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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

06 June 2015

आपदायें

आपदायें  तोड़ने ही नहीं
जोड़ने भी आती है
मानवीयता के अर्थ
और पीड़ा के अभिप्राय
समझाने  के प्रयोजन से
प्रकृति भी खेलती है
कई असह्य खेल ।

20 comments:

Mithilesh dubey said...

प्रकृति भी खेलती है. बिलकुल खेलती है। लेकिन लोग जल्दी समझ नहीं पाते।

JEEWANTIPS said...

सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

Suman said...

प्रकृति के लिए खेल हमारे लिए सिख, सटीक !

Vandana Sharma said...

aur namein tab sujh bujh se kaam lena hoga

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज की ब्लॉग बुलेटिन बांग्लादेश समझौता :- ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Himkar Shyam said...

सुंदर और सटीक बात...समय -समय पर प्राकृतिक आपदाएं मनुष्य को झकझोरती और सचेत करती रहती हैं. बहुत दिनों बाद पोस्ट देखकर अच्छा लगा.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2015) को चर्चा मंच के 2000वें अंक "बरफ मलाई - मैग्‍गी नूडल से डर गया क्‍या" (चर्चा अंक-2000) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-06-2015) को चर्चा मंच के 2000वें अंक "बरफ मलाई - मैग्‍गी नूडल से डर गया क्‍या" (चर्चा अंक-2000) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

abhi said...

True

दिगम्बर नासवा said...

सहमत हूँ आपकी इस बात से .. कई बार दुःख के बाद नए रिश्ते नाते उभर के आते हैं जो मजबूत होते हैं पहले से ज्यादा ...
प्राकृति भी तो यही खेल खेलती है ...

रश्मि शर्मा said...

सत्‍य ..

गिरधारी खंकरियाल said...

शाश्वत् सत्य है किन्तु मनुष्य शीध्र स्वीकार नही करता।

Ashi said...

सचमुच, ये सब भी एक खेल ही लगता है....
............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!

Smart Indian said...

सच है।

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

Sach

कहकशां खान said...

आपदाएं चाहें जितनी आएं, पर हम हौसला नहीं खोने वाले।

संजय भास्‍कर said...

बिल्‍कुल सही कहा आपने

Vinars Dawane said...

abhipray samzhane ke prayojno me. - bhut accha h.

प्रभात said...

बहुत खूब..........ये(आपदाएं) भी जीवन के एक अंग की तरह से है अगर ये न हो तो मनुष्य जीवन सही रूप में जी नहीं सकता!

ओंकारनाथ मिश्र said...

सही कहा है.

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