" काग़ज़ पर सूरज"..... ओम पुरोहित 'कागद' जी का यह कविता संग्रह ऐसी रचनाएँ लिए हैं जिसमें हमारे परिवेश और प्रकृति से जुड़े कई विषयों पर बात होती है । सधी सरल भाषा में सहजता से की गई बातें कुछ ऐसे विषयों पर विचारने का दृष्टिकोण देती हैं जो हैं तो हमारे आस-पास ही पर अनदेखी रह जाती हैं । चूँकि ये बातें अनदेखी रह जाती हैं इसलिए आम होकर भी इनके भाव भी अनकहे ही रहते हैं । ओम पुरोहित 'कागद' जी की कविताओं में घर-परिवार और रिश्तों से लेकर समाज के ढांचे में इंसानी मौजूदगी और उससे जुड़े कई सारे पहलुओं की बातें समाहित हैं । कुछ बातों को लेकर चिंता है और कई बातें शिकायतें लिए हैं । विसंगतियों पर वार भी करती हैं उनके भाव । हमारे सामाजिक ताने-बाने में उपस्थित विरोधाभासों पर बात करती कवितायें वाकई विचारणीय भी हैं और प्रासंगिक भी ।
काग़ज़ पर लिखा सूरज
नहीं देता दुनिया को रोशनी
रोशन हो सकने का
महज देता है अहसास
अहसास अगर रहे जिंदा तो
उगाया जा सकता है सूरज
सूरज उग सकने की उम्मीद को लिए यह कविता मानवीय भावों के उजास की बात करती है । पढ़ते हुए लगता है कि उम्मीदें बनी रहें तो रोशनी भी फूटेगी ही । ऐसी ही कई कवितायेँ इस संग्रह में हैं जो आशाएँ संजोने की बात करती हैं । संग्रह की कविता ' अटूट आशाएं ' भी उम्मीदों भी उम्मीदों के भाव से सजी हैं ।
भयावह अथाह
रेत के समंदर में
लगाती हैं डुबकियां
गोताखोर खेजड़ियां
ढूंढ ही लाती हैं
डूब डूब गए
हरियल सपने ।
'किसी का अंतस बांचने के लिए ' शीर्षक की कविता मन की पीड़ा ना बाँट पाने की बात कहती हैं । मानवीय भावों को लिए यह रचना सच की मार्मिक अभिव्यक्ति लिए है । वाकई, यह वास्तविकता ही है कि हम किसी के मन को कहाँ पढ़ पाते हैं ? कब समझ पाते हैं किसी के भीतर की टीस ? कहाँ पढ़ पाते हैं कही-अनकही हर तरह की पीड़ा को ? इसी कविता का अंश हैं ये पंक्तियाँ ........
कोई भी भाषा
किसी भी शब्दकोष के शब्द
शायद पर्याप्त नहीं हैं
किसी का अंतस
पूरा बांचने के लिए ।
अंतस बांचना सरल नहीं है, यह सच है और उतना ही सच यह भी है कि स्वयं अपने मन की कहने को भी शब्द कहाँ साथ देते हैं ? संग्रह की 'अभिव्यक्त नहीं मन' रचना को देखिये जो यही भाव समाहित किये है |
अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी अभिव्यक्त नहीं मन |
अंतस बांचना सरल नहीं है, यह सच है और उतना ही सच यह भी है कि स्वयं अपने मन की कहने को भी शब्द कहाँ साथ देते हैं ? संग्रह की 'अभिव्यक्त नहीं मन' रचना को देखिये जो यही भाव समाहित किये है |
अपने हाथों
रचा अपना संसार
अपने शब्द
अपनी भाषा
फिर भी अभिव्यक्त नहीं मन |
स्त्रीमन को समझने स्त्री के अस्तित्व की अहमियत को शब्द देने वाली रचनाएँ भी इस संग्रह का अहम हिस्सा हैं । ' मेरे भीतर स्त्री 'और 'सन्नाटों में स्त्री', ऐसी कवितायेँ हैं जो प्रभावी ढंग से बहुत कुछ कह जाती हैं । माँ से जुड़ी रचनाएँ बहुत मर्मस्पशी हैं । 'सपनों में माँ' , 'पूजाघर और माँ', ' याद आता है बचपन' जीवन में माँ की भूमिका और जुड़ाव को रेखांकित करते हैं । इन कविताओं के भाव वाकई मर्मस्पर्शी हैं । 'पूजाघर और माँ' कविता के शब्द घर के ही नहीं अंतस के खालीपन को भी लिए हैं जो माँ की मौजूदगी के बिना जीवन को ही अधूरा कर देता है । इस कविता की ये पंक्तियाँ कुछ ऐसी ही हैं........
ऐनक के पीछे
अब नहीं हैं माँ की आँखें
अहसास मगर है अभी भी
माँ के वहीँ होने का
अभी भी लगता है
घर के पूजाघर से
आएगी बाहर घंटी बजाती
मन ही मन गुनगुनाती
हाथ में लिए
मिश्री और तुलसी का पता
सबको बाँटने ।
'काग़ज़ पर सूरज ' कविता संग्रह में प्रकृति से जुड़ी रचनाएँ भी बहुत उम्दा हैं । 'पेड़ के सवाल ', 'धरा दुहागिन' प्रकृति की मार्मिक स्थिति बयान करने वाली कवितायेँ हैं । कविताओं में ऐसे कई बिम्ब हैं जो प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते हैं । इतना ही नहीं रचनाएँ बिगड़ते पर्यावरण के हालातों के प्रति सचेत भी करती हैं | संग्रह की पहली ही रचना ' हम पानी हो गए भी मन को छूने वाली रचना है । इन कविताओं में संवेदनाओं और संभावनाओं को लिए भाव में पढ़ने वाले प्रभावित करते हैं । हमारा मन जीवन कितनी कठिनाइयों और वेदनाओं से जूझता है कई कविताओं में मुखर होता है । जीवन और रिश्तों के तन्तुओं को कहीं गहराई से छूती ये रचनाएं कुल मिलाकर जीवन के हर पहलू को समेटे हैं । रचनाओं में उनके कवि मन ने जो बात कहनी चाही है वो सहजता से कही है पर सधी हुयी भी है । कागद जी की अभिव्यक्ति के इस सधेपन में हमारे परिवेश का हर रंग शब्दों में ढला है ।
हम / पानी की तरह / बहते रहे
तुम / पत्थर की तरह / लुढ़कते रहे
हम / नदी की तरह /सिकुड़ते रहे
तुम/ आकार पाते रहे
तुम्हें / मंदिरों में जगह मिली
हमें / बादल ले गए
तुम/ देव होकर भी / नहीं बरसे
हम/ बरस कर
फिर पानी हो गए ।
" काग़ज़ पर सूरज" संग्रह की रचनाओं को पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा । हालाँकि पहले ब्लॉग पर भी कई बार उनकी रचनाएं पढ़ चुकी हूँ । ओम पुरोहित 'कागद' जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
7 comments:
उद्दृत कवितायेँ बहुत अच्छी हैं . आप बढ़िया लिखती हैं . Keep it up !
very nice ,nicely expressed ,very easy and good read.very good job ,,Dr sahiba ,god bless
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पंडित किशन महाराज और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ओम जी के कविता संग्रह "कागज़ पर सूरज" की बहुत अच्छी समीक्षा।
ओम पुरोहित जी को हार्दिक बधाई!
आभार
समक्षित एवं समीक्षक दोनो का प्रयास सराहनीय। हार्दिक शुभकामनाये।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-05-2016) को "फिर वही फुर्सत के रात दिन" (चर्चा अंक-2334) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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