हाल ही में दिल्ली के बुराड़ी में एक ही परिवार के 11 सदस्यों की आत्महत्या की गुत्थी अभी सुलझी नहीं है कि झारखण्ड के हजारीबाग में एक ही परिवार के करीब 6 लोगों ने आत्महत्या कर ली है | इनमें भी बुराड़ी के परिवार की तरह ही परिवार के बुजुर्ग-बच्चे सभी शामिल हैं | हजारीबाग की इस घटना में जान देने वालों में घर के मुखिया सहित दो पुरुष, दो महिलाऐं, दो बच्चे शामिल हैं | बुराड़ी के घर में मिले अजब-गज़ब निर्देशों से भरे रजिस्टर की तरह ही झारखण्ड के इस घर में भी एक लिफाफे पर सुसाइड नोट मिला है। सुसाइड नोट में गणित के फार्मूले से खुदकुशी को समझाया गया है। सुसाइड नोट के मुताबिक परिवार ने कर्ज से परेशान होकर तनाव के चलते सामूहिक खुदकुशी की है। मन को उद्वेलित करने वाले इस सुसाइड नोट में यहाँ तक लिखा हुआ कि यमन (घर का छोटा बच्चा ) को लटका नहीं सकते थे इसलिए उसकी हत्या की गई। फिर आगे गणित के फार्मूले से आत्महत्या की व्याख्या की गई है । 'बीमारी+दुकान बंद+ दुकानदारों का बकाया न देना+ बदनामी+ कर्ज= तनाव → मौत।' यह परिवार तो आत्महत्या का ये सूत्र लिखकर दुनिया से चला गया पर जिंदगी से हारने की यह व्याख्या पूरे समाज के लिए विचारणीय है | चंद शब्दों के इस फार्मूले में अनगिनत सवाल छुपे हैं जो हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था के सामने कभी ना सुलझने वाले प्रश्नों की तरह हैं |
सामूहिक आत्महत्याओं का सबसे अधिक चिंतनीय पक्ष यह है कि यह हमारी पारिवारिक व्यवस्था के बिखरते हालातों को भी सामने रखने वाले मामले हैं | पारिवारिक कलह या क़र्ज़, अंधविश्वास या कहीं किसी के विश्वास को चोट पहुँचने की टूटन | वजह चाहे जो हो, एक ही परिवार के लोग यूँ किसी समस्या से हार जाएँ तो हालात बेहद भयावह लगते हैं | बुराड़ी के मामले में जहाँ धार्मिक अनुष्ठान की बात सामने आ रही है वहीँ हजारीबाग के इस परिवार ने क़र्ज़ ना चुका पाने के चलते उपजे तनाव से आत्महत्या की राह चुनी है | लेकिन सोचने वाली बात तो यह है इन दोनों ही मामलों में घर के हर उम्र के सदस्य शामिल हैं | आखिर टूटते मनोबल और अन्धविश्वास के ये कैसे हालात हैं जिनमें घर के बुजुर्ग भी बच्चों का संबल ना बनकर ऐसे कायराना कर्म में उनके साथ हो गए ? एक ही घर के लोग जिंदगी से हारने के बजाय मिलकर हालातों से लड़ने की रास्ता क्यों नहीं चुन पाए ? कर्ज के बोझ से दबा और परेशान झारखण्ड का यह परिवार क्या अपने बच्चों में भी अपना भविष्य नहीं देख पाया ? बुराड़ी के शिक्षित परिवार की नई पीढ़ी ने भी बड़ों के साथ ऐसे कृत्य में शामिल होना कैसे स्वीकार कर लिया ? आखिर नाउम्मीदी के हालातों में अपने के साथ होने के बावजूद भी पूरा परिवार ही कमज़ोर क्यों हो गया ? ऐसी घटनाएँ ऐसे कई प्रश्न उठाती हैं कि परिवार के जो लोग एक दूसरे की ताकत हुआ करते हैं वे मौत का ऐसा सुनियोजित खेल कैसे खेल जाते हैं ? मानसिक तनाव, सामाजिक दबाव या धार्मिक भटकाव की ये परिस्थितियाँ कैसे यूँ घेर लेती हैं कि ज़िन्दगी का हाथ छोड़ना उन्हें सही लगने लगता है | सामूहिक आत्महत्याओं से जुड़े ऐसे कई सवाल हैं जो हमारी पारिवारिक- सामाजिक स्थितियों में आ रहे बदलावों को रेखांकित करते हैं |
दरअसल,आज की बदलती जीवनशैली में दो बातें बहुत आम हो चली हैं | सब कुछ पा लेने की की इच्छाएं बढीं हैं और जिंदगी की उलझनों से जूझने की शक्ति कम हुई है | गौर करें तो लगता है कि बुराड़ी का मामला भी धर्म का कम कर्म का ज्यादा है | घर में मिले रजिस्टर के नोटस में व्यवसाय को बढाने के तरीके और उनके लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों की भी बात शामिल है | निःसंदेह यह आध्यात्मिक विचारों से जिंदगी से जूझने की हिम्मत जुटाने के बजाय व्यावसायिक सफलता हासिल करने की जुगत ज्यादा लगती है | यह अंधविश्वास भी खुद को लाभ पहुंचाने से भरोसे से भरा है | लेकिन ऐसे ही भटकाव भरे हालातों में परिवार की भूमिका अहम् होती है | घर के बड़े-बुजुर्गों की समझाइश हो या नई पीढ़ी के भविष्य से जुड़ी आशाएं | दोनों ही इंसान को टूटने नहीं देतीं | यही वजह है कि किसी भी देश में सामाजिक व्यवस्था में परिवार को एक बुनियाद के रूप में देखा जाता है | जो रिश्तों की रुपरेखा ही तय नहीं करती बल्कि ज़िन्दगी के मुश्किल दौर में भी घर के सदस्यों को थामे रखती है | भारत में परिवार को एक सुरक्षा कवच की तरह माना जाता रहा है | जिसमें हर पीढ़ी के लोग सुरक्षा और संरक्षण पाते हैं | परिवार भले ही समाज की सबसे छोटी ईकाई है पर इसी की बुनिायद पर पूरी सामाजिक व्यवस्था की इमारत खड़ी होती है। हमारे यहाँ नई पीढ़ी को संस्कार देने बात हो या एक दूजे के सुख दुःख में साथ देने का मामला , परिवार की भूमिका को बहुत अहम बताया गया है । ऐसे में यह बड़ा सवाल है कि समाज की यह सबसे अहम् कड़ी इतनी कमज़ोर कैसे हो रही है कि सामूहिक आत्महत्या के ऐसे मामले सामने आ रहे हैं | घर के बड़े-बुजुर्ग छोटे-छोटे बच्चों को अपने हाथों से मौत दे रहे हैं | एक ही घर के लोगों का सामूहिक रूप से यूँ मौत का चुनाव करने की प्रवृत्ति बेहद घातक है | ऐसे मामले भविष्य में स्थिति और भी भयावह होने के संकेत देते हैं |
ऐसी घटनाओं के कारण यह सोचना जरूरी हो जाता है कि संबल बनने वाले पारिवारिक सिस्टम का सुसाइड करने में साथ देना, अपनों के ही आत्मघाती विचारों को समर्थन देना कितने तकलीफदेह पक्ष लिए है | निःसंदेह ये सभी पक्ष हमारी पूरी व्यवस्था के लिए विचारणीय हैं | हमें यह कोशिश करनी होगी कि कोई भी परिवार ऐसी विकल्पहीन स्थिति में ना आये कि जिंदगी का चुनाव न कर सके | इसके लिए सामाजिक-पारिवारिक सिस्टम में जो दबाव और तनाव बेवजह लोगों के हिस्से आता है उससे भी दूरी बनाने होगी | झारखण्ड के इस परिवार ने तनाव और बदनामी जैसे शब्द भी आत्महत्या के कारणों को समझाने वाले गणितीय सूत्र में लिखे हैं | कुछ ऐसे ही बुराड़ी के परिवार में भी एक बेटी की सगाई ना हो पाने के चलते यह परिवार धार्मिक अनुष्ठान तक करने में जुट गया | ऐसे में सवाल यह भी है किसी परिवार के आर्थिक हालात डगमगाने या शादी सगाई जैसे काम में देरी होने भर से किसी परिवार को समाज से साथ देने वाले व्यवहार के बजाय तनाव और अपमान मिलने का भय क्यों रहता है ? डर और मानसिक उत्पीड़न के कई कारण तो हद दर्ज़े के अर्थहीन और आधारहीन लगते हैं | लेकिन आज के दौर में भी इनकी मौजूदगी बानी हुई है | गौर करें तो पता चलता है कि व्यक्तिगत हो या सामूहिक, कितने ही मामलों में तो यह मानसिक दबाव और तिरस्कार का भय ही आत्महत्या का कारण बनता है | तभी तो ऐसी घटनाओं से समाज में आ रही संवेदनशीलता की कमी की भी झलक मिलती है | यही वजह है कि ये पूरे समाज को चेताने वाले मामले हैं | क्योंकि किसी एक अकेली वजह से यूँ पूरा परिवार आत्महत्या का रास्ता नहीं चुन सकता | कई सारे कारण मिलजुलकर ऐसी सामूहिक आत्महत्याओं की वजह बनते हैं | भरे-पूरे परिवारों के मनोबल को तोड़ते हैं | ऐसे में हमारी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को समग्र रूप से इन कारणों से जूझना होगा जो परिवार यानि कि समाज की सबसे अहम् कड़ी को यूँ जिंदगी से हारने की ओर धकेलते हैं | ( दैनिक जागरण में प्रकाशित )
7 comments:
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की १३८ वीं जयंती “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
good read ,,
सटीक विश्लेषण।
जीवन जिस तरह से एकाकी होता जा रहा है ... kumbha kutumb ख़त्म होते जा रहे हैं ... सूनापन और सामूहिकता भी नहि है आज ... ऐसे में अवसाद दिल ही दिल बढ़ रहा है समस्या के निदान खोजना मुश्किल होता जा रहा है ...
समाज की व्यवस्था टूट रही है आज और इसी समाज को सोचना होगा की ऐसा क्यों हो रहा है ... ठीक हो रहा है या नहि ...
एक बेहद जरुरी आलेख हद दर्जे तक चौकाने वाले और मार्मिक कांड हैं ये हम इसे केवल उस दो परिवार की समस्या कह कर मुह नही मोड़ सकते
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस - मीना कुमारी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
भावनात्मक रूप से कमजोर लोग ही ऐसा करते है।
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