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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 May 2011

असामाजिक बनाती सुरों से दोस्ती....!



आये दिन बाज़ार में उतरने वाली नई तकनीक जीवन में क्या क्या बदलाव ला रही है यह तो हम सब समझ ही सकते हैं पर जो परिवर्तन सबसे ज्यादा नज़र आ रहा  है वो है असामाजिकता | यानि तकनीक के सीमा से ज्यादा इस्तेमाल ने कई तरह से हमारी सामाजिक सोच और साझे जीवन को प्रभावित किया है | खासकर  नई पीढ़ी  इन चीज़ों अपने जीवन में कुछ इस तरह से शामिल कर रही है कि समाज और परिवार तो दूर उन्हें  खुद  अपने  विषय में भी सोचने का समय नहीं है | 

ऐसा  ही एक शौक पिछले कुछ वर्षों से युवा पीढ़ी के सर चढ़कर बोल रहा है.........हर समय संगीत सुनने का शौक या कहूं की लत | खास बात यह है कि सुरों के साज है मोबाइल फोन और आइपॉड जैसे यंत्र । इन पोर्टेबल यंत्रों ने नौजवानों की दिनचर्या कुछ ऐसी बना दी है कि सुबह आंख खुलने से लेकर रात को बिस्तर में जाने तक सिर्फ संगीत में ही डूबे रहते हैं। जगह कोई भी हो घर, ऑफिस, सड़क, पार्क, ट्रेन , बस या फिर खाने की टेबल ..........! 

पार्क में जॉगिग कर रहे हों या गाड़ी चला रहें हों , संगीत कानों में बजना जरुरी है। मानो कानों को संगीत  सुनने की लत-सी पड़ हो गई हो। यह एक ऐसा नशा बन गया है कि बाहर की दुनिया की आवाजें कोई मायने नहीं रखतीं। कानों में क्या बज रहा है....?  और क्यों बज रहा है.......? इसके बारे में सोचने तक की फुरसत नहीं। बस है तो एक जुनून की कानों में कुछ आवाज बजती रहे।


मोबाइल हो या आईपॉड, दो बटन कानों में लगाओ और सारी दुनिया से कट जाओ। जिसके चलते बाहर की दुनिया में क्या घट रहा है.......?  इसे न वे सुन पाते हैं........!  न ही समझ सकते हैं.......!  नतीजतन कुछ सोचने-विचारने की तो आदत ही नहीं रहती। हरदम  संगीत  में खोये रहने वाले लोग न कुछ सुनना चाहते हैं और न ही कुछ कहना। ऐसे में धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक और सामाजिक संवेदनशीलता भी खत्म हो रही  है। 


असामाजिक सोच के अलावा  अनगिनत मानसिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक समस्याओं को भी यह आदत न्योता दे रही है | हरदम अपने परिवेश से कटे रहने वाले इन्हीं लोगों के साथ  कार या बाइक चलाते समय सबसे ज्यादा दुर्घटनाएं घट रही हैं | जब सड़क पर होते हैं तो कानों में बजने वाले संगीत कि आवाज़ भी तेज़ होती है और अपने आस पास कि कई आवाजें कानों तक पहुँच ही नहीं पातीं नतीजा कई तरह की दुर्घटनाओं के रूप में सामने आता है | इतना ही नहीं घर में किसी सदस्य की बात सुनने के लिए कानों को इस शोर से मुक्त नहीं किया जाता | 

कानों से सटाकर संगीत सुनने वाले इन उपकरणों के जरिए अनगिनत परेशानियां सौगात में मिल रही हैं | हर समय कानों के अंदर बजने वाले म्युजिक के कारण सुनने और बोलने की क्षमता बहुत प्रभावित होती है। लगातार म्युजिक सुनते रहने से सुनने की ताकत हमेशा के लिए भी खो सकती हैं। बहरेपन के साथ ही निरंतर संगीत में खोए रहने वाले लोगों को उंचा बोलने की आदत भी हो जाती है। ऐसे लोगों को शब्द कई बार दोहराने पर ही समझ आते हैं। 


इन उकरणों के एक सीमा से ज्यादा प्रयोग की वजह से कान में तेज दर्द और सूजन जैसी समस्या भी हो सकती है। इयरप्लग या इयरफोन लगाये रहने वालों के कानों में बड़ी संख्या में बैक्टीरिया जमा होने के चलते इन्फेक्सन की समस्या भी हो जाती है | 80 डेसीबल या इससे ज्यादा की आवाजें हमारी श्रवण शक्ति को नुकसान पहुंचाती हैं। इतना ही नहीं यदि कम डेसीबल की आवाजें भी लम्बे समय तक लगातार सुनी जाएं, तो वे भी हमारी सुनने की क्षमता पर बुरा असर डालती हैं। हर समय कान में म्युजिक बजते रहने के चलते  मानसिक बैचेनी और चिड़चिड़ापन भी पैदा होने लगता  है। 

सुबह सुबह पार्क में  लोगों  को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो  हमें  प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों  के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता  है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है। 

74 comments:

Arun sathi said...

कितना सच कहा है जी.. मेरे यहां तो अब सुबह सुबह खेत लोग जाता है तो भोजपूरी गीत बजाता हुआ....

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

यह बीमारी कुछ बढ़ती ही जा रही है.
जिसको भी देखो वह कानो में इयरफोन लगाये फिर रहा है.
निश्चित है इसके नुकसान भी हैं.

आभार

सु-मन (Suman Kapoor) said...

bilkul sahi ......:)))

Vaanbhatt said...

जब तक आदमी सिर्फ बाहरी स्रोतों से ख़ुशी तलाशेगा...उसे टीवी चाहिए या आई-पोड...प्रकृति और अन्दर की आवाज़ उसे कैसे सुनाई देगी...रोज़ नई-नई तकनीकें युवाओं को भ्रमित करने के लिए काफी हैं...

Anupama Tripathi said...

बहुत सही लिखा है ..आये दिन ईयर फोन की वजह से ढेरों दुर्घटनाएं हो रहीं हैं ..कई तो जानलेवा भी ...पर जब लोग समझ पायें तब न ...
sarthak lekh hai ..

सुज्ञ said...

यह और ऐसी सारी आदतें हमारे जीवन संघर्ष से बचने के त्वरित उपाय होते हैं जो टाईम-पास की तरह आकर व्यसन बन जाते है। और अन्ततः स्वास्थ्य को ही नुक्सान पहुंचाते है। आपने एक ज्वलंत समस्या की निशानदेही की है। आभार

नीरज गोस्वामी said...

सुबह सुबह पार्क में लोगों को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो हमें प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है।

आपने मेरे दिल की बात लिख दी है...आप के इस लेख में लिखी हर बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ...

नीरज

Sushil Bakliwal said...

वाकई सुरों से ये बेमेल दोस्ती कभी-कभी तो बच्चों के साथ कार में बैठते ही खलने लगती है । शेष दुष्परिणामों का जिक्र आप कर ही चुकी हैं जो लम्बे समय तक इन आदतों के पाले रखने पर होना अवश्यंभावी है ही । यदि ऐसे लोग समझ सकें तो जागरुक करने वाली पोस्ट...

तरुण भारतीय said...

bilkul sahi kha aapne ...yuva sathi nakl jyada hi hi kr rha hai ....jab nkl krta to vo shi glt nhi dekh rha hai

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सही कहा आपने। कई बार यह दुर्घटना का कारण भी बनती है। पर किसी को समझाया भी तो नहीं जा सकता।

---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्‍या दोगे प्‍यार की परिभाषा?

अजित गुप्ता का कोना said...

आज हम यही बात का जिक्र कर रहे थे। सुबह घूमने जाते हैं और हर आदमी अपने मोबाइल पर गाने बजाता है। सुबह-सुबह इतना सुन्‍दर दृश्‍य होता है और तरह-तरह की चिड़ियाएं अपना संगीत सुनाती है लेकिन कुछ-कुछ देर में मोबाइल वाले पास से निकलते हैं और चिडियों का संगीत दब जाता है। आपने अच्‍छा विषय उठाया है कि नवीन पीढी सारी ही सामाजिकता से कटी हुई रहती है।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

दूसरों की भी सुनने के लिये कान खुले रखना चाहिये..

Yashwant R. B. Mathur said...

मुझे भी यह बुरी आदत है ...खासकर सिस्टम पर जब बैठा होता हूँ हेडफोन पर कोई न कोई गाना बजता रहता है पर रस्ते में कहीं आते जाते अब नहीं सुनता हूँ. पहले भी बहुत डांट खाने और आज आपका लेख पढ़ने के बाद सोचता हूँ इस आदत को सुधारना ही पड़ेगा.

आँखें खोलने वाला लेख प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

सादर

Urmi said...

बहुत सुन्दरता से आपने सच्चाई को प्रस्तुत किया है! बिल्कुल सटीक लिखा है आपने! इस शानदार और उम्दा लेख के लिए बहुत बहुत बधाई!

समयचक्र said...

बहुत ही उम्दा सटीक विचारणीय पोस्ट .... आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

यह शौक सच ही बीमारी का रूप ले रहा है ..आने वाले समय में कितना नुक्सान होगा यह जानने की भी फुर्सत नहीं है ... बहुत सार्थक और सटीक लेख

Jyoti Mishra said...

this is very true and I'll not hesitate in accepting that I also fall in this category of ppl who seeks peace in their iPods. Music gives a kind of relaxation which is beyond words to explain.
But I agree with you
that everything is good in limits.

संतोष त्रिवेदी said...

हम तो स्वयं यही बात बच्चों से कहा करते हैं लेकिन नई पीढ़ी का खुमार अपने-आप ही उतरेगा!

आपने एक सामयिक मुद्दे को उठाया है,धन्यवाद !

Shikha Kaushik said...

bilkul sahi bat kahi hai aapne .aabhar

Rajesh Kumari said...

janha aadhunik upkarno ke suprabhaav hain vahi dushprabhaav bhi hain.log prakarti se door hote ja rahe hain.vicharniye lekh ke liye bahut badhaai.

ashish said...

चिड़ियों का कलरव और मित्रो से हँसी ठिठोली सुबह बना देते है . उम्मीद है लोग सबक लेंगे आपके इस आलेख से .जो दिन भर कानों में ठेपी लगाये रहते है .

दिवस said...

समस्या को बहुत सही पकड़ा है आपने...आजकल केवल संगीत में डूबे लोग बाकी दुनिया से तो एकदम कट ही गए हैं...संगीत सुनना अच्छी बात है पर इतनी भी क्या अति? अति सर्वत्र वर्ज्यते...
ऐसे लोग सामाजिक नहीं रह पते व उनमे एकाकी प्रवृति आने लगती है...
अच्छा विवरण...आभार...

Maheshwari kaneri said...

बहुत ही सही कहा आपने यह एक बीमारी ही है निश्चित है इसके नुकसान भी हैं. विचारणीय पोस्ट .... आभार

Shalini kaushik said...

monika ji aapki post har kisi kee niji zindgi se judi hoti hain .hamari tarf trector aur jugad chalte hain aur in par savar logon ke vahan me bhi gane bajte hi rahte hain.bas aur ab shayad kuchh rah hi nahi gaya hai.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

बहुत ही विचारणीय , सार्थक लेख....

आधुनिकता की अंधी दौड़ जाने कहाँ तक ले जायेगी ...

आज की पीढ़ी को कुंठा और संत्रास मिलने के कारणों में यह भी एक है |

संजय भास्‍कर said...

विचारणीय पोस्ट ...बिल्कुल सटीक लिखा है आपने

केवल राम said...

आपकी हर बात विचारणीय है ....काश हम समय रहते इन बातों को समझ लेते ...आपका आभार

naresh singh said...

यंहा शेखावाटी के गावो और कस्बो में तो हालत और भी ज्यादा खराब है | इयरफ़ोन रखते ही नहीं है उनका कान फाडू संगीत सुनना आपकी मजबूरी है | मेरी दूकान में जब भी कोइ मोबाईल पर गाना बजाते हुए सामान खरीदने आता है तो मै उससे पैसे ले लेता हूँ बाद में जब तक वो अपना पूरा गाना मुझे नहीं सुनाता है तब तक सामान नहीं देता हूँ |मोबाईल धारक जाने की जल्दी मचाता है लेकिन मै कहता हूँ भाई आपका गाना मुझे बहुत पसंद आया है ये पूरा सुने बगैर मै आपको नहीं जाने दूंगा | अब वो लोग मेरे पास आते है तो उससे पहले ही अपना गाना बजाना बंद कर देते है |

Anonymous said...

मोनिका जी,

सहमत हूँ आपसे.....अति हर चीज़ की बुरी होती है.....हैट्स ऑफ आपको ऐसे मुद्दों पर जो समाज से जुड़े हैं अपनी सोच को साझा करने के लिए |

गिरधारी खंकरियाल said...

संगीत नहीं, यमराज की फाँसी गले और कानो में लटकती है .

Anonymous said...

सार्थक एवं विचारणीय प्रस्‍तुति ।

रश्मि प्रभा... said...

sach kaha

Dr (Miss) Sharad Singh said...

संगीत के प्रति लोगों के जुड़ाव के बारे में बहुत सटीक आकलन किया है आपने...

rashmi ravija said...

बहुत ही जरूरी आलेख...युवा पीढ़ी तो खासकर इसकी शिकार है.
कानो पर इसका बहुत ही बुरा असर पड़ता है...जिसे वे अभी समझ नहीं पा रहे.

वीरेंद्र सिंह said...

Really very true.....

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहा आपने, आजकल सब अपने में मगन हैं, इसका सामाजिकता पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

रंजना said...

एक एक शब्द मेरे मन की कह दी आपने....

सचमुच अत्यंत चिंताजनक स्थिति है यह...पर सबसे अफ़सोस की बात तो यह कि लाख कोशिश कर भी अपने परिवार के बच्चों को भी हम बराज नहीं पाते...

स्थिति यह बनकर रह गयी है मानो,यदि सब कर रहे हैं और जो ऐसा नहीं करेगा समूह में वह छोटा और गंवार माना जायेगा...

एक तरह से देखिये तो मनोरंजन के अधिकाँश साधन आज सुखदायी नहीं अभिशाप बनते जा रहे हैं...

कविता रावत said...

nishchit roop se yah ek gambhir chinta ka vishya hai....lakh samjayish ke baad bhi is mobile kee lat ko aaj kee yuwa peedi chhod nahi paa rahi hai...

shikha varshney said...

वाकई ..बिलकुल सच लिखा है ये एअर फोन एक बीमारी बन गए हैं.हर जगह ये युवा कान में कनखजूरा लगाये ही रहते हैं.बहुत खतरनाक परिणाम होंगे इसके.

अरुण चन्द्र रॉय said...

सार्थक एवं विचारणीय प्रस्‍तुति ।

G.N.SHAW said...

आज के लोगो में आधुनिकता का भुत सवार है ! भुत डस लेगा ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति

hem pandey said...

आपने एक गंभीर बुराई को उजागर किया है |

honey withpoem said...

monika ji aapki baat sesahmat hu ek kadva such hai ye jo hum nakaar nahi sakte kuch waqt pahle tak mere chote bhai khud is lat se bimaar the wo unka ear phon and michal ke song aapka ye post kafi madadgaar hai humaare liye thanks

RAJPUROHITMANURAJ said...

BILKUL SAHI BAAT LIKHI HAI AAPANE ISASE HONE WALE KU PARBHAW KO SAB JANATE HAI PER FIR BHI WAHI KARATE HAI

RAJPUROHITMANURAJ said...

BILKUL SAHI LIKHA HAI AAPANE ISASE HONE WALE KU PARBHAW KO SAB JANATE HAI PER FIR BHI WAHI KARATE HAI

मदन शर्मा said...

आपने मेरे दिल की बात लिख दी है...आप के इस लेख में लिखी हर बात से शतप्रतिशत सहमत हूँ...

राज भाटिय़ा said...

मेरे लडके भी ऎसा करते हे, कई बार गुस्सा करता हुं, आई पाड हर समय कानो से लगा रहता हे, एक खराब होगया तो मोबाईल जिन्दा वाद, मुझे कोई इलाज बताये तो मान जाऊ, गुस्सा करता हुं तो बाद मे तरस आता हे, नुकसान हे लेकिन कहां सुनते हे यह बच्चे

Rahul Paliwal said...

True..But who will listen and act...

virendra sharma said...

सुरों से दोस्ती एक सीमा से आगे निकलके ओबसेशन में बदल चुकी है .सुबह की सैर का मजा और लाभ शरीर को तब ही मिलता है जब हमारा मन और तन दोनों रिलेक्स हों ,प्रकृति का सुबह और शाम का अपना संगीत है ,दूर कहीं मंदिर से गौ -धूलि में आती आवाज़ तन और मन दोनों को सहलाती बहलाती तनाव मुक्त करती है रिलेक्शेशन थिरेपी की श्रेणी में आजाती है ।
हियरिंग लोस लगातार इन उपकरणों से बढ़ रहा है .प्रकृति और परिवेश से कटा व्यक्ति सिमटकर अपने तक ही महदूद रह जाता है ।
बहुत सटीक आलेख है आपका सामाजिक रूप से प्रासंगिक मुद्दे उठाए है डॉ मोनिका आपने .साधुवाद आपका .

Sunil Kumar said...

सही कहा आपने दूसरी की सुनने का वक्त ही नहीं है

रचना दीक्षित said...

आपने मेरे दिल की बात लिख दी. वाकई एह भी एक समस्या बनाता जा रहा है.

मैं तो अभी यह भी सोचती हूँ कि जब मोबाइल फोन नहीं था तब कितनी शांति थी.

गंभीर प्रश्न.

SANDEEP PANWAR said...

एक कडवा सच

vijai Rajbali Mathur said...

आविष्कार का उद्देश्य सामजिक लाभ होता है परन्तु उसका गुलाम बनना और खुद अपना तथा समाज का अहित करना उस प्रवृति का द्योतक है जो अहंकारमय है और जिसमें अपने अलावा दुसरे को तुच्छ समझा जाता है.जब तक दुसरे को भी अपने समान समझने की प्रवृति न अपना ली जाये तब तक किसी को भी समझाना काम नहीं आ सकता.
लेकिन आपने अपना कर्तव्य बखूबी निर्वहन किया.
मेरे ब्लाग पर जो सद्भावनाएं आपने व्यक्त कीं उनके लिए हार्दिक आभार एवं धन्यवाद.

मीनाक्षी said...

लेख के अंत में ज्वलंत समस्या का हल भी दे दिया आपने..देखना यह है कि हम कैसे बच्चों में इस बात की समझ और आकर्षण पैदा करते हैं..

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

कृत्रिम वस्तुओं में खो कर व्यक्ति प्रकृति को भूलता जा रहा है :(

महेन्‍द्र वर्मा said...

सचेत करता आलेख।
मैं इस का भुक्तभोगी हूं। आज से 15 वर्ष पहले वाकमैन का चलन था। अपने संगीत शौक, उस पर आइवा वाकमैन की दमदार आवाज के कारण मैं घंटों इयरफोन लगाए रहता था। फलस्वरूप मेरे एक कान से पानी बहने लगा जो काफी दिनों के बाद ठीक हुआ।
संगीत अब भी सुनता हूं लेकिन इयरफोन कभी नहीं लगाता।

virendra sharma said...

आभार आपका !

BrijmohanShrivastava said...

सबेरे सबेरे पत्तों की सरसराहट का संगीत तो अब बहुत दूर की बात हो गई और प्रकृति की उपेक्षा से कितनी परेशानिया उठा रहा है आदमी । हंसी मजाक के लिये ये चैनल परोस रहे है कुछ तो भी ।

ज्योति सिंह said...

ऐसे में धीरे-धीरे उनकी पारिवारिक और सामाजिक संवेदनशीलता भी खत्म हो रही है।
bilkul sahi baat hai monika ji ,tabhi to dooriya badh rahi hai ,apne me vyast jyada ho gaye hum .

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

बहुतों के मन की बात आपने कह दी है.युवा पीढ़ी में ऐसी चीजों के प्रति क्रेज पैदा करना और उसे लत की हद तक ले जाना प्रोडक्ट की मार्केटिंग का ही फंदा है. उनका मॉल बिक रहा है.प्राफिट बढ़ रहा है. उपभोक्ता पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव से उन्हें क्या लेना देना ? पर उपभोक्ता को तो सोचना ही चाहिए.

Vivek Jain said...

सच कहा है आपने,
साभार

- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

रजनीश तिवारी said...

सुविधा , आनंद, मनोरंजन के लिए उपयोगी नई तकनीक हमें समाज और प्रकृति से कहीं दूर ले जा रही है ये एक विकृति, समस्या और विडम्बना है । बहुत अच्छा लेख ।

Unknown said...

ये तो आज कल फेशन बन चूका है .. अच्छा लगा पढ़ कर !
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है : Blind Devotion

Anonymous said...

बिल्‍कुल सच कहा है आपने ।

Asha Joglekar said...

सुबह सुबह पार्क में लोगों को कानों इयरफोन लगाये देखती हूँ सोचती हूँ सुबह की सैर के समय चिड़ियों की चहक या पत्तों की सरसराहट भी तो एक संगीत है, जो हमें प्रकृति के करीब लाता है। इसी तरह अपनों के साथ बैठकर कुछ पल बतियाना, हंसी ठिठोली करना या फिर किसी अपने के गम को बांटना भी हमें वो संतुष्टि दे जाता है, जो हर वक्त हमारे कानो में गूंजने वाले शोर-शराबे से कहीं बेहतर ही नहीं, सुकून देने वाला भी हो सकता है।
सही कहा, आपसे एकदम सहमत ।

Suman said...

sarthak post sahmat hun aapse ......

सदा said...

बिल्‍कुल सच कहा है आपने ।

Patali-The-Village said...

सही कहा आपने दूसरी की सुनने का वक्त ही नहीं है|
धन्यवाद|

हरकीरत ' हीर' said...

वह दिन दूर नहीं जब ई एन टी डाक्टरों के चैम्बरों पे लम्बी लाइन होगी ...
बहरों की संख्या जो बढ़ जाएगी .....:))

आप हर बार ज्वलंत मुद्दा उठती हैं .....

संतोष पाण्डेय said...

सही लिखा आपने. शोर-शराबे का अभ्यस्त हो जाने पर संगीत का एहसास ही खो जाता है.दुर्भाग्य से यही हो रहा है.तन तो बीमार हो ही रहा है, मन भी.

Dadda ki Khari Khari said...

मोनिका जी आपने आज दुखती नस पे हाथ रख दिया .........मैं इसका भुक्त भोगी रहा हूँ ....शाश्त्रीय संगीत का चस्का लग गया मुझे ......और फिर वो एक नशा बन गया ...१८ -१८ घंटे सुनने लगा ......ऊपर से करेला नीम पे चढ़ गया ........श्रीमती जी हमसे ज्यादा शौकीन निकल गयी..........अब रोग बढ़ा ...तो concerts भी सुनने लगे ...फिर रोग ने विकराल रूप धारण कर लिया .........तो पूरे देश में घूम घूम के कंसर्ट्स सुनने लगे .......मुझे याद है उन दिनों मैं दुनिया से एकदम कट गया था ......खैर अब वो नशा कुछ कम हुआ है ...पर हेरोइन छूटी तो अब कोकीन की लत पड़ गयी है ....पढने की ....और ये कमबख्त उस से भी खराब है ........दिन रात पढ़ते हैं ....चाहे जो मिले पर कुछ चाहिए ...चाहे १० साल पुराना अखबार ही क्यों न हो .....अब इसका क्या इलाज करें .........
ajit singh

डॉ रजनी मल्होत्रा नैय्यर (लारा) said...

मोनिका जी,,,,
बहुत बहुत उम्दा लेख प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह said...

Right article at right time.Pl continue yr mission against smoking
good article.
dr.bhoopendra
rewa
mp

Arvind Mishra said...

आपने एक तेजी से बढ़ती समस्या की और ध्यान दिलाया है -आभार !

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