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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

08 April 2015

उग्र और असंवेदनशील होता मानवीय व्यवहार

 महज़ 5 मिनिट की कहासुनी और एक दुपहिया वाहन के कार  से टकरा जाने पर शुरू हुए झगड़े  में  एक युवक को पीट-पीटकर मार डालना । आखिर कैसी उग्रता है ये ? न  युवाओं के  मन  में संवेदनशीलता है और न ही समाज और सरकारी अमले का भय ।  सड़क पर रोष व्यक्त करना तो मानों  युवाओं की  आदत बन गया है ।आक्रामक  व्यवहार  और असभ्य भाषा आम जीवन का हिस्सा बन बैठी है । राजधानी दिल्ली ही नहीं देश के कोने कोने में वजह बेवजह सड़क पर रोष व्यक्त  कर वाद-विवाद कर लोगों से मुठभेड़ करना युवाओं के आक्रामक होते व्यवहार की चरम सीमा को दिखाता है ।  ये किस ओर जा रहे हम कि  व्यवहार की शालीनता और मर्यादा व्यवहार और विचार दोनों से नदारद है । साथ ही सवाल ये भी कि इस उग्र और असंवेदनशील से ऐसे निर्मम हादसों के सिवा और हासिल ही क्या होगा ? अपने अलावा किसी और के अस्तित्व को स्वीकार कर उसे सम्मान देने का काम घर हो या बाहर आज की  पीढी कर ही नहीं पाती  |  समझना होगा कि यहीं से एक अंतर्विरोध और संघर्ष शुरू होता है | एक अघोषित युद्ध , जो अपनत्व और सहभागिता की सोच को पूरी तरह मिटा देता है |     

आज की युवापीढ़ी एक खास तरह की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्या से ग्रसित नज़र आ रही है ।  वो है उग्रता । ऊँची आवाज़ में बात करना । किसी भी इंसान का किसी भी बात पर मजाक बनाना । दूसरों को नीचा दिखाना । असभ्य भाषा और मैं ही सही हूँ की सोच के साथ जीना । चिंतनीय तो ये है कि उन्हें ये दबंगई भरा व्यवहार  आत्मविश्वास लगता है ।   यह कैसी विडंबना है कि यह  पीढ़ी दृढ़ता और उग्रता के अंतर को भूल गयी है। अपने व्यवहार और विचार की उग्रता आत्मविश्वास की कुंजी लगती है। जबकि सच तो यह है दृढ और उग्र सोच में ज़मीन आसमान का फर्क होता है। ये समझ  ही नहीं पा रहे हैं कि उग्र व्यक्ति हमेशा अपनी ही बात कहने और मनवाने में विश्वास रखता है जबकि दृढ व्यक्ति अपने विचार रखने के साथ ही दूसरों के विचारों को भी धैर्य के साथ सुनता ,समझता और सम्मान देता है। 

विचारों की उग्रता बहुत जल्दी हमारे व्यवहार में भी जगह बना लेती है । क्योंकि मन -मस्तिष्क जैसा सोचता है वैसे ही हम कर्म करते हैं और जैसे कर्म करते हैं वैसे ही परिणाम हमारे सामने होते हैं। दिल्ली में हुआ ये हादसा या इसके जैसी अन्य घटनाएँ ऐसी ही  नतीजा हैं ।  तभी तो  इस उग्र सोच के साथ बड़ी हो रही इस पीढ़ी के कृत्य आये दिन अख़बारों की सुर्खियाँ बनते हैं। कभी बातों बातों किसी परिवार को चलती ट्रेन से नीचे फेंक देने के लिए तो कभी शराब पीकर लोगों को कुचल देने के लिए। इस उर्जावान और आत्मविश्वासी नई पीढ़ी का यह उग्र चेहरा आप बस, ट्रेन , सड़क , पार्क, कालेज, घर यहाँ तक की किसी सामाजिक समारोह में भी देख सकते हैं। जिनके  लिए   प्रभावी व्यक्तित्व के मायने हैं उदंडता और औरों के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचाना।

विचारों में स्थायित्व और दूसरों के प्रति सम्मानजनक भाषा एवं व्यवहार व्यवसायिक ही नहीं सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी स्वयं को सफल बनाने और बनाये रखने के बहुत ज़रूरी हैं।   आमतौर पर देखने में आता है की उग्रता विचारों को नकारात्मक दिशा देती है। क्योंकि हर हाल में खुद को सही साबित करने की धुन तटस्थ वैचारिक प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है। नतीजा अक्सर गलत निर्णय पर आकर रुकता है। जिससे केवल पश्चाताप ही हाथ आता है । जिस युवा पीढी के भरोसे भारत वैश्विक शक्ति बनने की आशाएं संजोए है उसका ये रोष और गैर जिम्मेदारी  भरा व्यवहार हमारे पूरे समाज और राष्ट्र के लिए दुर्भागयपूर्ण  ही कहा जायेगा । व्यवहार की इस  नकारात्मकता उस उम्र जो अपने लिए ही नहीं समाज, परिवार और देश के लिए कुछ स्वपन संजोने और उन्हें पूरा करने की ऊर्जा और उत्साह का दौर होती है, दुखद ही है ।  

30 comments:

Manoj Kumar said...

एक बहुत ही सोचनीय मुद्दे पर सही तरीकी से लिखा ह आपने . इस तरह की घटनाएं आये दिन सड़को पर देखने को मिलती हैं . केवल जोशीले युवा ही नही बल्कि पढ़े लिखे 50 वर्ष से अधिक आयु क लोग भी ऐसे घटना के समय अभद्र भाषा पर उत्तर आते हैं , नैतिकता की कमी हर जगह देखने को मिलती है

Satish Saxena said...

कुछ दिनों में मानवता और दया का अर्थ तलाश करने पड़ेंगे !

कविता रावत said...

गंभीर चिंता का विषय है .....
सार्थक चिंतन ...

राजीव कुमार झा said...

सहनशीलता,धैर्य आदि का तो आजकल अभाव हो गया लगता है.क़ानून का राज होने के बाद भी कितने लोगों को क़ानून की परवाह है.घर से बाहर निकलते ही अपना वर्चस्व दिखाने की होड़ लग जाती है.
बहुर सुंदर आलेख.

गिरधारी खंकरियाल said...

स्वार्थ सर्वोपरि हो चुका है। विनाश की ओर अग्रसर है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-04-2015) को "अरमान एक हँसी सौ अफ़साने" {चर्चा - 1943} पर भी होगी!
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार ...

Pradeep said...

liked......
kanoon jab tak kisi ek aadmi ko bhi galat prashray deta rahega ... ese waqaye hote rahenge
aaj saam ke 5 baje se hi IIT aur Law student ke beech mar-peet chal rahi hai..... kabhi is chaurahe to kabhi us chaurahe ek-dusre se lad rahe hai.... aur prasasan(administration) nadarad hai.... ye to hal hai Banaras Hindu University ka..... manav-mulya samarthit karte bharat ratna Pt. Malaviya Ji ke kul-shishyo tumhe apni khair nahi hai kya????? :(

Himkar Shyam said...

गंभीर और सार्थक चिंतन

वाणी गीत said...

वर्षों की कुन्ठा , हताशा और न्याय नहीं मिल पाने की संभावना ने युवा वर्ग में आक्रोश और उग्रता को बढाया है. इसे सन्तुलित करना होगा वर्ना जितने हाथ , उतने ही हथियार!!
समाज की दशा पर चिन्ता और चिन्तन स्वाभाविक है!!

राज 'बेमिसाल' said...

5 मिनट की कहासुनी तो हुई ..
एक बहाना तो बना...
उग्रता तो दिखाई दी.....आक्रोश तो भरा था...

पर
किसने देखा ...
किसने लिखा....
न कहासुनी ...
न झगडा...
न उग्रता...
न द्वेष ....
एक मित्र यहाँ और एक वहां मरा था..

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

चिंतातुर करती है ऐसी स्थितियां। इससे हमारे शीर्षस्‍थ शासन तंत्र का किया गया काम हमें नजर आ जाता है कि उन्‍होंने समाज को क्‍या सिखाया है।

कहकशां खान said...

बहुत ही अच्‍छा लेख।

दिगम्बर नासवा said...

तेज़ी, भौतिकता वादी ... सभी भाग रहे हैं कोई हमसे आगे न निकल जाये ... पता नहीं समाज कहाँ दौड़ रहा है किसके पीछे .. शायद सभि एक दूजे के पीछे ... पछाड़ने को आतुर हैं सभी ... यही बातें उग्रता ला रहि हैं समाज में, वातावरण में ... संवेदनशीलता तो बहुत पहले ही ख़त्म हो चुकी है ...

Sanju said...

सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

Sanju said...

सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
शुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

प्रतिभा सक्सेना said...

आज हम जिस समाज में रह रहे हैं उसके जीवन-मूल्यों में लगातार गिरावट आ रही है. इच्छायें बहुत और साधन बहुत कम .जो ज़रा भी समर्थ है वह येन-केन-प्रकारेण अपना मतलब साधता है.युवावर्ग कुंठित ,और दिशाहीन हैहै.वह अपनी सार्थकता इन्हीं बातों में प्रदर्शित करता है .

Kailash Sharma said...

आज सभी अपने अपने स्वार्थों के पीछे भाग रहे हैं और उनका एक मात्र उद्देश्य किसी तरह आगे बढ़ना है. यह भाग दौड़ की स्पर्धा स्वभाव में कुंठा को जन्म देती है जो उनके स्वभाव में परिलिक्षित होने लगती है. सहनशीलता जैसे शब्द से वे अनजान होते जा रहे हैं. बहुत सारगर्भित आलेख...

अभिषेक शुक्ल said...

अवसाद व्यक्ति से कुछ भी करा सकता है। दुर्भाग्य यह है कि भारत में हर दूसरा व्याक्ति किसीने किसी पूर्वाग्रह/अवसाद से ग्रसित है...युवा बस नाम के रह गए हैं। जिन्हें अपने कमजोरियों को जीतने न आता हो वो देश का भार क्या उठाएंगे?
शर्म आती है कि ये भी मानव हैं बिलकुल हमारी तरह भले ही इनके कृत्य पैशाचिक हों।

निर्मला कपिला said...

कहीं न कहीं हम और हमारी पिछ्हली पीढियां इसके लिये उत्तर्दायी हैं1 सब को मिल कर इसका हल खोजना होगा1ागर बुरा न माने तो इसमे साधू संतों का आछरण और कुक्कर्मुत्तों की तरह उनके आश्रमो का विस्तार हमे निठले तो बना ही रहा है कर्म से अधिक धर्म पर जोर दे कर लोगों को गुमराह कर के छम्त्काओं की आशा मे जीने की राह दिखा रहे हैं खुद धन दौलत के लिये अनाछार कर जनता से किस तरह की उमीद रखने को कहते हैं1 मुझे तो सब से बडा कारन यही लगता है1
दूसरा राजनिती मे गिरावत 1लोगों को क् सिखाते हैं राज नेता द्स पैसे राजा खायेगा तो एक पैसा तो नीछे वाला भी खायेगा और पैसा हर गुण हर लेता है1

abhi said...

बहुत सही और जरूरी आलेख है ये आपको. एकदम पूरी तरह सहमत हूँ मैं आपकी बात से.

Ankur Jain said...

युवामन से जुड़े कई अहम् तथ्यों को उजागर करती प्रस्तुति।

विरम सिंह said...

मानवता, दया, सहनशीलता जैसी बाते तो इतिहास बन गई है

पंकज शर्मा "परिंदा" said...

गंभीर मुद्दे पर रचनात्मक व सार्थक लेख...

कहकशां खान said...

उग्र और असंवेदनशीन होता मानवीय व्‍यवहार, एक बेहतरीन और सटीक लेख। वैसे आज के दौर में ऐसी अवस्‍था के ढेरों कृत्रिम कारण भी हैं। जो मानव ने स्‍वयं पैदा किए हैं।

महेन्‍द्र वर्मा said...

‘‘हर हाल में ख़ुद को सही साबित करने की धुन तटस्थ वैचारिक प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है ।’’
बिल्कुल सही है।
उपभोगवादी संस्कृति की खाई कुंठा को जन्म देती है और कुंठा उग्रता को ।
सामयिक और विचारणीय आलेख ।

रचना दीक्षित said...

सटीक लेखन के लिए आप बधाई की पात्र हैं

Mithilesh dubey said...

बहुत ही सार्थक लेख। ऊर्जा का गलत दिशा में प्रयोग तो हो ही रहा है।

http://chlachitra.blogspot.in/
http://cricketluverr.blogspot.in/

Rajkumar said...

कुदरत कहां किसी को असंवेदनशील होने देती है? जिंदगी के आखिरी दिन आखिरी सांसें गिनते हुए इन प्राणियों के लिए अपने ही प्रश्नों के उत्तर देना, जिंदगी भर का प्रॉफिट लॉस स्टेटमेंट तैयार करना नामुमकिन हो जाता है। यकीन मानिए, इनके लिए इससे बड़ी सजा और कुछ नहीं हो सकती।
एक अनुरोध...अगर समय मिले तो इन ब्लॉग पोस्ट पर नजर जरूर डालें और पसंद आएं तो टिप्पणी के जरिए हौसला अफजाई करने की दया करें :

चीन से है इनकी जान को खतरा...?
http://kahinbheekuchhbhee.blogspot.in/
सामाजिक जिम्मेदारी की बेहतर समझ जरूरी
http://kahinbheekuchhbhee.blogspot.in/2015/05/blog-post.html

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को? = रामप्रसाद विस्मिल को याद करते हुए आज की बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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