यही रिश्ते जब नित नए समीकरणों को सामने लाते हैं तो आपसी तालमेल कहीं खो जाता है और सम्बन्धों में शिथिलता आ जाती है । आजकल हमारे परिवारों में रिश्तों और रिश्तेदारी दोनों को नाकारा तो जा रहा है, पर क्यों ? परिवार टूट रहे हैं । सम्बन्ध बिखर रहे हैं । ऐसे में हम सब के लिए रिश्तों को निभाने में आ रही उलझनों के बारे में भी सोचना आवश्यक हो जाता है । नहीं तो जाने-अनजाने रिश्तों में स्थान पाने वालीं ये दूरियां अपने लिए एक स्थायी जगह बना लेती हैं । आत्मीयता सदा लिए खो जाती है और नकारात्मकता घर में, मन में आ बसती है । परिणामस्वरुप अपने परिवेश और उसमें बसने वाले लोगों से जुड़े रहने का स्वाभाविक भाव कहीं गुम हो जाता है ।
परिस्थितियां जब ऐसी बन जातीं हैं तो दुनियाभर से जुड़ने वाले लोग भी अपने ही माहौल के प्रति संकीर्ण सोच रखने लगते हैं । अधिकतर देखने में आता है कि रिश्तों में तालमेल चाहते तो सब हैं पर उसके लिए पहल कोई नहीं करता । एक अजीब सी कटुता घर कर गयी है सभी की सोच में । हमारे परिवारों में ऐसे कितने ही सम्बन्ध हैं जो छोटी छोटी बातों के बड़े बन जाने की राजनीती का शिकार बनते हैं । अहम के गणित में रिश्तों की लाभ-हानि का प्रश्न एक बड़ा सवाल बन कर रह जाता है । जिसका हल खोजने की माथापच्ची किसी को नहीं करनी । कई बार लगता है जैसे हर कोई स्वयं को ही समेट कर जीना चाहता है । अपना जीवन अपने तक ही । जाने कैसा भय है जो अपनों से ही नहीं जुड़ने देता ? कई बार औपचारिकता भरे ऐसे रिश्तों का परस्पर निर्वाह करना एक दूजे पर बोझ लाद देने जैसा लगता है ।
सम्बन्धों के खालीपन और कुछ खो देने की अनुभूति होती तो है पर इस दुःख को नकारने की सोच कहीं अधिक प्रभावी हो चली है । अब रिश्तों के टूट जाने के चलते कोई भावनात्मक अपराधधबोध भी नहीं दीखता । तभी तो पारिवारिक कलह के चलते जान लेना या अपनी जान दे देना, ये समाचार अब आम हो चले हैं । रिश्तों का ये बिखराव उन सारी कठिनाइयों पर विचार करने की ओर संकेत कर रहा है जिन्हें हम देख जान कर भी अनदेखा करते हैं । आपाधापी इतनी है कि जीवन से क्या जुड़ रहा है और क्या छूट रहा है, ये सोचने का भी समय नहीं । आज के समय में पारिवारिक सम्बन्धों का यह विघटन एक गहन वैचारिक विषय है और होना भी चाहिए । जिस रीढ़ पर पूरा समाज टिका है उसका सुदृढ़ होना हम सबके लिए आवश्यक है ।
49 comments:
सच कहा मोनिका जी आप ने आज कल दौड़ में इतने व्यस्थ है कि पीछे क्या छूट रहा है..क्या टूट रहा है.. पता ही नहीं..
सही बात...बहुत बढ़िया प्रस्तुति...आप को मेरी ओर से नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@एक प्यार भरा नग़मा:-कुछ हमसे सुनो कुछ हमसे कहो
सही कहा आपने मोनिका जी आज संबंध छिछले हो कर रह गये हैं
जिस रीढ़ पर पूरा समाज टिका है उसका सुदृढ़ होना हम सबके लिए आवश्यक है ।
सही कहा आपने .....
चोखी बात, अगर कोई समझे तो कल्याण हो जाए।
सोचने को मजबूर करता आलेख |
रिश्तों का ये बिखराव उन सारी कठिनाइयों पर विचार करने की ओर संकेत कर रहा है जिन्हें हम देख जान कर भी अनदेखा करते हैं ।
"आज के समय में पारिवारिक सम्बन्धों का यह विघटन एक गहन वैचारिक विषय है और होना भी चाहिए।"
सचमुच एक बड़ी समस्या है आपसी संबंधों की दूरी का बढ़ते जाना। मनुष्य का मैटरियलिस्टिक होते जाना एक उल्लेखनीय कारण है
हम सब इससे जूझ रहे हैं।हल सूझ नहीं रहा !
" Ye bata de mujhe zindagi!
Pyar ki raah k hamsafar, kis tarah ban gaye Ajnabee......."
ji! aap bilkul sahi hain. 100% sahi.
अहम के गणित में रिश्तों की लाभ-हानि का प्रश्न एक बड़ा सवाल बन कर रह जाता है ।
सच कहा आपने.....
परिवारों का विघटन बहुत बड़ी समस्या है.....शायद हम सबके भीतर धैर्य की कमी भी इसका एक कारण मुझे समझ में आता है....
अनु
समस्या को पता तो शायद सबको है। सवाल यह है कि इसका कारण क्या है? और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? सवाल समाधान का है। भौतिक संसाधनों को जुटाने की भागदौड़ और उपभोक्तावादी संस्कृति की गिरफ़्त इतनी तगड़ी है कि कुछ दूसरा देखने सुनने को समय ही नहीं है। समाज में स्टेटस के लिए यही एक पैमाना जो हो गया है।
आज के समय में पारिवारिक संबंधों का बिखरना सचमुच चिंता का विषय है.तेज रफ़्तार जिंदगी बहुत कुछ अपने आप में समेट लेती है.संबंधों में बिखराव के कई अहम् कारण हो सकते हैं.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जले पर नमक - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
वर्तमान समय की बढ़ी समस्या परन्तु शायद पहले भी रहा हो !
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आधुनिकता की देन है ये विघटन और हमें ही सोचना है कि कैसे इसे रोकना है।
"सम्बन्धों के खालीपन और कुछ खो देने की अनुभूति होती तो है पर इस दुःख को नकारने की सोच कहीं अधिक प्रभावी हो चली है । अब रिश्तों के टूट जाने के चलते कोई भावनात्मक अपराधधबोध भी नहीं दीखता ।"............. बिलकुल सही कहा आपने
पारिवारिक मृदुलता को बचाये रखने की जिम्मेदारी से भागते लोग पहले टीवी में सर खपा रहे थे अब नेट आगया शुरू शरू में तो सोशल साइट्स पर बड़ा अच्छा माहौल मिलता है फिर जैसे 2 समय बीतता जाता है यहाँ भी निरर्थक बहस लड़ाई झगड़े ....तुम मुझे पूछते नहीं ...जैसी शिकायतें दिखाई देती हैं ....सच है माहौल सुन्दर बनाने के लिए पहला परिष्कार अपने भीतर करना होता है
इतना छोटा जीवन और उसी में उलझे हम सब। ईश्वर के सिखाने के अपने तरीक़े हैं।
संबंधों का गणित अलग ही होता है और इसका सबसे सर्रल सूत्र है सहनशीलता, अगर कोई भी एक पार्टनर सहन शील नहीं हो तो बनता धार तय मानिए ..
व्यक्ति को रिश्ते तो चाहिए बस उनका रूप बदल गया है। हम दोस्तों के साथ ज्यादा आरामदायक अनुभव करते हैं क्योंकि दोस्तों में प्रतिबद्धता नहीं होती है। यदि रिश्ते में किसी की मृत्यु हो जाए तो आपको वहां जाना अनिवार्य हो जाता है जबकि दोस्तों में ऐसी अनिवार्यता नहीं होती है। इसलिए लोग रिश्तेदारी से बचना चाहते हैं। नो रिश्तेदारी और नो जिम्मेदारी।
इस समस्या के कई पहलू हैं। माता -पिता ने बच्चों को समय नहीं दिया हो , जब उन्हें इसकी अधिक आवश्यकता रही हो , बुढ़ापे में बच्चों से समय दिये जाने की मांग कैसे करें ! दरअसल अपनी युवावस्था में ही अपने व्यवहार पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि हम परिवार /रिश्तों /समाज को क्या दे रहे हिआँ !
भौतिकवादी होना , हद से अधिक बंदिशें ,स्वार्थ ,लालच आदि भी रिश्तों की नींव को हिलाने में मददगार हैं !!
आज कल परिवार में आपसी ताल मेल का अक्सर अभाव देखने को मिलता है,फिर भी अपना धैर्य चाहिए, बेहतरीन आलेख।
वाह जी वाह
विघटन की परंपरा के कारण सब असहज हो गया है।
सही कहा सुन्दर और सार्थक आलेख |
इन समस्याओं के हल के लिए सामूहिक प्रयास हों, इस हेतु शुभकामनाएं।
samay ki kami aur sanvadheenta ye do mukhy karan hai ...! aapki bnaat se sahmat hun
आधुनिकता और मैटिरियलिस्टिक सामजिक मान्यताओं की कारण सम्बन्धों और रिश्तों को पुन: परखने, परिभाषित करने और समझने की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है... आपकी बातों से असहमत हुआ भी नहीं जा सकता है.. दरसल यह एक विमर्श का बिन्दु है और इसपर स्वस्थ परिचर्चा होना चाहिए!! आभार आपका!!
सम्बन्धों कि मिठास को बनाये रखने की बेहतरीन सीख देती रचना
aapne apne lekhan me bahut hi mahtvpurn mudde ko uthaya hai ..................pata hi sambado ne kyo apne dayre simit kar liye hai .......
संबंधो से क्लिष्ट संभवत: कुछ भी नहीं
कल 10/01/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद!
बात तो सही है ...लेकिन जब तक यह 'अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग' रहेगा, तब तक कुछ नहीं हो सकता। विचारणीय आलेख
इंसान का इंसान से हो भाईचारा...ये सिर्फ फेसबुक तक ही सिमट गया है...
यह एक चिंता और चिंतन का विषय है !
संबंधो पर बहुत सटीक विश्लेषण है ,बहुत धन्यवाद।
मेरे ख्याल से आत्मकेंद्रित होकर जीने की प्रवृत्ति सम्बन्धों की जड़ के लिए दीमक बन रही है.
इसपर परिचर्चा होना चाहिए !!
किसी भी संबंध को निभाने के लिए विश्वास होना बहुत ज़रूरी है.
आप सभी के सहयोग के लिए अपेक्षित हूँ.
मेरे ब्लॉग पर आप सभी का स्वागत है.
कृपया मेरे ब्लॉग से जुड़ें और फ़ेसबुक पेज को लाइक करें.
धन्यवाद
http://iwillrocknow.blogspot.in/
माता-पिता बचपन से इस ओर ध्यान दें तो कुछ हद तक इस समस्या का हल हो सकता है, लेकिन यह भी सही है कि बच्चे अपने आसपास के माहौल से भी प्रभावित होते हैं, आज रिश्ते भी लाभ-हानि कि बुनियाद पर बनते बिगड़ते हैं … सार्थक आलेख
पाने कि आस में कोई कुछ खोना नहीं चाहता | असमंजस सी स्थिति किन्तु स्वार्थ सब कि रोग है | संतुलन जरूरी है | सोंच और प्रस्तुति सर्वोत्तम , बधाई नव वर्ष कि शुभ कामनाओ के साथ मोनिकाजी |
जिनके लिए रिश्तों का कोई महत्त्व नहीं उनके लिए उनके टूटने का अपराध बोध कहाँ होगा ...
आज की दौड़ में सब सिमिट रहे हैं ... परिवार भी सिमिट रहे हैं ... जैसा बच्चे देखते हैं वैसा ही करने की कोशिश करते हैं ... समस्या के पूरे माहोल को नई दृष्टि से देखने की जरूरत है ...
संबंधो पर सटीक विश्लेषण...
आत्महीन स्व :केंद्रित (देह केंद्रित )समाज खुद अपनी कब्र रहा है ऐसे में मुसीबत के समय आदमी अकेला पड़ जाता है। मिलनसारी एक उम्दा चीज़ है।
मोनिका जी बहुत महत्वपूर्ण विषय पर सटीक व्याख्या करती आपकी ये पंक्तियाँ -"आपाधापी इतनी है कि जीवन से क्या जुड़ रहा है और क्या छूट रहा है, ये सोचने का भी समय नहीं ।
और
" जिस रीढ़ पर पूरा समाज टिका है उसका सुदृढ़ होना हम सबके लिए आवश्यक है । " विषय को सार्थकता प्रदान करती हैं .
मीनाक्षी श्रीवास्तव
meenugj81@gmail.com
आज स्व आधारित सोचयुक्त समाज में रिश्तों और संबंधों को स्थान कहाँ है....बहुत विचारणीय आलेख...
बेहद गहन व सार्थक प्रस्तुति।।।
आपाधापी इतनी है कि जीवन से क्या जुड़ रहा है और क्या छूट रहा है, ये सोचने का भी समय नहीं । आज के समय में पारिवारिक सम्बन्धों का यह विघटन एक गहन वैचारिक विषय है और होना भी चाहिए । जिस रीढ़ पर पूरा समाज टिका है उसका सुदृढ़ होना हम सबके लिए आवश्यक है । sahi soch hai aapki monika jee bahut jaruri hai rishton ko bachaye rakhne ke liye aisse soch ..
बिलकुल सही कहा आपने !
रिश्तों को बहुत सहेज कर एहतियात से रखना चाहिए .... चाहे कितना भी नकार क्यों न दिया जाए..इनका महत्त्व अपनी जगह क़ायम रहेगा !
~सादर
रिश्ते तभी टूटते है जब उम्मीदे बहुत ज्यादा हावी हो जाती है...।आज ज्यादा रिश्ते स्वार्थ पर ही आधारित होते जा रहे है जो कि एक दुखद बात है..।
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