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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

03 February 2012

स्त्री के पक्ष में आए स्त्री


                      
महिला सशक्तिकरण की जब भी बात होती है हमेशा महसूस किया है कि मोर्चे निकालने से बात नहीं बनेगी। अगर कुछ बदल सकता है तो हमारी मानसिकता बदलने से ही। उस मानसिकता को बदलने से जो महिलाओं के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है । हमारी रूढिवादी विचारधाराएं एक समय में सामाजिक नियमन के लिए बनाई गईं श्रृंखलाएं कही जा सकती हैं जिन्हें बनाने में स्त्रीयों की भी भागीदारी तो रही ही होगी। ऐसे में इनसे बाहर आने में भी समाज की आधी आबादी को एक दूसरे के विरूद्ध नहीं साथ खङा होना होगा। इसीलिए हमारे समाज और परिवारों में उपस्थित इस सोच में परिवर्तन लाने का यह सद्प्रयास भी हमारे घरों से ही शुरू होना चाहिए। साथ ही इसकी सूत्रधार भी स्वयं महिलाएं ही हों ।

माँ, बहन, भाभी, ननद या सखी किसी भी रूप में एक महिला का साथ किसी दूसरी महिला के लिए संबल देने वाला भी हो सकता और आत्मविश्वास जगाने वाला भी। ठीक इसी तरह एक स्त्री के मन को ठेस भी किसी दूसरी स्त्री का दुर्व्यवहार ही पहुँचाता है। विशेषकर तब जब उन्हीं परिस्थितियों को जी चुकी एक स्त्री किसी अन्य स्त्री के मन की वेदना समझ ही नहीं पाती या फिर समझना ही नहीं चाहती ,  ऐसा क्यों ? 

बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला है और बदल रहा है, लेकिन एक स्त्री दूसरी स्त्री की पक्षधर बने, उसके हालात समझे और उसके साथ डटी रहे, इस मोर्चे पर महिलाएं कुछ ज्यादा आगे नहीं बढी हैं। जबकि सच तो यह है कि पारिवारिक जीवन से लेकर व्यावसायिक सफलता तक महिलाएं एक दूसरे को कहीं ज्यादा सहायता और संबल दे सकती हैं। 

भारतीय समाज को भले ही पुरूष प्रधान समाज कहा जाए पर वास्तविक रूप से हमारे घरों में महिलाओं का दबदबा भी कम नहीं है। विशेषकर उम्रदराज महिलाओं का। ऐसे में घर की बङी उम्र की महिलाएं बतौर माँ एक बेटी का और बतौर सास एक बहू का साथ दें, तो क्या परिवार के अन्य सदस्य उनके खिलाफ जा पायेंगें ? शायद नहीं। घर या बाहर स्वयं स्त्रीयां भी एक दूसरे से सरोकर रखें, अपनी साथी महिला की कुशलता और दक्षता को सराहें, एक दूजे की संघर्ष की साथी बनें तो बहुत कुछ सरलता से बदल भी सकता है और समाज में स्वीकार्यता भी पा सकता है।  

हम जरा सोचें कि घर में पोती जन्मे तो दादी उसे गोद में उठा लें, बुआ प्यार-दुलार लुटाए, माँ बिटिया के जन्म से आल्हादित हो और चाची-ताई मंगल गाएं तो उस बेटी को घर में मान-सम्मान मिलेगा या नहीं । घर में मान मिलेगा तो समाज से भी मिलना ही हैं। कुछ इसी तरह अगर एक माँ बेटी का संबल बने और उसके जीवन में कुछ पाने , बन जाने की इच्छाओं को पूरा करने की राह में सदा स्नेह का संबल देती नजर आए तो वो बेटी स्वयं को अकेला क्यों पायेगी...? घर आने वाली नई दुल्हन के सिर पर सासू माँ हाथ रख दें और कहें कि यह उसका अपना घर है। ऐसे में किसी भी नई नवेली दुल्हन को पहले ही दिन सास का साथ और मार्गदर्शन मिल जाए तो क्या बहू के मन में असुरक्षा का भाव आयेगा ? घर से विदा होती ननद को भाभी ही कह दे कि जीवन के हर अच्छे बुरे वक्त में यह घर उसका अपना घर रहेगा। तो क्या पराये घर जाने वाली बेटी को यह महसूस होगा कि उसके अपने अब छूट गये है हमेशा के लिए ? नहीं ना । 

हमारे परिवारों  में आज भी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है । ना जाने क्यों यही व्यवहार घर की दूसरी स्त्री  के लिए कटु क्यों जाता है ? स्वयं की इस सोच में व्यवहारिक बदलाव लाकर ही महिलाएं  घर के पुरुष सदस्यों को भी महिला सदस्यों के प्रति नई सोच दे सकती हैं । एक दूसरे का व्यक्तित्व और अस्तित्व गढ़ने में सहायक हो सकती हैं । परिवार से शुरूआत कर समाज तक स्त्रियाँ  अपनी जमीन खुद तलाश सकती हैं, एक दूसरे का साथ देकर । एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो । 

81 comments:

Madhuresh said...

"जरा सोचें कि घर में पोती जन्मे तो दादी उसे गोद में उठा लें, बुआ प्यार-दुलार लुटाए, माँ बिटिया के जन्म से आल्हादित हो और चाची-ताई मंगल गाएं तो उस बेटी को घर में मान-सम्मान मिलेगा या नहीं ।"

बिलकुल यही सोच रहा था मैं!

बहुत अच्छा आलेख, पूर्णतः सहमत हूँ आपसे! सधन्यवाद!

Anupama Tripathi said...

अगर कुछ बदल सकता है तो हमारी मानसिकता बदलने से ही। उस मानसिकता को बदलने से जो महिलाओं के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है ।

शब्द शब्द सार्थक बात कहता हुआ ...बहुत अच्छा आलेख ....मोनिका जी आज नई-पुरानी हलचल पर आपकी पोस्ट का लिंक है ....कृपया अपने विचार दीजियेगा ...

केवल राम said...

बहुत से विचारणीय बिंदु हैं आपकी इस पोस्ट में ......!

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

खरी खरी

Suman said...

बढ़िया आलेख .......

Arun sathi said...

पर सचाई इससे परे में, घर में जब बेटी का जन्म होता है तो महिला ही सबसे ज्यादा रोती है या फिर कन्या भ्रुण हत्या पर महिला ही ज्यादा जोर लगाती है या फिर दहेज को लेकर ज्यादा हाय तौबा महिला ही मचाती है।
मैं तो यही देखता हूं।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

नजरिया भी बदलने की जरूरत है और आर्थिक स्वाबलंबन की भी.

DR. ANWER JAMAL said...

Nice thought.

yh bhi dekhen :
जागरण की वेबसाइट पर बेस्ट ब्लॉगर इस हफ़्ते
[Blog News] नारी स्वयं नारी के लिए संवेदनहीन क्यों ? NAARI

SATYA SHEEL AGRAWAL
एक महिला दूसरी महिला के लिए कितनी संवेदनहीन होती है इसके अनेको उदाहरण विद्यमान हैं .अनेक युवतियां अपना विवाह न हो पाने की स्तिथि में अथवा अपनी मनपसंद का लड़का न मिलने पर किसी विवाहित युवक से प्रेम प्रसंग करती है और बात आगे बढ़ने पर उससे विवाह रचा लेती है .उसके क्रिया कलाप से सर्वाधिक नुकसान एक महिला का ही होता है .एक विवाहिता का परिवार बिखर जाता है उसके बच्चे अनाथ हो जाते हैं .जिसकी जिम्मेदार भी एक महिला ही होती है .फ़िल्मी हस्तियों के प्रसंग तो सबके सामने ही हैं .जहाँ अक्सर फ़िल्मी तारिकाएँ शादी शुदा व्यक्ति से ही विवाह करती देखी जा सकती हैं. ऐसी महिलाये सिर्फ अपना स्वार्थ देखती हैं जिसका लाभ पुरुष वर्ग उठता है .महिला समाज कोयदि समानता का अधिकार दिलाना है, तो अपने महत्वपूर्ण फैसले लेने से पहले सोचना चाहिए की उसके निर्णय से किसी अन्य महिला पर अत्याचार तो नहीं होगा ,उसका अहित तो नहीं हो रहा.
उदहारण संख्या आठ ;
त्रियाचरित्र ,महिलाओं में व्याप्त ऐसा अवगुण है जो पूरे महिला समाज को संदेह के कठघरे में खड़ा करता है ,कुछ शातिर महिलाएं त्रियाचरित्र से पुरुषों को अपने माया जाल में फंसा लेती हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करती रहती हैं ,शायद अपनी इस आडम्बर बाजी की कला को अपनी योग्यता मानती हैं . परन्तु उनके इस प्रकार के व्यव्हार से पूरे महिला समाज का कितना अहित होता है उन्हें शायद आभास भी नहीं होता .उनके इस नाटकीय व्यव्हार से पूरे महिला समाज के प्रति अविश्वास की दीवार खड़ी हो जाती है . जिसका खामियाजा एक मानसिक रूप से पीड़ित महिला को भुगतना पड़ता है . परिश्रमी ,कर्मठ ,सत्चरित्र परन्तु मानसिक व्याधियों की शिकार महिलाएं अपने पतियों एवं उनके परिवार द्वारा शोषित होती रहती हैं .क्योंकि पूरा परिवार उसके क्रियाकलाप को मानसिक विकार का प्रभाव न मान कर उस की त्रियाचरित्र वाली आदतों को मानता रहता है .इसी भ्रम जाल में फंस कर कभी कभी बीमारी इतनी बढ़ जाती है की वह मौत का शिकार हो जाती है .
अतः प्रत्येक महिला को अपने व्यव्हार में पारदर्शिता लाने की आवश्यकता है. साथ ही पूरे नारी समाज को तर्क संगत एवं न्यायपूर्ण व्यव्हार के लिए प्रेरित करना चाहिए,तब ही नारी सशक्तिकरण अभियान को सफलता मिल सकेगी .
Source :
http://blogkikhabren.blogspot.com/2012/02/naari.html

रचना said...

नारी कभी भी नारी की दुश्मन रही ही नहीं हैं ये एक मिथ्या भर हैं जिस पर बेकार बहस होती हैं
अगर पोते को दादा गोदी ना उठाये ,
अगर ससुर और दामाद में ना सामंजस्य हो
अगर पिता और बेटे में ना बनती हो
तो कभी भी इस और ऊँगली नहीं उठाई जाती
हम हमेशा महिला , उसके व्यवहार , उसके सोचने पर , उसके जीवन पर ऊँगली उठाते हैं

डॉ मोनिका समस्या महिला का आपसी सामंजस्य नहीं हैं समस्या हैं समाज की ये कंडिशनिंग की महिला दोयम हैं और इसलिये उसे अपने वर्चस्व के लिये लड़ना हैं

दो महिला की आम बहस को भी "औरतो की बाते , लड़ायी " कहकर उपहास में उड़ा दिया जाता हैं .

जब तक वर्गीकरण ख़तम नहीं होगा और औरतो की बाते समाज की नहीं मानी जायेगी कोई बदलाव संभव नहीं हैं

मै आलेख के इस भाग से पूर्ण सहमत हूँ की नारी सशक्तिकर्ण के लिये नारी का आपस में जुड़ना बहुत जरुरी हैं और जो नारी जहां हैं वहीं से अगर किसी भी नारी का अपमान देखे तो विरोध का स्वर उठाये . जिस दिन नारी ने अपना ये दर की "समाज क्या कहेगा " ख़तम करदिया उसदिन वो सशक्त होगी

बाकी कुछ बातो से असहमत हूँ क्युकी दादी के गोदी उठाने मात्र से कोई फरक नहीं पड़ता बदलना एक दादी को नहीं हैं पूरे समाज को हैं ताकि वो दादी जो दोयम के दर्जे पर हैं ये समझ सके की उसकी पोती को भी समाज दोयम नहीं मानता हैं . दादी जिस पीड़ा से सारी उम्र गुजरी हैं उसके तहत नहीं चाहती हैं की उसकी बेटी , पोती उससे गुजरे . बेटियों को मारने का सबसे बड़ा कारण हैं समाज में उनक दोयम का दर्जा

जयकृष्ण राय तुषार said...

बहुत ही उम्दा और वैचारिक पोस्ट मोनिका जी बहुत -बहुत बधाई |

vijai Rajbali Mathur said...

आपने लिखा तो सत्य है यदि व्यावहारिक रूप से इस पर अमल किया जाये तो अनेकों समस्याएँ उठे ही नहीं।

प्रवीण पाण्डेय said...

छोटी छोटी प्रेरणादायक अभिव्यक्तियाँ प्रेम की, एक नया अध्याय लिखने में सक्षम..आवश्यकता बहुत अधिक है इसकी..मैं तो अपनी माँ, बहन, पत्नी और बिटिया के पक्ष में न जाने कब से खड़ा हूँ..

संध्या शर्मा said...

जी हाँ मोनिका जी सहमत हूँ, आपकी हर बात से महिलाओं की इस दशा के लिए कहीं न कहीं वह खुद ही जिम्मेदार है. अपने परिवार से शुरुआत कर साथ दे सकती हैं एक दूसरे का और बदल सकती हैं, समाज को ... सार्थक आलेख के लिए आभार आपका

डॉ. मोनिका शर्मा said...

@rachna
@दो महिला की आम बहस को भी "औरतो की बाते , लड़ायी " कहकर उपहास में उड़ा दिया जाता हैं .

रचना तभी तो एक महिला का दूसरी के साथ जुड़ना आवश्यक ताकि ऐसे बंधे बंधाएं जुमलों से बाहर आया जाये ,


समाज उस पोती का दोयम दर्जा न माने इसीलिए तो दादी का यानि की घर की सबसे बड़ी महिला का उसे मान देना आवश्यक है , समाज को तो फिर मान देना ही होगा , मुझे तो लगता है शुरूआत करने के लिए घर से बेहतर जगह और कोई नहीं,

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बढ़िया आलेख, महिलाओं को यह मनोवृति त्यागनी होगी कि मेरे लिए सब कुछ ठाक-ठाक है, दूसरी महिला के लिए हो न हो उससे मुझे क्या ! आज देखने की बात यह है कि दिल्ली में मुख्यमंत्री महिला है , राष्ट्रपति महिला है, असली पीएम महिला है, नगरपालिका प्रमुख महिला है फिर भी कोई यह नहीं सोचता की कामकाजी महिलाओं को रस्ते में क्या -क्या दिक्कते होती है और उन्हें दूर करने की कोशिश करे !

Rajesh Kumari said...

bahut jabardast aalekh sateek,saarthak baat,jab tak stri hi stri ki jaden katti rahegi stri ki durgati yun hi hoti rahegi.

रश्मि प्रभा... said...

माँग तो इसी की है , ज़रूरत यही , हिम्मत यही ... पर यहीं पे मात खाना पड़ता है. एक दो घरों में है, इससे क्या फर्क पड़ता है . दर्द का मवाद यहीं बहता है ! स्त्री के साथ स्त्री ही नहीं होती

Yashwant R. B. Mathur said...

बहुत अच्छा आलेख है आपके विचारों से सहमत हूँ।


सादर

Maheshwari kaneri said...

सही कहा मोनिका जी आप ने...अपने मान स्म्मान और बचाव में खुद को ही आगे आना होगा..विचा्रणीय लेख..

सुज्ञ said...

एक सार्थक चिंतन को प्रेरित करता आलेख!!

यह अचुक उपाय है कि घर के नारी सदस्यों को घर की नारी सदस्यों से प्रोत्साहन सम्मान और महत्व मिलना चाहिए, निश्चित ही इसका प्रेरक प्रभाव समाज पर पडता है।

vandana gupta said...

उम्दा विचारणीय आलेख्।

kshama said...

स्वयं की इस सोच में व्यवहारिक बदलाव लाकर ही महिलाएं घर के पुरुष सदस्यों को भी महिला सदस्यों के प्रति नई सोच दे सकती हैं । एक दूसरे का व्यक्तित्व और अस्तित्व गढ़ने में सहायक हो सकती हैं ।
Bilkul sahee kah rahee hain aap!

sm said...

thoughtful and yes females should learn to protect the rights of other females.

Atul Shrivastava said...

विचारणीय और सार्थक पोस्‍ट।

Kailash Sharma said...

एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो ।

....बहुत सही आंकलन..परिवार में अधिकतर स्त्री ही स्त्री की विरोधी होती है. अगर उनकी इस मानसिकता में बदलाव आए तो न केवल परिवार बल्कि समाज का रूप बदल सकता है...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत सार्थक लेख ... घर की स्त्रियां ही स्त्रियों को अपना दुश्मन समझ बैठती हैं ..जब तक स्त्रियों के मानसिक स्तर का विकास नहीं होगा स्थिति बदलने वाली नहीं .. और कभी कभी इतना विकास हो जाता है कि लड़कियों को ससुराल अपना घर ही नहीं लगता ... यह समस्याएं बहस से दूर होने वाली नहीं हैं .. व्यवहार में स्वयं ही परिवर्तन लाने की ज़रूरत है ..

सदा said...

बेहद सार्थक बात कही है आपने इस आलेख में ....आभार ।

***Punam*** said...

"एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो । "

aaj bhi zaroorat hai mansikta badlne ki...

Anonymous said...

sundar aur sochne par mazbur karta lekh....

G.N.SHAW said...

" ऐसे में किसी भी नई नवेली दुल्हन को पहले ही दिन सास का साथ और मार्गदर्शन मिल जाए तो क्या बहू के मन में असुरक्षा का भाव आयेगा ? घर से विदा होती ननद को भाभी ही कह दे कि जीवन के हर अच्छे बुरे वक्त में यह घर उसका अपना घर रहेगा। तो क्या पराये घर जाने वाली बेटी को यह महसूस होगा कि उसके अपने अब छूट गये है हमेशा के लिए ? नहीं ना । "-बिलकुल सठिक विचार ! मार्गदर्शी लेख ! लोहा लोहे को काटता है ! मानसिक सुधर जरुरी है ! बधाई सुन्दर लेख !

विभूति" said...

सार्थक लेख....

India Darpan said...

बेहतरीन भाव पूर्ण सार्थक रचना,

Dr. sandhya tiwari said...

agar hamari sonch esi tarah badal jaye aur ham sabhi aurte ek dusre ko samjhe to hamre badte kadam ko koi nahi rok sakta.

उपेन्द्र नाथ said...

बहुत ही विचारनीय पोस्ट. काश ऐसी सबकी सोंच हो.

राजन said...

मुझे तो लगता हैं कि इस स्थिति में अब पहले की तुलना में बहुत बदलाव आया हैं.आज महिलाएँ इस बात को समझने लगी हैं.बदलाव बेशक धीमा हो लेकिन निश्चिंत रहें इस लिहाज से आने वाला समय सकारात्मक ही लगता हैं.

RITU BANSAL said...

सही लिखा है आपने..
kalamdaan.blogspot.in

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

इस निरुत्तरित प्रश्न से मैं स्वयं भी विचलित रहता हूँ...और व्यथित भी...और एक स्त्री की दूसरी से घृणा....यह तो और भी उद्वेलित करता रहता है !

Naveen Mani Tripathi said...

Monika ji samaj aj bhi vahi hai jo kl tha mahilaon ko jagruk hona hi padega...sundar prvishti ke liye badhai.

Brijendra Singh said...

कड़ी से कड़ी मिले तो ही श्रंखला बनती है.. सुंदर विचारों से सुसज्जित सुंदर लेख.. धन्यवाद !!

Dr.J.P.Tiwari said...

भारतीय समाज को भले ही पुरूष प्रधान समाज कहा जाए पर वास्तविक रूप से हमारे घरों में महिलाओं का दबदबा भी कम नहीं है। विशेषकर उम्रदराज महिलाओं का। ऐसे में घर की बङी उम्र की महिलाएं बतौर माँ एक बेटी का और बतौर सास एक बहू का साथ दें, तो क्या परिवार के अन्य सदस्य उनके खिलाफ जा पायेंगें ? शायद नहीं। घर या बाहर स्वयं स्त्रीयां भी एक दूसरे से सरोकर रखें, अपनी साथी महिला की कुशलता और दक्षता को सराहें, एक दूजे की संघर्ष की साथी बनें तो बहुत कुछ सरलता से बदल भी सकता है और समाज में स्वीकार्यता भी पा सकता है।

sahamat.

मेरा मन पंछी सा said...

विचारणीय मुद्दा, सार्थक आलेख |||

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

हमारे परिवारों में आज भी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है । ना जाने क्यों यही व्यवहार घर की दूसरी स्त्री के लिए कटु क्यों जाता है ? स्वयं की इस सोच में व्यवहारिक बदलाव लाकर ही महिलाएं घर के पुरुष सदस्यों को भी महिला सदस्यों के प्रति नई सोच दे सकती हैं । एक दूसरे का व्यक्तित्व और अस्तित्व गढ़ने में सहायक हो सकती हैं । परिवार से शुरूआत कर समाज तक स्त्रियाँ अपनी जमीन खुद तलाश सकती हैं, एक दूसरे का साथ देकर । एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो ।
शुरुवात परिवार की ईकाई से ही होना चाहिए, एकदम सार्थक आलेख.

रचना दीक्षित said...

विचारणीय सुंदर आलेख. बधाई मोनिका जी विचारोत्तेजक प्रस्तुति के लिये.

virendra sharma said...

हमारी रूढिवादी विचारधाराएं एक समय में सामाजिक नियमन के लिए बनाई गईं श्रृंखलाएं कही जा सकती हैं जिन्हें बनाने में स्त्रीयों की भी भागीदारी तो रही ही होगी। ऐसे में इनसे बाहर आने में भी समाज की आधी आबादी को एक दूसरे के विरूद्ध नहीं साथ खङा होना होगा। इसीलिए हमारे समाज और परिवारों में उपस्थित इस सोच में परिवर्तन लाने का यह सद्प्रयास भी हमारे घरों से ही शुरू होना चाहिए। साथ ही इसकी सूत्रधार भी स्वयं महिलाएं ही हों ।
आपकी सभी प्रस्तावनाएँ विचार सरणियाँ अनुकरणीय है .ये हो जाए तो बहुत बड़ा परिवर्तन हो जाए जड़ हो चुके सामाजिक विधान में परिधान में .

Ragini said...

बहुत बढ़िया.....समय परिवर्तनशील है...आनेवाला समय ऐसा होगा अवश्य...

दिगम्बर नासवा said...

सार्थक पोस्ट ... सही कहा है आज समाज में बदलाव की जरूरत है, परिवार में बदलाव की जरूरत है ... यदि स्त्री स्त्री की सोचने लगे तो नारी का सम्मान स्वत:ही होने लगेगा और कई समस्याएं अपने अआप ही सुलझने लगेंगी ...

Amrita Tanmay said...

सहमत हूँ ,अच्छा आलेख |

Pallavi saxena said...

यही तो विडम्बना है मोनिका जी, हमारे समाज मे एक स्त्री ही जहां एक ओर दूसरी स्त्री की मन की भावनाओं को भली भांति समझ सकती है और बखूबी उस समझ के साथ उसका साथ निभा सकती है। वहीं दूसरी ओर स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है। इसलिए मुझे भी यही लगता है जब तक हमारी खुद की सोच नहीं बदलती हम इस समाज को भी स्त्री के प्रति सकरात्म्क सोच नहीं दे सकते...सार्थक लेख

Anonymous said...

बहुत अच्छा आलेख है...

P.N. Subramanian said...

Ek sarthak,khoobsoorat aalekh.

महेन्‍द्र वर्मा said...

अनुकरणीय संदेश देता जीवनोपयोगी आलेख।
नारियों की वैचारिक एकता उन्हें ज्यादा शक्तिशाली बनाएगी।

Kewal Joshi said...

'सुन्दर विचारणीय आलेख '

निवेदिता श्रीवास्तव said...

सच है अगर स्त्रियाँ अपनी अस्मिता की पहचान कर लें तो उनकी सामाजिक स्थिति बदलते देर न लगेगी ......... शुभकामनाएं !

आशुतोष की कलम said...

समाज में फैली हर स्तर की विषमता जब तक दूर नहीं होगी तब तक महिला का शोषण होगा चाहे वो भ्रूण हत्या के रूप में हो या दहेज़ हत्या के रूप में .. आधुनिक बनने की होड़ में ये विषमता बढ़ रही है और स्त्री पुरुष का विभेद भी बढ़ रहा है..

Kunwar Kusumesh said...

साफ़गोई के लिए आपके हिम्मत की दाद देता हूँ .कम लोग साफ और सही के पक्षधर होते हैं.
कुछ लोग कमेन्ट में कह रहे हैं की व्यवहार/सोंच में बदलाव की ज़रुरत है.मगर ये तो तभी सम्भव है जब सच्चाई को कोई मानें.

Rachana said...

ji badlav ho raha hai pr utna nahi jitna hona chahiye
aapne sahi mudda uthaya hai
bahut bahut badhai
rachana

Vaanbhatt said...

आज नारी ने जिस मुकाम को हासिल किया है...वो सराहनीय है...घर और बाहर वो समाज की धुरी बन गयी है...

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

यदि नारी नारी के पक्ष में खुलकर आजाये तो,महिला सशक्तीकरण सफल हो जाए,परन्तु क्या ऐसा होंना संभव है,
बहुत सुंदर प्रस्तुति
NEW POST....
...काव्यान्जलि ...: बोतल का दूध...
...फुहार....: कितने हसीन है आप.....

ऋता शेखर 'मधु' said...

एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो ।

बहुत अच्छा आलेख, पूर्णतः सहमत हूँ|

संजय भास्‍कर said...

अगर इस्त्रियो की मानसिकता में बदलाव आए तो न केवल परिवार बल्कि समाज का रूप बदल सकता है......बहुत ही विचारनीय पोस्ट...

गिरधारी खंकरियाल said...

स्त्री के साथ में स्त्री ही क्यों पुरुष को भी बराबर में खड़ा रहना चाहिए .

Anonymous said...

बिकुल सही बात कही है आपने....पूर्णतया सहमत हूँ |

कुमार राधारमण said...

कुछ भूमिका चैनल वाले भी निभा सकते हैं। पर वहां हालत बदतर हो रहे हैं।

amit kumar srivastava said...

साफ़ सुन्दर बात ,पर नारी कब समझेगी इसे |

सदा said...

कल 08/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्‍वागत है, !! स्‍वदेश के प्रति अनुराग !!

धन्यवाद!

रेखा said...

सटीक और सार्थक विश्लेषण किया है आपने ....विचारणीय आलेख

ashish said...

विचारणीय मुद्दा, सार्थक आलेख

अनामिका की सदायें ...... said...

sach kaha aapne nari hi nari ka sath nahi deti. ek istri sasural me yadi kisi galat baat k liye sir utha rahi hai to aisa kabhi nahi dekha gaya ki uski sathi istri uske sur me sur milaye...balki vo virodhi paksh me hi khadi payi jati hai. ham sada purushon ko doshi thehrate hain lekin kabhi ham apne ander jhank kar nahi dekhte ki ham hi apni is sthiti k adhik jimmedar hain...insan to mauka parast hai use aur aise mauke ka fayeda agar purush samaj nahi uthayega to bevkoof hi kaha jayega...jabki bevkoof nari hi nari ki dushman ban ke bana di jati hai.

vicharneey post.

Dr.NISHA MAHARANA said...

बहुत अच्छे विचार है मोनिका जी आपके परिवर्तन हो रहा है पर समय लगेगा। महिलाओं का आड लेकर कई बार पुरुष नामक जीव अपना
उल्लू भी तो साध लेता है।

virendra sharma said...

सामाजिक सन्दर्भों को उद्वेलित करती बहुत सशक्त रचना .ब्लॉग पर आपकी द्रुत टिपण्णी के लिए शुक्रिया .

Monika Jain said...

totally agree with you :)

vidya said...

बिलकुल सच्ची बात...
स्त्रियाँ जाने क्यूँ आपसी तालमेल बैठाने में पिछड़ जाती हैं...ज़रा सी उदारता की ज़रुरत है बस...

बहुत सार्थक लेखन मोनिका जी.
शुक्रिया.

Rakesh Kumar said...

बहुत ही सुन्दर सार्थक प्रस्तुति है आपकी.
सदाजी की हलचल में जड़ा एक नायाब मोती.
स्त्री पुरुष सभी एक पक्ष हों तो क्या बात है.

avanti singh said...

बहुत अच्छा आलेख,धन्यवाद!

आत्ममुग्धा said...

बिलकुल सही कहा आपने ........मेरी अपनी सोच को मैंने आपके लेख में पाया ....आभार
मेरे परिवार में मैं हमेशा अपनी देवरानियो को आगे बढ़ने को प्रेरित करती हूँ क्योकि इसी से मेरे अपने परिवार की तरक्की होगी और सोच भी बदलेगी.....और जब हर परिवार उन्नत होगा तो समाज और देश की तरक्की तो होनी ही है
धन्यवाद

अभिषेक मिश्र said...

वाजिब सुझाव दिए हैं आपने एक महत्वपूर्ण विषय पर.

विभा रानी श्रीवास्तव said...

अब तक सभी ये कहते है ,एक स्त्री की दुश्मन ,एक स्त्री ही होती है.... ?
अब सभी ये कहने पर मजबूर हो जायेगें ,एक स्त्री दुसरे स्त्री की मददगार होती है..... :):)
तब बहुत सारी समस्याओं का निदान आसानी से होता चला जाएगा.... !!

Anupam Dixit said...

बेशक मोनिका जी। आपके विचारों से सहमत हूँ। स्त्री सशक्तिकरण मोर्चे से नहीं घरों से शुरू हो सकता है। लेकिन इसके लिए जागरूकता और जरूरी सोच के बीज तो शिक्षा से ही पड़ेंगे। हमारी पुस्तकें, फिल्में, साहित्य सब एक ही लकीर पीटता है। फिल्मों में हीरोइन का कुछ काम नहीं होता तो अधिकांश साहित्य अबला जीवन के महिमामंडन से भरा है। हम स्कूलों में जीवन के पाठ नहीं पढ़ते। आजीविका के पाठ पढ़ते हैं। खैर प्रयास करती रहिए सफलता मिलेगी।

अजित गुप्ता का कोना said...

संस्‍कारित परिवारों में तो यह सबकुछ होता है लेकिन आधुनिकता की भेंट चढे परिवारों में संस्‍कारों पर ध्‍यान नहीं दिया जाता इसी कारण यह सब हो रहा है।

Arvind Mishra said...

संतुलित दृष्टि और सम्यक विवेचन !

bkaskar bhumi said...

मोनिका जी नमस्कार...
आपके ब्लॉग 'परवाज शब्दों के पंख; से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 25 अगस्त को 'स्त्री के पक्ष में आए स्त्री' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
धन्यवाद
फीचर प्रभारी
नीति श्रीवास्तव

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