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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

08 August 2011

शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व .......!



Peaceful Coexistence .. न जाने इस  शब्द को समझना जितना आसान है जीवन में उतारना उतना ही मुश्किल क्यों है...? साझी संस्कृति, साझा जीवन देखने जानने में जितना सरल लगता है उसे अपनाने में उतनी जटिलताएं सामने आने लगती हैं |  हालांकि सह-अस्तित्व  की सोच तो प्रकृति की हर इकाई के लिए आवश्यक है पर मनुष्य को इस विषय में कुछ ज्यादा विचार करने की आवश्यकता है |  क्योंकि घर-परिवार से लेकर देश दुनिया तक हम (दूसरों) यानि कि अपने अलावा प्रकृति की हर इकाई के अस्तित्व को नकार कर अपने अस्तित्व को बनाये रखने और उसकी श्रेष्टता सिद्ध करने की कोशिश में लगे रहते हैं | 


हमारे घर परिवारों में कई बार यह देखा जाता है की हम एक दूसरे समझना तो चाहते हैं पर समझ  नहीं पाते | या यूँ कहा जाये की स्वयं को सर्वोपरि समझने की सोच किसी दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकारनें ही नहीं देती | यह सोच बीते कुछ बरसों में ज्यादा प्रबल हुई है ...औरों के अधिकारों के बारें में न सोचकर बस खुद की उपयोगिता का गुणगान करना हमारी आदत बन चुका है | हाँ , इतना अंतर ज़रूर है की कोई ये श्रेष्ठता प्रमाणित करने का कार्य बोलकर करता है तो कोई चुपचाप ऐसा करके सहानुभूति भी साथ बटोर लेता है | 


अपने अलावा किसी और के अस्तित्व को स्वीकार कर उसे सम्मान देने का काम घर हो या बाहर कोई आसानी से नहीं कर पाता | यहीं से एक अंतर्विरोध और संघर्ष शुरू होता है | एक अघोषित युद्ध , जो अपनत्व और सहभागिता की सोच को पूरी तरह मिटा देता है | 


मौजूदा दौर में अकेलेपन की सौगात भी हमें इसी सोच के चलते मिली है | क्योंकि अगर हम हमसे जुड़े लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं का मान ही नहीं कर पायेंगें तो संबंधों का बिखरना तो तय है | यही तो रहा है हमारे  परिवारों में, हमारे समाज में | सबको शीर्ष पर पहुंचना है अपना अस्तित्व बनाने और बनाये रखने की चिंता खाए जा रही है पर यह सोचने का समय किसी के पास नहीं की मेरा अस्तित्व अगर है भी, तो क्यों है.....? किसके लिए है....?

88 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत ही प्‍यारी बात। काश, अगर सभी लोग इस तरह से सोच लें, तो दुनिया कितनी सुंदर हो जाए।
------
ब्‍लॉग के लिए ज़रूरी चीजें!
क्‍या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?

Arvind Mishra said...

साहचर्य सह अस्तित्व और सहिष्णुता भारतीय जीवन मूल्यों में से है -मगर हम भौतिकता के चलते इनसे दूर होते जा रहे हैं !

Anupama Tripathi said...

| या यूँ कहा जाये की स्वयं को सर्वोपरि समझने की सोच किसी दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकारनें ही नहीं देती | यह सोच बीते कुछ बरसों में ज्यादा प्रबल हुई है ..

बहुत विचारणीय आलेख लिखा है आपने ...
हम की भावना अहम् खा गया है ...भौतिकता के चलते असीमित साधनों को देख देख मन सीमित हो गया है ...अब सिर्फ मैं ...मैं.....करता है ...इसी वजह से अकेलापन बढ़ गया है और साथ ही विदेशों की तरह अब भारत में भी मानसिक रोगों की संख्या बढ़ रही है ...
सार्थक..सारगर्भित आलेख..बधाई .

Vaanbhatt said...

जब तक दूसरों पर राज करने की प्रवृत्ति रहेगी...सह-अस्तित्व की कल्पना भ्रामक रहेगी...सह-अस्तित्व का मतलब है एक-दूसरे की निजता और स्वाभिमान का सम्मान...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

तालिबानियों को इस बारे में सोचना चाहिये....

विभूति" said...

गहन चिंतन...

वाणी गीत said...

मेरा अस्तित्व क्यों है , किसके लिए है ...यह समझ आ जाये तो बिखराव रुक जाए , परिवार ,समाज , देश और विश्व का !
बेहतरीन आलेख !

virendra sharma said...

आत्म केन्द्रित व्यक्ति ,आत्मश्लाघा से ग्रस्त व्यक्ति सिर्फ अपनी कहने को आतुर रहता है दूसरे की सुनता ही नहीं है ,थोड़ा सा स्पेस परिवार में सबके लिए छोड़ा जाए जो उसका निजी हो उसमे न प्रवेश लिया जाए और सबकी बात कमसे कम धैर्य रख सन तो ली जाए ,अकेला चना क्या भाड़ झोंकेगा और फिर किस के लिए यह सब क्या सिर्फ अपने लिए ?निस्संग होके रह जाता है ऐसा आदमी, ठीक नतीजा निकाला है आपने ..कृपया यहाँ भी आयें - http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2011/08/blog-post_09.html
Tuesday, August 9, 2011
माहवारी से सम्बंधित आम समस्याएं और समाधान ...(.कृपया यहाँ भी पधारें -)

virendra sharma said...

परिवार के छीजते अंतर -संबंधों का कारण उजागर करती एक महत्वपूर्ण पोस्ट .बधाई . महत्वपूर्ण पोस्ट .बधाई .कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.com/ /
सोमवार, ८ अगस्त २०११ /
सोमवार, ८ अगस्त २०११
What the Yuck: Can PMS change your boob size?

प्रवीण पाण्डेय said...

कितना कहें, कितना सहें।

SAJAN.AAWARA said...

Me badal jaunga to log badal jayenge, log badal gaye to lok badal jayenge.......
Jai hind jai bharat

Sunil Kumar said...

यही बात समझने में एक उम्र गुजर जाती है | सार्थक पोस्ट , आभार

Dev said...

बिलकुल सही फ़रमाया आपने .......

Rajesh Kumari said...

bahut achchi soch achche vichar.is vicharniye lekh ke liye aabhar.

अजित गुप्ता का कोना said...

सबको दौड़ में प्रथम आना है लेकिन दौड़ में किसी अन्‍य को सहभागी भी नहीं बनाना है, यही हमारी मानसिकता है। अपना अस्तित्‍व किसके सामने सिद्ध करना चाहते हैं? बहुत सटीक आलेख है।

Urmi said...

गहरे विषय को लेकर आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! सार्थक पोस्ट! उम्दा आलेख!
मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://seawave-babli.blogspot.com

Arunesh c dave said...

जब कोई लेना ही लेना चाहता है उस क्षण से ही असंतुलन पैदा होता है। प्रकृति और समाज एक ही तरह के हैं असंयुलन से ही व्यव्स्था गड़बड़ाती है और विनाश के बीज अंकुरित होने लगते हैं।

vijai Rajbali Mathur said...

अक़्लमंद लोग अपनी-अपनी सोचते हैं। सबके हित की मेरे जैसी सोच के लोगों को मूर्ख समझा जाता है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

एक कहावत है इंगलिश में "एवरिवन नीड्स इट्स स्पेस' सही है,

आपने उचित समय पर सही विषय पर बात की है

anshumala said...

अपना अस्तित्व बनाये रखने की चेष्टा में मुझे कोई खराबी नहीं लगती है पर उसके कारण किसी और के अस्तित्व को नकार देना या खुद को दूसरो से श्रेष्ठ समझना जैसी मनोवृति अच्छी नहीं है |

वीना श्रीवास्तव said...

क्योंकि अगर हम हमसे जुड़े लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं का मान ही नहीं कर पायेंगें तो संबंधों का बिखरना तो तय है | यही तो रहा है हमारे परिवारों में, हमारे समाज में |

सच कहा है...

रूप said...

शांति पूर्ण सह-अस्तित्व के बिना दुनिया बेमानी है मोनिका जी . सुन्दर रचना , गहन अध्ययन . आभार !

Suman said...

बहुत अच्छा सार्थक चिंतन है !
सहमत हूँ आपसे !

सदा said...

गहन भावों के साथ सार्थक एवं सटीक प्रस्‍तुति ।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा है- "सभी की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।" परन्तु वर्तमान युग में भौतिकता के चलते सहिष्णुता नहीं रही, इसके फ़लस्वरुप संयुक्तता तिरोहित होकर इकलखोरता बढ रही है।

आभार

दिवस said...

विचारणीय प्रस्तुति...जैसा कि आदरणीय अजीत गुप्ता जी ने कहा, मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ...

Neelkamal Vaishnaw said...

बेहतरीन लेख..
आप कृपया हमारे ब्लाग पर भी पधारने की कृपा कर हमारे सदस्यता ग्रहण कर हमें भी अनुगृहित करें.
!!! धन्यवाद !!!


नीलकमल वैष्णव "अनिश"
http://www.neelkamalkosir.blogspot.com/
http://www.neelkamal5545.blogspot.com/
http://www.neelkamaluvaach.blogspot.com/

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ said...

बहुत सुन्दर...

Anonymous said...

"लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं का मान ही नहीं कर पायेंगें तो संबंधों का बिखरना तो तय है"

यहो हो रहा है

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बिल्कुल सही बात कही है ... विचारणीय पोस्ट

ashish said...

सहनावातु, सहनोभुनक्तु सह वीर्यम करवाहहै.

rashmi ravija said...

बहुत ही पते की बात कही है....अकेलेपन के लिए खुद ही जिम्मेदार होते हैं लोग...सिर्फ अपनी इगो की वजह से.

सुज्ञ said...

मान (इगो) कषाय के परिणाम स्वरूप, हमारे स्वार्थों नें अपनी सीमाएं तोड दी है।

इसीलिए आप ने जो कहा-"इतना अंतर ज़रूर है की कोई ये श्रेष्ठता प्रमाणित करने का कार्य बोलकर करता है तो कोई चुपचाप ऐसा करके सहानुभूति भी साथ बटोर लेता है|"

पहले हममें जड़ से अधिक जीवन पर मान (दर्प) उत्पन्न हुआ। फिर जीवन में जीवों से अधिक मनुष्य जाति पर दर्प पैदा हुआ। फिर स्वजाति, स्वसम्प्रदाय, स्वपरिवार के निकट अपनों से होते हुए। खुद पर दर्प वश स्वार्थ हुआ। और अन्ततः अपनी आत्मा से अधिक अपने शरीर पर दर्प पैदा हो रहा है। पुनः पिछे लौटना ही होगा। सहअस्तित्व के बिना स्वअस्तित्व ही खतरे में है।

Anonymous said...

बहुत गहरी बात को पकड़ा है आपने......सच है आज के वक़्त में किसी की भावनाओ को समझने वाले बहुत कम लोग मिलते हैं......अपना स्वार्थ सबसे ऊपर रहता है.........इस नेक सोच को साझा करने का आभार|

रेखा said...

प्रासंगिक आलेख .....सही कहा है आपने. आजकल लोग अपने -आप में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि दुसरे के बारे में सोच ही नहीं पाते ...

रेखा said...

प्रासंगिक आलेख .....सही कहा है आपने. आजकल लोग अपने -आप में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि दुसरे के बारे में सोच ही नहीं पाते ...

vandana gupta said...

गंभीर मगर सार्थक आलेख्।

मदन शर्मा said...

बहुत अच्छा सार्थक चिंतन है !
सहमत हूँ आपसे !!
मेरा निवेदन है आपसे की आप भी बेहतर भारत के लिए 16 अगस्त से अन्ना के आन्दोलन के साथ जुड़ें!

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

बहुत बढ़िया प्रेरक लेख ........
काश, हम एक दूसरे के अस्तित्व को महत्त्व देते,स्वीकारते ....स्वयं को ही सब कुछ होने का भ्रम पालने ki बजाय ..

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

डॉ मोनिका जी सार्थक अभिव्यक्ति सुन्दर और प्यारी बात आप की ..घर परिवार तभी जुड़ा रह सकेगा जब हम एक दुसरे के मनोभावों को उसकी जरूरतों को उस के आत्म सम्मान को समझेंगे थोड़ी बलिदान की भावना हो दिल में सब कुछ बनिया सा केवल तराजू पर ही न तोला जाये -निम्न पंक्तियाँ सुन्दर
भ्रमर 5

..या यूँ कहा जाये की स्वयं को सर्वोपरि समझने की सोच किसी दूसरे व्यक्ति के अस्तित्व को स्वीकारनें ही नहीं देती | यह सोच बीते कुछ बरसों में ज्यादा प्रबल हुई है ...औरों के अधिकारों के बारें में न सोचकर बस खुद की उपयोगिता का गुणगान करना हमारी आदत बन चुका है

जयकृष्ण राय तुषार said...

डॉ० मोनिका जी बहुत ही बेहतरीन और सार्थक आलेख बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

जयकृष्ण राय तुषार said...

डॉ० मोनिका जी बहुत ही बेहतरीन और सार्थक आलेख बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

DR. ANWER JAMAL said...

सार्थक रचना .

अब एक सवाल हमारा है। जिसे हल करना बिल्कुल भी अनिवार्य नहीं है।
क्या आप जानते हैं कि कोई आया या नहीं आया लेकिन ब्लॉगर्स मीट वीकली का आयोजन बेहद सफल रहा ?

संजय भास्‍कर said...

बहुत विचारणीय आलेख लिखा है आपने ......मोनिका जी

डॉ. मनोज मिश्र said...

@ सबको शीर्ष पर पहुंचना है अपना अस्तित्व बनाने और बनाये रखने की चिंता खाए जा रही है पर यह सोचने का समय किसी के पास नहीं की मेरा अस्तित्व अगर है भी, तो क्यों है.....? किसके लिए है....?
सौ टके की बात,आभार.

Satish Saxena said...

@ "एक अघोषित युद्ध , जो अपनत्व और सहभागिता की सोच को पूरी तरह मिटा देता है | "

पूरी पोस्ट ही बेहतरीन है ...आप अपनी अभिव्यक्ति में कामयाब हैं ! शुभकामनायें आपको !

Sunil Deepak said...

मोनिका जी, वैचारिक स्तर पर इस बात को सभी समझ लेते हैं, जीवन में आत्मसात कोई विरला ही कर पाता है.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

मन से ईर्ष्या द्वेष निकल जाए तो सह अस्तित्व कितना सरल हो जाएगा॥

कुमार राधारमण said...

असमानता के दौर में,शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की केवल कल्पना ही की जा सकती है। यह भी तय है कि समानता कायम हो नहीं सकती क्योंकि वह हमारी अपनी ही बनाई हुई है। फिर भी,शुभ सोचना मनुष्यता का तकाज़ा है।

Anonymous said...

bahut sahi kaha aapne. if all people think so then our world will become a heaven

Vivek Jain said...

बात तो बहुत सुंदर है, पर हकीकत में यह शायद संभव नहीं.
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Saru Singhal said...

It's a very important aspect of our lives. It starts from our family and extends to our society but we are socially not that mature. I hope things happen as you emphasized in your post. Brilliant perspective...

virendra sharma said...

हर कोई किसी और के लिए जीता है ,सेन्स ऑफ़ बिलोंगिंग भी तो कोई चीज़ है ,बिना किसी से जुड़े ,किसी का आशीष पाए ,अनुगामी बने जीवन कैसा ? .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
Wednesday, August 10, 2011
पोलिसिस -टिक ओवेरियन सिंड्रोम :एक विहंगावलोकन .
व्हाट आर दी सिम्टम्स ऑफ़ "पोली -सिस- टिक ओवेरियन सिंड्रोम" ?

virendra sharma said...

जो व्यक्ति अपने आप को एहम मान लेता है उसका विकास रुक जाता है जो अपने यार दोस्तों ,अपने बहुत अपनों की उपलब्धि पर गौरवान्वित नहीं हो सकता उनके गुणों को पहन बिछा ,ओढ़ कर उसके गुणगान में नांच नहीं सकता वह बहुत अभागा है .ब्लॉग पर आपकी सक्रियता ,द्रुत टिपियाने पर ,ब्लॉग -मित्रा बने रहें पर बधाई .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
Wednesday, August 10, 2011
पोलिसिस -टिक ओवेरियन सिंड्रोम :एक विहंगावलोकन .
व्हाट आर दी सिम्टम्स ऑफ़ "पोली -सिस- टिक ओवेरियन सिंड्रोम" ?


सोमवार, ८ अगस्त २०११



What the Yuck: Can PMS change your boob size?

http://sb.samwaad.com/
...क्‍या भारतीयों तक पहुंच सकेगी जैव शव-दाह की यह नवीन चेतना ?
Posted by veerubhai on Monday, August ८
बहुत अच्छा काम कर रहें हैं आप .बधाई .

समयचक्र said...

बहुत सही... परिवार में सामंजस्य बनाये रखने के लिए परिवार के सदस्यों के विचारों व् उनकी आंकाक्षाओं का ध्यान रखना नितांत आवश्यक है ...आभार

Dr (Miss) Sharad Singh said...

वर्तमान की सच्चाई निहित है आपके इस आलेख में.... सभी को सोचना चाहिए इस विषय पर.
आपको मेरी हार्दिक शुभकामनायें.

Maheshwari kaneri said...

आज मैं-मैं के शोर में 'हम' कही खो गया ..अहम और स्वार्थ की भावना से ही ये बिखराव सब तरफ देखने को मिलता है...सार्थक पोस्ट..धन्यवाद

गिरधारी खंकरियाल said...

सह अस्तित्व और विश्व बंधुत्व भारत की प्राचीनतम सिद्धांत रहा है किन्तु आज पश्चिम के अनुकरण के कारण यह स्थिति आयीहै. अकेले रहने की परम्परा भी वहीँ से आयी है

G.N.SHAW said...

आदर दे और आदर पावें -अपनाना जरुरी है ! समझदारी भरी लेख ! बधाई !

संध्या शर्मा said...

"साहचर्य सह अस्तित्व और सहिष्णुता भारतीय जीवन मूल्यों में से है"

बहुत विचारणीय आलेख लिखा है आपने ...काश सभी लोग इस तरह से सोचते...

Suresh kumar said...

बहुत ही सही कहा है आपने अच्छी पोस्ट
धन्यवाद्

Asha Lata Saxena said...

सह अस्तित्व और साहचर्य के लिए आवश्यक है सहिष्णुता |जिसकी कमी आजकल देखने को मिल जाती है |
बहुत अच्छा लेख |
आशा

Dr.Ashutosh Mishra "Ashu" said...

sach sach bataya hai,,, aaina dikhaya hai,,,behtarin

vidhya said...

कितना कहें, कितना सहें।
सच कहा है...

Minoo Bhagia said...

sahi hai monika ,lekin koi aisa nahin sochta

Unknown said...

dr.monika ji kayi din ki nirasha do post padkar door huyi,shayad kisi kaam me vyasat hongi.behad saral shabdon me gahari baat karana to koyi bhi aap se sikhe.sadhuwad

Kunwar Kusumesh said...

गहन चिंतन/विचारणीय मुद्दा.

दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें
चर्चा मंच

निवेदिता श्रीवास्तव said...

विचारणीय आलेख .......

तेजवानी गिरधर said...

बात पते की है, मगर आम जिंदगी में ऐसे मूल्य कहां रह गए हैं

अनामिका की सदायें ...... said...

niswarth bhaav kahin nahi hai.

agar sab ek dusre ke bare me, sabko sath lekar soche to ye vishamtaye paida hi na ho.

gehen abhivyakti.

संतोष पाण्डेय said...

सही कहा है आपने, सह-अस्तित्व सबसे ज्यादा हमें ही सीखने की जरुरत है. मैं सोचता हू,जो भीतर से जो हीन होता है वही बाहर सबसे ज्यादा आक्रामक होता है.अंतःकरण बदले तो आचरण बदलता है लेकिन उसे बदलने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया जाता.

virendra sharma said...

डॉ .मोनिका जी ,यही तो असली मुद्दा है अधिकतम उत्पादकता के लिए भी ज़रूरी है घर बाहर सब जगह .टीम से अधिकतम काम लेने उसे गेल्वैनाइज़ करने टाइम मेनेजमेंट का भी यही गुर है ,सर्व -ग्राहिता ,"शान्ति -पूर्ण सह अस्तित्व" .शुक्रिया आपकी ब्लॉग पर आवा -जाही का .यह भी परस्पर सह -वर्धन है .

Thursday, August 11, 2011
Music soothes anxiety, pain in cancer "पेशेंट्स "
.http://veerubhai1947.blogspot.com/ ( सरकारी चिंता राम राम भाई पर )

http://sb.samwaad.com/
ऑटिज्‍म और वातावरणीय प्रभाव। Environment plays a larger role in autism.
Posted by veerubhai on Wednesday, August 10
Labels: -वीरेंद्र शर्मा(वीरुभाई), Otizm, आटिज्‍म, स्वास्थ्य चेतना

Sapna Nigam ( mitanigoth.blogspot.com ) said...

उत्तम विचार .इन्हें यदि आत्मसात कर लिया जाये तो अनेक अवांछित तनावों से राहत मिल जाएगी और जीवन आनंदित हो जायेगा.चलिए कोई करे न करे हम तो अमल में लाना शुरू कर देते हैं.

virendra sharma said...

शान्ति पूर्ण सह -अस्तित्व आप भारत सरकार से सीखिए अंदाज़े पाक .
कृपया यहाँ भी आपकी मौजूदगी अपेक्षित है -http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/2011/08/blog-post_9034.हटमल
Friday, August 12, 2011
रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .

http://veerubhai1947.blogspot.com/
बृहस्पतिवार, ११ अगस्त २०११
Early morning smokers have higher cancer रिस्क.

S.N SHUKLA said...

बहुत सुन्दर सारगर्भित, आभार
रक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस के पावन पर्वों की हार्दिक मंगल कामनाएं.

DR. ANWER JAMAL said...

एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की ज़िम्मेदारी है
बहनों की रक्षा से भी कोई समझौता नहीं होना चाहिए।

इसके बाद हम यह कहना चाहेंगे कि भारत त्यौहारों का देश है और हरेक त्यौहार की बुनियाद में आपसी प्यार, सद्भावना और सामाजिक सहयोग की भावना ज़रूर मिलेगी। बाद में लोग अपने पैसे का प्रदर्शन शुरू कर देते हैं तो त्यौहार की असल तालीम और उसका असल जज़्बा दब जाता है और आडंबर प्रधान हो जाता है। इसके बावजूद भी ज्ञानियों की नज़र से हक़ीक़त कभी पोशीदा नहीं हो सकती।
ब्लॉगिंग के माध्यम से हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि मनोरंजन के साथ साथ हक़ीक़त आम लोगों के सामने भी आती रहे ताकि हरेक समुदाय के अच्छे लोग एक साथ और एक राय हो जाएं उन बातों पर जो सभी के दरम्यान साझा हैं।
इसी के बल पर हम एक बेहतर समाज बना सकते हैं और इसके लिए हमें किसी से कोई भी युद्ध नहीं करना है। आज भारत हो या विश्व, उसकी बेहतरी किसी युद्ध में नहीं है बल्कि बौद्धिक रूप से जागरूक होने में है।
हमारी शांति, हमारा विकास और हमारी सुरक्षा आपस में एक दूसरे पर शक करने में नहीं है बल्कि एक दूसरे पर विश्वास करने में है।
राखी का त्यौहार भाई के प्रति बहन के इसी विश्वास को दर्शाता है।
भाई को भी अपनी बहन पर विश्वास होता है कि वह भी अपने भाई के विश्वास को भंग करने वाला कोई काम नहीं करेगी।
यह विश्वास ही हमारी पूंजी है।
यही विश्वास इंसान को इंसान से और इंसान को ख़ुदा से, ईश्वर से जोड़ता है।
जो तोड़ता है वह शैतान है। यही उसकी पहचान है। त्यौहारों के रूप को विकृत करना भी इसी का काम है। शैतान दिमाग़ लोग त्यौहारों को आडंबर में इसीलिए बदल देते हैं ताकि सभी लोग आपस में ढंग से जुड़ न पाएं क्योंकि जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उसी दिन ज़मीन से शैतानियत का राज ख़त्म हो जाएगा।
इसी शैतान से बहनों को ख़तरा होता है और ये राक्षस और शैतान अपने विचार और कर्म से होते हैं लेकिन शक्ल-सूरत से इंसान ही होते हैं।
राखी का त्यौहार हमें याद दिलाता है कि हमारे दरम्यान ऐसे शैतान भी मौजूद हैं जिनसे हमारी बहनों की मर्यादा को ख़तरा है।
बहनों के लिए एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की असल ज़िम्मेदारी है, हम सभी भाईयों की, हम चाहे किसी भी वर्ग से क्यों न हों ?
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा हमें यही याद दिलाता है।

रक्षाबंधन के पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...

देखिये
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा और राखी का मर्म

Amrita Tanmay said...

बहुत गहन आलेख..बधाई

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

सकारात्मक सोच,
सार्थक लेख.
लेकिन सच तो ये है कि इन बुनियादी समस्याओं का भी हल नहीं..

शुभकामनाएं

ज्योति सिंह said...

are monika ji is post ko to main padhna hi bhool gayi ,kitna sahi kaha hai ,rakhi parv ki badhai sweekare .

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

सारगर्भित लेख..बधाई....

Sawai Singh Rajpurohit said...

सच कहा है..

आज का आगरा ,भारतीय नारी,हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम इंटरनेशनल , ब्लॉग की ख़बरें, और एक्टिवे लाइफ ब्लॉग की तरफ से रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं

सवाई सिंह राजपुरोहित आगरा
आप सब ब्लॉगर भाई बहनों को रक्षाबंधन की हार्दिक बधाई / शुभकामनाएं

virendra sharma said...

शांतिपूर्ण सह -अस्तित्व अब एक विलुप्त प्राय अवधारणा है .अब
hypnoBirthing: Relax while giving birth?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?
रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .(कबीरा खडा बाज़ार में ...........)
Links to this post at Friday, August 12, 2011
बृहस्पतिवार, ११ अगस्त २०११
सिर्फ गुट हैं ,गुट बंदियां हैं घर बाहर .गुट -निरपेक्षता नदारद है .

सहज साहित्य said...

मोनिका जी , आपने सही लिखा है । हम अपने सिवा किसी को समझना ही नहीं चाहते हैं । इसी का दुखद पहलू यह भी है कि हम खुद को भी तटस्थ भाव से समझना नहीं चाहते । यही हमारे दुखों क कारण है

virendra sharma said...

HypnoBirthing: Relax while giving birth?
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?

दिगम्बर नासवा said...

सही बात कही है ... आज अपना अहम ... मैं को बोलबाला इतना हो गया है किसी दूसरे को स्वीकार करना आसान नहीं होता ... सही विषय को बहुत प्रभावी तरीके से उठाया है आपने ..

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा है आपने ...बेहतरीन

Dr.NISHA MAHARANA said...

sabhi aisa kahan soc pate hain.

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