कोई कविता संग्रह पढ़ने को उठायें और रचनाओं तक पहुँचने से पहले ही एक पंक्ति मन को बांध ले तो...... ऐसा ही हुआ चित्रा देसाई जी का कविता संग्रह 'सरसों से अमलतास' पढ़ते हुए । संग्रह में समर्पण के भाव कहते हैं ।
" अपनी 'बिब्बी' को जिसने मुझे पंख दिए और नीड़ की अहमियत भी समझाई "
मन इन शब्दों के साथ थम सा-बंध सा गया । हाँ, उड़ान का हौसला आवश्यक है पर लौटने को नीड़ भी तो ज़रूरी है । ज़रूरी है वो बसेरा जहाँ अपने व्यक्तित्व और रिश्तों-नातों को सहेजा जाये । जहाँ अपनों के साथ ज़िन्दगी परवाज़ भरे । वरना, सब कुछ पाकर भी अधूरापन ही हाथ आता है । कहना ज़रूरी है कि इसी एक पंक्ति के बाद रचनाओं के प्रति उम्मीद भी बढ़ गयी थी । अच्छा ही लगा कि हर पन्ने के साथ यह बात पुख़्ता भी हुई कि संबधों की जटिलता और प्रकृति की सहजता को जीते हुए कितना कुछ शब्दों में उकेरा जा सकता है, जो पढ़ने वाले को बरबस ही बांध ले । चित्रा जी ने कहा भी है शुरुआत में कि 'चैत से फागुन तक, हर रिश्ते का अपना मौसम होता है। किसी ने जेठ की धूप दी और किसी ने सावन की बरसात ।' यकीनन हर रिश्ते का अपना रंग होता ही है और स्त्रीमन से बढ़कर इन रंगों को कौन जी सकता है ? भूमिका में चित्रा जी लिखती हैं कि 'गाँव की पगडंडी से शुरू हुई यात्रा महानगर तक ले आई ।' लेकिन रेखांकित करने वाली बात यह है कि इस विशेष यात्रा ने उन्हें विशाल भूगोल से जोड़ा पर ज़मीन से बांधे भी रखा । यही वजह है कि प्रकृति के कितने की घटक इस संग्रह की कविताओं का बिंब बने हैं । खेत-खलिहान, धरती,आकाश,लोकगीत और किस्से-कहानियां । सब कुछ चित्रा जी कविताओं की पृष्ठभूमि के रूप में शब्दों में ढला है । जो पढ़ने वाले को भी जीवन के इन यथार्थ भरे रंगों से रूबरू करवाता है ।
वे कहती हैं " आप किसी खेत के बीच खड़े हो जाते हैं तो ऐसा लगता है बाहर भी पाँचों तत्व और अंदर भी । सब एकाकार। " यही कारण है कि भाव को आधार बना रची गईं इस संग्रह की कई कविताओं में प्रकृति के उजाड़ से जुड़े जोखिम मुखरता से उभरे हैं । चिंतनीय हालातों को रेखांकित करते हैं । आज जब प्रकृति से किये खिलवाड़ का परिणाम हम भोग ही रहे हैं तो संग्रह की पहली ही कविता कहती है......कभी सोचा है / धरती अगर सन्यासी हो जाए / तो कैसा हो !
बीज रोपें / तो भी पेड़ ना दे /
कुदाली से खोदें / तो भी पानी ना दे....बहुत कुछ ऐसा जो अप्रत्याशित है । अगर धरती पर होने लगे तो...... वे लिखती हैं कि..
ये सोचते ही / मैं सुन्न होने लगती हूँ
और....अंजुरी में मिट्टी भर / माथे से लगा लेती हूँ ।
कहते हैं.... / आत्मीय स्पर्श / किसी को सन्यासी नहीं बनने देता
कभी सोचा है.....
धरती आकाश प्रकृति के मेल का भाव उनकी कई कविताओं का अहम हिस्सा है । रचना 'चैत से फागुन' में सावन के महीने में स्त्री के मन के उल्लास और आशाओं के साथ ही प्रकृति के जुड़ाव को बयान करती इस कविता में....
सावन में__ / आँगन के बीच / गहराए नीम के नीचे / झूलों में पेंगें बढ़ाते / मैंने आकाश छुआ कितनी बार । चित्रा जी की कवितायें रिश्तों और उनसे जुड़े पहलुओं को भी गहराई से उकेरती हैं । कई रचनाएं एक सार्थक सवाल से शुरू होती हैं और अंत भी एक प्रश्न पर ही होता है । यहीं पढ़ने वाला रचना से ख़ुद को जुड़ा हुआ पाता है क्योंकि उस कविता के सारे भाव फिर मन मस्तिष्क में कौंध जाते हैं और पाठक की सोच ख़ुद विस्तार पाते हुए उस प्रश्न पर विचार करती है । इस संग्रह की ऐसी ही रचना है 'गोमुख' ।
किसने कहा
चट्टानें,
अडिग-अटल खड़ी रहती हैं ।
तुमने देखी नहीं
इसके भीतर ही भीतर
खोखली हुई गुफा
जो बर्फ़ जमी माघ की रातों में
ठिठुरती हुई
अपनी कोठरी में रोती है ।
तभी तो ,
इसकी देहली
अनन्त जलधाराएँ बहती हैं ।
किसने कहा ....
मानवीय संबंधों को लेकर उनकी सभी रचनायें बहुत सुंदर हैं । अपनों और अपने रिश्तों को जीते एवं सहेजते हुए शायद हर स्त्री कभी ना कभी यह सोच ही लेती है कि....
तुम्हें खुश रखने की आदत
देवदार -सी
मेरे भीतर उग रही है ।
और इसीलिए मैं
बहुत बौनी होती जा रही हूँ ।
इतना ही नहीं चित्रा जी की कविताई में उभरी कुछ बातें बनी बनाई लीक से हटकर भी रिश्ते जीने की बानगी बनती हैं । 'नामपत्र' शीर्षक की कविता का अंश पढ़िये......
मुझे नहीं चाहिए / साँचे में ढालकर
बनाये जाने वाले / नपे-तुले सम्बन्ध
चौखट पर चिपका / तराशकर बनाया नामपत्र
मेरे लिए बेमानी है ।
यूँ ही सम्बन्धों की संरचना बयां करतीं कुछ ने कवितायें 'अपाहिज सम्बन्ध', 'तुम भी', 'तासीर' ,'रियायती', 'तुम्हारी चिठ्ठी', 'तुमसे मिलना', 'तय करो'और 'सम्बन्ध गणित हुए' वाकई सराहनीय हैं । ये रचनाएं कम शब्दों में गहरी बात कहती हैं ।
तुमसे मिले
छूटे.....
बहुत अनुभव हुए
और उसके बाद,
मेरे सम्बन्ध,
सारे गणित हुए ।
कहीं रिश्तों को सहेजने का प्रयास है तो कहीं मन का करने की कोशिश । 'आजकल मैं मन का करती हूँ' कविता इस संग्रह ही खास रचना भी कही जा सकती है क्योंकि सब कुछ कर लेने वाली स्रियां अक्सर मन का करने चूक जाती हैं । कितनी जिम्मेदारियां उनके हिस्से होती हैं जो ख़ुद की ख़ुशी के लिए चाँद लम्हे जीने का समय भी नहीं देतीं । बहुत कुछ सहज सरल मन का करने की बात करने वाली इस रचना में आखिरी पंक्तियां हैं....
सांझ ढले अपने गॉंव की मिट्टी को
दूर से ही सहलाती हूँ मैं
मेरे दोस्त कहते हैं -
आजकल मैं कुछ नहीं करती ।
क्योंकि -
आजकल मैं मन का करती हूँ .....
गाँव की पगडंडियों और रिश्तों के तालमेल से निकली इन रचनाओं में मायानगरी मुम्बई को लेकर भी दो रचनाएं शामिल हैं । 'बम्बई -1' जद्दोज़हद और भागमभाग के बीच जीते इस शहर के बाशिंदों की जिंदगी की हक़ीकत लिए है । तो 'बम्बई -2' धुँए के गुबार में खो चुके इस शहर के मन की टीस बयान करती है । दोनों ही रचनाएं यहाँ की इंसानी जीवनशैली और शहरी हालातों का रेखांकन करती हैं । कैसी विडंबना है कि इस महानगर में एक परिवेश में रहकर भी कुछ साझा नहीं ? कहा भी तो जाता है कि नियत दूरी बनाकर जीना ही इस शहर की सभ्यता है । 'बम्बई -1' कविता यही सवाल उठाती है कि इस अजब-गज़ब सभ्यता का चोला पहन लेना भी कहाँ तक उचित है कि एक दूजे की पीड़ा ही ना बाँट सकें ? क्यों ना थोड़ा सा असभ्य बनें ? किसी की देहरी लाँघ, मन का बोझ बाँटें । महानगर मुंबई से जुड़ी दूसरी कविता भी वाकई मर्मस्पर्शी है । जिसमें मुंबई अपने मन की कहती है ।
कितना कोसते हो तुम मुझे / सीप मोती सब चुगते हो .....सारी छाँव समेटकर /ईंट गारा में दबा दी / पर कहते हो / बड़ी तपिश है यहाँ ।
मेरे लिए चित्रा जी की रचनाएं पढ़ना बेहद सुखद अनुभव रहा । सामाजिक-पारिवारिक सच को उकेरती इन रचनाओं में हमारे परिवेश की सटीक अभिव्यक्ति समाहित है । हाँ, बड़े दिनों बाद ये संकलन पढ़ते हुए मुझे भी मेरा गाँव और खेत-खलिहान फिर स्मरण हो आये । चित्रा देसाई जी को इस सुंदर संकलन के लिए हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं ।
13 comments:
मर्म को छूती हुयी कवितायें ... सुन्दर समीक्षा पुस्तक की ...
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की १५५ वीं जंयती - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत बहुत आभार
धन्यवाद आपका
आभार
गहन समीक्षा
सुंदर कृति। उम्दा समीक्षा।
कविताये जितनी मार्मिक है उतनी ही सुस्पष्ट समीक्षा।
उत्कृष्ट कविताएं और गहन समीक्षा । पढकर बहुत अच्छा लगा।
मार्मिक काव्यांश और अद्भुत समीक्षा
स्त्रियाँ कितना भी कुछ करें रिश्तों से स्वयं को दूर नहीं र सकती.
आपके लेखन के द्वारा हम भी जुड़े चित्राजी की कविताओं से..
सम्बन्धों की अनबूझ पहेली सुलझा लेते हैं मन के धागे..खेत-खेत की बातें करते जीवन रण के आगे-आगे...
भूगोल के ये "गोल" घेरे
धरती नहीं हटती जहाँ से,
मन लगे पौधे अनौखे
बीज को पनपा ही देते...
भावनाओं के ज्वार के चित्र हैं कविता के रङ्गों को समेटे शब्द...कहीं पास तो कहीं दूर ढूंढ़ लेते हैं अपने लिए नीड़ और उसके लिए आलम्बनों की डालियां...
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