खो ना जाये मनुष्यता |
आज मन बहुत व्यथित है । एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ हुयी पाशविक घटना के बारे में जानकर । सच, मन दहला देने वाला परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है आज के दौर का समाज । बेटियों का आगे बढ़ना , पढना लिखना, उनका पूजनीय होना हर शब्द बस प्रदर्शन भर लग रहा है । दुष्कर्म मानो प्रतिदिन सुना जाने वाला शब्द हो चला है । देश की महिलाओं और बेटियों के साथ आये दिन पाशविक कृत्य हो रहे हैं । साथ ही जिस तरह की सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था में हम जी रहे हैं, संभवतः आगे भी होते ही रहेंगें । कहाँ जा रहे हैं हम ? किस ओर मुड़ गयी है हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था ? मानवता को लज्जित करने वाले ऐसे कृत्य क्यों आये दिन देखने-सुनने में आ रहे हैं ? ये सारे प्रश्न तो बनते हैं । इस देश की न्यायिक व्यवस्था से भी और सामाजिक तानेबाने से भी । जिनकी दृष्टि में स्त्रियाँ देवी तो हैं पर मनुष्य भी हैं की नहीं । यदि हैं तो ऐसे निंदनीय कृत्य राजनीति का खेल खेलने और वक्तव्य देने भर के लिए हैं ।
आज लग रहा कि दामिनी केस में पाशविकता की हर सीमा पार करने वाले अपराधियों को दंड दिया जाना कितना आवश्यक था । शीघ्रता से उस मामले का निपटारा कर न्याय किया गया होता तो इन कुत्सित मानसिकता वालों को कुछ तो भय होता कानून का । इस तरह के आपराधिक मामलों पर सरकार और न्याय व्यवस्था के द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाया जाना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है । ऐसे दुष्कर्मियों को दण्डित कर यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि दुष्टता सहन नहीं की जाएगी । पर हुआ क्या ? एक खेल खेला गया देश की बेटी (दामिनी) और उसके परिवार के साथ भी और उस जनमानस के साथ भी जो दामिनी को न्याय दिलाने अपने घरों से निकला था । आज एक मासूम बच्ची के साथ फिर वही हैवानियत भरा व्यवहार किया गया । सपष्ट है कि इस देश में कानून व्यवस्था का भय तो है नहीं । हमारी न्यायिक व्यवस्था इतनी लचर और निराशाजनक है कि ऐसे लोगों की हिम्मत और बढ़ रही है ।
मन को विचलित कर जाती हैं ऐसी घटनाएँ । दरिंदगी का ऐसा कुत्सित खेल खेलने वालों के लिए तो कड़ी कड़ी से सज़ा का प्रावधान ज़रूरी है । यह केवल कानून बनाकर नहीं किया जा सकता । इसके लिए पूरी सामाजिक, पारिवारिक और प्रशासनिक व्यवस्था को पीड़ितों का दर्द समझना होगा । उनका साथ देना होगा । जबकि होता इससे उलट ही है । इस घटना के बाद भी बच्ची और उसके परिवार के साथ पुलिस का व्यवहार बहुत निंदनीय रहा । उनका दुःख समझ कर बच्ची को स्तरीय चिकित्सा उपलब्ध करवाने के बजाय उन्हें डराया धमकाया गया । ऐसे में हम सब समझ सकते हैं कि देश के कानून पर कोई विश्वास करे भी तो कैसे ? जिनके हाथों में हमारी सुरक्षा का दायित्व हो उनका ऐसा व्यवहार इन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थतियों को और जटिल बना देता है ।
कल ही तो देश भर में पूजन वंदन हुआ है बेटियों का । ऐसे में एक मासूम बिटिया के मानमर्दन का यह समाचार सुन मन नैराश्य और विषाद से भर गया है । एक बार फिर बेटियों के सपनों की सच्चाई का धरातल नज़र आया । साथ ही उनके तथाकथित पूजनीय होने और सामाजिक मान प्रतिष्ठा पाने की हकीकत का भी भान हुआ । आत्मा काँप जाती हैं यह सोचते हुए कि जिस हैवानियत भरे व्यवहार की चर्चा भी मैं अपने शब्दों में नहीं कर पा रही हूँ वो उस नन्हीं सी बच्ची ने झेला है ।
ऐसी घटनाएँ अनगिनत प्रश्न उठाती हैं । सोच-विचार को बाध्य करती हैं । हमें हमारे समाज का वो कुरूप चेहरा दिखाती हैं जिसमें सदैव ही दोहरे मापदंड रहे हैं । पाशविकता का यह खेल हम सभी को शर्मिंदा करने वाला है । हम तो मनुष्यता का मान करना ही भूल रहे हैं । ईश्वर ही जाने हम किस ओर जा रहे हैं ? ये सोचकर ही भयभीत हूँ कि इस मार्ग पर चलकर हम पहुंचेगें कहाँ ?
57 comments:
न्यूज़ देखकर मेरा भी मन बहुत व्यथित है। बस मौन।
जहाँ'आम आदमी'सदा तिरस्कृत होता हो,वहाँ एक साधारण स्त्री(फिर एक लाचार बालिकाकी)की क्या बिसात .कहने को जनतंत्र है पर भेड़ियों को मनमानी की छूट है.न्याय कौन करेगा?
जब पुलिस के काम करने का ढ़ंग ऐसा हो तो फिर उम्मीद ही क्या है. पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन होना चाहिये.
मन बस व्यथित होकर रह गया , घोर पापियों को बचाने के लिए जब उम्र का तर्क दिया जा सके , उन्हें केस लड़ने के लिए वकील मिल सके , विभिन्न कानूनविद उनका साथ देने को तैयार हो तो इन अपराधों पर रोक लगे कैसे !!!
सच में क्या हो गया है हमारे समाज को? हद हो गयी अब.
बहुत ही दुखद है मगर कानून के सख्त होने या नहीं होने कि बजाय ज्यादा महत्व कि बात है कि कानून का लागू किया जाना. लोगों में नैतिक मूल्यों का पतन तो हुआ ही है. और सच में ये सब नतीजा है उस सस्कृति के पीछे भागना जो पहले से ही तार तार है.
यथार्थ चिंतन - मानवता पर कुठाराघात जारी है और हम उसे सहने के लिए बाध्य हैं।
:(
असहनीय पीड़ा ....और हम सब विवश .....
त्वरित न्याय व्यवस्था ही कारगर है अब न्याय में एक लाइन जोड़नी होगी दस बेगुनाह को भी सजा हो जाये लेकिन एक गुनहगार न छूटे
'धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य'को ठुकरा कर, इसे अफीम बता कर जब 'ढोंग-पाखंड-आडंबर' को धर्म का नाम दिया जाएगा और शोशकों -लुटेरों -व्यापारियों-उद्योगपतियों के दलालों को साधू-सन्यासी माना जाएगा एवं पूंजी (धन)को पूजा जाएगा तो समाज वैसा ही होगा जैसा चल रहा है। आवश्यकता है उत्पीडंकारी व्यापारियों/उद्योगपतियों तथा उनके दलाल पुरोहितों/पुरोहित् वादियों का पर्दाफाश करके जनता को उनसे दूर रह कर वास्तविक 'धर्म' का पालन करने हेतु समझाने की।
निसंदेह हम पतन के गर्क तक जा चुके हैं. आखिर हमारा यह नैतिक और सामाजिक पतन और किस स्तर तक गिरेगा? :(
रामराम.
मैं भी बहुत व्यथित हूँ समझ नहीं आता है ये क्यों हो रहा है.......
सचमुच मन व्यथित है एक बार फिर बहुत ज्यादा -आखिर इस जघन्यता का कारण और इलाज क्या है?
YAE PUJAA PAATH KAA DIKHAYAA SAB BAND KARNA CHAHIYAE AUR BETYION KO FAUJIYON KI TARAH SHIKSHIT KARNA CHAHIYAE
अब विचार करने का वक़्त नहीं है ...ज़रूरी है सख्त कानून बने और सख्ती से उसका पालन हो ।
जब तक ऐसे दरिंदों को मृत्युदण्ड नहीं अपितु मार न डाला जाएगा ,तबतक तो ऐसी मर्मान्तक पीड़ा को बच्चियों को सहन करना ही पड़ेगा .... मुझे तो इसमें ज्यादा अपराधी उनको सजा से बचने में सहायता करने वाले लोग लगते हैं ,उनके लिए भी कठोरतम दण्ड होना चाहिए !!!
मार्मिक ...आखिर कब तक ..कब अंत होगा ..
असहनीय पीड़ा के साथ सिर्फ विवशता....
मन बहुत ही व्यथित है! सुनकर / पढ़कर आँखों में आँसू आ जाते हैं..!:(
अब तो लगता है, हर कॉलोनी में खुद ही संगठित होकर कुछ करना चाहिए! अपनी सुरक्षा के लिए यही सही क़दम उठना शायद उपयुक्त होगा....
~सादर!!!
विषाद से भारा अन्तर्मन त्राहि कर रहा है। तीन बार इस पोस्ट पर आया पर क्या कहुँ, असमर्थ पाया।
bahut dukh hota hai ye sab dekh kar ..
Aaj mn bahut vytheet hai, kanoon, vyvastha pr vishwas baise hi km ho chala hai,samvedansheelata khtm ho chali hai,AAj bs maun...
देख के आज ,नन्ही गुड़िया के हालात
उठ खड़े हुए आज इंसानियत पे सवालात......
अब कहने को कुछ बचा नही और करते हम कुछ हैं नही ?????
आत्मा काँप जाती हैं यह सोचते हुए कि जिस हैवानियत भरे व्यवहार की चर्चा भी मैं अपने शब्दों में नहीं कर पा रही हूँ वो उस नन्हीं सी बच्ची ने झेला है...............जो कर्ताधर्ता हैं उनकी मानसिकता भी ऐसी ही है।
पानी सर से उपर बह रहा है |लेकिन सबसे शर्मनाक है दिल्ली और देश की कमान दो शक्तिशाली महिलाओं के हाथ में है |उन्हें शर्म नहीं आती है |एक दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं दूसरी के हाथ पुरे देश का शासन अप्रत्यक्ष रूप से है |
क्या कहें अब तो जैसे इस तरह की शर्मनाक वारदातों पर कहने को कुछ बचा ही नहीं अब तो ऐसा लगता है जब कानून से खेलने वालों को कानून अपने हाथ में लेने में कोई डर नहीं है तो अब जनता को भी कानून का मुंह देखने के बाजाए घटना स्थल पर ही अपराधी को सजा दे देना का भर पूर प्रयास करना चाहिए। मानती हूँ यह कोई सही तरीका नहीं है मगर कभी कभी गलत को गलत साबित करने के लिए गलत रास्ते पर जाना भी ज़रूर हो जाता है।
सख्त क़ानून बनने के बाद भी भले ही थोड़ी बहुत कमी आ जाय,लेकिन यह दुष्कर्म ख़त्म नही होगा,जब तक मिलकर सामाजिक रूप से कठोर दंड न दिया जायगा,,,
RECENT POST : प्यार में दर्द है,
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (21-04-2013) के चर्चा मंच 1220 पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
इन अपराधों पर रोक लगे कैसे ....आखिर कब तक !!!
mansikta jab kshin ho jay to rakshipan ubhar aata hai. aise logo ko to sare aam chaurahe par aisi saja deni chahiye ki jivit bhi rahe aur marta bhi rahe.
हमारी न्यायिक व्यवस्था इतनी लचर और निराशाजनक है कि ऐसे लोगों की हिम्मत और बढ़ रही है और अनीता जी के वाक्यों से सहमत हूँ |हर लोकल लेबल पर प्रयास जरुरी है | अन्यथा असत्यमेव जयते |
सामाज तो पहले से ही पतीत है इससे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती बस हम सब को एक एक कर उठ खड़ा होना होगा.. यह बुराई भी खत्म होगी..
is pe ab chitan , manthan ki bajaay turant action ki aawasykataa ki zarurat hai tabhi kuch hal ho saktaa hai anythaa ,, taarikh pe taarikh aur kuch nahi .
व्यथित और मौन, त्राहि त्राहित् राहि त्राहि
आज की ब्लॉग बुलेटिन क्यों न जाए 'ज़ौक़' अब दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
प्रशासनिक,विधिक और पुलिस व्यवस्था में निश्चय ही सुधार की जरूरत है पर साथ-साथ इस तरफ भी ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि समाज में नैतिक मूल्यों का क्षरण बडी तेजी के साथ हुआ है.पहले हम अपने मां-बाप और शिक्षकों से नीति और दुनियादारी का पाठ सीखते थे.खाली समय में गीता प्रेस,गोरखपुर की पुस्तकें पढते थे या फिर शिक्षापूर्ण बाल पत्रिकाएं पढते थे; आज बच्चा जीवन के अधिकाधिक पाठ टी वी और सिनेमा से सीख रहा है.अभिभावकों और शिक्षकों को उस पुरानी भूमिका की तरफ वापस लौटने की जरूरत है. "सैयाँ फेविकोल से" जैसे गाने चतुर्दिक बजते हैं और जब बच्चा इन पर ठुमकता है तो माता-पिता अत्यधिक प्रमुदित होते हैं.कामोद्दीपक विज्ञापनों,गानों, कार्यक्रमों की बाढ सी आई हुई है.विद्यालयों के वार्षिक उत्सवों में भी इसी प्रकार के कार्यक्रम दिखाई देते हैं.और तो और, सामाजिक -धार्मिक उत्सवों में भी यही या इन पर आधारित कार्यक्रम किए जा रहे हैं. इनके प्रभाव से समाज को बचाने की जरूरत है.कमजोर होकर चरमरा रहे नैतिक ढाँचे को सशक्त बनाने और भारतीय समाज के परम्परागत मूल्यों(यहाँ मेरा आशय रूढिगत प्रतिमानों से कदापि नही है) को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है.यहाँ मै एक घटना का उल्लेख करना चाहूँगा.मेरी छोटी बहन मुझसे उम्र में नौ वर्ष छोटी है.जब वह प्राइमरी शिक्षा ग्रहण कर रही थी तब मै कालेज में था और अभिभावक के तौर पर कई बार उसके विद्यालय जाया करता था.एक बार मै उसकी प्रधानाचार्या के पास किसी सिलसिले में बात करने गया था.उस समय दो अन्य अभिभावक भी वहाँ मौजूद थे.उनमें से एक के बच्चे को विद्यालय से निकालने की नोटिस दी गई थी.वह बच्चा गालियाँ दिया करता था.प्रधानाचार्या का कहना था कि वह उस बच्चे को विद्यालय में रखेगी तो और बच्चे खराब हो जाएंगे.यह सुनकर अन्य दूसरे अभिभावक ने जो एक मुस्लिम बंधु थे,कहा- "राम-राम बच्चे ने गालियाँ सीख ली हैं.मैडम हम तो अपने बच्चे को सुबह सबसे पहले कलमा पढाते हैं. बच्चे इस तरह दिन की शुरुआत कर अपने बाकी काम करते हैं".तो हम सबको बच्चों को कलमा पढाने की या यूँ कहें कि उन्हें मजबूत नैतिक आधार देने की ,उसकी आधारशिला पर उन्हें स्थापित करने की जरूरत है.सन उन्नीस सौ बीस के आस-पास भारत घूमने आए एक विदेशी यात्री ने भारतीयों के मजबूत नैतिक बल का उल्लेख करते हुए लिखा था कि यहाँ अकेले सडक पर जाती हुई महिला की तरफ कोई आँख उठा कर देखता भी नही.हमें वो दिन वापस लौटाने की जरूरत है. यह कार्य यदि समाज के अभिजात्य एवं मध्यमवर्ग तक सीमित रहेगा तो भी आधी सफलता ही मिलेगी.इसलिए समाज के गरीब और पिछडे तबके तथा शहरों की झोपडपट्टियों के लोगों को भी नैतिकता जागरण के अभियान में शामिल करना होगा.
aj adami manushya hone ke alawa sabkuch hai, jae kaha kho gayi hai inshaniyat
कब अंत होगा..? ...पता नही..
कुछ कहते नहीं बन रहा, कहाँ जा रहा है देश , कैसे सब कुछ ठीक होगा...या कभी ठीक होगा ही नहीं :(
khud ko apradhi sa mahsoos karte hai ...
कल ही तो देश भर में पूजन वंदन हुआ है बेटियों का । ऐसे में एक मासूम बिटिया के मानमर्दन का यह समाचार सुन मन नैराश्य और विषाद से भर गया है ।
शर्मिंदा हैं हम .....कि बदलाव नहीं ला पा रहे
कब बदलाव आएगा...कब मानसिकता बदलेगी...सोचनीय!!
ऐसी घटनाएँ क्यों बढ़ती जा रही है इसे लेकर भारतीय संदर्भों में मनोवैज्ञानिक शोध होने चाहिए।अभी अमेरिका में ब्लास्ट के आरोपी पकड़े गए और ओबामा ने यह ऐलान कर दिया कि हम ये पता लगाएँगे कि क्या कारण रहे कि इन लोगों ने यह हिंसक रास्ता चुना।जाहिर है वो लोग हर समस्या की तह में जाकर उसका कारण खोजते हैं जबकि हमारे यहाँ तो बलात्कार के मामलों में भी या तो बात महिलाओं के कपड़ों पर ही चलती है या ज्यादा से ज्यादा कड़ी सजा देने की।
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सच में कुछ कहने की स्थिति में नहीं पाता हू खुद को ... इतना पतन ... कब बदलेगी ये मानसिकता ...
ऐसे लोग समाज के लिए मानसिक रूप से विकृत होते हैं जिनकी समाज को कोई जरुरत नहीं ...लेकिन पता नहीं क्यूँ कोर्ट कचेहेरी और फिर सजा वो भी पता नहीं कब होगी या नहीं होगी .... तब तक कितनी और बेटियां बलि का बकरा बनेंगी ...
सिर्फ दिल्ली में ही उस दिन उसी अस्पताल में दो और बच्चे भी शारीरिक शोषण का शिकार हुए भरती है. समस्या गंभीर से गंभीरतर होती जा रही है. तमाम उपाय एक साथ किये जाने की आवश्यकता है.
यहाँ बदलाव कभी नहीं आ पायेगा क्योंकि सकारात्मक बदलाव के लिये जो ठोस कदम उठाये जाने चाहिये उस ओर ना तो कोई ध्यान देना चाहता है ना ही कोई हल निकालने के लिये प्रयत्नशील दिखाई देता है ! आम जनता के रक्त में आता रहे उबाल चिंता किसे है ! सारे मंत्रियों के घरों की सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है !
राजनीति से कभी सामाजिक परिवर्तन नहीं होते। हमें समाज को संस्कारित करना होगा। आज समाज में विषमता का वातावरण बन गया है, इसे समझना होगा। जब समाज दरिंदे पैदा कर रहा हो तो आप कितनों को मार देंगे? मनुष्य क्यों राक्षस बन गया है अब इसपर चिन्तन आवश्यक है।
डॉ मोनिका जी ! सारा माहौल ही धीरे धीरे विषमय विकार ग्रस्त हो चला है माया का ही साम्राज्य है .ये लोग जो ऐसा कर रहें हैं Psychopath हैं .आम आदमी ऐसा नहीं कर सकता .यह सब काम चिता का किया हुआ है .करे कोई भरे कोई .खुद को मात्र शरीर मानने की भूल हवश को बढ़ा रही है पर -पीड़ -न को भी .sadists बढ़ रहें हैं हमारे गिर्द .
हम एक साइकोपैथ समाज बन रहें हैं .
samaj nigative disha ki or ja raha hai ......awarness jaruri hai .....
samaj nigative disha ki or ja raha hai ......awarness jaruri hai .....
बहुत दुखद स्तिथि...हम सब को मिल कर कुछ सोचना ही होगा..
घबराहट सी होती है ऐसी घटनाओं पर चर्चा करने में भी ,और जिस पर बीतती है ...कितना असह्य कष्ट ।
बेहद दुखत घटना
यह एक ऐसा कृत्य है जो दरिन्दिगी से भी ज्यादा है
आपने बहुत सार्थक आलेख लिखा है इस सन्दर्भ में
साधुवाद
आग्रह है की मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
प्रलय का मतलब परिवर्तन होता है पूर्ण विनाश नहीं ऐसी स्थितियां हमारे गिर्द बन गईं हैं .हम और हमारी सरकारें और हम अब देर तक अब सो नहीं सकते .
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