों को ऐसी सज़ा मिले..जिसे देख-सुनकर कोई भी ऐसा अपराध करने की सोचे ही ना ! और इसके लिए... हमारी न्याय-व्यवस्था को बदलना तो पड़ेगा ही ना!
अब दामिनी वाले केस को देख लीजिए...अपराध सामने है, अपराधी सामने है... फिर न्याय करने में देरी आख़िर क्यों हो रही है... :(((
~सादर!!!

Yashwant R. B. Mathur said...

निश्चित तौर पर बदलाव की शुरुआत खुद को बदलने से ही हो सकती है।

सादर

शारदा अरोरा said...

sach kahaa hai aapne...

सदा said...

बिल्‍कुल सच कहा आपने ....

virendra sharma said...

निश्चय ही माइंड सेट ,सोच का दायरा ,नज़रिया बदलना चाहिए .औरत सम्बन्ध से इतर, शरीर की सत्ता ,शरीर के अंगों से इतर भी एक शख्शियत है .उसकी इसी शख्शियत ,अलग से होने को

हमारा

समाज स्वीकार नहीं कर पा रहा है .

विकृत दिग्दर्शन चंद चैनलों वेब साइटों का विकृत नजरिया पश्चिम की औरत का भी एक दम बे -हूदा चित्र पेश करता है 24x7x365

वह भी ऐसी नहीं है अलंघ्य अधिकारों की स्वामिनी है यहाँ वह किसी की भार्या है किसी की भाभी .....या फिर मनोबहलाव का ज़रिया इस दायरे के बाहर .उसकी अपनी शख्शियत का कोई नोटिस ही

नहीं लेता है .

VINEET said...

मोनिका जी आपके बिचार पढ़े पढ़कर बहुत अच्छा लगा
आप रियल मे कुछ अलग ओर सही लिखती है।
पर जो आप अच्छे संस्कार देने की बात करती है।वह भी सही है।अभी एक ताजी घटना है ।एक महिला ने रेल गाड़ी मेँ एक सीट के लिए एक दूसरी महिला का गला इतनी जोर से दबाया कि महिला के प्राण पखेरू उड़ गऐ। महिला के बच्चे मां माँ कहके विलाप करने लगे कितना मार्मिक द्रश्य होगा मोनिका जी कल्पना किजिए ।अब आप इसे क्या कहेगीँ सारा समाज ही दुषित है मोनिका जी ।जिसे जहाँ अवसर मिलता है अपराध करने से नही चूकता है ।यहाँ तो महिला ने ही अपराध कर डाला ।ओर सबसे बड़े अपराधी वो निर्लज्ज सहयात्री थे जिन्होने वहाँ महिला को बचाने की कोई कोशिश नही की ।आप तो जानती है मोनिका जी जिस रेलगाड़ी मे सीट के लिए मृत्यु कर दी गई ।तो वहाँ रेल मेँ अवश्य भीड़ होगी ।इतनी भीड़ मे भी अपराधी अपराध कर सकता है।फिर सूनसान चलती बस तो बस मे गेँगरेप तो बहुत आसान बात है मोनिका जी ।क्या हो गया हमारी मानवता को ।इसको सुधारिए अवश्य सुधारिए मोनिका जी ।अब तो घर से बाहर निकलने मेँ भी डर लगता है मोनिका जी ।अगर कुछ गलत लिख दिया हो तो क्षमा करना मोनिका बहन अपने को लिखने से रोक नही सका

दिगम्बर नासवा said...

सहमत हूं आपकी बात से ... सबसे पहले अपने घर से ही संस्कारित करना जरूरी है बच्चों को ... खास कर के लड़कों को नारी का सामान करना सिखाना ओर अपने अंदर भी इस बदलाव को लाना ...

VINEET said...

सही लिखा है मोनिका जी

पूरण खण्डेलवाल said...

परिवार ही मिलकर समाज बनाते हैं इसलिए परिवारों में बच्चों को संस्कार देने में हो रही चूक के कारण ही ऐसी घटनाएं सामने आ रही है इसलिए जरुरत है परिवार अपनी जिम्मेदारी समझे और बच्चों को संस्कार देने में कंजूसी ना करे !!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

वाणी जी की बात से सहमत होते हुये यही कह सकती हूँ कि ऐसे अपराधी एक विशेष तबके से आते हैं ... या तो बहुत कुंठित मानसिकता वाले या फिर ऐसे जो सोचते हैं कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता ।

Anonymous said...

भावी पीढ़ी को संस्कार देना परिवार और समाज की जिम्मेदारी है जिसका अधिकतर परिवार और समाज निर्वाह नहीं कर रहे लेकिन ऐसे जघन्य कृत्यों के लिए जल्द से जल्द और कड़ी से कड़ी सजा भी नितांत आवश्यक है क्योंकि भय ही डर की जननी है

vijai Rajbali Mathur said...

जब तक पोंगापंथ को 'धर्म' और ढोंगियों-पाखंडियों-आडंबरवादियों को संत,गुरु,धार्मिक व्यक्ति माना जाता रहेगा 'कठोर कानून' भी अपराध नियंत्रण न कर सकेगा। नागरिकता की प्रथम पाठशाला=परिवार से कडा आत्मानुशासन लागू करके समस्या का निदान किया जा सकता है।
डेढ़ दोस्त

Asha Lata Saxena said...

बहुत सही लिखा है |यदि परिवार से ही शिक्षा की शुरूवात हो कि कोई लड़ाका या लडकी किसी प्रकार का गलत कदम ना उठाए |
उम्दा लेख |
आशा

Anju (Anu) Chaudhary said...

संजीदा सोच लिए हुए...सार्थक लेख

कालीपद "प्रसाद" said...

ऐसे अपराधियों को यह आभास होना चाहिए कि ऐसे कुकृत्य करने बाद न परिवार उनका रहा न समाज अब जियें भी तो क्यों? उनका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हो -bilkul sahi kaha.ऐसा ही होना चाहिए
New post : दो शहीद

प्रवीण पाण्डेय said...

समस्या बहुत गहरे स्थापित है, धीरे धीरे स्तम्भ सुव्यवस्थित तरने होंगे।

virendra sharma said...


सही आवाहन है घर परिवार का .अपना रोल प्ले करे .बच्चों को सुनागरिक बनाए ये काम सरकारें नहीं करेंगी .

Sadhana Vaid said...


बहुत सशक्त प्रस्तुति है मोनिका जी ! आपकी बातों से सहमत हूँ ! इसी विषय पर मेरे आलेख की लिंक प्रस्तुत है समय मिले तो देखिएगा ! साभार !
http://sudhinama.blogspot.com/2012/12/blog-post_30.html

Unknown said...

sahi hai ...pahal khud aur apne pariwaar se karni hogi..
http://ehsaasmere.blogspot.in/

ताऊ रामपुरिया said...

सही कथन है आपका.

जैसे मूर्ति को गढने के लिये चारों तरफ़ से उसे तराशा जाता है उसी तरह सभी तरह से संस्कारित मन वाला व्यक्तित्व निर्माण बाहर भीतर सब तरफ़ से ही हो सकता है.

रामराम.

Suman said...

बच्चों में अच्छे संस्कार घरसे ही मिलते है और मिलने चाहिए तभी एक अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण होता है !
अच्छा लेख है !

प्रतिभा सक्सेना said...

सिर्फ लड़कियों को मर्यादित रखने से कुछ नहीं होगा लड़कों की भी नीति और मर्यादा की शिक्षा घर से ही
शुरू हो जानी चाहिये!

रचना दीक्षित said...

सबकी अपनी अपनी जिम्मेदारी है. पहले खुद सुधरना जरुरी है. सही सन्देश.

लोहड़ी, मकर संक्रान्ति और माघ बिहू की शुभकामनायें.

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

चैरिटी बिगिन्स एट होम!
सही बात है!

--
थर्टीन रेज़ोल्युशंस

मनोज कुमार said...

एक अच्छि सोच के साथ लिखी गई रचना।

शोभना चौरे said...

बिलकुल सही कह रही है आप एक दुसरे पर बात डालने की बजाय स्वयम अपने घर टटोले ।कहाँ चूक हो गई ।बरसो से राष्ट्र गी त गाते ,स्कुलो में प्रार्थना के बाद प्रतिज्ञा लेते हुए "हम सब भारतवासी भाई बहन है ",
घरो में बीस -बीस प्राणियों के बदले सिर्फ हम दो हमारे दो की परवरिश कहाँ ले आई है ?

सूर्यकान्त गुप्ता said...

आपके विचार एकदम अनुकर्णीय हैं

खासकर अपने ही घर को सुधारने वाली

बात, बचपन से बच्चों में संस्कार देने की ...

प्रभु हमें इन बातों पर अमल करने की ताकत दे ...

बहुत ही सुन्दर विचार .....

Asha Joglekar said...

आपसे एकदम सहमत । यह आंदोलन चौतर्फा होना चाहिये और शुरुवात घर से हो । क्या हमारे घरों में माँ का सम्मान उतना ही होता है जितना पिता का । क्या बहन को और भाई को समान अवसर और सम्मान मिलता है । बहन के स्वास्थ्य का भी उतना ही खयाल रखा जाता है । क्या हम हमारे घर में काम करने वालों को समान व्यवहार देते हैं । यह छोटी छोटी बातें हम सही करें तो कितना कुछ बदल सकता है ।

G.N.SHAW said...

आज की पश्चिमी नक़ल और असंस्कार का मूल जब तक रहेगा , कुछ बदलने की हवा नहीं दिखती है |आप सभी को मकर संक्रांति की शुभकामनाएं|

Kailash Sharma said...

केवल पुलिस और व्यवस्था इन अपराधों को नहीं रोक सकती, हम सभी को सामाजिक सोच को बदलने में अपना योगदान देना होगा...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

परि‍वार की भूमि‍का तो अहम है पर परि‍वार बि‍खर रहे है, यही समाज के साथ हो रहा है और ऊपर से कानून-व्यवस्‍था करेला दूजा नीम चढ़ा जैसी है...

Gyanesh kumar varshney said...

मोनिका जी वास्तव में आपने जो बात कही है सारगर्भित तो है लैकिन समस्या यह है वैसे तो एसे केश हर तवके में होते हैं किन्तु ज्यादातर केशों में ऐसे लोगों का सामाजिक तानावाना तथा परिवेश अच्छा नही होता वे कुण्ठाग्रस्त होते है।आपका यह कहना विल्कुल सही है कि बच्चे संस्कारी वनाए जाए लैकिन जैसा कि आजकल का परिवेश हो गया है कि टी.वी. व फिल्में अपनी जड़े जमा रही हैं।और तो और फिल्मों में ही नही टी.वी.पर आने वाले कार्यक्रमों में भी भौड़ापन व नग्नता ने डेरा जमा लिया है तब एसे में अच्छे-2 विश्वामित्रों का बच पाना बड़ा ही मुस्किल काम है आज हर तरफ नग्नता सर उठाऐ नग्न नृत्य कर रही है कोई कितना भी मना करे लैकिन यह भी अपने आप में बलत्कार का एक बहुत बड़ा फैक्टर है ऐसा नही कि बलत्कार तब नही होते थे जवकि महिलाए सही सलीके बाले कपड़े पहनती थी तब भी होते थे लैकिन सोचना यह है कि तब कितनी संख्या में होते थे तब समाज में विकृतिया थी वेचारे दीनहीन लोगों की कोई इज्जत नही थी तब बलत्कार होते थे जातिगत स्थिति में लैकिन जितना खुलापन आया है उसने इन स्थितियों को परिबर्तित किया किन्तु नयी परिस्थितियाँ निर्मित कर उससे भी भयाभय रुप ले लिया।अब लड़की के जानने बाले या मित्र ही उसके भक्षक बन बैठे हैं।क्योंकि वह तो वैचारी उन पर विस्वास करके उनके साथ जाती है लैकिन वह पहले ही उसकी वखिया उधेड़ने को वैठे रहते हैं।क्योंकि मित्रता अब विना पृष्ठभूमि देखे केवल अमीरी पर आधारित है सो भैया कुछ लाभ और नुकसान भी होगे तो मुझे तो आपकी बात जंची कि वेटा हो या वेटी पहले उन्हैं संस्कार प्रदान किये जाए किन्तु मै एक कदम आगे वढ़कर यह भी कहना चाहूँगा कि टी.वी.,फिल्म या समाचार पत्र या अन्य मीडिया सभी से नग्नता को हटाया जाए अपने अतीत को बताने का प्रयत्न किया जाऐ तथा नग्नता परोशने बालों पर कानून का शिकंजा कसा जाए तभी हम सभ्य समाज का निर्माण कर पाएगैं अन्यथा केवल भाषण वाजी तक ही यह सब सीमित रह जाएगा।

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