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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

22 June 2012

शिखर पर अकेलापन.....युवाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति


अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या।  हालांकि हमारे समाज और परिवारों का विघटन जिस गति से हो रहा है किसी शोध के ऐसे नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं। जीवन का अंत करने वाले इन युवाओं की उम्र है 15 से 29 वर्ष है। यानि कि  वो  आयुवर्ग जो  देश का भविष्य है। एक ऐसी उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है। पर जो कुछ हो रहा है वो हमारी आशाओं और सोच के बिल्कुल विपरीत है। 
शिखर पर अकेलापन 

आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता से जूझने वाले युवा ऐसे कदम उठाते हैं। ऐसे में इस सर्वे के परिणाम थोड़ा हैरान करने वाले हैं। इस शोध के मुताबिक उत्तर भारत के बजाय दक्षिण भारत में आत्महत्या करने वाले युवाओं की संख्या अधिक है। इतना ही नहीं देशभर में आत्महत्या से होने वाली कुल मौतों में से चालीस प्रतिशत अकेले चार बड़े दक्षिणी राज्यों  में होती हैं । यह बात किसी से छिपी ही नहीं है कि शिक्षा का प्रतिशत दक्षिण भारत में उत्तर भारत से कहीं ज्यादा है। काफी समय पहले से ही वहां रोजगार के बेहतर विकल्प भी मौजूद रहे हैं। ऐसे में देश के इन हिस्सों में भी आए दिन ऐसे समाचार अखबारों में सुर्खियां बनते हैं । इनमें एक बड़ा प्रतिशत जीवन से हमेशा के लिए पराजित होने वाले ऐसे युवाओं का है जो सफल भी हैं, शिक्षित भी और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर लिया है। 

सच तो यह है कि बीते कुछ बरसों में नई  पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़  का हिस्सा भर बनकर रह गयी है । परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं । इसके लिए शिक्षित होने के भी मायने बदल गए । पढाई सिर्फ मोटी तनख्वाह वाली नौकरी पाने  का जरिया बन कर रह गयी । इस दौड़ में शामिल युवा पीढ़ी परिवार और समाज से इतना दूर  हो गयी कि वे किसी की सुनना और अपनी कहना ही भूल  गए  । समय के साथ उनकी आदतें भी कुछ ऐसी हो चली  हैं कि मौका मिलने पर भी वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहते। उनके जीवन में ना ही रचनात्मकता बची है और ना ही आपसी लगाव का  कोई स्थान रहा है  ।  परिणाम हम सबके सामने हैं । आज  जिस आयुवर्ग के युवा आत्महत्या जैसे कदम उठा रहे हैं वे परिवार और समाज के सपोर्ट सिस्टम से काफी दूर ही रहे हैं। इस पीढी का लंबा समय घर से दूर पढाई करने में बीता है और फिर नौकरी करने के लिए भी परिवार से दूर ही रहना पड़ा है।  इनमें बड़ी संख्या में ऐसे नौजवान हैं जो घर से दूर रहकर करियर के  शिखर पर तो पहुंच जाते हैं पर उनका मन और जीवन दोनों सूनापन लिए है।  उम्र के इस पड़ाव पर उनके पास सब कुछ पा लेने का सुख  है तो पर कहीं कुछ छूट जाने की टीस भी है। कभी कभी यही अवसाद और अकेलापन जन असहनीय हो जाता है तो वे जाने अनजाने अपने ही जीवन के अंत की राह  चुन लेते हैं । 

देखने में तो यही लगता है कि सफलता के शिखर पर बैठे इन युवाओं के जीवन में ना तो कोई दर्द है और ना ही कोई दुख।  ऐसे में ये आँकड़े सोचने को विवश करते हैं कि क्या ये पीढी इतना आगे बढ गयी है कि जीवन ही पीछे छूट गया है ? जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है वो यूं जिंदगी के बजाय मौत का रास्ता चुन रही है, यह हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण  ही कहा जायेगा । 

78 comments:

संतोष त्रिवेदी said...

ऐसे हालात इसलिए हो रहे हैं कि नई पीढ़ी ने येन-केन प्रकारेण अपना पहला और अंतिम लक्ष्य पैसे को बना लिया है!

...समय रहते यदि हमने समझदारी नहीं दिखाई तो यह प्रवृत्ति बढ़ने वाली है |

मनोज कुमार said...

लासेंट का रिपोर्ट मुझे कुछ सही नहीं लगता। मैं जो बात कह रहा हूं वह NCRB (National Crime Record Bureau) राष्‍ट्रीय अपराध ब्‍यूरो का आकंड़ा है ... और उसके आधार पर स्थिति चिंताजनक है और आंकड़े दिल दहला देने वाले--
* आत्‍महत्‍या करने वाले तीन लोगों में एक युवा
* देश में हर 12 मिनट में 30 वर्ष से कम आयु का एक युवा अपनी जान ले लेता है
* देश में प्रतिदिन 7 बरोजगार खुदकुशी करता है

Dr.NISHA MAHARANA said...

सच तो यह है कि बीते कुछ बरसों में नई पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़ का हिस्सा भर बनकर रहकर रह गयी है । sahi bat hai .....paise ko sab kuch samajhne ki hod me uske hath me kuch bhi nahi rahta ......is dukh me dukhi ho playan kar aatmhatya kar leta hai.....

सम्पजन्य said...

सफल और प्रसिद्ध लोगों को समाज हमेशा तरजीह देता हैं ... और देना भी चाहिए ... पर इससे कहीं ज्यादा कोशिश इस बात की हो कि जो पीछे छूट जाते हैं ... या अपेक्षा कृत किसी छोटे समझे जाने वाले काम को कर रहे हैं ... उनका भी समय समय पर संज्ञान लिया जाएँ ... जिससे समाज में सबके महत्व को बराबरी मिले ... तो फिर युवा निराश न हो अगर उसे सोची गयी सफलता नहीं मिले /
बिना लक्ष्य तय करके या फिर अपनी क्षमताओं से बड़ा लक्ष्य सामने रखकर आज का युवा जो आगे बड़ रहा हैं ... भी एक बड़ा कारण हैं ...जब उन्हें असफलता हाथ लगती हैं तो ... गहरी निराशाओं में डूब जाने का खतरा मुंह बाएं खड़ा होता हैं / .... हमारे युवा सही मार्गदर्शन और समझदारी को विकसित करें ... भला हो /

प्रवीण पाण्डेय said...

जीने को बहाने चाहिये,
दर्द कुछ पुराने चाहिये।

DR. ANWER JAMAL said...

इंसान के लिए अच्छाक्या है और बुरा क्या है ?
इसे इंसान खुद नहीं जानता . जब तक इंसान अपने पैदा करने वाले के हुक्म को नहीं मानता तब तक वह अच्छा इंसान नहीं बन सकता.
पैदा करने वाला क्या चाहता है ?
आज इसकी परवाह कम लोगों को है. इस धरती पर ज़िंदा रहने का हक़ इनका ही है. धरती पर जीवन और नैतिकता इन से ही है. दुसरे लोग तो जब तक ज़िंदा रहते हैं अनैतिकता और अनाचार करते हैं और उनमें से बहुत से आत्महत्या करके मर जाते हैं. आज भारत में हर चौथे मिनट पर एक नागरिक आत्महत्या कर रहा है. अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका लांसेट का सर्वे कहता है कि भारत में युवाओं की मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या। जीवन का अंत करने वाले इन युवाओं की उम्र है 15 से 29 वर्ष है।
इसे रोकना है , अपने बच्चों को सलामत रखना है तो उस एक मालिक के हुक्म पर चलना ही होगा.
सबका मालिक एक.

Satish Saxena said...

सच है कि बच्चे इस दौड के कारण परिवार से लगभग कट जाते हैं , इसका असर खराब तो होना ही है ...

Smart Indian said...

दुखद समाचार है। इस समस्या के मानवीय पहलुओं के साथ इसके कारणों की गहरी पड़ताल होनी चाहिये। तमिळनाडु राज्य आत्महत्या की संख्या में लम्बे समय से आगे रहा है। वहाँ नौकरियों में आरक्षण का प्रतिशत भी पूरे देश से अधिक रहा था और सरकारी स्कूलों में हिन्दी न पढाये जाने के आग्रह के कारण निम्न वर्ग व निम्न मध्यवर्ग के छात्रों द्वारा राज्य से बाहर रोज़गार पाने के अवसर भी कम रह जाते हैं। प्रतिभा का न पहचाना जाना, अति-सम्वेदनशीलता, निराशा, वैचारिक परिपक्वता की कमी जैसे आंतरिक कारणों के साथ ही भ्रष्टाचार, कुरीतियाँ, अस्वस्थता, सामाजिक असहिष्णुता और हिंसा आदि जैसे कारक भी इस दुखदाई प्रवृत्ति को बढावा दे सकते हैं। एक चिंताजनक प्रवृत्ति पर विचारणीय आलेख के लिये आभार!

रश्मि प्रभा... said...

इतना कुछ युवाओं के सामने रख दिया गया कि ........ आत्महत्या उनके पलायन की चरम सीमा है

रश्मि प्रभा... said...

और बात मात्र पैसे की ही नहीं .... यह जानिए , वह जानिए के क्रम में विकृति बढ़ गई , एक विडियो कैमरा प्रमाण बन गया .... आज भी अपने अभिभावक के साथ ये सहजता से अपनी बातें बाँट लें और अभिभावक भी उसे आज की आधुनिकता के साथ सहजता से लें , समझाएं तो कुछ मृत्यु कम होगी

राजन said...

अच्छा विश्लेषण हैं.
आज पहले की तुलना में युवाओं में महत्तवकांक्षा बढी हैं और जाहिर सी बात हैं प्रतिस्पर्द्धा भी.जो जितना पढा लिखा हैं,वह उतना ही असंतुष्ट हैं.और केवल सफल हो जाने से पहले की ही परेशानी नहीं होती हैं बल्कि उस सफलता को बनाए रखना भी एक चुनौती की तरह होता हैं.एक कारण मुझे और लगता हैं कि हमारे यहाँ मनोवैज्ञानिकों की सेवाएँ लेने को बहुत गलत समझा जाता हैं लोगों को लगता हैं कि किसीको मानसिक अवसाद होना मतलब पागल हो जाना हैं इसलिए लोग मनोचिकित्सक से मिलते ही नहीं वर्ना बहुत से मामले ऐसे होते हैं जिनमें दवा तक की जरूरत न पडें उन्हें प्रोपर काउंसिलिंग के जरिए भी ठीक किया जा सकता हैं.
युवाओं में आत्महत्या का एक कारण असफल प्रेम प्रसंग भी हैं.अभी कुछ दिनों पहले ही दिल्ली में दो आईआईटी छात्रों ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी प्रेमिका ने उनसे संबंध तोड लिए थे.
समस्या गंभीर हैं पर क्या करें कई लोग ऐसे विषयों को भी धर्म से ही जोडकर देखते हैं.ये आत्महत्या करने वाले लोग आमतौर पर अपनी परेशानी दूसरों को बताते नहीं हैं पर इनके आसपास रहने वाले लोगों को ही इनके व्यवहार से समझ जाना चाहिए और इनकी परेशानी जानकर हिम्मत बंधानी चाहिए.

Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता said...
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Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता said...

आजकल समाज इतनी तेज़ी से "सफलता" के लक्ष्य के पीछे भाग रहा है कि यदि कोई "व्यक्ति" सफलता से अलग हो जाए - तो व्यक्तियों से बना समाज उसे पीछे छोड़ देता है | इसी प्रेशर के कारण यह दुखद स्थिति उत्पन्न होती है |

सिर्फ शिखर पर ही नहीं, शिखर तक पहुँचने के रास्ते में भी बहुत अकेलापन है | जब तक हम एक दूसरे को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ने की मानसिकता से हट कर एक दूसरे को साथ लेकर आगे बढ़ने की मानसिकता न बनाएं, यह परिस्थितियां जारी रहने वाली हैं |

Maheshwari kaneri said...

आज की नई पीढ़ी सिर्फ अपने ही बारे में सोचती है..अपना मुकाम हासिल कर लेने के बाद उनके पास सोचने और करने के लिए कुछ नही रह जाता इसिलिए एक अजीब सा सूनापन उन्हें घेर लेता है यही अकेलापन ही उनकी इस प्रवृति का कारण बनता है..शायद..

ANULATA RAJ NAIR said...

सच कहा आपने.......
बच्चे १७-१८ साल से ही पढ़ने बाहर चले जाते हैं.....माँ-बाप सिर्फ पैसे देने की मशीन बन जाते हैं...भावनात्मक लगाव न के बराबर हो जाता है...ऐसे में ज़रा सी परेशानी उन्हें तोड़ देती है...
माँ बाप सिर्फ आवशकता पूरी करने को ही अपना फ़र्ज़ न समझें.......बच्चे से जुड़ाव भी उन्हें ही बनाये रखना होगा...

अनु

सुज्ञ said...

कठोर सच्चाई !! और चिंताजनक तथ्यों पर विचारणीय आलेख !!
शिखर का अकेलापन यह कई तरह से प्रभावित करता है घर परिवार से अलगाव के साथ समाज से दूरिया बना जाती है प्रतिस्पर्धा से उपार्जित असामान्य ऊँची विचारशीलता की सहजता, सामान्यजन से काट कर रख देती है।

सदा said...

सफलता के शिखर पर बैठे इन युवाओं के जीवन में ना जाने कौन से ऐसे हालात होते हैं जो उन्‍हें यह निर्णय लेने पर विवश कर देते हैं ... बेहद सार्थक प्रस्‍तुति ... आभार

मेरा मन पंछी सा said...

सबसे अधिक परेशानी की बात तो यह है की...बच्चे घर परिवार से अधिक समय से दूर रहते है..जिससे उनके मन में बिना कोई रोक टोक के कामकरने की आदत बन जाती है..ऐसी स्तिथि में गलत संगत में आ जाये तो और वीकट समस्या...बुरी आदते,गलत काम,अनैतिक काम में ये लोग फंस जाते है..और फिर इनसे बचने के लिए आत्महत्या को चुन लेते है..
अक्सर घर परिवार से जो बच्चे दूर रहते है...उन्हें माता पिता की रोक टोक उनकी सलाह ...को वे आपने स्वतंत्र जीवन में खलल मानते है..
और आज कल तो युवाओ के लिए पैसे अधिक माइने रखते है ,,आपने मित्रो में आपने आपको कम पाकर भी वे बेचैन हो जाते है...
उन्हें माता-पिता के प्यार और संबल के साथ -साथ सही मार्गदर्शन की जरुरत है..तो इससे कुछ हल निकल सकता है...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

कड़े परि‍श्रम के बाद शि‍क्षि‍त होकर भी मनचाहा रोज़गार न मि‍लना हताशा को जन्‍म देता है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-062012) को चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

आज के युवा आपना मुकाम पाने के लिये "सफलता" के लक्ष्य के पीछे भाग रहां है,
मुकाम हासिल करने के बाद,अपने को अकेला पाता है,जिसके कारण समाज परिवार से दूरी बन जाती है,और,,,,,,,,

RECENT POST ,,,,फुहार....: न जाने क्यों,

Anupama Tripathi said...

थोड़े आभाव मे अगर बच्चे बड़े होते हैं तो कुछ चीज़ों की कदर करना जानते हैं ...बड़ों बुज़ुर्गों के साथ रहें तो झुकना जानते हैं |आजकल ये सब बातें खत्म हो रही हैं और समाज खामियाज़ा भुगत रहा है ...!! ..

Kailash Sharma said...

जीवन की दौड़ में आगे रहने की चाह में हम सभी संबंधों को बहुत पीछे छोड़ आते हैं और जब कभी कोई ठोकर लगती है तो अपने को अकेला पाते हैं. जीवन मूल्यों की कमी और सिर्फ़ पैसे की चाह आज के युवा की पहचान बन कर रह गयी है. ऐसे में जब कोई चोट लगती है तो उसको सहने की शक्ति उनमें नहीं होती.

vandana gupta said...

आज की पीढी मे ये भावना सिर्फ़ इसलिये आयी है क्योंकि उसे भावनात्मक लगाव कम मिला और पैसे को ही प्रमुखता दी गयी अगर उसे ये समझाया जाये कि बेशक पैसा जीने के लिये प्रमुख है मगर उसके साथ साथ संबंधों की निकटता का होना भी जरूरी है और उसकी अहमियत बतायी जाये तो काफ़ी हद तक इस समस्या से मुक्ति मिल सकती है जबकि आज का युवा सिर्फ़ पैसे कमाने की मशीन ही बन कर रह गया है और दिखावे की प्रवृति पर अंकुश ना लगा पाना ही उसका जीवन से भागने की दिशा मे पहला कदम बन गया है इस समस्या को भावनात्मक रूप से भी देखना जरूरी है।

Anonymous said...

कारण बहुत से हैं जो आपने सुझाये उनके आलावा रिश्तों में घटती संवेदनशीलता और सब्र का आभाव भी है.....अकेलापन महानगरों में बहुत तेज़ी से बढता जा रहा है पर रोज़गार की तलाश और बढती महत्वकांक्षा युवाओं को महानगर खिंच लाती है यही अवसर अगर उन्हें अपने शहर और आस पास के कस्बों में मिले तो शायद स्थिति ऐसी न हो......सार्थक विषय पर सटीक आलेख के लिए आभार ।

ashish said...

युवाओ में आत्महत्या की प्रवृति में तेजी से इजाफा हुआ है , जिसके पीछे गला काट प्रतियोगिता , आगे न बढ़ पाने की हताशा और आज की जीवन शैली मुख्य कारन है , सारगर्भित आलेख .

G.N.SHAW said...

दक्षिण भारत का अनुभव तो यही कहता है की रिपोर्ट सही है ! महत्वाकांक्षा मनुष्य को स्वार्थी बना देता है ! जिसका एक रूप और परिणाम यह भी है !

Amrita Tanmay said...

आत्महत्या की प्रवृति चिंताजनक है ..सार्थक आलेख..

M VERMA said...

सामाजिक समस्या बन गया है यह प्रवृत्ति
सार्थक आलेख

Dr. sandhya tiwari said...

युवाओं में भटकाव की प्रवृति अधिक है और हताशा आत्महत्या का कारन बनता जा रहा है

Anonymous said...

मोनिका जी!
इस सिलसिले में मुझे प्रभा खेतान की उपन्यास " घर चलो पेपे " याद आ रही है,
व्वाकाई आज के दौर में इन्सान एक मशीन बन कर रह गया है,
"ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता....." या तो अकेलेपन की वजह है, या "मै बारिश कर दूं पैसे की गर तू हो जाये....."
अकेलेपन के लिए ज़िम्मेदार पहलू!
जो भी हो, खुद को ख़त्म करने से बेहतर है खुद की तलाश में जुट जाना.
आखिर ,आपको नहीं लगता फिर से मानव समाज को " एक्ला चालो रे" कहने वाले किसी कवीन्द्र रवींद्र की ज़ुरूरत है.
जो हो, फिर भी अकेले जी लेना एक बड़ी आज़माइश है, "तमाम अकेले मगर ज़िंदा लोगों को सलाम!!!!"

Anonymous said...

मोनिका जी!
इस सिलसिले में मुझे प्रभा खेतान की उपन्यास " घर चलो पेपे " याद आ रही है,
व्वाकाई आज के दौर में इन्सान एक मशीन बन कर रह गया है,
"ज़ुबां मिली है मगर हमज़ुबां नहीं मिलता....." या तो अकेलेपन की वजह है, या "मै बारिश कर दूं पैसे की गर तू हो जाये....."
अकेलेपन के लिए ज़िम्मेदार पहलू!
जो भी हो, खुद को ख़त्म करने से बेहतर है खुद की तलाश में जुट जाना.
आखिर ,आपको नहीं लगता फिर से मानव समाज को " एक्ला चालो रे" कहने वाले किसी कवीन्द्र रवींद्र की ज़ुरूरत है.
जो हो, फिर भी अकेले जी लेना एक बड़ी आज़माइश है, "तमाम अकेले मगर ज़िंदा लोगों को सलाम!!!!"

rashmi ravija said...

हाल में ही दक्षिण भारत से ही एक ऐसी खबर आई कि अखबार में रिजल्ट आया कि वो लड़का फेल हो गया है..और उसने आत्न्हात्या कर ली....बाद में स्कूल में पता चला...उसके 90 %मार्क्स थे

बहुत दुखद है यह सब.

Ramakant Singh said...

आपने सही कहा व्यवस्था के प्रति बढ़ता आक्रोश और उच्च महत्वाकांक्षा ने भी मार्ग प्रसस्त किया हो .
फिर भी राह उचित नहीं ,चिंतनीय ....ज्वलंत विषय ...

Anonymous said...

very good,

Extra readings...


http://en.wikipedia.org/wiki/Suicide
http://www.medicinenet.com/suicide/article.htm

Arvind Mishra said...

भारत की एक बड़ी बढ़ती समस्या पर आपका सुस्पष्ट विचार -किसी भी मुद्दे पर आपके विचार बहुत ही सहज और स्पष्ट रूप से और पूरी बोधगम्यता लिए सामने आते हैं -यह लेखन पर आपकी पकड़ को इंगित करता है .
जापान में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है ,दक्षिण भारत के राज्यों में भी ..
निष्पत्ति स्पष्ट है आर्थिकता की अंधी दौड़ इसके पीछे है -लोगों को जीवन के अभीष्ट ,समग्रता को लेकर भारतीय जीवन के कई अमूल्य जीवन दर्शन सूत्रों को अपनाने की जरुरत है -धैर्य,आत्मकेंद्रिकता के बजाय जनसेवा आदि ...

vijai Rajbali Mathur said...

'आत्म-हत्या' करने वालों के माता-पिता की पीढ़ी और उनकी सोच इस दुर्व्यवस्था और 'कायरता' हेतु उत्तरदाई है।

Coral said...

गहन सामाजिक समस्या बनाते जा रही है !

रचना दीक्षित said...

मोनिका जी अच्छा विश्लेषण किया है जिंदगी में सूनापन और अकेलापन ज्यादा खतरनाक है.

amit kumar srivastava said...

कितनी और कैसी भी हीनता हो परन्तु अपने आसपास से संवाद हीनता कभी न हो | संवाद हीनता एक बड़ा कारण पाया गया है ऎसी घटनाओं का |

दिगम्बर नासवा said...

अधिकतर संवेदनशील लोगों में ये प्रवृति अधिक पाई जाती है ... एक तो संवेदनशील और उअके बाद अगर जीवन में कोई असफलता आ जाए तो ये प्रवृति बड जाती है ... एकाकी जीवन (जो बढ़ता जा रहा है आजकल) भी एक कारण है आत्महत्या कों बदाव देने में ...

ऋता शेखर 'मधु' said...

अभिभावक और बच्चों के बीच की दूरी इस मानसिकता को जन्म देती है...दोनों पीढ़ी बातों को सकारात्मक तरीके से सुलझाएँ तो बात बन सकती है...ज्यादा धैर्य अभिभावक को ही रखना होगा|सार्थक आलेख...

गिरधारी खंकरियाल said...

युवाओं का इस तरह आत्महत्या करना दुखद घटनाक्रम है .:(

Arun sathi said...

दुर्भागयपूर्ण

अजय कुमार झा said...

आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है साप्ताहिक महाबुलेटिन ,101 लिंक एक्सप्रेस के लिए , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक , यही उद्देश्य है हमारा , उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें

shikha varshney said...

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता...बस इसी सोच की कमी है.

वाणी गीत said...

होड़ लगी हुई है , जिसमे रिश्ते पीछे छूटते जाते हैं , बस भौतिक सुख सुविधाएँ ही मायने रखती है , इनसे वंचित होने का भय या नहीं पाने का ग़म ले डूबता है इस पीढ़ी को !

Jyoti Mishra said...

I guess the main reason is decrease in tolerance level..
today youngsters, I'll include myself too, easily gets angry and frustrated... in that slight moment of weakness.. some ppl give up..

A very sad reality it is

Ayaz ahmad said...

आज भारत में हर चौथे मिनट पर एक नागरिक आत्महत्या कर रहा है. हरेक उम्र के आदमी मर रहे हैं. अमीर ग़रीब सब मर रहे हैं. उत्तर दक्षिण में सब जगह मर रहे हैं। हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई सब मर रहे हैं। बच्चे भी मर रहे हैं। जिनके एक दो हैं वे ज्यादा मर रहे हैं और जिनके दस पांच हैं वे कम मर रहे हैं। जिनके एक बच्चा था और वही मर गया तो माँ बाप का परिवार नियोजन सारा रखा रह जाता है। दस पांच में से एक चला जाता है तो भी माँ बाप के जीने के सहारे बाक़ी रहते हैं। जिन्हें दुनिया ने कम करना चाहा वे बढ़ रहे हैं और जो दूसरों का हक़ भी अपनी औलाद के लिए समेट लेना चाहते थे उनके बच्चे आत्महत्या कर रहे हैं या फिर ड्रग्स लेकर मरने से बदतर जीते रहते हैं।
कोई अक्लमंद अब इन्हें बचा नहीं सकता। ऊपर वाला ही बचाए तो बचाए .
लेकिन वह किसी को क्यों बचाए जब कोई उसकी मानता ही नहीं

जिसके सुनने के कान हों वह सुन ले।

Pallavi saxena said...

बिलकुल किसी भी प्रगति शील देश के लिए यह दुर्भाग्य होगा ही की उसकी आने वाली नसल आत्महत्या जैसा रास्ता अपना रही है। वजह कहीं न कहीं इसके जिम्मेदार हम ही हैं, जो स्टेटस लेवल बनाये रखने के चक्कर में अपने बच्चों की मानसिक स्थिति को समझ ही नहीं पा रहे हैं। किस कदर दवाब में वो अपना जीवन गुज़र रहे हैं ऐसी पढ़ाई भी किस काम की जो बच्चों से उनका बचपन ही छीन ले.....

लेकिन हम आधुनिकता और प्रतियोगिता की धुन में आन्धे बन यह दबाव को अनदेखा किए जाये रहे है इसलिए बच्चे परिवार से अपने पन के एहसास से दूर हुए जा रहे है। जिसका नतीजा सफलता प्राप्त कर लेने के बावजूद भी अकेला पन और परिणाम आत्महत्या होना ही है।

संजय भास्‍कर said...

अच्छा विश्लेषण किया है गहन सामाजिक समस्या बनाते जा रही है !

पूनम श्रीवास्तव said...

bahut hi sateek vishhay ka aapne
vichar kiya hai.
pallvi ji ki baat se main bhi sakmat hun.
vicharniy prastuti------
poonam

Vandana Ramasingh said...

सच है ....विचारणीय विषय है

Kewal Joshi said...

"एक बड़ा प्रतिशत जीवन से हमेशा के लिए पराजित होने वाले ऐसे युवाओं का है जो सफल भी हैं, शिक्षित भी और धन दौलत तो इस पीढ़ी ने उम्र से पहले ही बटोर लिया है"

सटीक विश्लेषण .....उत्कृष्ट आलेख.

mark rai said...

kabhi zindagi ki tadap hi pareshaan karti ....yuva man bhataktaa hai....is andhi doud ka saathi nahi milta....

Dr (Miss) Sharad Singh said...

गहन चिन्तनयुक्त प्रासंगिक लेख....

पी.एस .भाकुनी said...

कही-न-कही पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण और तार-तार होते सामाजिक एवं पारिवारिक ताने-बाने ही इस विकट समस्या को जन्म दे रही है,,
सार्थक विषय पर सटीक आलेख के लिए आभार ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बच्चों की यह प्रवृत्ति सामाजिक समस्या बन गयी है
सार्थक चिंतन करने योग्य आलेख,,,,,

RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: आश्वासन,,,,,

Sawai Singh Rajpurohit said...

आत्महत्या का निर्णय अक्सर एक क्षण में नहीं लिया जाता है!

अच्छा विश्लेषण हैं

Hari Shanker Rarhi said...

bhautikta ki andhi daud ki akhiri manjil manvata ka patan aur atmhatya hi hai
achchh vishleshan kiya hai aapne.

virendra sharma said...

किसी भी पोस्ट पर पहली टिपण्णी बड़ी भली लगती है .ज़ाहिर है आप किसी और टाइम ज़ोन में हैं फिलवक्त हिन्दुस्तान में तो नहीं हैं .बहर सूरत आपका शुक्रिया .वीरुभाई परदेसिया ,४३,३०९ ,सिल्वर वुड ड्राइव ,कैंटन ,मिशिगन ४८,१८८ ,यू एस ए .

रजनीश तिवारी said...

रोजगार, कुछ पा लेने की चाहत, पैसों की जरूरत और भूख भी, अंधी दौड़ में अकेलापन , भावनात्मक मदद का अभाव, पियर प्रेशर, पीछे छूटते जाने और हारी हुई ज़िदगी जीने का डर, इस भौतिकतावादी युग में आभासी दुनिया में जीना, भटकाव, कितना कुछ है जो खुद को ही मिटा देने की प्रवृत्ति को पोषित कर रहा है । समस्या बहुत गंभीर है।

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मुझे ऐसा लगता है कि मैं पहले भी आपके ब्लॉग पर आ चूका हूँ.. याद नहीं आ रहा ... हाँ यह है कि अब रेगुलर आऊंगा.. अच्छा ब्लॉग है और आप अच्छा लिखतीं हैं.. फौलो भी कर रहा हूँ... थैंक्स फॉर शेयरिंग...

S.N SHUKLA said...

सार्थक और सामयिक पोस्ट , आभार .
कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारकर अपना स्नेह प्रदान करें, आभारी होऊंगा .

कुमार राधारमण said...

हर सफलता एक कीमत मांगती है.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

दुखदायी है .... आपका लेख और मनोज जी के दिये आंकड़े सोचने पर विवश करते हैं ....आज की पीढ़ी बस दौड़ रही है ..... आगे निकालने की राह पर ... भटकाव अधिक है .... परिवार से जुड़ाव कम होता जा रहा है ..... ज़रा सी असफलता तोड़ देती है ...

महेन्‍द्र वर्मा said...

चिंताजनक स्थिति है।
आज की युवापीढ़ी पारिवारिक और सामाजिक संस्कारों से दूर होती जा रही है। उनका लक्ष्य केवल अधिक पैसा कमाना और सर्वसुविधायुक्त जीवनशैली अपनाना रह गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति न होने पर वे कुठित हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठा लेते हैं।
माता-पिता और अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों के लिए उचित काउंसलिंग और मार्गदर्शन देते रहें या आवश्यकता पड़ने पर मनोवैरूानिकों की सहायता लें।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

सार्थक चिंतन करने योग्य आलेख,,,,,

MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,

virendra sharma said...

प्रभात किरण सी आपकी टिपण्णी लेखन की आंच को सुलगाए रहती है .शुक्रिया .

Rakesh Kumar said...

गहन विचारणीय आलेख.

'विषाद',depression,frustration,आदि कारण हैं आत्म हत्या की प्रवृत्ति के.

श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित 'विषाद योग' को अपना कर इस प्रवृत्ति पर काबू पाया जा सकता है.

समयचक्र said...

बढ़ती आत्महत्याओं के बारे में विचारणीय सार्थक चिंतन ... आभार

Unknown said...

क्या ...? क्यों.. ? किस लिए ..? कैसे ..? कब ...? कहा ...? किसने ..? कितने... ? किसे ...? कौन ...?कौनसे ..?
ऐसे कई सवाल हम जीवन भर अपने आपसे करते रहते है ...और हमारा पूरा जीवन करीबन इन सवालो के घेरे मैं ही ख़तम हो जाता है ...कभी किसी सवाल का उत्तर मिल जाता है तो कभी सवाल के सामने दूसरा ही सवाल उत्तर मैं ही मिल जाता है ...फिरभी हम सवालो से सवाल करते हुए ...बस जवाब की राह मैं ..संघर्ष ..करते ही जाते है ...और यह सवाल -जवाब का सिलसिला ही ......
कभी कभी ......???????????????????

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

नई पीढ़ी पढाई अव्वल आने की रेस और फिर अधिक से अधिक वेतन पाने की दौड़ का हिस्सा भर बनकर रह गयी है । परिवार और समाज में आगे बढ़ने और सफल होने के जो मापदंड तय हुए वे सिर्फ आर्थिक सफलता को ही सफलता मानते हैं
डॉ मोनिका जी बहुत अच्छे विन्दु पर आप ने प्रकाश डाला चिंता का विषय है हमें सामंजस्य रखना बहुत जरुरी है ऐसे लक्ष्य न तय करें जो भारी पड़ें कुछ कर्ज के कारण कुछ अति आशावादी कुछ प्रेम में फंसकर .....बहुत से कारण नजर आये ....प्रेम से अपने मन से मन को नियंत्रण में रख मेहनत करते आगे बढ़ें
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

पता नहीं हम युवाओं को यह समझाने में क्यों नहीं कामयाब हो रहे हैं कि आत्महत्या कायरता है। मजबूती से समस्याओं का सामना करना चाहिए,कामयाबी क्यों नहीं मिलेगी।

सार्थक पोस्ट
युवाओं को दिशा दिखाती

Minoo Bhagia said...

bachhe apne parents ka sapna poora karne mein lage hain , wo wahi karein jismein unhein khushi mile to yah bahut had tak kam ho sakta hai / hamesha ki tarah achh lekh hai monika

निर्मला कपिला said...

ये स्थिति एकल परिवारों की देन है। मां बाप के पास बच्चों के लिये उतना समय नही है । अच्छा आलेख। शुभकामनायें।

आशा बिष्ट said...

अच्छा विश्लेषण

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