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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

31 January 2015

ज़िन्दगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है

ज़िन्दगी जब मायूस होती है तभी महसूस होती है.....! यह  ' दी डर्टी पिक्चर ' इसी फिल्म का एक संवाद है जो उस लड़की के मन में आता है जो रुपहले परदे पर चमकने के सपने लिए ग्लैमर की  दुनिया में आती है और हर तरह के समझौते करते हुए अपने आपको स्थापित भी कर लेती है पर चकाचौंध भरी इस दुनिया में शोषित होते हुए शिखर पर पहुँचने वाली सिल्क स्मिता एक समय इतनी अकेली हो जाती है कि आत्महत्या कर लेती है | 
बीते साल की सफलतम फिल्मों में मुख्य अदाकारा की भूमिका निभाने वाली दीपिका पादुकोण ने अपने हालिया साक्षात्कार में माना कि वे अवसाद का सामना कर चुकी हैं । वे कई सालों से डिप्रेशन में हैं और दवाइयाँ भी ले रही हैं । अवसाद और तनाव का शिकार बनने की ये बात आज के दौर की इस सफल अभिनेत्री के लिए इस तरह सार्वजानिक  रूप से स्वीकार करना कई मायनों में अहम है । दीपिका की ये स्वीकार्यता न केवल फ़िल्मी दुनिया में चमक के पीछे छुपे अंधरों का स्याह सच बयान करती बल्कि इस बात को भी पुख्ता करती है कि सफलता की ऊंचाइयों पर बैठे युवा भी अकेलेपन और अवसाद को झेल रहे  हैं ।  

चेहरे जो सिनेमा के रुपहले परदे  की चमक बने रहते हैं उनके वास्तविक जीवन में ऐसा मर्मान्तक अँधेरा क्यों होता है | कई  फ़िल्मी चेहरों का जीवन साक्षी है कि प्रसिद्धि और सम्पन्नता के आकाश पर झिलमिलाने वाले सितारों की झोली में अकेलापन और अवसाद न चाहते  हुए भी आ गिरता है | भीड़ में रहने और जीने के बावजूद भी सूनेपन की त्रासदी इनके जीवन का हिस्सा बन ही जाती है | ऐसा अकेलापन जो ये स्वयं नहीं चुनते , बस समय बदलते ही अपने आप एक सौगात की तरह इन्हें थमा दिया जाता  है | इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है कभी अकेले रहने को तरस जाने वाले सितारों के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है, जब कोई खोज खबर लेने वाला भी नहीं होता | यह भी उनके जीवन का एक संघर्ष ही होता है पर कभी इन्हें हेडलाइंस नहीं बनाया जाता , क्योंकि समाचार भी सफलता के ही बनते हैं सन्नाटे और अवसाद भरे जीवन को यहाँ कौन पूछता है ? यह एक ऐसी  दुनिया  है जहाँ काम है तो सब कुछ  है | लेकिन जब काम नहीं होता तो कुछ नहीं होता | ना दोस्त, ना चाहने वाले, ना परिवार वाले, ना इंटरव्यू और ना ही सुर्खियाँ  | यहीं से शुरू होता है नाटकीयता भरी ज़िन्दगी से परदे का उठना और हकीकत की दुनिया से सामना करने का सिलसिला | ऐसे में मायावी दुनिया में नाम कमा चुके चेहरे के लिए यह स्वीकार करना बहुत दुखदायी होता है कि अब उन्हें खास नहीं आम इन्सान बनकर जीना है | चूँकि सफलता कि सीढियां चढ़ते हुए हर निजी और सामाजिक रिश्ते को निवेश की तरह लिया जाता है, ऐसे समय पर इनके पास कोई अपना कहने को भी नहीं होता | 

स्टारडम का आभामंडल ही कुछ ऐसा है की यहाँ हमेशा दिखते रहना ज़रूरी है | परदे पर उपस्थिति बनी रहे इसके लिए भी लगातार संघर्ष करना होता है | सुर्ख़ियों में रहने के हर तरह के समझौते यहाँ मान्य हैं | हर हाल में अपनी छवि और स्थान को बचाए रखने का तनाव आतंक की तरह होता है | बाहरी दुनिया को दिखने वाले दंभ को छोड़ दें तो अधिकतर सितारे आत्मकेंद्रित और अकेलेपन का जीवन ही जीते हैं| परिस्थितियां इतनी विकट हो जाती हैं कि लाखों लोगों के मन में घर बनाने वालों के मन की पीड़ा को साझा करने वाला भी कोई नहीं होता |  वे परिस्थितियाँ होती हैं जब कोई नींद की गोलियां खा लेता है, फांसी के फंदे पर लटक जाता है या फिर ऊंची ईमारत से छलांग लगा देता है | हम सबको परदे पर ज़िन्दगी कई अच्छे बुरे रंग दिखाने वाले सितारे जीवन के इस बेरंग दौर में खुद से ही हार जाते हैं | इसकी एक अहम् वजह यह है कि उनके पास एक आम इन्सान की तरह कोई भावनात्मक सपोर्ट सिस्टम नहीं होता | रिश्तों की वो बुनियाद इनके जीवन में कभी बनती ही नहीं जो बिखरती ज़िन्दगी को मजबूती से थाम ले |
पहले परदे पर दिखने के लिए संघर्ष और फिर दिखते रहने के लिए | शारीरिक और मानसिक दवाब इतना कि चमचमाती रौशनी के बीच भी मन में दर्दनाक अँधेरा | कभी कभी तो लगता है कि सफलता के शिखर पर विराजे हमारे फ़िल्मी सितारों में न जाने कौन क्या कीमत चुका रहा है ..? कौन चुपचाप  टूट रहा है .... ? किसके  बाहर से चमकते जीवन के भीतर स्याह अँधेरा है ....? आमतौर पर माना जाता है कि गरीबी अशिक्षा और असफलता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं से जूझने वाले युवा ही अवसाद और तनाव को झेलते हैं। ऐसे में चर्चित चहरे ही नहीं आम युवाओं में भी ऐसे आंकड़े बढ़ रहे हैं जो सफल हैं लेकिन अवसाद और तनाव से भी घिरे हैं  । (31 /1 /2015  को दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित मेरे लेख के संपादित अंश )

29 comments:

रश्मि प्रभा... said...

सफलता के साथ मन न हो तो खालीपन
सफलता के आगे असफलता भय … कितनी सारी बातें होती हैं सफलता के साथ मन न हो तो खालीपन
सफलता के आगे असफलता भय … कितनी सारी बातें होती हैं

दिगम्बर नासवा said...

संघर्ष करना, सतत मेहनत करना .... इसमें तो कोई बुराई नहीं हाँ कुछ लोग ख़ास कर जो चकाचौंध दुनिया के आदि होते हैं अपने आप को, अपनी स्थिति को सहज स्वीकार नहीं कर पाते ... गुज़रते समय के साथ, खुद के साथ, अपनी उम्र के साथ सामजस्य नहीं बैठा पाते .. ऐसे लोग एकाकी ज्यादा रहते हैं किसी न किसी डर से ... अवसाद अक्सर इनको घेर लेता है ... अपनी स्थिति को सहज स्वीकार करके जीवन बिताना उत्तम होता है अवसाद को दूर रखता है ...

अभिषेक शुक्ल said...

मुस्कान वाकई झूठी होती है। खिलखिलाते चेहरे, ग्लैमर जगत,सितारे हमें अपनी तरफ खींचते तो हैं पर उनकी पीर कहा हमारे समझ में आती है।
पहले पहचान बनाने के लिए लड़ना और जब पहचान बन जाए तो उसे कायम रखने की जद्दोजहद में अवसाद की तरफ मुड़ना..जिंदगी है क्यों समझ से परे???

कविता रावत said...

चिंतनशील प्रस्तुति ..
आखिर कोई बड़ा हो या छोटा हैं तो इंसान ..बस कुछ अपना दुखड़ा सबके सामने रो लेते हैं कुछ छुपा लेते हैं

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

सिनेमा के लोगों का ही नहीं, अब तो यह हाल आम आदमी के जीवन का भी हो गया है। इनकी तो तब भी किसी न किसी पत्रका‍री कारण से पड़ताल हो जाती है, पर आम आदमी तो अपने अकेलेपन के साथ दुनिया को कहां दिख पाता है। अच्‍छा विवेचन है।

Shalini kaushik said...

you have written a very right post about depression .

राजीव कुमार झा said...

किसी भी क्षेत्र में असफलता अवसाद में घिरने का कारण बन सकती है.ग्लैमर की दुनियां में तो काफी उतार-चढ़ाव आते रहते हैं.सफलता से सामंजस्य न बिठा पाने के कारण ही ऐसा होता है.

राज 'बेमिसाल' said...

असल जीवन में भी कई बार हम न चाहते हुए भी नाटकों का हिस्सा बन जाते हैं....कभी जिंदगी नाटक बन जाती है तो कभी हम... जीवन मंच पर खुद को किसी पात्र विशेष के सांचे में ढाले हम जीना शुरू कर देते हैं... नाटक खतम होने पर भी पात्र के चरित्र से बाहर नहीं निकल पाते...कई बार हम पात्र का अभिनय करते करते इतने जीवंत रूप में अभिनय कर जाते हैं...कि हम खुद को उसी पात्र के रूप में देखने लगते हैं.. और असल जीवन में ऐसा कुछ होता ही नहीं ...बस यही से ......

वाणी गीत said...

सफलता मिलने तक फिर भी अवसाद नहीं हो , मगर इसे बनाये रखने की जद्दोजहद में सितारे (हर फील्ड के ) एक भय से गुजरते हैं जो अवसाद बन जाता है .
सार्थक आलेख !

Vandana Ramasingh said...

विचारपूर्ण बेहतरीन लेख

NKC said...

स्टारडम एक नशा है जो सफलता के शिखर पर पहुँचकर चढ़ता है और फिर इसकी लत लग जाती है जो इंसान अपना जमीनी व्यक्तित्व इसके अन्दर संभाले नहीं रख सकता उसे शिखर से निचे फ़िसलते वक़्त अवसाद और अवसाद ही देता जाता है , इसीलिए अपनी जमीन को हमेशा जहन में बचाये रखिये। बहुत ही उम्दा है आपका लेख और विषय भी। स्टारडम एक नशा है जो सफलता के शिखर पर पहुँचकर चढ़ता है और फिर इसकी लत लग जाती है जो इंसान अपना जमीनी व्यक्तित्व इसके अन्दर संभाले नहीं रख सकता उसे शिखर से निचे फ़िसलते वक़्त अवसाद और अवसाद ही देता जाता है , इसीलिए अपनी जमीन को हमेशा जहन में बचाये रखिये। बहुत ही उम्दा है आपका लेख और विषय भी।

शारदा अरोरा said...

आपने बहुत अच्छा लिखा है , हालात को स्वीकार न कर पाना ही हमें उस कगार पर ला कर छोड़ता है।

गिरधारी खंकरियाल said...

कार्य क्षेत्र और जीवन क्षेत्र में सामंजस्य आवश्यक है। तभी सफलता का अर्थ साकार होता है।

संध्या शर्मा said...

सफलता को बरकरार रखने का भय सफलता पाने के संघर्ष से ज्यादा तकलीफदायक होता है... सार्थक आलेख

Himkar Shyam said...

सार्थक और विचारणीय...आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग ऐसी होड़ में शामिल है, जिसका कोई अंत नहीं है. सफलता के चरम पर पहुँचने और उसे बरकरार रखने का दबाव हमेशा बना रहता है. कई बार यह बर्दाश्त से बाहर हो जाता है. जीवन में सहजता बहुत जरूरी है.

कहकशां खान said...

एक सार्थक लेख। पढ़कर गंभीरता का अहसास हुआ।

Unknown said...

बहुत ही सार्थक रचना !
गोस्वामी तुलसीदास

Suman said...

अवसाद,तनाव आज विश्व समस्या बनकर उभर रही है ! इसी तनाव के चलते अभी कुछ दिन पहले हमारे शहर में एक विख्यात युवा अभिनेता ने आत्महत्या की है अभी कुछ दिनों पहले जिया खान ने आत्महत्या की, एक दो नहीं असंख्य लोग,सालों पहले मर्लिन मनरो जैसी विश्वविख्यात अभिनेत्री ने तनाव के चलते आत्महत्या की थी ! तनाव तब भी था और आज भी है लेकिन आधुनिक युग में कुछ ज्यादा ही हो गया है गलाकाट प्रतियोगिता ke चलते हर व्यक्ति हर क्षेत्र में तनाव का शिकार हो रहा है कारण है … उनको प्रसिद्धि के शीर्ष पर खुद को बनाये रखना है !
आर्थिक आभाव के चलते फलां फलां व्यक्तियों ने आत्महत्या की इस प्रकार की घटनाएँ हम रोज अख़बार में पढ़ते है हमारे आसपास देखते है बात हमारे समझ में आती है लेकिन जब प्रख्यात लोग भी अवसाद से घिर जाते है विश्वविख्यात लोग आत्महत्या कर लेते है तब यह चिता और चिंतन का विषय बन जाता है ! इसका समाधान कोई मनोवैज्ञानिक विश्लेषक चिकत्सक ही दे सकता है हम तो केवल अंदाजा ही लगा लेते है ! बाहर की ऊंचाई के लिए शायद भीतर की गहराई भी होना आनिवार्य होता होगा ! सुन्दर सटीक आलेख है आज के संदर्भ में बहुत जरुरी भी, बधाई इस लेख के लिए !

Rachana said...

bahut gambhir aur sarthak lekh sahi likha hai aapne
rachana

Amrita Tanmay said...

जिंदगी जब महसूस होती है तब तक हाथ से फिसल जाती है .

lori said...

हुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से उठाया गया ज्वलंत मुद्दा
सब को चकाचौंध ही की सनक है,
मगर तूफ़ान के बाद की ख़ामोशी को जुबां देता
आपका यह आलेख बहुत सार्थक है , और इस भागती दौड़ती दुनिया का सच भी
इतने प्यारे लेख के लिए , आपकी सोंच के दायरों को नमन।

सदा said...

Behad sashakt or sarthak aalekh....

Kailash Sharma said...

सफलता की चोटी पर पहुंचा व्यक्ति कितना अकेला होता है...आज की भागदौड़ की ज़िंदगी में किसी के पास समय नहीं है दूसरे के लिए. बहुत ही सार्थक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण...

कहकशां खान said...

बिल्‍कुल सही है कि जिंदगी जब मायूस होती है,तभी महसूस होती है।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

लाजवाब... विचारशील प्रस्तुति...
PLEASE VISIT@चन्दन सा बदन

Ankur Jain said...

गहरे अर्थ लिये सुंदर प्रस्तुति। मुश्किल लम्हों में उत्साह का संचार करती प्रस्तुति।

Sanju said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

Geetsangeet said...

रुपहले परदे की खूबी है कि शिखर पर पहुँचते हुए आप एक आवरण से घिरना शुरू हो जाते हैं.
इसकी तुलना एक गाडी से करें-गाडी में धीरे धीरे ब्रेक लगना कम हो जाता है. एक दिन ब्रेक
फेल हो जाते हैं. इसलिए ब्रेक पर ध्यान देना ज़रूरी है. आध्यात्म और आत्मचिंतन के लिए
अभिनेताओं/अभिनेत्रियों को समय नहीं मिल पाता. संतुलन बनाये रख पाने की गुंजाईश नहीं है
फिल्म उद्योग में. अपवाद हर जगह हैं जैसे-महानायक-अमिताभ बच्चन, जिन्होंने विलक्षण तरीके
से जीवन के हर पहलू पर अपना सफल नियंत्रण रखने की कोशिश की है

जिन्होंने एक झटके से ये तिलिस्मी दुनिया छोड़ी वे सुखी हैं अधिकाँश. अच्छा उदाहरण हैं अभिनेत्री मीनाक्षी शेषाद्री जिन्होंने फ़िल्मी जगत छोड़ के अपना घर-संसार बसाया और अपने शौक-नृत्य को एक अकादमी के ज़रिये जिंदा रखे हुए हैं. माधुरी दीक्षित रुपहले परदे का मोह नहीं छोड़ पायीं और वापस आ गयीं.

NIDHI BAJPAI said...

अति सुदंर भाव अभिव्यक्ति करती हैं आप।

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