प्रवीन मलिक जी खुद घर और बाहर दोनों जगह अपनी ज़िम्मेदारियाँ संभाल रही हैं । मेरे काव्य संग्रह को पढ़ने के बाद उन्होंने एक सरल और सार्थक टिप्पणी की है जो गृहिणियों के जीवन की भावभूमि से जुड़े रंग साझा करती है । आभार प्रवीन जी
मोनिका जी आप द्वारा रचित "देहरी के अक्षांश पर" पढ़ा। बहुत ही खूबसूरती से आपने एक गृहिणी के जीवन को उकेरा है । सुना था की गृहिणी के बिना घर घर नहीं होता पर आपकी रचनाएँ पढ़कर और अपने व् माँ के जीवन को देखते हुए लगता है कि ये बिलकुल सही कहा गया है । एक गृहिणी सुबह से लेकर शाम तक शाम से लेकर रात बल्कि हर पल अपने घर परिवार को समर्पित रहती है । उसकी ख़ुशी , उसके सपने , उसकी दुनिया बस उसका घर परिवार ही होता है । वो गृहिणी चाहे कितना भी पढ़ी लिखी हो या फिर अनपढ़ हो पर अपने घर परिवार के गणित को अच्छे से जानती है । अपने घर को स्वर्ग बनाने में वो अपनी हर संभव कोशिश करती है भले ही उसके लिए कितनी भी उपेक्षा से गुजरना पड़े। अपनी इच्छाओं को वो जरा भी मान नही देती अगर बात अपने परिवार की हो तो । माँ को देखा था अक्सर कितने ही समझोते करते हुए । फिर कई बार खुद को भी देखती हूँ कि कई बार मन न होते हुए भी कुछ अनचाहे से रिश्ते निभाते हुए क्योंकि वहां फ़र्ज़ जुड़ा होता है । अपनी सही बात को भी साबित न करते हुए क्योंकि अपनों को दुःख होता है ।
आपका ये संग्रह हर किसी को पढ़ना चाहिए खासतौर से पुरुष वर्ग को अवश्य क्यूँकि अक्सर वही जाने अनजाने ये कहते रहते हैं की आखिर तुम करती क्या हो पूरा दिन ।
आपने लिखा माँ को जाना है माँ बनकर बिलकुल सही लिखा है । माँ को माँ बनकर ही जाना जा सकता है । माँ की परेशानियां , माँ की चिंताएं अब समझ आने लगी हैं क्योंकि अब हम भी माँ हैं । आप ही की रचित रचना से मैं सौ फ़ीसदी सहमत हूँ कौनसी देखिये जरा......
घर की हर दीवार पर
सजा है दर्पण यों तो
पर दिनभर नहीं मिल पाती मैं
अपने ही प्रतिबिम्ब से ।
कितना भी प्रगति कर ले हमारा समाज और हमारे समाज की नारी पर गृहिणी तो ऐसी ही रहेगी और ऐसी ही रहे तो बेहतर है । घर परिवार खुश रहेगा आबाद रहेगा ।
एक किस्सा बताती हूँ अपने ही जीवन का -
एक दिन घर में काम करने वाली सहयोगी(मैड) नहीं आई तो मैं घर में झाड़ू लगा रही थी की पति जी बीच दिन में ही किसी कारणवश घर पर आ गए और मुझे झाड़ू लगाते हुए देखकर मजाक कर बैठे-ओह्ह आज कंपनी की मालकिन झाड़ू कैसे लगा रही है ?
और मेरे मुंह से बस इतना ही निकला क्यूँकि घर में तो मैं एक गृहिणी ही हूँ ना ।
न दिन देखती है न रात
परिवार की सेवा में जुटी
गृहिणी की बस यही खास बात ।
कुछ न करते हुए भी दिन-भर जो खाली नहीं होती वो बस एक गृहिणी ही होती है।
हर गृहिणी की तरफ से आपको बहुत बहुत शुभकामनायें !!
12 comments:
बहुत बढ़िया जी ..अब तो हमें भी पढने की उत्कट इच्छा सी हो चली है ...गृहणी पृथ्वी समान होती है ..अतुलनीय
आपका एक ब्लॉग हुआ करता था 'परवाज'! क्या अब आप उस पर लेखन नहीं कर रही हैं? उस ब्लॉग में महिलाओं का हौसला देखने को मिला करता था। यहां सिर्फ गृहिणियों तक सीमित काव्य संग्रह की सूचना मिली। व्यस्तताओं के कारण अब यहां आना कम ही होता है लेकिन आपसे यह आशा हमेशा रही है कि लगातार बेहतर हिंदी में अभिव्यक्त भावनाओं की दलील पढ़ने को मिलती रहेगी। आपके काव्य संग्रह की तलाश जारी है...!!! इस संग्रह के प्रकाशन की ढेरों बधाइयां।
जी यह मेरा ब्लॉग परवाज़ ही है । बस, नाम बदला है ।
महिलाओें से जुड़े विषयों पर लिखना अब जारी है । यह काव्य संग्रह भी केवल गृहणियों तक ही सीमित नहीं है । स्त्री जीवन के रंग समेटे है । मेरे लेखन के प्रति आपकी उम्मीदों ने मुझे हौसला दिया । आभार
आभार
अच्छी समीक्षा प्रस्तुति ...
आपको हार्दिक बधाई!
Thanks Kavita ji
बेहद प्रभावशाली समीक्षा......बहुत बहुत बधाई.....
शुक्रिया
अच्छी समीक्षा। आपदोनों को बधाई।
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!
नारी मन को उकेरा है आपने इन रचनां में .... रवीन जी की समीक्षा से ये बात नज़र आती है ... पुनः बधाई ....
आग को आवाज यूँ ही मिलती रहे ।
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