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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

13 May 2016

पावर और पैसे की हनक पर सवार परवरिश

बिहार में हुए रोडरेज मामले को लेकर  समाचार चेनलों पर आदित्य सचदेव की माँ का  रोना और न्याय  के  लिए गुहार लगाना, हमें अपना ही  मुंह छुपाने को मजबूर करने वाला दृश्य है | लेकिन दुर्भाग्य यह है कि यही हमारे परिवेश का सच है | सच, जिसमें धन और  बल के आगे इंसान के जीवन का कोई मोल नहीं |  अब तो हम शायद  हैरान भी नहीं होते क्योंकि ऐसे सच तो  किसी ना किसी रूप में आये दिन हमारे  सामने आते ही रहते हैं |  लेकिन  राजनीतिक दावपेचों और अपराधियों के बचाव के खेल से इतर एक बड़ा सवाल  यह भी है कि हम कैसे बच्चे बड़े कर रहे हैं ? बाहुबल और रसूख के दम  पर दुनिया को  अपने पैरों तले रखने की सोच वाले बच्चों में संवेदनशीलता कहाँ से आएगी ?  महंगी गाड़ियों और बन्दूक को साथी बनाने  वाली इस  नई पीढ़ी की पौध  में मानवीय भाव बचेंगें भी तो कैसे ? जब रसूख का नशा इन घरों की ही नस-नस  में बहत हो | नतीजतन यही मद इन बच्चों के के भी सर चढ़कर बोलता है,  तो यह समझना मुश्किल कहाँ कि ये  किसी इंसान के जीवन मोल समझ  ही नहीं सकते |

क़ानून कायदों और सजा के प्रावधान से परे समाज में कम उम्र में धन-बल की सनक और सत्ता की हनक समझने वाले बच्चे आख़िर कैसे बच्चे हैं?  यह एक बड़ा सवाल है | हमारे यहाँ की  न्यायिक लचरता और प्रशासनिक गैर जिम्मेदारी की बात किसी से छुपी नहीं है | मामला कैसा भी हो अगर कोई रसूखदार उसमें शामिल है तो सब लीपापोती में जुट जाते हैं | जैसा कि इस मामले में होता दिख रहा है |  लेकिन एक बात और भी गौर करने लायक है कि ऐसे बर्बर नागरिकों की परवरिश के मामले में हमारे हालात  पारिवारिक और सामाजिक मोर्चे पर भी कुछ ख़ास अच्छे नहीं है | जी हाँ,  वही परिवार जिसे हर इंसान के जीवन की पहली पाठशाला माना जाता है | परिवार,  जिसे  ज़िन्दगी की नींव  कहा  जाता है |  जिस पर  बच्चों का  पूरा मानवीय व्यक्तित्व खड़ा होता है |  बिना बात ही किसी जान ले लेने वाले बच्चों की  असंवेदनशीलता परिवार की भूमिका  को भी  सवालों के घेरे में तो लाती  ही है |  ऐसे वाकये देखकर यह  सोचना ज़रूरी हो जाता है कि हम यानी हमारे परिवार देश को कैसे नागरिक दे रहे हैं ?  साथ ही ये निर्मम घटनाएँ अपने ही देश में हमें असहाय होने का अनुभव करवाती हैं | ऐसे हालातों में स्वयं सही राह पर चलकर भी सुरक्षा हासिल नहीं, इस बात को पुख्ता  करती हैं  |  ऐसी परिस्थितियों में पलायन की सोच बहुत प्रभावी हो जाती है | जो कि हो  भी रहा है | हम ज़रा ठहर कर किसी मदद रुकना तो दूर ऐसी घटनाओं पर विचार करना भी भूल रहे हैं | परिवार की भूमिका पर इस मामले में सवालिया लगता है कि आमतौर पर  ऐसी  घटनाओं को अंजाम देने के बाद स्वयं परिवार वाले ही भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने निकल पड़ते हैं ? रसूख वाले हैं तो बाकी  सारी  व्यवस्थाएं तो साथ देती ही हैं | यही वो बातें हैं जो संघर्ष और अभावों को जाने समझे बिना बड़े होने वाले बच्चों को सत्ता और धन के मद से चूर कर देती हैं | उन्हें सब कुछ ख़रीद लिए जाने जैसा लगने लगता है , यहाँ तक कि इंसान की जान भी | 

चिंतनीय यह भी है कि यह बात सिर्फ़ नेताओं और बड़े बिजनेस घरानों के सपूतों पर ही लागू नहीं होती |   आजकल तकरीबन हर परिवार में बच्चों को हैसियत से ज्यादा चीज़ें और ज़रूरत से ज्यादा सुविधायें देने का चलन आम है | इस दिखावे का सबसे बड़ा और दुखद पहलू यह है कि अब बच्चे बच्चों सरीखे  रहे ही नहीं  | गहराई से  गौर करें तो पाते हैं कि जब हम बच्चों को मनुष्यता का मान करना ही नहीं सीखा रहे हैं तो वे किस इंसान के जीवन का मोल क्या करेंगें ? किसी की पीड़ा क्या समझेंगें ? यूँ भी यह एक अकेला मामला नहीं है । ऐसी कई घटनाएँ इन दिनों में  देखने में आ रही हैं जिनमें  बच्चे बेधड़क यही सीख रहे हैं कि उन्हें ना तो किसी के का मान करना है और ना ही उम्र का लिहाज ।  देखने में यह भी आ रहा है कि नकारात्मक आचरण  के इस मार्ग पर बड़े बच्चों के साथ कोई टोका-टाकी करते भी नहीं दीखते | हमारे  परिवेश में  ऐसा बहुत कुछ देखने को मिलता है जो पुख्ता करता है  कि जाने-अनजाने अभिभावक ही बच्चों को इंसानियत से ज़्यादा का चीज़ों का मान करना सीखा रहे हैं । ऊँच-नीच और छोटे-बड़े का  अंतर बता रहे हैं । समझना कठिन नहीं कि इस भेद का मापदंड पावर और पैसा है | आज की इसी दुर्भाग्यपूर्ण परवरिश  के दम पर हमारे यहाँ सड़कों पर सत्ता की हनक दौड़ती  है ।  जिसके लिए किसी की जान को कुचलना कोई बड़ी बात नहीं ?  

12 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार आपका

गिरधारी खंकरियाल said...

असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा हो गयी है।

दिगम्बर नासवा said...

आसानी से प्राप्त पैसा और सत्ता ... खुद को दूसरों से ऊपर मानने की चाह बढती ही जा रही है और ऐसे कृत्य करवा रही है ... पता नहीं कहाँ रुकेगा ये उन्माद ...

निवेदिता श्रीवास्तव said...

मोनिका ,
पूरी तरह सहमत हूँ तुम्हारी प्रत्येक बात से। मैं तो हमेशा ही इस विचारधारा को मानती हूँ कि जब बच्चे गलती करते हैं ,चाहे वो किसी भी प्रकार की हो ,उसमें सबसे बड़ा प्रभावी कारण उनके परिवार और परवरिश का होता है। इसलिये बच्चों की परवरिश करते समय अतयधिक सतर्क और सहज रहना चाहिये ...... सस्नेह !

डॉ. मोनिका शर्मा said...

हार्दिक आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

वाकई

Unknown said...

After a long time , I visited your blog..
Nice article.....
Such article are very helpful for understanding our society...

Kailash Sharma said...

सत्ता और पैसा जनित घमंड अच्छे और बुरे का अंतर भुला देता है...शायद यही ऐसी घटनाओं की वृद्धि का कारण है...बहुत सारगर्भित आलेख...

Vandana Ramasingh said...

सच है .....लेकिन अगर किसी को आदर्श स्थितियों से अवगत कराया जाए तो आप को ही below स्टैण्डर्ड करार दिया जाएगा स्कूल तक में बच्चों को जनरल etiquette नहीं सिखाये जा रहे बस स्वतंत्रता का नारा ...अपनी जिंदगी भी न जिए क्या .... ऐसे सवाल समाज की व्यवस्था को डायनामाइट से उड़ाने की तैयारी में हैं

Madhulika Patel said...

जी हाँ आपने बहुत सत्य लिखा है । बहुत बढ़िया ।

महेन्‍द्र वर्मा said...

परवरिश की यह प्रवृत्ति भयावह है, लेकिन इस प्रवृत्ति के बीज पावर और पैसे वालों ने ही बोए हैं ।
सामाजिक चिंता को स्वर देता विचारणीय आलेख ।

Sanju said...

प्रभावपूर्ण रचना...

मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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