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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

18 November 2013

ना मनुष्यता का मान, ना श्रम का सम्मान




राजधानी दिल्ली में फिर एक बार फिर अमानवीय व्यवहार की शिकार एक घरेलू नौकरानी की जान चली गई। इस घर में लगे कैमरों में जो पाश्विक व्यवहार रिकार्ड हुआ है वो मानवता को शर्मसार करने वाला है । घरेलू कामगारों के साथ मालिकों द्वारा किया गया वीभत्स व्यवहार आए दिन अखबारों की सुर्खियां बनता है। जो मामले दबे रह जाते हैं उनमें ये कामगार लंबे समय तक शोषण का शिकार बनते रहते हैं। कुछ समय पहले एक डॉक्टर दंपत्ति के घर पर भी एक नाबालिग बच्ची के साथ बरसों तक जुल्म किए जाने की खबरें सामने आईं थी। उससे पहले भी ऐसी घटनाएं प्रकाश  में आती रही हैं। इन घटनाओं का सबसे अधिक दुर्भागयपूर्ण पक्ष ये है कि शिक्षित और सम्पन्न घरों में नौकरों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार ज्यादा किया जाता है। यह विडम्बना ही है कि ऊँचे ओहदे और सम्पन्न घरों में ऐसी असंवेदनशी व्यवहार वाली घटनाएं अधिक होती हैं। दिन-प्रतिदिन होने वाल ऐसी घिनौनी घटनाएं सभ्य समाज की चेतना पर ही सवालिया निशान लगाती हैं।  जहां इंसानों के साथ पशुओं जैसा बर्ताव किया जाता है। घरेलू कामगारों के उत्पीडऩ के मामलों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा ही हो रहा हैं। साथ ही ऐसी घटनाएं समाज के संवेदनहीन चेहरे को भी सामने ला रही हैं। जिसमें मानवीय मूल्यों के प्रति कोई संवेदना नहीं बची है। 
घरेलू कामगारों के शोषण की शुरूआत उसी मोड़ से शुरू हो जाती है जब कई सारे प्रलोभन देकर इन्हें महानगरों में काम दिलवाया जाता है। आमतौर पर बड़े शहरों में घरेलू कामकाज करने वाले नौकर-नौकरानियां अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए देश के दूर दराज के क्षेत्रों बड़े शहरों में आते हैं। इनका गरीब और अशिक्षित होना इन्हें काम दिलाने वालों के लिए मुफीद हथियार बन जाता है। गौरतलब है कि एक अकेले राजधानी दिल्ली में ही घरेलू नौकरों को काम दिलवाने वाली प्लेसमेंट एजेंसीज़ की संख्या 2300 से अधिक है। इनमें ज्यादातर  एजेंसीज़ ना तो कानूनी रूप से रजिस्टर्ड हैं और ना ही किसी सरकारी गाइडलाइन या नियम कायदे के अनुसार चलती हैं। इनसे जुड़े एंजेट्स दूर दराज के इलाकों से कम उम्र के कामगारों और महिलाओं को पकडक़र लाते हैं जिन्हें योजनागत रूप से ऐसे दलदल में फंसाया जाता कि वे  शोषण झेलने को मजबूर हो जाते हैं। ना तो उन्हें अपने काम से जुड़े किसी कानून की जानकारी होती हैं और ना ही उनकी मिलने वाली जिम्मेदाररियों और अधिकारों का कोई लिखित प्रारूप होता है । गरीबी  के फंदे में पहले से उलझी कम उम्र की बच्चियां आसानी से दलालों  के जाल में फंस जाती हैं। हमारे देश में आज लाखों की संख्या में घरेलू कामगार हैं पर सरकार की ओर से ना तो कोई सहायता मिलती है और ना ही इनके संरक्षण के लिए कोई राष्ट्रीय कानून है। । 

अमानवीयता की सीमा पार करने वाले व्यवहार का शिकार अधिकतर नाबालिग बच्चे और महिलाएं बनती हैं।हर तरह की शारीरिक, मानसिक प्रताडऩा इनके हिस्से आती है । संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार अकेले मुंबई शहर में ही घरेलू नौकर के तौर पर काम करने वाले कामगारों में 40 फीसदी की उम्र 15 साल से कम है। इस मानव विकास रिपोर्ट के मुताबिक इनमें अधिकतर लड़कियां है जो मारपीट और यौन हिंसा का दंश आए दिन झेलती हैं। ये संख्या घरेलू नौकरों की स्थिति ही नहीं हमारे देश में बढ़ते बाल श्रम के आँकड़ों को भी बताते हैं। बावजूद इसके प्रशासनिक स्तर पर इनकी स्थिति में सुधार के कार्यान्वन में सुस्ती बरती जाती है। कुछ समय पहले इंटरनेश्नल डामेस्टिक वर्कर्स नेटवर्क आईडीडब्लूएन और ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट में यह सामने आया था कि भारत श्रम सुधारों के कार्यान्वन में काफी पीछे है । जबकि एशिया महाद्वीप के कुछ देशों का छोड़ दुनिया भर में इस दिशा में प्रगति हुई है। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक शोध के मुताबिक भारत में घरेलू नौकरों को भयंकर उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है। सरकारी स्तर पर घरेलू कामगारों के हालात सुधारने के लिए कुछ कानून बने भी है तो वे इतने जटिल हैं कि उनका कोई लाभ इन्हें नहीं मिल पाता । कुछ समय पहले केंद्रीय मंत्रीमंडल ने घरेलू नौकरों का राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के दायरे में पंजीकृत घरेलू कामगारों को लाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। ताकि उन्हें समय पर इलाज मुहैया हो सके पर असंगठित क्षेत्र के श्रमिक होने के चलते अधिकतर को इसकी जानकारी ही नहीं है। इतना ही नहीं इस योजना का लाभ पाने के अधिकारी वे नौकर-नौकरानियां हैं जिनकी आयु18-59 साल की है। गौरतलब है कि घरेलू कागारों में बड़ी संख्या नाबालिग बच्चों की है जो कानूनी तौर पंजीकृत भी नहीं होते।  राष्ट्रीय  महिला आयोग ने भी 2010 में घरेलू नौकरों के कल्याण और सामाजिक सुरक्षा का एक मसौदा तैयार किया था पर उसे भी प्रभावी ढंग से क्रियान्वित नहीं किया गया। 

जिनके सहयोग के बिना भले ही कुछ लोग अपने घर आँगन नहीं सम्भाल सकते, बच्चों की परवरिश नहीं कर सकते, उनके साथ किया गया ऐसा वीभत्स व्यवहार हमारे समाज के संवेदनहीन पक्ष को उजागर करता है। हमारी मानवीय सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाता है । दुखद है कि देश के कार्यबल में बड़ी भागीदारी रखने वाले घरेलू कामगारों  के साथ ऐसी अमानवीय घटनाएं होती हैं ।  हम मनुष्यता और श्रम का मान करना कब सीखेंगें? 

28 comments:

रचना said...

हम मनुष्यता और श्रम का मान करना कब सीखेंगें?
i hope we do it fast

राजीव कुमार झा said...

आज के इस सभ्य समाज में इस तरह की अमानवीय घटनाएं बहुत कुछ सोचने को विवश करती हैं.घरेलु कामगारों के लिए अधिकतर योजनाएं कागज के पन्नों तक ही सीमित रह गई हैं.

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे said...

असल बात हमारे देश में श्रम की कभी प्रतिष्ठा हुई नहीं। आज जो भी छोटे काम करने वाले लोग, मजदूर, गरीब... है उनके प्रति पैसों वालों का नजरिया दुषित रहा है। मिडिया में यह एक खबर आई पर ऐसी हजारों घटनाएं है जो दबी पडी हैं। सबसे ज्यादा इसके शिकार बच्चे और युवा लडकियां होती है और वह भी शरीर शौषण के नाते।

Vaanbhatt said...

बिना डोमेस्टिक हेल्प के घर ठीक से चलना मुश्किल हो रहा है...आम भारतीय के लिए भी...ये लक्सरी हम यहाँ ही अफोर्ड कर सकते हैं...जहाँ मैन पावर बहुतायत से है...इनका ख्याल रखना हमारा दाईत्व भी है...

इमरान अंसारी said...

ऐशयाई देशों में कानून का सख्त न होना एक बहुत बड़ा कारण है कि बाल -श्रम जैसे मुद्दे यहाँ गम्भीर अपराध नहीं माने जाते यही कारण है कि दिन-ब-दिन इनमें बढ़ोत्तरी होती जा रही है । गरीब इतना गरीब हो चुका है कि लोगों को खाने के लिए मयस्सर नहीं । रोज़ी रोटी कि तलाश में लोग अपने साथ अपने छोटे बच्चों को महानगरों की संवेदनहीन भीड़ के हवाले कर देते हैं । दो जून कि रोटी कमाने के लिए ये मासूम कितने अन्याय रोज़ झेलते हैं इसकी कोई सीमा नहीं, इसका कोई आंकलन नहीं होता, कोई सुनवाई, कोई शिकायत दर्ज नहीं होती । सिर्फ अख़बारों कि कतरनों और टीवी पर जाहित में सूचना मंत्रालय ये अपील करके अपने कर्तव्यों कि इतिश्री कर लेते हैं कि बाल-श्रम अपराध है इसे रोकने में हमारी मदद करें ।

Jyoti Mishra said...

a saddening truth..
many lives are wasted just because some people forget the meaning of humanity

Amrita Tanmay said...

दास प्रथा का नमूना है ये ..जो सम्पन्न होते हैं वे क्यों जानवर बन जाते है ?ऐसे जानवरों से मनुष्यता की कैसी उम्मीद ?

ताऊ रामपुरिया said...

असल मुद्दा उठाया है आपने, बहुत ही सारगर्भित आलेख.

रामराम.

shikha varshney said...

बहुत बुरा हाल है... . आजकल इन एजिंसियों द्वारा गृह मालिकों को दिया जा रहा धोखा भी बहुत प्रकाश में आ रहा है.

Bhavana Lalwani said...

bahut hi praasangik mudde par likha hai aapne .. badhiya lekh.

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत ही गंभीर मुद्दा है ये.सभ्यऔर पड़े लिखो से ऐसी उम्मीद नहीं होती परन्तु वे ही अमानवीय रूप दिखा जाते है.. गरीब और हालात के मजबूर घरेलु कामकाज वालो के साथ ऐसा व्यवहार कर देते है...दुखद...

virendra sharma said...


ये खाये पीये अघाये लोग मैटीराइल एनेर्जी को ही जीवन का प्राप्य माने अज्ञान के अँधेरे में पड़े हैं अज्ञानी ऐसे कुकृत्य ही करेगा। हिसाब तो आगे पीछे इन जादो -हराम -बलियों को भी पूरा करना पडेगा। उसके यहाँ देर है अंधेर नहीं और ये नाबालिग नाबालिग तो जनगणना के दायरे से भी बाहर रहते हैं क्योंकि महानगरों में ये दूर दराज़ के इलाकों से कम के लिए लाये जाते हैं मवेशियों की तरह।

जयकृष्ण राय तुषार said...

सत्ता के सामन्तों ने कानून को खिलौना बना दिया |

Vandana Ramasingh said...

"दुर्भागयपूर्ण पक्ष ये है कि शिक्षित और सम्पन्न घरों में नौकरों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार ज्यादा किया जाता है। यह विडम्बना ही है कि ऊँ चे ओहदे और सम्पन्न घरों ऐसी असंवेदनशी व्यवहार वाली घटनाएं अधिक होती हैं"...............
वाकई दुखद स्थिति है कपड़ों और accessories पर बेतहाशा खर्च करने वाले लोग साहित्य पर ध्यान नहीं देते जो आत्मा को धोकर साफ़ कर सकता है

ashish said...

बहुत ही दुर्भागयपूर्ण है , श्रम की प्रतिष्ठा हमेशा से धनपशुवों के लिए कोई मायने नहीं रखती है . बदलाव हुआ तो लेकिन अभी बहुत दूर जाना है . विचारणीय आलेख.

Saras said...

श्रम का मान करना तो पता नहीं कब आएगा हमें...फिलहाल ज़यादा बड़ी ज़रुरत है कि हम इन्हे भी इंसान समझें..यह सोचे कि यह किसी के साथ भी हो सकता है ..हम भी कभी इनकी स्तिथि में हो सकते हैं.......बस ईश्वर से डरें और और उनके साथ वैसा ही सुलूक करें जैसा हम अपने साथ होने देना चाहेंगे ....

दिगम्बर नासवा said...

हमारे देश में बहुत से क़ानून तो इसलिए बनाए जाते हैं की उनसे वोट इकट्ठा हो सकें या सरकारी तंत्र के बाबुओं की जेब भर सके ...
दुर्भाग्य है देश का .. जहां इतनी श्रम शक्ति है वहाँ ही सबसे ज्यादा अनादर है उसका ... शक्तिशाली रक्षा नहीं करते बल्कि अत्याचार करते हैं ... फिर क़ानून का फायदा उठा के बच निकलते हैं ...
आपका लेख आँखें खोलने वाला है ...

अरुण चन्द्र रॉय said...

ऐसी दरिंदगी और पाशविकता और बढ़ेगी क्योंकि मनुष्यता ख़त्म हो रही है।

Rajeev Kumar Jha said...

इस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :- 21/11/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक - 47 पर.
आप भी पधारें, सादर ....

ANULATA RAJ NAIR said...

बहुत ही सार्थक और विचारणीय आलेख है....

आभार
अनु

Rachana said...

sochne pr majboor karta lekh
rachana

lori said...

अब तक तो मोबाइल वाली "सक्खू बाई " जैसे व्ययंग ही पढ़े थे, इस तरफ़ सबका ध्यान खींचने के लिए मेरी और मम्मी की तरफ से शुक्रिया! (माँ ने अपनी ओऱ से,
अलग से बोलने के लिए कहा था :) )

Arvind Mishra said...

मनुष्य सचमुच पशु है अगर वह संस्कारित न हो -इंगित घटना / घटनाएं इसे साबित करती हैं -
विचारपरक आलेख

Unknown said...

बहुत ही सुन्दर एवम् चिंतनीय और विचारणीय लेख ,

संतोष पाण्डेय said...

हम मनुष्यता और श्रम का मान करना कब सीखेंगें? शायद कभी नहीं। गरीब लोग ऐसे ही नारकीय जीवन के लिए मजबूर किए जाते रहेंगे।

G.N.SHAW said...

painful act

G.N.SHAW said...

to be corrected in society.

sujit sinha said...

विचारणीय आलेख | अपने समाज में सामंती सोच पोर -पोर में समायी हुई है | गरीबों को आदमी समझा ही नहीं जाता |

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