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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

16 April 2013

गुम हुईं मानवीय संवेदनाएँ

यूँ तो हमारी संवेदन हीनता से हमारा साक्षात्कार प्रतिदिन किसी न किसी समाचार पत्र की सुर्खियाँ करवा ही देती हैं पर कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं कि पूरे समाज की मानवीय सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है । आजकल तो आये दिन कोई न कोई वाकया इस बात की पुष्टि कर जाता  है कि  हमारी सामाजिक संवेदनाओं का लोप हुआ है और होता ही जा रहा है । कभी कभी तो लगता है हमारी इस अमानवीय उन्नति के विषय में संदेह करना ही बेकार है। हम हर दिन एक नया उदहारण प्रस्तुत कर रहे हैं, असवेदंशील व्यवहार का नया शिखर छू रहे हैं । 

हाल ही में जयपुर की एक सुरंग मार्ग पर हुयी सड़क दुर्घटना में एक पिता अपने चोटिल मासूम बच्चे को लेकर घंटों बिलखता रहा पर कोई भी वहां नहीं रुका । इस दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्ची को खो चुका यह आदमी वहां से गुजरने वाले लोगों से सहायता मांगता रहा पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की । जयपुर आज भी देश के बहुत बड़े शहरों में नहीं आता । यहाँ बड़े से मेरा तात्पर्य देश के ऐसे महानगरों से है जहाँ सामाजिक परिवेश से कोई नाता ही न रहे । यहाँ महानगरों के सन्दर्भ में बात कर रही हूँ, यह सोचते हुए कि यदि जयपुर जैसे  सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण वाले नगर और उसके नागरिकों की संवेदनशीलता का यह हाल है तो बड़े शहरों के हालातों का तो अनुमान लगाना भी असंभव है ।   

ऐसी घटनाएँ दामिनी केस की भी याद दिलाती हैं । जिस दामिनी को न्याय दिलाने पूरा देश सड़कों पर उतर आया था वो घंटों बिना कपड़ों के सड़क पर तड़पती रही और कोई उसकी और उसके साथी की सहायता के लिए नहीं रुका । कभी कभी तो आश्चर्य होता है कि मानवीय संवेदनाओं को यूँ ताक पर रखने वाले हम आन्दोलन करने कैसे निकल पड़ते हैं ? क्या यह सोचने का विषय नहीं कि विपत्ति में फँसे  लोगों की सहायता करने में हमारी सहभागिता कितनी है या कितनी होनी चाहिए ?

निश्चित रूप से यह चिंतन-मनन का विषय है । देश के प्रत्येक  नागरिक के लिए भी और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी । एक आम नागरिक के लिए यह विचारणीय है क्योंकि हमें यह विचार क्यूँ नहीं आता कि ऐसी दुखद घटना किसी के भी साथ हो सकती है । हमारे साथ भी । हमारे अपनों के साथ भी । तो हमें कैसा लगेगा लोगों का ऐसा व्यवहार देखकर । मनुष्यता के मायने तो यही सिखाते हैं कि इन आपातकालीन परिस्थितियों में पीड़ित को हर संभव मदद उपलब्ध करवाई जाये । यह सहायता हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य और और संवेदनशील इन्सान का धर्म है ।  

प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी ऐसे वाकये चिंतन करने योग्य हैं । व्यवस्था के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए कि  क्यों कोई आम नागरिक ऐसे मामलों में चाहकर भी मदद का हाथ आगे नहीं बढाता ? हर कोई बस बचकर निकलना चाहता है । घटना स्थल को पार करते ही मानो चैन  की साँस ली हो । यह प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की ही कमी है कि आम आदमी अपने बच्चों को भी यही सिखाता है कि ऐसे मामलों में वे किसी झमेले  में न उलझें । बस, बचकर निकल आयें । आम आदमी की सुरक्षा और सहयोग  के लिए बने राज और समाज के इस तानेबाने में आयी यह विश्वनीयता की कमी कितने ही प्रश्न उठाती है । भय का वातावरण तैयार करती है । जहाँ संकट के समय भी किसी से सहायता मिल जाने की आस नहीं ।  

समग्र रूप से समाज में आमजन और तंत्र दोनों का यूँ संवेदनाओं से परे होना दुखद है । यह एक ऐसा विषय है जिस पर हर परिवार में संवाद होना आवश्यक है । साथ ही प्रशासनिक स्तर पर भी ऐसे अभियान चलाये जाने ज़रूरी हैं जो हर नागरिक को यह समझा सकें, विश्वास दिला सकें  कि ऐसे समय में किसी की मदद करने का अर्थ स्वयं को समस्या में उलझाना नहीं है । तभी निर्भय होकर आमजन कठिन समय में किसी की मदद करने को आगे आ सकेंगें । संभवतः ऐसा होने पर कई दुर्घटना पीड़ितों को समय पर चिकित्सा मिल सके । कितने ही जीवन बचाए जा सकें । हमारी सामाजिक और मानवीय संवेदनाएं क्यों खो गयीं हैं ? यह प्रश्न हर स्तर पर विचारणीय है । संकट के समय ही हम साथ नहीं, संगठित नहीं तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के क्या अर्थ रह जायेंगें ? 

63 comments:

जयकृष्ण राय तुषार said...

निःसंदेह अपने सच लिखा है हम तथाकथित रूप से जितना ही विकसित होते जा रहे हैं हमारी सोच का दायरा उतना ही संकुचित होता जा रहा है |अब वसुधैव कुटुम्बकम की भावना विलुप्त हो गयी है |

Smart Indian said...

सचमुच हम लोग अमानवीय होते जा रहे हैं, खासकर भारत मे सड़क दुर्घटनाओं की स्थिति मे यह आम बात है।

संध्या शर्मा said...

संवेदना में होने वाली की कमी के लिए हमारा कानून काफी हद तक जिम्मेदार है... समाज और प्रसाशन दोनों को इस दिशा में कारगर कदम उठाने की आवश्यकता है...सटीक आलेख

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

लोग तो ऐसे हो ही जायेंगे. एक सज्जन जो एक घायल को भर्ती कराने ले गये, पुलिस में रिपोर्ट लिखाने पहुंचे तो तीन घण्टे बिठाये गये. स्वार्थी लोग और ऊपर से निरकुंश-अमानवीय सिस्टम.

ashish said...

संवेदना अब केवल अपने हित के प्रति है , सड़क पर विलखते "दुसरे " के प्रति तो एकदम नहीं . मानवता अब केवल नाम की चिडिया बची है .

ANULATA RAJ NAIR said...

सच में..रूह काँप गयी थी वो घटना देख कर.
बहुत से लूप होल हैं सिस्टम में.....जिनका नतीजा हम भुगत रहे हैं.

अनु

ओंकारनाथ मिश्र said...

कल आजतक पर यह वीडियो देखकर मन दर्द से भर उठा. सच में इंसानियत की मौत होती जा रही है हम में. जिस तरह से इतने सारे गाडी वाले उससे बचकर निकल रहे थे वो बहुत दर्दनाक था. तुषार जी की टिप्पणी से पूर्णतः सहमत हूँ.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

समाज और प्रसाशन दोनों की समान जिम्मेदारी बनती है ,,,सटीक आलेख,,,

RECENT POST : क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता.

प्रवीण पाण्डेय said...

दुखद है यह व्यवहार, आँखों के सामने होता देखकर भी लोग नहीं रुकते।

वाणी गीत said...

इसका मुख्य कारण प्रशासन एवं कानून पर जनता में बढ़ रहा अविश्वास ही है . कौन पड़े लफड़े में , कहीं उलटे हम ही ना फंसे ,जैसे प्रश्न अंततः संवेदनहीनता को जन्म देता है !
सटीक आकलन है आपका !

सदा said...

आपने बिल्‍कुल सच कहा ... जाने कितने लोगों ने देखकर भी अनदेखा कर दिया
बेहद दु:खद है यह स्थिति

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे said...

मोनिका जी जयपुर की घटना के बहाने आपने बहुत गंभीर विषय को उठाया है। आज इंसान की कीमत इंसान के नजरों में कम हो गई है जिसका नतिजा संवेदनहीनता है। आप नगर-महानगरों की बात कर रही है मैं आपको बता दूं गांवों में इससे भयानक स्थितियां है। आपसी विवाद एवं झगडों में आत्मियता और संवेदनाएं खत्म हो चुकी है और इंसान नितांत स्वार्थी बन चुका है। कहीं भी दुर्घटना हो यहीं देखा जा रहा है, यहीं हो रहा है। यहां पीडित के पास के धन को पहले लूटा जाता है और बाद में कोई द
दूसरा मदद करता है। इस बहाने आपके ब्लॉग पाठकों के साथ मैं भी तय करूं कि ऐसी घटनाएं मेरे आस-पास अगर घटित हो गई तो संवेदनाओं के साथ मदद की मानसिकता रखेंगे, काफी होगा।

Majaal said...

इस तरह की घटनाएं दुर्भाग्यपूर्ण है. पर मानवीय संवेदनाओं का निषकर्ष अखबार की ख़बरों से नहीं लगाना चाहिए ऐसे मेरा मत है. इस तरह की घटनाएँ अपवाद ही होती है. १ करोड़ में एक एस हादसा होता है. कुछ अनोखे कारणों से मीडिया की दिलचस्पी इन्ही प्रकार की खबरों में होती है. हमारे देखे कई बार सडकों पर लोगों को लिफ्ट देते ,पेट्रोल ख़तम होने पर मदद करते और टक्कर लगने पर बीच बचाव करते देखा गया है. बार अखबार इन्हें सुर्ख़ियों के लायक नहीं समझता।
एक मरे पर अरबों जिन्दा लोगों को नज़रंदाज़ करना मैं उचित नहीं मानता .
लिखते रहिये।

Ranjana verma said...

हमारे सिस्टम और हम आमजन दोनों ही इसके जिम्मेदार हैं.....गहन शोध का विषय होना चाहिए....

Yashwant R. B. Mathur said...

आपने लिखा....हमने पढ़ा
और भी पढ़ें;
इसलिए कल 18/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

इस तरह की संवेदना हीनता इसी कारण है कि लोग पुलिस के पचड़ों से बचना चाहते हैं .... जो मदद के लिए हाथ बढ़ाता है व्यवस्था उसी को धर लेती है ....रही सही कसर स्वार्थी वृति ने ले ली है .... आपने से आगे कोई किसी कि नहीं सोचता .....

सार्थक चिंतन ...

विभा रानी श्रीवास्तव said...

ये सरकार और न्यायपालिका और पुलिस का देन है ....
ये समाज की स्थिति ..
छोटा शहर हो या महानगर हो इंसान और इंसानियत का या किसी संवेदना का कोई संबंध नहीं होता है ...
सार्थक लेखन
हार्दिक शुभकामनायें !!

दिगम्बर नासवा said...

विकार तो हो रहा है ... पर दिशा अंदर की ओर मुडी हुई है ... अपने से आगे नहीं सोचना चाहते ...
शर्म आती है कभी कभी इंसान होने पे ...

Maheshwari kaneri said...

आपने बिल्‍कुल सच कहा .. लोग देख कर भी अनदेखा कर देते है ..बेहद दु:खद स्थिति है

Kailash Sharma said...

बहुत दुखद...पुलिस और अदालतों में चक्कर लगाने से बचने के लिए, बच कर निकल जाने की प्रवृति बढ़ती जा रही है...समाज और व्यवस्था दोनों को इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है...

ताऊ रामपुरिया said...

इसीलिये अक्सर सुनने में आता है कि हमारा सामाजिक तानाबाना कमजोर होता जारहा है, बहुत ही सारवान आलेख.

रामराम.

Arvind Mishra said...

यह घटना किसी भी संवेदनशील को विचलित कर देने वाली थी -मनुष्य की परोपकारिता वाली जीन का क्या हुआ ?

सुज्ञ said...

सम्वेदनाएं कितनी मर सकती है, यही उदाहरण काफी है। क्रूर खान-पान, क्रूरता प्रेरक दृश्य और चिंतन नें हमारी सम्वेदनाओं को नष्ट कर दिया है।

Tamasha-E-Zindagi said...

दुःख होता है ऐसी घटनाओं के बारे में जानकार और उससे ज्यादा गुस्सा आता है जब लोग ह्रदयहीन होकर किसी दुसरे मनुष्य के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं | अरे ज़रा सी मदद की होती तो आज बच्चा जीवित होता | धिक्कार है ऐसे लोगों पर और उनकी घटिया मानसिकता पर | इसमें सरकार, प्रशासन आदि को दोष देने से क्या लाभ वहां भी तो वही लोग हैं जो रास्ते भर आ जा रहे थे और तमाशा देख रहे थे बिना रुके और बिना मदद किये |


कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

Bhavana Lalwani said...

akhbaar wale news channel wale kuchh din khabar chhaapenge .. aam janta do din ghar mein baith ke is par baat karegi fir bhool jaayegi aur fir kisi din aisi hi ek aur khabar hamein ek aur article likhne par mazboor kar degi.

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
कृपया पधारें

विभूति" said...

गहन अभिवयक्ति......

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

मानवीय संवेदनाओं को यूँ ताक पर रखने वाले हम आन्दोलन करने कैसे निकल पड़ते हैं? बहुत विचारणीय।

मैं भी इस पर लिखना चाहता था। आपने लिख दिया बहुत अच्‍छा किया। मेरे आज की (अवचेतन मन का प्रवाह) पोस्‍ट में किसी के इस प्रकार जीवन खोने और बाद में आप जैसे सह्रदय लोगों का उनके बारे में चिंतन करने का दर्शन है। समय निकाल कर साझा करने का कष्‍ट करें मेरी पोस्‍ट के दर्शन को।

शोभना चौरे said...

सचमुच हमारी सवेद्नाये कागजी रह गई है |
स्वयम अपने आप को तैयार करे ऐसे मामले में मददकरने को ।
व्यवस्था शासन की भी कुछ कमिय है अब हल निकलने ही होंगे ।

शोभना चौरे said...

सचमुच हमारी सवेद्नाये कागजी रह गई है |
स्वयम अपने आप को तैयार करे ऐसे मामले में मददकरने को ।
व्यवस्था शासन की भी कुछ कमिय है अब हल निकलने ही होंगे ।

virendra sharma said...

ये स्थिति तभी आती है जब पञ्च भूत पृथ्वी ,आकाश,जल ,अग्नि और वायु अपनी तात्विकता खोकर अपना स्वभाव भूल जाते हैं .न जल शीतलता देता है न गंगाजल ,अग्नि अनेक रूपं में मिसायल बन हाज़िर है .आकाश में मलबे के ढेर तैर रहें हैं अपनी आयु भुगता चुके उपग्रहों के टुकड़े तैर रहें हैं ,वायु पृथ्वी में धुर तापान्तर पैदा होने से ग्लोबल वार्मिग से बवंडर में तब्दील हो गई है .

ज़ाहिर है मनुष्य विकारों में सर्वांग आ गया है .इसीलिए संवेदना च्युत है . अपने तक सीमित भयभीत प्राणि बनके रह गया है .स्व :केन्द्रित प्राणि बन गया है .

Manav Mehta 'मन' said...

सार्थक लेख

संजय @ मो सम कौन... said...

विचारणीय प्रश्न है। इस संवेदनहीनता के पीछे एक वजह तो यही है कि अधिकतर मौकों पर मदद करने वाले ही खानापूर्ति में उलझ जाते हैं और इसके अलावा बहुत बार मजबूरी का दिखावा करके शातिर लोग सहज सरल लोगों को ठग लेते हैं और इसका खामियाजा वास्तविक पीडि़तो को भुगतना पड़ता है।

स्वप्न मञ्जूषा said...

संवेदनायें अब जड़ हो गयीं हैं।
बहुत ही अफसोसनाक है !

Anil Dayama EklA said...

सच में ये हमारे और हमारे समाज के लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न है ..एक ऐसा देश जहाँ मुसीबत के समय में सहायता करना परम कर्तव्य माना जाता था वहीँ आज लोगों की मानवीय सवेदानाओं को लकवा मार गया है।
एक चिंतनीय लेख।

ब्लॉग पर मेरी मेरी पहली पोस्ट : : माँ
(नया नया ब्लॉगर हूँ तो ...आपकी सहायता की महती आवश्यकता है .. अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।)

Amrita Tanmay said...

ये अर्थ युग है और बस अर्थ का ही मूल्य है ...

अजित गुप्ता का कोना said...

मुझे तो अभी तक समझ नहीं आ रहा है कि जब कन्‍ट्रोल रूम से उस घटना को देख लिया गया था तब मदद समय पर क्‍यों नहीं पहुंची? कई बार ट्रेफिक का दवाब इतना रहता है कि व्‍यक्ति चाहकर भी रूक नहीं पाता। इसमें प्रशासनिक लापरवाही ज्‍यादा दिखायी दे रही है।

Suman said...

विचारणीय आलेख ...

Dilip Soni said...

कल से इस घटना पर लिखने का विचार कर रहा था .........पर आपने लिख दिया और बहुत अच्छा लिखा , दिलीप कुमार की एक film में उन्हें ऐ भाई ...रुक जाओ ..कोई तो रुको ...............कहते सुना था उस समय सोचा ये सिर्फ फ़िल्मी बात हैं ,मगर अब एसा महसूस हो रहा हैं की हमारी संवेदना मरती जा रही हैं ,प्रशासन पर कुछ लोग ऊँगली उठा रहे हैं ,पर जो ३ गलतिया मुख्य रूप से हुई वो ये हैं १. उस व्यक्ति का दुपहिया वाहन पर पुरे परिवार को लेकर खतरनाक रास्ते पर सफ़र करना (अगर आपने कभी मोटर साइकिल पर छोटी सडको पे सफ़र किया हो तो आपने महसूस किया होगा जब कोई बड़ा वाहन आपके पास से गुजरता हैं तो उसके साथ आने वाली हवा आपका संतुलन बिगाड़ देती हैं .)
२.लोगो का सहायता के लिए न रूकना -ये सबसे दुखद पहलु हैं ,उस समय उस व्यक्ति की सहायता के लिए उन लोगो का रुकना जरुरी था ,वो नहीं रुके ,शायद उन लोगो की सोच होगी की हमारे साथ एसा कभी नहीं होगा .
३.प्रशासन की लापरवाही .

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

वाह! क्या बात है बहुत ख़ूब!

Ramakant Singh said...

विचारणीय आलेख ..

हम सबका दोहरा चरित्र है जो ऐसे ही किसी वाकये में दृष्टि गोचर होता है . प्रसंगवश बतलाता हूँ राजस्थान से ही आया एक अधिकारी वर्धा में के एस के में कार्यरत राकेश से अकलतरा मिलने आया था रेलवे स्टेशन में तबियत ख़राब हुई मेरे द्वारा इलाज करवाया गया किन्तु उसने मुड़कर देखना पसंद नहीं किया शायद इसी प्रकार लोग आहत भी हो जाते होंगे तब मानवीय संवेदना समाप्त हो जाती है ....

Ramakant Singh said...

हम सबका दोहरा चरित्र है जो ऐसे ही किसी वाकये में दृष्टि गोचर होता है . प्रसंगवश बतलाता हूँ राजस्थान से ही आया एक अधिकारी वर्धा में के एस के में कार्यरत राकेश से अकलतरा मिलने आया था रेलवे स्टेशन में तबियत ख़राब हुई मेरे द्वारा इलाज करवाया गया किन्तु उसने मुड़कर देखना पसंद नहीं किया शायद इसी प्रकार लोग आहत भी होजाते होंगे तब मानवीय संवेदना समाप्त होजाती है ....

Pratibha Verma said...

सचमुच हम लोग अमानवीय होते जा रहे हैं...हमारी संवेदनाये मर चुकी हैं ..बस एक मतलबपरस्त दुनिया बची है !!
पधारें बेटियाँ ...

Dr.NISHA MAHARANA said...

samvednavihin ho rahe hain log....

रेखा श्रीवास्तव said...

इंसान के मन में घर कर चुके अर्थ के युग की चाह ने उसकी संवेदनशीलता को ख़त्म कर दिया है . जब इंसान को लिए कोई पहुचता है तो उसकी सहायता के बजाय डॉक्टर रिपोर्ट लिखाने की बात करता है और सीमा विवाद के चक्कर में एक से दूसरे थाने में हुआ अपने प्रिय जन को खो देता है . हम अपनी अपनी संवेदनशीलता को बनाये यही बहुत है और शायद हर कोई ये सोचे तो नहीं तो कुछ प्रतिशत संवेदनशीलता बनी ही रहेगी .

Unknown said...

बहुत सुन्दर। बधाई!
Please visit-
http://voice-brijesh.blogspot.com

BS Pabla said...

अफसोसनाक

संजय @ मो सम कौन... said...

इस पोस्ट पर भी ’वाह बहुत खूब’ और ’बहुत सुन्दर, बधाई’ ?
गज़ब।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

फेसबुक ने बिना कुछ पढ़े देखे पसंद करने की आदत डाल दी है ... :)

रश्मि शर्मा said...

ये मेरे मन की भी पीड़ा है.....संवेदनहीनता की पराकाष्‍ठा लगती है ये बातें.....काश...ये पराकाष्‍ठा ही साबि‍त हो तो बदलाव आए

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

यह दुर्दांत दृश्य मैंने भी टी.वी. पर देखा था...शहरों में भीड़ के बीच एकदम अकेले हैं

अज़ीज़ जौनपुरी said...

samvedanhinta ki sari hade di

virendra sharma said...

जीवन का स्थूल रूप ही हम जी पा रहे हैं सिर्फ और सिर्फ अपने आप को देह (शरीर )मान बैठें हैं .जबकि शरीर तो आत्मा का मात्र उपकरण हैं मंदिर है .इसी मंदिर में माया (विविध विकारों )ने घर बना लिया है .आत्मा इन विकारों के बोझ से भयभीत बनी संवेदना शून्य हो चली है .हम अपने स्वभाव संस्कार को भूल गए हैं .अपने आप को आत्मा समझें ,निमित्त बन कर्म करें .तब न भय होगा न प्रीती .संवेदनाएं भी लौटेंगी .बिना संवेदनाओं की जीना भी कोई जीना है .

Unknown said...

Sarthak lekh...

Pallavi saxena said...

सही कहा आपने इसमें दोष किसी एक का नहीं बल्कि दोनों न का ही है प्रशासन व्यवस्था सुधर जाये तभी यह उम्मीद की जा सकती है की ऐसी आपातकालीन परिस्थितियों में कोई किसी की सहायता करने के लिए आगे आसकेगा। क्यूंकि आज का हर इंसान पहले अपने बारे में सोचता है फिर किसी और के विषय में और ऐसे मामलों में जब तक वो खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करेगा तब वह किसी की सहायता भी नहीं करेगा। विचारणीय आलेख

Unknown said...

SAHI KAHA AAPNE

G.N.SHAW said...

असम्बेदन समाज |सवार्थ की दुनिया |

समयचक्र said...

समग्र रूप से समाज में आमजन और तंत्र दोनों का यूँ संवेदनाओं से परे होना दुखद है ...apke is vichar se sahamat hun ...

smaaj ke logon ke naitik samajik moolyon men girawat aa rahi hai is par sabhi ko vichaar karna awashyak ho gaya hai ...

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीया मोनिका जी सच में सारी संवेदनाएं मरती जा रही हैं अमानवीय कृत्य कुसंस्कार मानवता को विघटित किये जा रहा है
विचारणीय आलेख काश कुछ तो सुबुद्धि आये लोग होश में आयें ....सुन्दर
भ्रमर ५
प्रतापगढ़

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

आदरणीया मोनिका जी सच में सारी संवेदनाएं मरती जा रही हैं अमानवीय कृत्य कुसंस्कार मानवता को विघटित किये जा रहा है
विचारणीय आलेख काश कुछ तो सुबुद्धि आये लोग होश में आयें ....सुन्दर
भ्रमर ५
प्रतापगढ़

विवेक सिंह said...

विचारणीय प्रश्न

अरविन्द शुक्ल said...

बेहद दु:खद.....

अरविन्द शुक्ल said...

बेहद दु:खद...संवेदना शून्य हो चली है ...

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