कवितायें जितनी सहजता से अपनी बात कहती हैं, उतनी ही सरलता से उन शब्दों के भाव मन में उतर जाते हैं | शिल्पा शर्मा का काव्य संग्रह ' सतरंगी मन' ऐसी ही सहज अभिव्यक्ति लिए है | संकलन में कई रचनाएं हमारे परिवेश की स्थितियों को लेकर सार्थक प्रश्न उठाती है तो कुछ कविताओं में उन्होंने उस द्वंद्व पर ही सवाल उठाया है, जो हमने समाज को स्त्री पुरुष खांचे में बांटकर खड़ा किया है | शिल्पा,अपनी कविताओं में एक मानवीय भाव की बात करती हैं | इसीलिए दोषारोपण की बात नहीं बल्कि सहजता से सच को शब्दों में ढालती हैं | रिश्तों नातों और मानवीय भावों से जुड़े जीवन के कई पहलुओं को उन्होंने इसी सादगी के साथ उकेरा है |
मौजूदा समय में ऐसे पुरुषों की कमी नहीं है जो अपनी जीवनसंगिनी को बराबरी का दर्ज़ा दे रहे हैं | एक सार्थक रचना 'काश' इन पुरुषों को ऐसा बनने की परवरिश देने वाली दादियों, माँओं और बहनों को समर्पित करते हुए वे लिखती हैं कि
काश मैं उन्हें बता पाती
भले ही तुम्हे अवसर नहीं मिले
पर जो अवसर हमने पाए हैं
वो तुम्हारे समर्थन की देन है .... इसी कविता का एक अंश यह भी है जो पूरी पीढ़ी की उस भागीदारी को रेखांकित करता है, जिसके चलते आज कई बदलाव सामने हैं -
तुम्हारे सपनों को वो पंख नहीं मिले
जो मिलने चाहिए थे
तुम्हारी प्रतिभा को वो रंग नहीं मिले
जो मिलने चाहिए थे
तुम्हारे व्यक्तित्व को वो संबल नहीं मिला
जो खिलने के लिए निहायत ज़रूरी था -------- पर यह तुम्हारा मौन समर्थन ही था
जिसने हमें संबल दिया
काश मैं उन्हें बता पाती
कि अब समय बदल रहा है
लोग समझ रहे हैं
हमारा पूरक पुरुष बदल रहा है |
एक रचना के साथ परिचय की पंक्तियों में शिल्पा खुद लिखती हैं कि पुरुष के पुरुष और महिला के महिला होने में ही जीवन छुपा है | छद्मवाद से बचें तो पूरक बन जीना कितनी जाने खुशियाँ ले आएगा -
काश...
यूँ होता कि हम उठ पाते
स्त्री-पुरुष शरीर से ऊपर
गूँथ पाते मन के तार
बुनते एक चादर इन तारों से
और उस चादर पर बैठ
साझा होने का मर्म समझते |
संकलन की एक रचना 'स्व का अर्थ' स्त्रीमन की उस जद्दोज़हद को विराम देने की बता कहती है जो अनगिनत जिम्मेदारियों के चलते कभी नहीं थमती :)
नितांत अकेली हूँ
पर उदास नहीं
कामों की लम्बी सूची को
तह कर के
डाल दिया है
अलमारी के
सबसे ऊपरी खाने में
और चुरा लिया है
कुछ घंटों का समय
केवल अपने लिए---- क्योंकि कभी-कभी
जीवन का थोड़ा सा हिस्सा
स्व के लिए जीना
भी तो नितांत ज़रूरी है |
आज की भागमभाग जिंदगी में पल भर फुरसत नहीं किसी के पास | महानगरों की जिंदगी का यही हाल उनकी रचना 'मशीनी महानगर की कथा' में समाहित है | 'क्या यही है परम्परा' शीर्षक की कविता त्योहारों पर होने वाले दिखावे और प्रदूषण पर प्रश्न उठाती है | 'हिसाब', 'मेरा स्त्रीविमर्श', 'औरों के लिए' (जो कम शब्दों एक पेड़ की आत्मकथा सी रचना है ), 'उम्मीद' , 'ये कटु स्त्रियाँ', 'समानता के पैरोकार' और 'घाव' पठनीय बन पड़ी हैं | जीवन का कोई न कोई अर्थपूर्ण दृष्टिकोण हर कविता में परिलक्षित होता है |
आज के समय में सोशल मीडिया में प्रबुद्ध दिखते हुए जो आडम्बर रचा जा रहा है, उसे लेकर उनकी एक रचना बहुत सामायिक भाव लिये है -
मैदान था युद्द का
थी उँगलियों की सेना
ईंट से ईंट बज रही थी
और ईंट का जवाब
दिया जा रहा था
पत्थरों से
चाय की चुस्कियों के बीच |
क्योंकि मैदान छद्म था
स्क्रीन और की बोर्ड वाला
और सूरमा
कई थे
ताल ठोंकते
अपने विचारों को
बेहतर बताते
उम्दा इंसान होने का
पुरजोर दम भरते | वाकई आभासी संसार का सच यह भी तो है | एक सवाल और जो इसी माध्यम से जुड़ा है और अहम् है-
दो दिन
सुर्ख़ियों में रहकर
कहाँ गम हो जाते हैं
ये प्रशासकों, मीडिया और
आम जनता को
गरमा देनेवाले मुद्दे
क्या इतने उथले हो गए हैं
अब मानवता के
ये विषय ?
या हम सभी
पीड़ित हैं / शॉर्ट टर्म मेमोरी लॉस से ?
या फिर टीआरपी के
हिसाब से ये ऊपर नीचे
हो जाते हैं------- हमारे दिमागों में भी ?
सहजता से उठाये गए सार्थक प्रश्न और जीवन एवं रिश्तों-नातों का खींचा गया व्यावहारिक खाका हैं शिल्पा की कवितायें | जहाँ 'अब ये क्या हुए जाते हैं हम' भौतिकवादी दौड़ में ठहरकर सोचने को विवश करती रचना हैं वहीँ ' हिसाब' घर और दफ्तर की जिम्मेदारियों के बीच जूझती स्त्री के मनोभावों का लेखा जोखा है | रचना 'दबाव' जीवन में संतुष्टि के मायने समझाने की बात करती है | अपने व्यक्तिगत जीवन में बहुत छोटी उम्र में ही माता-पिता को खो देने के चलते संघर्ष और सच्चाइयों से रूबरू हुईं शिल्पा की रचनाओं में उकेरी गईं संवेदनाएं पढ़ने वाले के मन तक पहुँचती है | शब्द उनका हौसला प्रतीत होते हैं | संकलन में कई कविताओं के साथ प्रकाशित अंजना भार्गव की सुंदर मधुबनी पेंटिंग्स भी मनमोहक हैं | कुलमिलाकर यह संकलन पढ़ना एक सुखद अनुभव रहा | हार्दिक बधाई और सतत सृजनशील रहने की शुभकामनाएं |
2 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-10-2018) को "सुहानी न फिर चाँदनी रात होती" (चर्चा अंक-3134) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/10/blog-post_23.html
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