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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 September 2014

टीवी की फूहड़ संस्कृति में हास्य का मतलब है अपमान

पिछले कुछ समय से टेलीविज़न की दुनिया में हास्य की नई परिभाषा गढ़ी गई है । जिसके मुताबिक हँसी यानि अपमान और फूहड़ता का अजीबोगरीब मेल । इस मिश्रण का भाव चाहे सामाजिक हो या व्यक्तिगत । सार बस इतना होता है कि एक अर्थहीन सी बात कही जाये जो अंततः किसी न किसी रूप में अपमान करने का भाव लिए हो । आजकल ये कार्यक्रम खूब देखे जा रहे हैं । ऐसे में अब हालात कुछ ऐसे बने हैं कि हम  हास्य और उपहास का अंतर ही भूल गए हैं । गरीबी से लेकर गर्भवती महिला तक । इन कार्यक्रमों में हर बात और हालात को मजाक बना फूहड़ता के घेरे में लाया जा रहा  है । दर्शकों से लेकर प्रस्तुतकर्ताओं तक सभी यह भेद करना ही भूल गए हैं कि ये हास्य परोसा जा रहा या अपमान । 

बड़े शहरों में घर इतने बड़े नहीं होते हैं कि बड़ों के कार्यक्रम बच्चों तक और बच्चों के कार्यक्रम बड़ों तक न पहुंचें । ऐसे में टीवी पर चलने वाले हर कार्यक्रम को देखना घर के हर सदस्य की अनकही अनचाही मजबूरी सी है । तकरीबन हर उम्र के सदस्य हर तरह के प्रोग्राम देखते हैं या यूँ कहें कि देखना ही पड़ता है । ऐसे में इन हँसी मजाक वाले कार्यक्रमों में परोसे जा रहे द्विअर्थी संवादों को बड़े ही नहीं बच्चे भी देखते हैं, सुनते और समझते हैं । बच्चे वैसी भाषा बोलना सीखते हैं । जिससे उनका पूरा मनोविज्ञान प्रभावित होता है । 

हैरानी ये देखकर भी होती है कि इन कार्यक्रमों में आम लोगों को खास बनाने का झांसा देकर उनकी भावनाओं से खेलना कितना सही है ? सही मायने में देखा जाये तो ये हास्य कम उपहास उड़ाना अधिक लगता  है । अपमान का यह मसाला कुछ ऐसा हो गया है कि धर्म से लेकर किसी के व्यक्तिगत जीवन तक । किसी भी विषय में मिला दो।  बेहूदगी से भरा चटपटा मनोरंजन तैयार । दुखद ये कि इन्हें देखकर आमजन भी सीख रहे हैं कि ज़िंदादिल होने का मतलब है किसी और की ज़िन्दगी का मजाक बनाना । कुछ अटपटी चटपटी बातें कहना जो दूसरों को हैरान परेशान कर दें । 

कभी कभी लगता है कि क्या ये ज़रूरी नहीं कि हास, परिहास और उपहास के बीच के अंतर को समझा जाये । क्योंकि हँसी उड़ाने का यह खेल जाने अनजाने हमारे मन से श्रद्धा और समझ का भाव भी छीन रहा है । गायब हो रहा है श्रद्धा के चलते उपजने वाला वो मान जो हमारे मन में बड़ों के लिए होता है । किसी महिला के लिए होता है । किसी बच्चे की मासूमयित के लिए होता है । किसी व्यक्ति के सामाजिक पारिवारिक हालातों के लिए  होता है । ऐसा होने पर टीवी के भीतर पोषित होती फूहड़ता हमारे वास्तविक जीवन में आ धमकेगी और अपने पांव कुछ इस तरह से जमा लेगी कि फिर इस मजाक के विषय में गंभीरता से सोचना होगा । 

यह सच है कि हर समय गंभीरता नहीं ओढ़ी जा सकती । पर उससे भी बड़ा सच ये है कि ऐसा फूहड़ और अर्थहीन हास्य उस गंभीरता से कहीं अधिक खतरनाक है जो कम से कम मन में संवेदनाएं तो जीवित रखती है । किसी के मन को आहत तो नहीं करती । किसी की निजता का मजाक नहीं बनाती | 

42 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपके लिखे से पूर्ण रूप से सहमत हूँ .... सार्थक लेखन

Unknown said...

बेहद फूहड़ हास्य परोसा जा रहा है शर्म से गर्दन झुकाने के लिए वाध्य कर देता है

वाणी गीत said...

सफलता की बदहज़मी ! कभी -कभी फूहड़पन बर्दाश्त करना मुश्किल हो जाता है !

P.N. Subramanian said...

हम एकदम सहमत हैं कि इनसे बच्चों का मनोविज्ञान बुरी तरह प्रभावित हो रही है

रश्मि प्रभा... said...

आजकल मज़ाक का अर्थ है किसी को जलील करना और मानसिकता देखो लोग ठहाके लगाते हैं

Vaanbhatt said...

सही-गलत का आँकलन वर्तमान परिपेक्ष्य में असंभव होता जा रहा है...जिसे पहले सभ्यता और संस्कार माना जाता था...आज बुजुर्गों का अनर्गल प्रलाप माना जा रहा है...शुद्ध हास्य के लिए पुरानी फिल्मों में कॉमेडियन हुआ करते थे...जिन पर सिर्फ हंसाने के लिए घटनाक्रम बनाये जाते थे...आज बदतमीज़ी और अश्लीलता से बोलने को लोग हास्य समझ रहे हैं...सुंदर प्रस्तुति एवं आलेख...

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा आपने इस आलेख में .... सार्थकता लिये सशक्‍त लेखन

amit kumar srivastava said...

द्विअर्थी संवाद बोल कर बुद्धिमान होने का स्वांग रचते हैं । जबकि ये संवाद द्विअर्थी कहीं से भी नहीं होते बल्कि सीधे सीधे फूहड़ता प्रदर्शित करते हैं ।

कालीपद "प्रसाद" said...

मजाक /हास्य के नाम पर फूहड़ता है| शब्द के साथ साथ शारीरिक हावभाव (बॉडी लैंग्वेज ) भी अश्लील होता है!
मार्यादा को तक पर रख दिया है | दुःख की बात यह है कि इसमें महिलाएं भी शामिल है !
नवरात्रों की हार्दीक शुभकामनाएं !
शुम्भ निशुम्भ बध - भाग ५
शुम्भ निशुम्भ बध -भाग ४

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

आपने अच्‍छी बात कही। पर अभी ऐसी स्थिति तो आई नहीं कि आतंकवादी लोगों को मारने की धमकी देकर ऐसे कार्यक्रम देखने को कह रहे हों। तो ऐसे कार्यक्रम देखना न देखना लोगों के हाथों में है। टीवी किसी के जीवन की अावश्‍यकता कभी नहीं हो सकता। पढ़ाई की बातों के लिए पुस्‍तकें या समाचारपत्र हैं। अगर ज्‍यादातर लोग ऐसे कार्यक्रम नहीं देखें तो इन्‍हें बनानेवाले अपने आप सुधर जाएं और ऐसे कार्यक्रम वे बनाएं ही नहीं। लेकिन मोनिका जी अगर वामपंथ के जहर से उपजी अधिकांश लोगों की ऐसी फूहड़ हास्‍य परोसनेवाली मानसिकता को, इस सब को आधुनिकता और जिन्‍दादिली कहा जा रहा है तो बहुत शर्म आती है। आपके पूरे लेख में यह वाक्‍य (ऐसे में टीवी पर चलने वाले हर कार्यक्रम को देखना घर के हर सदस्य की अनकही अनचाही मजबूरी सी है।) ठीक नहीं है।

nayee dunia said...

sahi kaha aapne ....aaj kal fuhad mazak ko hi hasy samjh liya gya hai ....mazak karne aur mazak udane me fark hota hai ..yah aaj kal log bhulte jaa rahe hain

डॉ. मोनिका शर्मा said...

मैंने ये बात इस सन्दर्भ में कही है कि बड़े शहरों में घर इतने छोटे होते हैं कि ये कार्यक्रम यदि केवल बड़े ही देखना चाहे तो भी बच्चों के लिए इन्हें देखना मजबूरी सी है | क्योंकि दो कमरों के घर में वे कहाँ जायेंगें और इस तरह बच्चो कि सोच समझ पर भी नकारात्मक असर पड़ रहा है |

Vandana Sharma said...

very true, but its high time that we all raise our voice against this

रचना त्रिपाठी said...

बहुत हैरानी होती है इस तरह के कामेडी शो देखकर। कितना अंतर आ गया है पहले के टीवी कार्यक्रमों से अब में। एक दशक पहले के हास्य कलाकारों को देखने मात्र से ही हास्य भाव का एहसास होता था।और अब हास्य के नाम पर कुछ भी परोस रहे हैं।चिंता का विषय है ।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

इस मामले में हमारे परिवार के सभी सदस्य बिल्कुल एक सा सोचते हैं... हम ऐसे प्रोग्राम देखते ही नहीं. फूहड़ हास्य के नाम में हमारे पौराणिक देवी, देवेताओं का मज़ाक उड़ाना और गन्दे चुटकुले सुनाना... सही बात उठाई है आपने!

Unknown said...

टीवी की ज़रूरत ही क्या है? समाचारों और मनोरंजन के लिए एफएम भी पर्याप्त है, फिर इंटरनेट है ही ज्ञान का अथाह भंडार. बालक भी अधिक से अधिक समय कंप्यूटर पर बिताएं, तो सभी टीवी के ज़हर से बचे रहेंगे. एक साल करके देखें. (महिलाओं को सीरियल के पात्रों से भावनात्मक जुड़ाव ऐसा नहीं होने देता बाकि टीवी कोई आवश्यकता नहीं है)

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार आपका

संध्या शर्मा said...

सारी ग़लती हमारे समाज की है. सड़ा गला जो भी मनोरंजन के नाम से परोसा जा रहा है आँख मूँदके खाया जा रहा है. परिणाम बहुत ख़राब होगा यदि वक़्त रहते नही चेते … विचारणीय आलेख

Smart Indian said...

समस्या पहले भी थी लेकिन फिल्म और छापे हुए हास्य-व्यंग्य तक सीमित थी। आज मनोरंजन के माध्यमों के बढ़ाने के साथ ही याद विद्रूपता भी बढ़ी है।

प्रतिभा सक्सेना said...

इस टीवी कल्चर (इस दृष्टि से हमारे यहाँ की पत्रकारिता, और नेता बने बैठे लोगों की बेसर्म पैतरेबाज़ी भी कुछ कम नहीं) का विकृत प्रभाव आज की चारित्रिक गिरावट मे सामने आ रहा है. घरों में भी वही डायलाग्ज़ सुनाई देने लगे हैं .अपनी संस्कृति को जानने-अपनाने वाले हैं ही कितने ?मुझे जब वो गाना याद आता है - 'राधा तेरा ठुमका,झुमका और पीछे गली के सब लड़के ...' तो लगता है हम कहाँ से कहाँ पहुँच गए !

कुमकुम त्रिपाठी said...

बिल्कुल ठीक लिखा कि ये कार्यक्रम 'हँसी यानि अपमान और फूहड़ता का अजीबोगरीब मेल है'' ...पर 'आज कल ये कार्यक्रम खूब देखे जा रहे हैं '' इस तरह ऐसे कार्यक्रमों की लोकप्रियता हम ही बढ़ा रहे हैं ...,जो इस तरह के कार्यक्रम बनाने वालों का मनोबल बढ़ रहा है तथा और भी लोगों को बनाने के लिए प्रेरित भी कर रहा है .......

Himkar Shyam said...

विचारात्मक आलेख...लोकप्रियता की कसौटियों पर सबसे आगे नज़र आने वाले कॉमेडी कार्यक्रमों में फूहड़ता, घटियापन, अश्लीलता और द्विअर्थी सामग्री की भरमार नज़र आती है. जो दिखता है वो बिकता है और टीआरपी के चक्कर में फंसकर टीवी ने फूहड़ कार्यक्रमों को अपना लिया है, जबकि स्तरीय कॉमेडी के दर्शक अब भी मौजूद हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो सब टीवी के धारावाहिक "तारक मेहता का उल्टा चश्मा" को इतनी सफलता नहीं मिलती. इसमें ना तो अश्लीलता है ना ही फूहड़ता. पूरा परिवार इस शो को एक साथ बैठकर देखता है. व्यंग्य, फूहड़ व्यंग्य और फूहड़ कॉमेडी के फर्क को समझना बेहद जरूरी है.

गिरधारी खंकरियाल said...

इसी कारण मेरे घर मे अब टी वी बन्द रहता है, केवल समाचार या डिस्कवरी जैसे चैनलों के लिये खुलता है

Rs Diwraya said...

मॉनिका जी आपकी बात सही है कभी कभी टी.वी पर ऐसी जॉक्स आते है जिनको देखकर शर्म महसुस होती है ।
बहुत ही रहिस्य से भरी पँक्तिया
आपका ब्लॉगसफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटरपर लगाया गया हैँ । यहाँ पधारै

Suman said...

लोगों को हँसाने के लिए किसी भी हद तक जा रहे है यह धरावाहिक, विनोद और फूहड़ता
का भेद ही भूल गए है मै तो कभी नहीं देखती, सहमत हूँ आपके इस लेख से !

G.N.SHAW said...

अर्थ मनोभाव पर निर्भर होते है । पर अति का विरोध होनी चाहिए । यही संभव नहीं होते है ।कोई शिकायत नहीं करता । उचित फोरम उपलब्ध है । सार्थक विचारणीय लेख ।

V Vivek said...

Aapki is rachna ke mayne aur bhaao bilkul sahi hain. Aajkal aisa hi ho raha hai. Aajkal television pe aise kaaryakarm dikhaye jate hain aur banaye jate hain jo darsahko ko us aur aakarshit karne me uttajit kar de.
Aap kabhi hamare blog par bhi aaye aur comment kare. Hamara blog hai:- www.vivekv.me

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लेख लिखा!

हास, परिहास और उपहास के बीच के अंतर को हमेशा समझा जाना चाहिये।

राजीव कुमार झा said...

हास्य और व्यंग्य के बदले फूहड़ हास्य परोसा जा रहा है चैनलों पर लेकिन विडंबना यही है कि यही कार्यक्रम हिट है.
नई पोस्ट : इतिहास के बिखरे पन्ने : आंसुओं में डूबी गाथा

Anupam Dixit said...

कुछ मूल्य सापेक्ष नहीं हो सकते । अभी दो रोज़ पहले फेसबुक पर स्कूल के बच्चों ने एक डिबेटिंग ग्रुप बनाया । एक बच्चे ने प्रश्न रखा की क्या हानी सिंह को प्रतिबंधित कर देना चाहिए और जैसी की आशा थी लगभग सभी ने यही कहा कि हानी सिंह बुरा नहीं है हाँ उसके कुछ गाने बुरे हैं लेकिन नयी पीढ़ी को यही पसंद हैं और हम प्रतिबंध नहीं लगा सकते। इन उत्तरों के तर्क वही हैं जो बाज़ार ने गढ़े हैं और जिनकी घुट्टी दिनरात इसी तरह के कार्यक्रमों से पिलाई जाती है। यही कारण है कि इस ग्रुप में बहुत से अध्यापक/ अध्यापिकाएँ भी थे जो हानी सिंह के समर्थन में थे। बेशक में उस यूटोपिया के खिलाफ हूँ कि हर वह चीज़ जो अतीत में थी अच्छी थी और वर्तमान खराब है लेकिन फिर भी अगर कहीं पतन हो रहा है तो उसकी कोई सीमा खींचने वाला तो होना चाहिए। हालत यह हैं कि जो भी इस सीमा को खींचने का प्रयत्न करता है वह खुद ही सीमा रेखा के दूसरी ओर खुद को अकेला पाता है।

Kailash Sharma said...

कुछ वर्ष पूर्व हास्य का बहुत सुन्दर कार्यक्रम आता था जिससे बहुत सुन्दर और प्रभावी राजू श्रीवास्तव जैसे कई हास्य कलाकार उभर कर आये थे. लेकिन आजकल के एक लोकप्रिय हास्य कार्यक्रम में केवल फूहड़ता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों ऐसे प्रोग्राम फिर भी लोकप्रिय हो रहे हैं.

Jyoti khare said...

एक समय था जब हास्य और व्यंग का अपना महत्व था -- पर अब हास्य और व्यंग को शालीनता के दायरे से अलग कर दिया है --- अब हास्य किसी की मानसिकता से खिलवाड़ करना हो गया है ---
आपने जिन मुद्दों को उजागर किया है वाकई ये विचारणीय हैं --
सारगर्भित आलेख
सादर --

शरद का चाँद -------

Hari Shanker Rarhi said...

gambhir lekin maheen mudda aapne uthaya. kam log samjhate hain maamuli antaron ko.

virendra sharma said...

जो अभिधा ,लक्षणा ,व्यंजना ,(शब्द की शक्तियों )को ही नहीं जानते वे व्यंग्य विनोद को क्या समझेंगे। व्यंग्य विडंबन प्रसूत होता है विसंगतियों से आय -रनीज़ (Ironies ) से। व्यंग्य कहते थे काका हाथरसी ,ओम प्रकाश आदित्य ,आज भी सुरेन्द्र शर्मा कह रहे हैं। व्यंग्य कहते थे शरद जोशी ,हरशंकर परसाई। चेनलिए हसोड़े इसे क्या जाने ?

virendra sharma said...

जो अभिधा ,लक्षणा ,व्यंजना ,(शब्द की शक्तियों )को ही नहीं जानते वे व्यंग्य विनोद को क्या समझेंगे। व्यंग्य विडंबन प्रसूत होता है विसंगतियों से आय -रनीज़ (Ironies ) से। व्यंग्य कहते थे काका हाथरसी ,ओम प्रकाश आदित्य ,आज भी सुरेन्द्र शर्मा कह रहे हैं। व्यंग्य कहते थे शरद जोशी ,हरशंकर परसाई। चेनलिए हसोड़े इसे क्या जाने ?

एक टिप्पणी ब्लॉग पोस्ट :

http://meri-parwaz.blogspot.com/2014/09/blog-post_28.html#comment-form

परवाज़.....शब्दों के पंख

दिगम्बर नासवा said...

समय की रफ़्तार और कुछ नए की खोज ने हास्य में भी नए तरीके खोजने की कोशिश है फिर उसमें चाहे किसी का उपहास हो या अपमान मायने नहीं रखता ... हाँ कुछ समय तक जबरदस्ती उसे प्रस्तुत किया जायगा पर अनन्तः अगर लोग उसे नहीं देखेंगे तो जल्दी ही समाप्त भी हो जायेगा ... पर असल मुद्दा मूल्यों का है जिसका की तेज़ी से पतन हो रहा है विशेष कर अपने समाज में ... जो ऐसी सब बातों को सृजित करने में सहायक हो रहा है ... इसका उपाय ढूंढना बहुत जरूरी है ...

मेरा मन पंछी सा said...

उल-फिजूल और द्विअर्थी जोक्स टी.वीपर दिखाते है जो की बिलकुल ठीक नहीं और पब्लिक भी इसे सहज स्वीकार कर ठहाके लगाती है...इन सबमे दोष पब्लिक का भी है...

डॉ. नवीन जोशी said...

आपका ब्लॉग मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरा ब्लॉग "नवीन जोशी समग्र"(http://navinjoshi.in/) भी देखें। इसके हिंदी ब्लॉगिंग को समर्पित पेज "हिंदी समग्र" (http://navinjoshi.in/hindi-samagra/) पर आपका ब्लॉग भी शामिल किया गया है। अन्य हिंदी ब्लॉगर भी अपने ब्लॉग को यहाँ चेक कर सकते हैं, और न होने पर कॉमेंट्स के जरिये अपने ब्लॉग के नाम व URL सहित सूचित कर सकते हैं।

Vikram Pratap Singh said...

Fohaddta se hi TV ke comdey show jinda hai .

कहकशां खान said...

बिल्‍कुल सही मुददा उठाया है आपने। हास्‍य के नाम पर फूहड़ता सरेआम प्रदर्शन किया जा रहा है। समझ में नहीं आता कि कुछ लोग इसकी निंदा करने के बजाए ठहाका लगाने में मशगूल हैं। हम सबको हास्‍य और फूहड़पन में फर्क समझना ही होगा।

संजय जोशी "सजग " said...

supper

संजय जोशी "सजग " said...

supper

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