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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

23 September 2010

बेटी ऐसी है तो बहू वैसी क्यों...?


हमारी बेटी अच्छी खासी तनख्वाह लाती है उसका घर के काम में रूचि लेना कोई ज़रूरी नहीं.......!
आज के ज़माने में खुलकर बोलना ज़रूरी है..... किसी से दबकर क्यों रहेगी .......!
देखो बेटी तुम्हें तो अपने बच्चे और अपने पति से मतलब है...... परिवार से नहीं ......!
अरे..... खुद कमाती हो तुम किसी पर निर्भर नहीं हो........!

यह एक बानगी भर है उन वाक्यों की जो आजकल अधिकतर माता-पिता अपनी पढ़ी -लिखी कमाऊ बेटियों से और बेटियों के बारे में कहते सुने जा सकते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है की उनकी बेटियां पढ़ लिख गयी हैं ....कमाऊ हैं.......आत्मनिर्भर हैं......काबिल बन गयी हैं। तो मानो जीवन की सभी समस्याओं का हल एक साथ ही निकल आया है। पर सच तो यह है की हमारे समाज में और घरों में आज भी बहू के रोल में लड़की से काफी उम्मीदें रखी जाती हैं। खैर मेरे मन में जो सवाल है वो यह की आजकल बेटियों को आत्मविश्वास और हौसले के नाम पर जो कुछ भी बताया और सिखाया जाता है वैसे ही वाक्यों को सुनकर पली बढ़ी बहू को कितने लोग स्वीकार कर पायेंगें ?

ऐसे में यह बात थोडा हैरान भी करती है और थोड़ा परेशान भी जो गुण और स्वभाव हमारे परिवार बहू में चाहते हैं वैसा ही बेटी को क्यों नहीं सिखाया जा रहा ? और अगर सचमुच ज़माना बदल गया है तो फिर बहू और बेटी दोनों के ही इन गुणों को स्वीकार किया जाना चाहिए। क्यों आज भी यह दोयम दर्जा कायम है ........? यानि बेटी ऐसी है तो बहू वैसी क्यों चाहिए.......?

यह एक शाश्वत सत्य है की किसी घर बेटी ही किसी दूसरे घर की बहू बनती है.....तो फिर आप खुद ही सोचिये की बहू के रूप आने वाली लड़की वो विचार तो अपने साथ ही लाएगी ना जो उसने बेटी के रूप में जाने और समझे है।
बस...! यहीं से शुरू होता है वो द्वन्द जो आज दौर में हमारे परिवारों के हालात को रेखांकित करता है। बतौर बेटी जो गुण आत्मविश्वास कहा जाता है बहू बनते ही उदंडता कहलाने लगता है......जो माता पिता यह बात गर्व से कहते हैं हमारी बेटी को घरेलू जिम्मेदारियों में कोई रूचि नहीं वे अपने ही घर में उतनी ही काबिल बहू को घरेलू दायित्वों के निर्वहन में कोई छूट देना पसंद नहीं करते । जो माता पिता अक्सर यह कहकर बेटी का समर्थन करते हैं कि घर का काम करने के लिए बहुत नौकर मिल जाते हैं उन्हें नौकरीशुदा बहू के नौकर रखने पर पता चलता है की नौकर रख लेना समस्या का हल नहीं है बल्कि खुद एक बड़ी समस्या भी हो सकता है। उन्हीं लोगों का सोचना उस समय कुछ और हो जाता है जब घर कि नई पीढ़ी आया या क्रेच के सहारे पलती है ।

मैं यह नहीं कहती की लड़कियों का आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर होना गलत है पर इतना ज़रूर मानती हूँ की दृढ़ता की जगह उग्रता नहीं आनी चाहिए। उग्रता जिसका आधार सिर्फ यह हो की आप इतनी सेलरी घर ला रहीं हैं या फिर आपको किसी की ज़रुरत नहीं क्योंकि आप आत्मनिर्भर हैं । यह जीवन की सबसे बड़ी हकीकत है की घर-परिवार और सामाजिक जीवन में एक दूसरे पर निर्भरता हमेशा बनी रहती है। यह बात महिलाओं और पुरुषों दोनों पर बराबर लागू होती है क्योंकि पारिवारिक जीवन में सामंजस्य का मूल आधार यह निर्भरता ही है। यह बात आज के दौर में बड़ी हो रही बेटियों को जानना ज़रूरी है फिर भले ही वे कामकाजी बनें या गृहणी। इसीलिए मैं मानती हूँ की हर माता पिता के लिए यह आवश्यक है कि बेटियों को जीवन के इस पहलू से भी रूबरू कराएँ कि मोटी तनख्वाह के तिलिस्म के आगे एक पत्नी, माँ और बहू के किरदार की अहमियत कम नहीं हो जाती ।

48 comments:

आशीष मिश्रा said...

बहोत ही अच्छा लगा आप का ये ब्लॉग देखकर...............शुभकामनाएँ

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत अच्छा और सधा हुआ सारगर्भित आलेख...

Satish Saxena said...

बहुत बढ़िया लेखन डॉ मोनिका ,
मैंने शायद ब्लाग जगत में यह पहला लेख देखा है जिसमें दुहरे मापदंडों का विरोध किया गया है ! बिलकुल सत्य कहा है आपने बेटी को किचिन में जाने की फुर्सत ही नहीं मिल पाती जबकि बहु से आते ही उम्मीदें करने लगते हैं की उसे सब कुछ बनाना आना चाहिए !
समाज का यह दोगला चरित्र आने वाले समय में, हमारे बच्चों का बेहद नुक्सान करेगा ! इसका खुल कर विरोध होना चाहिए ! आपको हार्दिक शुभकामनायें !

ZEAL said...

.

Unfortunately this double standard is still existing at many places in India.


But time is changing, many girls like me are fortunate enough to get a loving mom-in-law.

Education now is playing a big role in changing people's mentality. Gradually Daughters and daughter-in-laws are getting equal love and affection.

Nice post.

Regards and best wishes.

.
.

संजय भास्‍कर said...

डॉ मोनिका ,
......बहुत बढ़िया लेखन

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत अच्छा लेख ...दोहरे मापदंडो पर प्रश्न करता हुआ ......

anshumala said...

बिल्कूल सही कहा आप ने हम सभी बहु और बेटी में फर्क करते है पर जैसे जैसे काम करने वाली लड़कियों कि संख्या बढ़ रही है लोगों के नजरिये में थोडा फर्क आ रहा है हा ये फर्क अभी छोटे शहरो में ज्यादा है बड़े शहर के लोगों ने धीरे धीरे इस बात को स्वीकारना शुरू कर दिया है कि घर के बाहर जा आकर काम करने वाली बहु से हम हर चीज कि उम्मीद नहीं लगा सकते है | पर जहा तक बात लडकियों में अपने कमाने को लेकर अकड़ की है तो मुझे लगता है की उनकी संख्या ५% भी नहीं है क्या आप को पता है की अपने पैरो पर खड़ी लड़किया या पत्निया भी अपने पैसे अपनी मर्जी से नहीं खर्च कर सकती है कही पर माँ बाप की रोक टोक होती है तो कही पर पति की उन महिलाओ की स्थिति भी किसी घरलू महिला से अलग नहीं होती है | यहाँ मुंबई में काफी महिलाए है जो घर ठीक से चलाने के लिए कमाती है और उनके सारे पैसे पति के साथ ज्वाइंट अकाउंट में जाते है और सारे पैसे का हिसाब किताब वो रखता है और उनको घर के भी सारे काम करना पड़ता है वो चाहे भी तो अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकती क्योकि ससुराल वाले छोड़ने नहीं देते है |

सदा said...

बहुत ही विचारणीय बात है यह तो, जिसे सहज रूप से नहीं लिया जाता, बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

रंजना said...

आपके इस आलेख की प्रशंशा मैं किन शब्दों में करूँ,समझ नहीं पा रही....शत प्रतिशत मेरे मन की कह दी आपने...बिलकुल यही स्थिति है आज की...
भोजन जो व्यक्तिमात्र की प्राथमिक आवश्यकता है,को सीधे सीधे पढाई और स्टेटस से जोड़कर देखा जाता है..भोजन बनाना छोटा काम समझा जाता है जिसे न कमाऊ लड़कियां करना पसंद करती हैं और पुरुषों के मन में तो डाल ही दिया गया है कि यह उनका काम नहीं...
लकड़े हों या लड़कियां ,परिवार जोड़ कर रखना,सबके प्रति मन में सम्मान और सेवा भाव रखना,परिवार द्वारा यह बीज उनमे डाला ही नहीं जाता...सब भागते फिरते हैं एक ही अभियान में कि अधिकाधिक पैसा कैसे कमाया जाय और इसके सहारे भविष्य सुनिश्चित किया जाय..

तुलनात्मक रूप में देखती हूँ तो मुझे आज का पुरुष वर्ग ही घर सेंतने वाला दीखता है,स्त्रियों में शिक्षा के साथ साथ बढ़ती उद्दंडता और उग्रता बड़ा ही अशुभ लक्षण है..परिवार समाज का भला नहीं होगा इससे...
जीवन में सबकुछ पैसे से ही नहीं पाया जा सकता..यह आत्मनिर्भर स्त्री और पुरुष दोनों को समझना होगा..

शोभना चौरे said...

bahut sahi aalekh .aaj ham sbhi jgho par dohre mapdand apna rhe hai jiska khamiyaja har kshetra me bhugtna pad raha hai .
kabhi samy mile to ye bhi padhne ka kasht kare .
http://shobhanaonline.blogspot.com/2009/07/blog-post_09.html#comments

Manoj K said...

आपने बिल्कुल सही मुद्दे पर बात की है. हमें थोड़ा ब्रोड माइंडेड होना होगा.

राज भाटिय़ा said...

लड़कियों का आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर होना अच्छा है लेकिन उन मै संस्कार भी डालने चाहिये,अगर हम अच्छी बहू चाहते है तो पहले अच्छी बेटी बनाये,लेकिन आज समाज मै दोगले लोग ज्यादा है जो अपनी बेटी की बुराईयो को भी अच्छाईयो से बताते है , ओर वो ही बाते अगर बहुं मे हो तो ....हमारी एक रिश्ते मे बहिन है, उस की लडकी ओर लडके की शादी एक सप्ताह के अंतराल मै हुयी,अब बहुत के जब लडकी हुयी तो हमारी बहिन का मुंह सुज गया, मैने काफ़ी समझाया लेकिन बहु के हर काम मे मेन मीख निकालाना, भगवान भी देखता है, एक महीने के बाद उस की बेटी के यहां जुडवा बेटिया हो गई, ओर फ़िर हमारी बहिन सब को बधाईयां देती फ़िरती मैने झट से आईना दिखा दिया, कि बहिन जब बहुं के बेटी हुयी थी तो..... ओर अब, ओर बहन जी हम से रुठ गई

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी तरह से आपने इस द्वंद्वात्मक स्थिति पर प्रकाश डाला है। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
स्वरोदय विज्ञान – 10 आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

anshumala said...

बिल्कूल सही कहा आप ने हम सभी बहु और बेटी में फर्क करते है पर जैसे जैसे काम करने वाली लड़कियों कि संख्या बढ़ रही है लोगों के नजरिये में थोडा फर्क आ रहा है हा ये फर्क अभी छोटे शहरो में ज्यादा है बड़े शहर के लोगों ने धीरे धीरे इस बात को स्वीकारना शुरू कर दिया है कि घर के बाहर जा आकर काम करने वाली बहु से हम हर चीज कि उम्मीद नहीं लगा सकते है | पर जहा तक बात लडकियों में अपने कमाने को लेकर अकड़ की है तो मुझे लगता है की उनकी संख्या ५% भी नहीं है क्या आप को पता है की अपने पैरो पर खड़ी लड़किया या पत्निया भी अपने पैसे अपनी मर्जी से नहीं खर्च कर सकती है कही पर माँ बाप की रोक टोक होती है तो कही पर पति की उन महिलाओ की स्थिति भी किसी घरलू महिला से अलग नहीं होती है | यहाँ मुंबई में काफी महिलाए है जो घर ठीक से चलाने के लिए कमाती है और उनके सारे पैसे पति के साथ ज्वाइंट अकाउंट में जाते है और सारे पैसे का हिसाब किताब वो रखता है और उनको घर के भी सारे काम करना पड़ता है वो चाहे भी तो अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकती क्योकि ससुराल वाले छोड़ने नहीं देते है |

deepti sharma said...

मोनिका जी बहुत सही कहा है अपने

ब्लॉग पर आने को आभार |

यूँ ही मेरा मार्गदर्शन करते रहिये

धन्यवाद

tension point said...

बहुत ही सार्थक लेख के लिए साधुवाद | वास्तव में पैसे के पीछे दौड़ते हुए समाज; सुखी जीवन जीने के मूल्यों को भूलता जा रहा है |

G.N.SHAW said...

यह जीवन की सबसे बड़ी हकीकत है की घर-परिवार और सामाजिक जीवन में एक दूसरे पर निर्भरता हमेशा बनी रहती है। यह बात महिलाओं और पुरुषों दोनों पर बराबर लागू होती है क्योंकि पारिवारिक जीवन में सामंजस्य का मूल आधार यह निर्भरता ही है। यह बात आज के दौर में बड़ी हो रही बेटियों को जानना ज़रूरी है .very good view.thank.you.

अनामिका की सदायें ...... said...

आपके ये विचार पहली बार जानने का मौका मिला.बहुत सुंदर तरीके से आप ने अपनी बात कही जो आज कल के हमारे घरों में होता है.

बहुत सुंदर विचार.

एक बेहद साधारण पाठक said...

@ मोटी तनख्वाह के तिलिस्म के आगे एक पत्नी, माँ और बहू के किरदार की अहमियत कम नहीं हो जाती


बेहतरीन ... बेहतरीन .. बेहतरीन

@ मैंने शायद ब्लाग जगत में यह पहला लेख देखा है जिसमें दुहरे मापदंडों का विरोध किया गया है !

सहमत ....सहमत .....सहमत

सतीश जी ने ना लिखा होता तो ऐसा ही कुछ मैं लिखता

एक बेहद साधारण पाठक said...

@जहा तक बात लडकियों में अपने कमाने को लेकर अकड़ की है तो मुझे लगता है की उनकी संख्या ५% भी नहीं है क्या आप को पता है की अपने पैरो पर खड़ी लड़किया या पत्निया भी अपने पैसे अपनी मर्जी से नहीं खर्च कर सकती है कही पर माँ बाप की रोक टोक होती है तो कही पर पति की उन महिलाओ की स्थिति भी किसी घरलू महिला से अलग नहीं होती है |

मेरा सर्वे
जहा तक बात "पुरुषों" में अपने कमाने को लेकर अकड़ की है तो मुझे लगता है की उनकी "संख्या ५% ही है" क्या आप को पता है की अपने पैरो पर "खड़े लड़के या पुरुष" भी अपने पैसे अपनी मर्जी से नहीं खर्च कर सकते है कही पर माँ बाप की रोक टोक होती है तो कही पर "पत्नी" की उन "पुरुषों की स्थिति भी किसी घरलू महिला या बेरोजगार से अलग" नहीं होती है |

उम्मीद है अंशुमाला जी मेरे इस नए सर्वे का बुरा नही मानकर इसे एक स्वच्छ मन से स्वीकार करेंगी क्योंकि किसी और ने भी ये कमेन्ट किया होता तो भी मुझे यही लिखना था जो लिख रहा हूँ :)

एक बेहद साधारण पाठक said...

ये कमेन्ट फॉलो-अप टिप्पणियों के लिए .... :)

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..मोटी तनख्वाह के तिलिस्म के आगे एक पत्नी, माँ और बहू के किरदार की अहमियत कम नहीं हो जाती ।
...बहुत सुंदर।
...दो रंगी नीति समाजिक बिखराव को जन्म देती है।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

आपके लेख अंतिम पैराग्राफ बहुत उत्तम कन्क्ल्युजन दे रहा है मोनिका जी , सच कहूँ तो मेरे घर-परिवार की लड़कियों से भी हमारे बुजुर्ग यही कहते है !

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@ आशीष मिश्र आपका धन्यवाद
@महफूज़ अली बहुत बहुत शुक्रिया आपका
@सतीश सक्सेना जी हाँ हम सबको इन दोगले मापदंडो से मुक्ति पानी ही होगी
वरना आगे आने वाले समय में कई खामियाजे भुगतने होंगे ।
@ zeal काश हर महिला यही कह पाए .... !
@संजय भास्कर धन्यवाद आपका .... आभार
@ संगीताजी आपका बहुत बहुत शुक्रिया....

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@ अंशुमाला
हाँ यह सही है की यह फर्क भी छोटे शहरों में ज्यादा है.....पर ऐसी विसंगतियों से बड़े शहर भी अछूते नहीं हैं।
बात अकड़ की नहीं उस उग्रता की करनी ज़रूरी है जो आजकल हर घर में बेटियों को पाठ की तरह पढाया जा रहा है।

@सदा यक़ीनन यह हमारे पूरे समाज के लिए विचारणीय बात है।

@ रंजना जी धन्यवाद
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जीवन में सबकुछ पैसे से ही नहीं पाया जा सकता..यह आत्मनिर्भर स्त्री और पुरुष दोनों को समझना होगा..
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बस यही बात समझने की आवश्यकता है

शोभा said...

यह तो भारतीय मानसिकता है। आपने एकदम सही कहा है।

mridula pradhan said...

bahot achchi baaten likhi hain.

Anonymous said...

खलील जिब्रान ...पर आपकी टिप्पणी का तहेदिल से शुक्रिया .....आप जैसे कद्रदानो के लिए ही मैंने ये कोशिश की है .....उम्मीद है आगे आप ऐसे ही हौसलाफजाई करती रहेंगी.......आप एक ज्वलंत विषय पर बड़ी बेबाकी से लिखती हैं ......पर ये इस देश का दुर्भाग्य है जिसने सिर्फ उन लोगों का इंतज़ार किया है जो उन्हें आकर बचा सके..........नहीं जो कुछ भी करना है हमें खुद करना होगा..........आपके महान कार्य के लिए मैं आपको सलाम करता हूँ |

कभी फुर्सत में हमारे ब्लॉग पर भी आयिए-
http://jazbaattheemotions.blogspot.com/
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एक गुज़ारिश है ...... अगर आपको कोई ब्लॉग पसंद आया हो तो कृपया उसे फॉलो करके उत्साह बढ़ाये|

स्वप्न मञ्जूषा said...

बिल्कूल सही कहा आप ने हम सभी बहु और बेटी में फर्क करते है ..

Pushpendra Singh "Pushp" said...

bahut khub likha apne
badhai

* મારી રચના * said...

saufi sadi sach kaha hain aapne... padhkar achha laga

दिगम्बर नासवा said...

आपका कहना सही है ... दोहरे माप दंड नही होने चाहिएं .... बेटी बेटा दोनो को सयम और धैर्य दोनो ही सिखाने चाहिएं ...

Shaivalika Joshi said...

Sach me bahut sahi kaha aapne

Humari Beti hi Kisi ke ghar ki bahu hoti hai

Jyoti Verma said...

aaj tak ye beti aur bahu ka fark khatm nhi hua hai.

Rohit Singh said...

कहां चोट कर दी। ये तो कोई समझेगा ही नहीं। इसलिए कहते हैं कि पहली परविश और शिक्षा घर में ही होती है। घर में ही अगर सही शिक्षा हो जाए तो आधे पारिवारिक समस्याएं खत्म न हो जाएं।
ये कुछ इसी तरह से है जैसे बेटा-बेटी में अंतर होता है। अपनी बेटी बेटी और दूसरे की बेटी बहु हो जाती है। इस व्यवहार को खत्म करना जरुरी है।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@शोभना जी कई बार ये दोहरे मापदंड अनगिनत सामाजिक और पारिवारिक समस्याएँ खड़ीं कर देते हैं।

@ मनोज हाँ मनोज आपकी बात से सहमत हूँ की हमें अपनी सोच को विस्तार देना होगा।

@ राज भाटिया जी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं...... अपनी बेटी और बहू में कितना फर्क करते हैं आज भी यह आपका दिया उदहारण साफ़ कर रहा है।

@ मनोज कुमार धन्यवाद आपका

@ दीप्ति शर्मा बहुत बहुत शुक्रिया

एक बेहद साधारण पाठक said...

:(

पूनम श्रीवास्तव said...

monika ji
samajh nahi pa rahi hun ki aapke is lekh ki tarrif me kya shabd likhun. aapka yah lekh padh kar aisa laga mano sab kuchh chal-chtra sa nazaron ke aage ghuum raha hai.ek behad hi samyik prasang par likha gaya aapka yah lekhek sarthakta
pradan karta hai.behtareen prastuti.
poonam

BrijmohanShrivastava said...

bahut achchha aalekh

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@ शंकर फुलारा आपकी बातों से पूरी तरह सहमत।


@अनामिका जी हाँ यही हो रहा है हमारे घरों में। बहुत बहुत शुक्रिया

@ गौरव अग्रवाल । शुक्रिया गौरव आपकी बात से सहमत हूँ और मानती हूँ की पुरुषों से जुड़े आपके इस सर्वे में भी दम है।

@ बैचन आत्मा धन्यवाद आपका

@ पी सी गोदियाल हाँ इस सीख की भी ज़रुरत है।

Asha Joglekar said...

दोहरे माप दंड हैं तो अब भी पर कम हो रहे हैं । बहू के काम को भी अहमियत दी जा रही है । बहू को यह सोचना जरूरी है कि पैसा ही सब कुछ नही होता । बडों का आदर सम्मान करना सबसे प्रेम से मिलना भी अच्छे चरित्र का हिस्सा है ।

एक बेहद साधारण पाठक said...

:)

Dr Xitija Singh said...

बहुत अच्छी पोस्ट मोनिका जी ... आपने बेहतरीन शब्दों में समाज के दोहरे विचारों को रखा है ... मगर समय बदल रहा है ... आने वाले सालों में उम्मीद है की सास बहु के रिश्ते में भी बदलाव देखने को मिलेगा ...शुभकामनाएं

जयकृष्ण राय तुषार said...

dr.monikaji thanks for your nice comments

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

Dr Monika ji ! lekh bahut hee sccha hai..logo ke is do tarah kee soch kaa aapne jo jikr kiya uspar vichar kar is ravaiye kaa tyaag kiya jana chahiye... aapka ye lekh kal charchamanch par hogaa.. shubhkaamna ..

vandana gupta said...

सारगर्भित आलेख्…………जिस दिन समदृष्टि हो जायेगी उस दिन सच मे इंकलाब आ जायेगा इंसानी सोच मे।

Unknown said...

लेख बहुत हीं अच्छा है। बस इतना कहना चाहूँगा कि " दूसरों से भी वैसा हीं व्यवहार करों जैसा स्वयं के लिए अपेक्षित हो।" पैसा प्यार की जगह कभी नहीं ले सकता है। रिश्तों में मैं यदि किसी भी तरफ से आ जाए तो वह रिश्ता ढह जाता है।

Unknown said...

Bilkul sahi kaha apne.

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