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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

18 December 2015

भीतरी शक्ति के निखरने की कहानी



कभी कभी किसी किताब को पढ़ना उसे जीने जैसा भी होता है । उस कहानी में शब्द जिन परिस्थितियों को उकेरते हैं उन्हीं के मुताबिक  मनोभाव प्रभावित हैं । इसीलिए पन्नों से गुज़रते हुए कभी कुछ सवाल जन्म लेते हैं तो कई बार गुस्सा भी आता है । सवाल, हमारे सामाजिक-पारिवारिक हालातों को लेकर दस्तक देते हैं जो बरसों से जस के तस हैं और गुस्सा उन जटिल अनकहे  अबोले नियमों के लिए जो केवल महिलाओं के लिए ही बने हैं । कई बार तो बचपन से लेकर वैवाहिक जीवन तक उन्हीं के तले सहमी सी ज़िंदगी को जीते हुए पूरा जीवन बीत जाता है लड़कियों का । घर बदल जाता है । नए रिश्ते जुड़ जाते हैं । बहुत कुछ पीछे छूट जाता है लेकिन उलझने ज़रूर बरकरार रहती हैं उम्रभर । जीवन की इन्हीं दुश्वारियों और अपनों से मिली तल्ख़ियों   के बीच जूझते हुए  कई बार हौसला दम तोड़ देता है तो कई बार एक स्त्री अपना नया अस्तित्व रचती है । जिन अपनों  के लिए समझौते करते हुए जीती है उन्हीं अपनों के लिए कभी शक्तिस्वरूपा बन कठोर निर्णय भी लेती है । आज रश्मि रविजा का उपन्यास 'कांच के शामियाने'  पढ़कर ख़त्म किया । यह उपन्यास स्त्री की इसी जद्दोज़हद को लिये है जो टूटती  तो कई बार है पर बिखरती नहीं । हाँ, इस संघर्ष में वो निखर ज़रूर जाती है । पर जया के लिए सब कुछ इतना सरल नहीं रहा । जी हाँ, यही नाम है उपन्यास की नायिका का, जिसकी कहानी हमें हमारे समाज की उन परिस्थतियों से रूबरू करवाती है जो कमोबेश हर लड़की के हिस्से आती हैं । 

एक वाक्य में कहूँ तो जया के साथ वही हुआ जैसा अक्सर होता है । यानि मायके में जो गुण कहे जाते थे वो ससुराल में किसी के लिए ध्यान देने वाली बात ही नहीं रहे ।  मायके में  जिसे आत्मविश्वास कहा जाता था  ससुराल में सब उसे उदंडता समझते थे । शादी क्या हुयी मानो उसकी काबिलियत और  व्यक्तित्व का कोई  मायना ही नहीं  रहा । घर के सदस्यों को  छोड़ भी दें तो स्वयं उसके जीवनसाथी का व्यवहार भी उसे मान-सम्मान देने वाला ना था ।  पढ़ते हुए कई बार यही लगा कि अपनी जीवनसंगिनी के प्रति किसी इंसान का ऐसा रवैया  कैसे हो सकता है ? इतनी नकारात्मकता और बेवजह की नाराजगी आखिर किसलिए भरी थी राजीव के व्यवहार में । कई जगह उसके इस दुर्व्यवहार को भोगती जया की हालत देखकर गुस्सा भी आता है और पीड़ा भी  होती है । उपन्यास की घटनाएँ इतनी जीवंत लगती हैं कि  ससुराल वालों का लालची और अपमानजनक व्यवहार आँखों के सामने दिखता है । यह सब होते हुए भी ध्यान देने वाली बात यह है कि लेखिका ने इस बात का  ख़ास  ख्याल भी रखा है कि परम्पराओं और परिवार के नियमों से बंधी पढ़ी लिखी लड़कियाँ भी किस कदर हर जुर्म सहने की हिम्मत जुटा लेती है । पीड़ा और अपमान सहती जाती हैं, सहती जाती हैं । लेकिन उनके अपने तो मानो उनकी परीक्षा लेने की  सोचकर  बैठे होते हैं । ना थकते हैं ना रुकते हैं । तभी तो वे हँसती खिलखिलाती और जीवन से जुड़े सुन्दर सपने मन में संजोने वाली लड़की के मर्म को अंदर तक चोट पहुँचाने में कामयाब भी होते हैं । 

तभी तो मन में सवाल भी उठते हैं कि लड़की की शादी से पहले लड़के की नौकरी और कमाई ही क्यों देखी जाय । भावी दूल्हे का व्यवहार और विचार कैसा है यह भी तो देखना चाहिए । साथ यह भी कि अगर लड़के वाले पहल कर दें तो लड़की वाले कृतार्थ होकर बस उनकी बात मान लें, ऐसा क्यों ?  क्यों नहीं सोचा जाता कि शादी के बाद अगर दोनों की मानसिकता ही मेल नहीं खाती तो साझा जीवन  जीया कैसे जायेगा ? जया के मामले में यही हुआ। नतीजतन उसकी  शादीशुदा  ज़िन्दगी केवल दुखों की सौगात बनकर रह गयी । पति का गुस्सा और घर वालों का स्वार्थपरक व्यवहार झेलना उसकी नियति  बनकर रह गया । बना  ख़ता के सज़ा की तरह ये जीवन उसके हिस्से आया । हमारे परिवेश की असलियत को उजागर करते इस उपन्यास में अपनों बेगानों से ऐसे हालातों में अक्सर जो मिलता है जया को भी वही मिला । नसीहतें और हर हाल में अपने घर को बचाये रखने की सलाह । लेकिन पढ़ते हुए लगा रहा था कि जया का घर बसा ही कहां हैं ? वैवाहिक जीवन में जो सम्मान, संभाल  और प्रेम होना चाहिए वो कहीं दूर दूर तक नहीं था । हर  पन्ने  को पढ़ते हुए लगा कि जया ऐसा जीवन क्यों जिए जा रही है जो उसे तो खोखला कर ही रहा है उसके बच्चों से भी बचपन छीन रहा है । अमानवीय व्यवहार का धनी राजीव ना अच्छा पति बना और न ही पिता । इसीलिए बच्चों की भी दुर्दशा ही हो रही थी उस घर में । आखिर कब तक बर्दाश्त करेगी जया ? मन में कितनी पीड़ा हुई यह देखकर कि यह सहनशीलता उसका सब कुछ छीन रही थी ।  


खैर, कहानी के नए मोड़ पर पढ़ने वाले को भी कुछ हिम्मत मिलती है जब जया अपनी बेटी की मासूम चाह और उम्मीदें जानकर कहीं भीतर तक हिल जाती है। इन नन्ही आशाओं को जानकर वो ख़ुद नया हौसला पाती है और अपना आशियाना बसाने की सोचती है । हालाँकि हमारे समाज में ऐसे निर्णय भी आसानी से ना तो सराहे जाते हैं और ना ही समझे जाते हैं पर जया का अडिग रहना वाकई स्त्रीत्व की शक्ति की गहराई समझाता है । जो महिला पत्नी थी तो शक्तिहीन सी सब सहती रही वो बतौर माँ हिम्मत का प्रतिमान लगने लगती है । यहाँ पाठक के मन में भी ख़ुशी दस्तक देती है कि चलो पति की क्रूरता बर्दाश्त करने का सिलसिला तो थमेगा अब। सुखद यह कि आगे होता भी यही है । एक बार हिम्मत बंधती है तो फिर बंधती ही चली जाती है । सार्थक सन्देश मिलता है कि क़दम बढ़ाये तो जाएँ, राहें भी निकलेंगीं । प्रवाहमयी भाषा और आम से शब्दों में गुंथे जीवंत अहसास उपन्यास की सबसे बड़ी ख़ासियत हैं । जो ना केवल पढ़ने वाले को बांधे रखते हैं बल्कि पाठक को अपने साथ बनाये रखते हैं । संवादों को पढ़ते हुए लगता है जाने कितने आँगन ऐसे हालातों के गवाह बने हैं और आज भी बन रहे हैं । इस उपन्यास की सफलता और सतत लेखन के लिए रश्मि जी को हार्दिक शुभकामनायें | 

8 comments:

santosh chaudhary said...

अभी पढ रहीं हूँ, आधा ही पढ पाई पर एक स्त्री जीवन की कठिनाइयों का मामिॆक जीत्रण,, शेष पूरा पढने पर अनुभव साझा करेगें...

rashmi ravija said...

बहुत बहुत शुक्रिया Dr-Monica Sharrma . बहुत विस्तार से लिखकर गहन विवेचन किया है. उपन्यास में वर्णित घटनाओं से कई सवालों की तरफ भी इशारा किया है जो एक पारखी नजर की पहचान है .
"मायके में आत्मविश्वास कही जाने वाली बातें ससुराल में उद्दंडता क्यूँसमझी जाती हैं "."लड़की की शादी से पहले सिर्फ लड़के की नौकरी और कमाई ही क्यूँ देखी जाती है...व्यवहार और विचार कैसे हैं..ये क्यूँ नहीं पता किया जाता ."
अगर लड़के वाले शादी के लिए पहल करें तो बस कृतार्थ होकर उनकी बातें मान ली जाएँ "
ऐसे ही कई वाक्य मिले जो दर्शाते हैं, कितनी गंभीरता से उपन्यास पढ़ा है ...पुनः आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

ध्यान गया क्योंकि बहुत आम सी बातें हैं पर ज़िंदगी की दिशा बदल देती हैं । ऐसा होने पर बिना गलती के सज़ा मिलती हैं कई लड़कियों को । यथार्थ उकेरती कृति के लिए फिर बधाई

गिरधारी खंकरियाल said...

शादियां तो अब वस्तुविनिमय की प्रक्रिया से तय होती हैं। विवाह नामक संस्था के सारे नियमो का लोप हो चुका है।

Kailash Sharma said...

बहुत सार्थक और गहन समीक्षा...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-12-2015) को "जीवन घट रीत चला" (चर्चा अंक-2196) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

दिगम्बर नासवा said...

रश्मि जी की इस पुस्तक से भी अभी ही परिचय हुआ आपकी समीक्षा पढने के बाद ...
बधाई आपको और उनको ...

Maheshwari kaneri said...

बहुत सार्थक समीक्षा

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