My photo
पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

05 May 2017

समाज और इन्सान की संवेदनाओं का मान करने वाला फ़ैसला

 "निर्भया जब तक अस्पताल में थी सो नहीं पाती थी | कहती थी जैसे ही आँखे बंद करती हूँ लगता है कुछ लोग मेरे  पैरों के पास और बगल में खड़े हैं"  यह कहना है देश की उस माँ का जिसकी बेटी के साथ हुई दरिंदगी निर्भया और उसके परिवार के लिए ही नहीं देश के लिए भी सदमे की सुनामी थी | सर्वोच्च न्यायलय ने भी इस इस घटना को सदमे सुनामी और समाज का भरोसा तोड़ने वाली घटना बताते हुए ही फैसला सुनाया है |  यकीनन, यह घटना ही नहीं दुष्कर्म की हर घटना पीड़ा, अपमान और शोषण का वो दुश्चक्र होती है जो पीड़िता को जीवन भर चैन की नींद नहीं सोने देती | निर्भया भी जब तक इस संसार में रही शारीरिक घावों से नहीं मन की इस असहनीय पीड़ा को भी झेलती रही | ऐसी पीड़ा जिसे बयान करने को शब्द कम पड़ते हैं | यही वजह थी इस घटना ने पूरे  समाज को झकझोर कर रख दिया |  तभी तो निर्भया के परिवार के दुःख को समझने की संवेदशीलता और बलात्कारियों की दरिंदगी के प्रति जिस आक्रोश के साथ जनता सड़कों पर उतरी, यह मामला हर महिला के सम्मान और सुरक्षा से जुड़ गया था |  

 न्यायिक लचरता और कानून से मिल रही मायूसी के बीच आया यह निर्णय  विश्वास जगाने वाला फैसला है ।आमजन की आत्मा को झकझोर देने वाले निर्भया कांड  के पांच  साल बाद आये इस फैसले में सर्वोच्च अदालत द्वारा मौत की सजा को बरक़रार रखना, इस बात को भी पुख्ता करता है कि दोषियों को सजा दिलवाने के लिए हम सबको साथ खड़ा होना होगा | गौरतलब है कि निर्भया केस में आमजन के आक्रोश और पुलिस की  सराहनीय भूमिका ने ही दोषियों को यहाँ पहुँचाया है |  दिसंबर 2012  में हुई इस दिल दहलाने देने वाली घटना के बाद दिल्ली पुलिस के कई अफसरों ने पूरी गहनता से इसकी जाँच करते हुए खुद को एक हफ्ते तक के लिए छोटे से कमरे में सीमित कर लिया था।  इस घटना की जाँच के लिए पुलिसवालों की एक  'निर्भया एसआईटी' नाम की टीम भी बनाई गई थी | निःसन्देह  इस टीम ने जिस तत्परता से जांच करते हुए तथ्य जुटाकर  चार्जशीट तैयार की, उसकी दोषियों को सजा दिलाने में अहम् भूमिका रही | माना जाता है कि  दिल्ली पुलिस के इतिहास में  पहली बार ऐसा हुआ जब  अफसरों ने ऐसे अभूतपूर्व दबाव में अपनी जिम्मेदारी को बेहतरीन ढंग से निभाया | जिस केस की शुरुआत में कोई लीड न मिली हो, उसे  चंद घंटों में सुलझाकर दोषियों को सजा दिलाने के लिए ऐतिहासिक चार्जशीट बनाने के लिए पूरी तत्परता और सजगता से किया गया | यानि समाज के सहयोग और पुलिस की तत्परता ने इन अपराधियों को फांसी की सजा तक पहुंचाने में अहम् भूमिका निभाई | लेकिन अफसोसजनक ही है कि समाज और इन्सान की संवेदनाओं को समझकर दिए गए इस फैसले को स्वीकार में भी कुछ लोगों की दिक्कत आ रही  है 

असल में देखा जाय तो ऐसे मामले आँकड़ों और विश्लेषणों से परे  होते हैं | लेकिन हैरानी की बात है कहीं मानवाधिकार तो कहीं इन बर्बर अपराधियों को सुधार के अवसर दिए जाने के नाम पर इस फैसले को ज्याद ही सख्ती से लिया गया निर्णय बता रहे हैं |  लेकिन  हर मामले में कुतर्क  करने के आदी हो  चले ऐसे लोग जनता, पुलिस और कानून ने जिस संवेदशीलता से इस मसले को अंजाम तक पहुँचाया है,उसपर बेवजह सवाल खड़े कर रहे हैं | सच तो यह है कि रेप कैपिटल के नाम से दुनिया में नकारात्मक छवि बना चुके हमारे देश में  इस फैसले लेकर राजनीति  करने वाले तो खुद एक अक्षम्य अपराध कर रहे हैं | जबकि पहली बार किसी मामले में पूरा समाज सचेत होकर दोषियों को सजा दिलाने के आगे आया | पुलिस ने पूरी गंभीरता से जाँच पूरी की और न्यायालय ने सारे सबूतों पर गौर कर  समाज की भावनाओं को समझते हुए एक कड़ा सन्देश देने वाला निर्णय दिया है | इसमें मीन-मेख निकालने वाले लोगों के लिए यह समझना जरूरी है कि सही जाँच, न्यायिक तत्परता और मानवीय समझ को साथ लेकर चलने वाले ऐसे फ़ैसले कानून में आमजन  के भरोसे को कायम  रखने में मददगार साबित होंगें | इन हालातों में उनके द्वारा किये जा रहे कुतर्क और सवाल अपराधियों का साथ देने वाले प्रतीत हो रहे हैं |  

हालाँकि, यह एक अफ़सोसजनक सच है कि निर्भया के के अपराधियों को फांसी देने से बलात्कार की घटनाएं नहीं रुक जायेगीं | आज भी हर उम्र की महिलायें इस कुत्सित और बीमार सोच वाली मानसिकता का शिकार बन रही हैं | गांवों से महानगरों तक ऐसे खौफ़नाक मामले आये दिन सुर्खियाँ बन रहे हैं,  जिनमें इंसानों ने महिलओं के साथ हैवानियत से भरे काम किये हैं | हाल ही में  दिल्ली में ही स्कूली बच्चियों  को  दुष्कर्म का शिकार बनाने वाले  सीरियल रेपिस्ट ने अपना जुर्म कबूल करते हुए बताया कि पिछले 12 सालों के दौरान उसने 600 से ज्यादा बच्चियों को अपना शिकार बनाया है । यह कटु सच है निर्भया के साथ हुयी बर्बरता के बाद भी ऐसे मामले आये दिन सामने आ रहे हैं | लेकिन कड़ी सजा देकर ये  सन्देश देना भी जरूरी है कि अपराधी बचकर नहीं निकल सकते | दूषित मानसिकता रखने वाले लोगों के मन ऐसे निर्णय एक भय तो जरूर पैदा करेंगें | साथ ही किसी पीड़िता और उसके परिवार में मन भरोसा पैदा करने वाले भी साबित होंगें |  क्योंकि  ऐसी  घटनाओं का केवल कानूनी पक्ष नहीं होता | ये पूरे समाज की संवेदनाओं और चिंताओं से जुड़े मामले हैं | गौरतलब है कि कुछ समय पहले हरियाणा में नेपाली युवती के सामूहिक दुष्कर्म के बाद निर्मम हत्या कर उसके शरीर तक को क्षत -विक्षत कर देने वाले मामले में  भी अदालत ने सात दोषियों को फांसी की सजा सुनाई थी | हालाँकि निर्भया  केस की तरह ही इस मामले में भी एक नाबालिग आरोपी  बच निकला था |   इस मामले को भी न्यायाधीश ने ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ मानते हुए वयस्क दोषियों को लेकर आरोपी पक्ष की सभी दलीलों को सिरे से खारिज करते हुए यह मार्मिक टिप्पणी की थी कि  ' सभ्यता जितनी आगे बढ़ी है, दिमागी रूप से पीछे गयी है। इस फैसले के जरिए समाज को संदेश देना है कि औरत कमजोर नहीं है, औरत को अपनी पहचान व निजता पर गर्व है। शर्मिंदगी औरतों के लिए नहीं है बल्कि उन मर्दों के लिए है, जिन्होंने यह जुर्म किया है। इस तरह के जुर्म शरीर पर नहीं, आत्मा पर चोट पहुंचाते हैं। यह फैसला आत्मा के घाव मिटाने की कोशिश है।' 

हमारे देश में एक ओर कानून लचरता आमजन को निराश करने वाली है तो दूसरी  ओर ऐसे मामलों में जाँच और पुलिस की कार्यवाही के नाम पर ख़ुद पीड़िता का परिवार ही पीड़ित बन जाता है | इतना ही नहीं समाज में भी ऐसे दुष्कर्म के दंश को झेलने वाली महिला के साथ अपमानजनक व्यवहार ही किया जाता है | ऐसी शर्मसार करने वाली घटनाओं के लिए भी कहीं ना कहीं  महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की जाती है | ऐसी अमानवीयता का शिकार बनीं महिलाओं का जीवन बहुत मुश्किलों से भरा बन ही जाता है । जब भी किसी महिला के साथ यह जघन्य अपराध होता है, कभी सवाल उसके कपड़ों पर तो कभी देर रात घर से बाहर रहने पर उठाए जाते हैं | जिसके चलते विकृत हो रहे माहौल और प्रशासनिक लचरता के बारे में गंभीरता से  सोचा ही नहीं जाता | व्यवस्था और समाज किसी दुष्कर्म पीड़िता के लिए कितने निष्ठुर हैं इस बात का अंदाज़  हाल में आये मुंबई हाईकोर्ट के उस निर्णय से लगाया जा सकता है जिसमें न्यायालय को सरकार को उसकी जिम्मेदारी याद दिलाने के लिए कहना पड़ा है कि "दुष्कर्म का दंश झेल चुकी महिला को सरकार की ओर से दी जाने वाली मदद कोई खैरात नहीं है | पीड़िताओं को मुआवजा देना सरकार का दायित्व है, परोपकार नहीं, ये पीड़िताओं का अधिकार है ।" यानि आमतौर पर ऐसी पीड़ा झेलने वाली महिलाओं के लिए किसी भी स्तर पर सहयोग भरा माहौल देखने में नहीं आता | 

ऐसे में यह ध्यान देने वाली बात है कि निर्भया के केस में भी जनता की आवाज़ तो उठी लेकिन लड़की को दोष देने के लिए नहीं बल्कि  दोषियों को सख्त सज़ा दिलवाने के लिए | समाज के इस सकारात्मक सहयोग और सम्बल ने निर्भया के माता-पिता का भी मनोबल बढ़ाया | समर्थन में आगे आये समाज ने बेवजह अपमानित करने और अनगिनत सवाल उठाने के बजाय निर्भया के अभिभावकों को न्याय के लिए लड़ने की शक्ति दी | यही वजह है कि इसे समाज और इन्सान की संवेदनाओं का मान करने वाला फैसला  कहा  जा रहा है | यूँ भी दुष्कर्म के ऐसे बर्बर मामले  केवल शारीरिक शोषण की घटनायें भर नहीं हैं । ये हमारे बीमार होते समाज का आइना हैं | जिसमें ना इंसानियत का मान बचा है, ना समाज की चिंता और ना ही कानून का डर | विडंबना देखिये कि दुनिया के सबसे युवा देश में आज बलात्कार महिलाओं के खिलाफ चौथा सबसे बड़ा अपराध बन चुका है| इन बिगड़ती  परिस्थितियों में समाज में कानून का भय होना आवश्यक है | समाज के दबाव के और पीड़िता के समर्थन में सड़कों  पर उतरी भीड़  के चलते,  कैसे प्रशासनिक  स्तर पर किसी मामले को गंभीरता से हल करने की कोशिश की जाती है, निर्भया केस उसका भी उदाहरण है | यही कारण है कि विचारणीय टिप्पणी के साथ आये उच्चत्तम न्यायालय के इस कानूनी फैसले के साथ पूरा समाज खड़ा है | 

5 comments:

गिरधारी खंकरियाल said...

कुछ लोग कुण्ठाग्रस्त होते है उनका काम ही मीन मेख करने का है। इसी के कारण न्याय मे भी विलम्ब होता है।

Book Publisher India said...

excellent post, keep sharing

कविता रावत said...

इतना कुछ होने पर भी आज भी निर्भया जैसी घटनाएं कई सवाल अनुत्तरित ही रह जाती हैं

sarvesh said...

shi likha ha aap ne keep posting and keep visiting on www.kahanikikitab.com

महेन्‍द्र वर्मा said...

समाज में कानून का भय तभी होगा जब ऐसे मामलों में दोषियों को ज़ल्द-से-ज़ल्द कठोर सज़ा दी जाए ।
जागरूक करता लेख ।

Post a Comment