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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

27 February 2012

तय करें अपनी प्राथमिकतायें





जीवन में प्राथमिकताएं तय कर पाना और उन्हें निभाने के  संकल्प पर डटे रहना किसी के लिए भी सरल नहीं होता। कई बार ऐसा भी होता है कि जो बातें जीवन में अधिक महत्व रखती हैं उन्हें हम जानते समझते तो है पर उस विषय पर समय रहते सही कदम नहीं उठा पाते। अक्सर महिलाओं को इस द्वन्द में कहीं ज्यादा उलझते देखा है क्योंकि उन्हें अपनी प्राथमिकताओं के विषय में विचार करने से पहले अपने से जुड़े अन्य लोगों की सहमति-असहमति के विषय में अधिक सोचना होता है। 

कई हमउम्र महिलाओं से मिलती हूं तो उन्हें इस उहापोह से जूझते हुए देखती हूं कि नौकरी की जाय या फिर घर संभाला जाय। जो पहले से कामकाजी हैं उनके मन में यह अपराधबोध है कि बच्चे और घर उपेक्षित हो रहे हैं । वहीं दूसरी ओर उच्च शिक्षित गृहणियों के  मन में यह दुख है कि वे अपनी क्षमता और योगयता का घर ही नहीं घर के बाहर भी इस्तेमाल कर सकती हैं। कभी मन को थाम कर खुद को संतुष्टि दे भी लेती हैं तो आसपास मौजूद विकल्प मन को भरमाने में कोई कसर नहीं छोङते। कुल मिलाकर कहें तो ऊपर से शांत और संतुष्ट प्रतीत होने वाले जीवन में एक बड़ा मनोवैज्ञानिक युद्ध चल रहा होता है। 

मुझे लगता है जीवन में जब तक प्राथमिकताएं तय नहीं होतीं तब तक कोई कार्ययोजना भी नहीं बनाई जा सकती। कभी-कभी तो यह भी लगता है कि कामकाजी बनना हो या गृहणी, गुणवत्ता हासिल करनी है तो प्राथमिकता और भी जरूरी हो जाती है। चूंकि एक महिला हूं इसलिए महिलाओं के संदर्भ में अपनी बात कह रही हूं। महिलाओं के लिए यह जानना और मानना दोनों आवश्यक है कि जीवन के हर पड़ाव  पर प्राथमिकतायें बदल जाती हैं। उनसे जुड़ा लक्ष्य भले ही ना बदले पर उनका स्वरूप तो निश्चित रूप से परिवर्तित हो ही जाता है। 

कामकाजी हों या गृहणी, महिलाओं के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब परिवार और बच्चों से बढकर कुछ नहीं होता। ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगें जब मांओं ने बच्चों की परवरिश को सबसे अधिक प्राथमिकता दी और पूरी तरह से समर्पित होकर अपनी जिम्मेदारी को निभाया। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि कभी-कभी एक माँ, एक पत्नी के रूप में महिलाओं के लिए सफलता का प्रतिमान अपनी उपलब्धियों तक ही सीमित नहीं होता बल्कि बच्चों की सफलता में भी अपने आपको ही आगे बढते हुए देखती है। क्योंकि वास्तविक प्राथमिकताएं ऊंचे लक्ष्यों और आर्थिक उपलब्धियों से कहीं ज्यादा आत्मसंतुष्टि से जुड़ी होती हैं। 

आजकल उच्च शिक्षित लड़कियां विवाह के बाद इन हालातों से जूझती नज़र आती हैं । मुझे लगता है कि विवाह से पहले माता-पिता को भी अपनी बेटियों से इस विषय पर बात कर उन्हें मार्गदशन ज़रूर देना चाहिए । ताकि आगे चलकर उन्हें अपनी प्राथमिकतायें तय करने में आसानी हो और वे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना निर्णय ले पायें ।  महिलाएं चाहें घर संभाले या नौकरी करें, मैं इतना जरूर महसूस करती हूं कि स्वयं को उन  परिस्थितियों के लिए भी तैयार जरूर करें जब जीवन में किसी एक पहलू को प्राथमिकता देनी ही होती है । ख्याल इस बात का भी रखना होगा कि अपनी प्राथमिकतायें दूसरों को देख उनसे तुलना करके निर्धारित न की जाएँ । खुद को ऐसे मानसिक द्वंद्व में ना उलझाएं रखें जो आगे चलकर आपको अपराधबोध का शिकार बना दे। 

19 February 2012

खुश भारतीय



हाल ही में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे की मानें  तो आर्थिक संकट से लेकर प्राकृतिक विपदाओं तक , हर तरह की समस्याओं को झेलने के बावजूद भी भारतीय दुनिया के सबसे अधिक खुश एवं संतुष्ट रहने वाले वाले लोगों की सूची में दूसरे स्थान पर हैं। निश्चित रूप से हमारे पास कुछ तो ऐसा है जो विकसित देशों में हर तरह की सुख-सुविधाओं से सम्पन्न आरामपरस्त जिंदगी जीने वाले लोगों के पास नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि सब कुछ पा लेना, हर तरह की सुविधा जुटा लेना या धन बटोर लेना, हमारी खुशियों की गारंटी नहीं है। 

यह बात अनगिनत लोगों को हैरान परेशान करती है कि इतनी सारी समस्याओं से घिरा जीवन जीने वाले भारतीय खुशी से भरी जिंदगी जीने के मामले में सुख-सुविधाओं से लैस विकसित देशों से आगे कैसे निकल जाते हैं ? यूं  भी खुश रहने का अर्थ नहीं है हमने सब कुछ पा लिया हो। खुशी को हमारी आर्थिक उपलब्धियों से नहीं आंका जा सकता। सिर्फ  धन-दौलत खुशी का पैमाना नहीं, क्योंकि ऐसा होता तो हम भारतीय शायद इस सूची में स्थान में नहीं पाते।

मुझे लगता है हमारी खुशी का एक बङा कारण तो हमारी स्वीकार्यता की प्रवृत्ति है। समस्याएं तो बहुत आती है पर जब जो है सो है कि सोच हमें अपने घर या बाहर हर जगह जो भी घटता है उसे सहजता से स्वीकारने की मजबूती देती है। अच्छे बुरे दिनों में ऐसे विचार हमें सकारात्मक एवं आशावादी बनाये  रखते हैं।

पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में रम जाना भी हम भारतीयों का खूब आता है। किसी एक सामाजिक समारोह का हिस्सा बनकर तो मानो साल भर की थकान उतर जाती है।  अपनों का साथ, अपनों से बात, दिल ही हल्का नहीं करती मानसिक तनाव भी हर लेती है। अपनों से जोड़ने वाली यही छोटी-छोटी खुशियां हमें जीवन से भी जोड़कर  रखती हैं, तो फिर खुशी तो मिलेगी ही । 

हम भारतीय वैसे भी स्वभाव से ही उत्सवधर्मी हैं। यहां आज दिवाली है तो कल ईद और परसों कोई और त्योंहार । हमारे यहां सामाजिक,पारिवारिक उत्सवों में खुशियां छाई रहती हैं। बहाना कोई भी उत्साह हमारे जीवन में नृत्य करता है और हम भी उसके साथ झूमते रहते हैं। खुशियां मनाने और एक दूजे के साथ जुड़ने  में हम ज्यादा दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते। अब ऐसा है तो भारतीय खुश रहेंगें ही, क्योंकि यहां तो सब दिल का मामला है । 

आम जीवन में औपचारिकता का ना होना भी हमारी खुशी का कारण है।  फुरसत के कुछ पल मिलें तो मित्र हो या रिश्तेदार मंडली जमने में देर नहीं लगती। यह मेल-मिलाप तो बस हमारे यहां ही होता है। आज भी रिश्तो में वैसी औपचारिकता नहीं आई है जैसी पश्चिमी देशों की जीवन शैली में मौजूद है और समय के साथ बढती भी जा रही है। जबकि अपनों का साथ मिलते ही हम भारतीय ना तो मन की पीड़ा कहने में हिचकिचाते हैं और ना ही खुशियां साझा करने में। 

सर्वे की माने तो शादी के बाद भी भारतीय ही है जो सबसे ज्यादा खुश रहते हैं। ऐसा हो भी क्यों नहीं आज भी भारत में शादी जैसा जीवन भर का संबंध पूरी तरह से समर्पण के भाव के साथ ही जोड़ा  जाता है। हमारे यहां तो आज भी शादियां निभाने के लिए ही की जाती है। हमारे यहां आज भी विवाह केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं है। पारिवारिक और सामाजिक संदर्भों में भी इस रिश्ते का  बड़ा  मूल्य है। इसी संबंध की बदौलत हमारा परिवार बनता है और यही परिवार एक आम इंसान को आश्वस्त करता है कि दुख की घङी हो सुख के पल वो अकेला नही है, असहाय नहीं हैं। तो फिर हम खुश क्यों ना होंगें ?

09 February 2012

मेरा एक संसार है माँ

 (बाल कविता )

मेरा एक संसार है माँ
जो लगता मुझको प्यारा
इंद्रधनुष के रंग सजे हैं
दुनियाभर से न्यारा

अक्षर मुझको नहीं लुभाते
सात रंग लगें प्यारे
चिड़िया, चंदा, फूल बना लूं
नाचें मोर कभी न्यारे

अक्षर आगे-आगे भागें 
रंग मेरे संग चलते हैं 
मेरी मानें, मन की जाने 
रंग मेरे संग ढलते हैं 

तितली रानी, भंवरे भैया
मुझ संग सारे खेलें
रंग-बिरंगी दुनिया है ये
हम सबसे अलबेले

नदिया मेरी बहती है यूं
ज्यूं झरता प्रेम का झरना
अपनी धुन में रहता हूं मैं
आपस में क्यों लङना

सारे रंग सजा कर देखो
सतरंगी जीवन बन जाता
मन की मानूं  और उकेरूं
कितना सुंदर रंग भर जाता

03 February 2012

स्त्री के पक्ष में आए स्त्री


                      
महिला सशक्तिकरण की जब भी बात होती है हमेशा महसूस किया है कि मोर्चे निकालने से बात नहीं बनेगी। अगर कुछ बदल सकता है तो हमारी मानसिकता बदलने से ही। उस मानसिकता को बदलने से जो महिलाओं के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है । हमारी रूढिवादी विचारधाराएं एक समय में सामाजिक नियमन के लिए बनाई गईं श्रृंखलाएं कही जा सकती हैं जिन्हें बनाने में स्त्रीयों की भी भागीदारी तो रही ही होगी। ऐसे में इनसे बाहर आने में भी समाज की आधी आबादी को एक दूसरे के विरूद्ध नहीं साथ खङा होना होगा। इसीलिए हमारे समाज और परिवारों में उपस्थित इस सोच में परिवर्तन लाने का यह सद्प्रयास भी हमारे घरों से ही शुरू होना चाहिए। साथ ही इसकी सूत्रधार भी स्वयं महिलाएं ही हों ।

माँ, बहन, भाभी, ननद या सखी किसी भी रूप में एक महिला का साथ किसी दूसरी महिला के लिए संबल देने वाला भी हो सकता और आत्मविश्वास जगाने वाला भी। ठीक इसी तरह एक स्त्री के मन को ठेस भी किसी दूसरी स्त्री का दुर्व्यवहार ही पहुँचाता है। विशेषकर तब जब उन्हीं परिस्थितियों को जी चुकी एक स्त्री किसी अन्य स्त्री के मन की वेदना समझ ही नहीं पाती या फिर समझना ही नहीं चाहती ,  ऐसा क्यों ? 

बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला है और बदल रहा है, लेकिन एक स्त्री दूसरी स्त्री की पक्षधर बने, उसके हालात समझे और उसके साथ डटी रहे, इस मोर्चे पर महिलाएं कुछ ज्यादा आगे नहीं बढी हैं। जबकि सच तो यह है कि पारिवारिक जीवन से लेकर व्यावसायिक सफलता तक महिलाएं एक दूसरे को कहीं ज्यादा सहायता और संबल दे सकती हैं। 

भारतीय समाज को भले ही पुरूष प्रधान समाज कहा जाए पर वास्तविक रूप से हमारे घरों में महिलाओं का दबदबा भी कम नहीं है। विशेषकर उम्रदराज महिलाओं का। ऐसे में घर की बङी उम्र की महिलाएं बतौर माँ एक बेटी का और बतौर सास एक बहू का साथ दें, तो क्या परिवार के अन्य सदस्य उनके खिलाफ जा पायेंगें ? शायद नहीं। घर या बाहर स्वयं स्त्रीयां भी एक दूसरे से सरोकर रखें, अपनी साथी महिला की कुशलता और दक्षता को सराहें, एक दूजे की संघर्ष की साथी बनें तो बहुत कुछ सरलता से बदल भी सकता है और समाज में स्वीकार्यता भी पा सकता है।  

हम जरा सोचें कि घर में पोती जन्मे तो दादी उसे गोद में उठा लें, बुआ प्यार-दुलार लुटाए, माँ बिटिया के जन्म से आल्हादित हो और चाची-ताई मंगल गाएं तो उस बेटी को घर में मान-सम्मान मिलेगा या नहीं । घर में मान मिलेगा तो समाज से भी मिलना ही हैं। कुछ इसी तरह अगर एक माँ बेटी का संबल बने और उसके जीवन में कुछ पाने , बन जाने की इच्छाओं को पूरा करने की राह में सदा स्नेह का संबल देती नजर आए तो वो बेटी स्वयं को अकेला क्यों पायेगी...? घर आने वाली नई दुल्हन के सिर पर सासू माँ हाथ रख दें और कहें कि यह उसका अपना घर है। ऐसे में किसी भी नई नवेली दुल्हन को पहले ही दिन सास का साथ और मार्गदर्शन मिल जाए तो क्या बहू के मन में असुरक्षा का भाव आयेगा ? घर से विदा होती ननद को भाभी ही कह दे कि जीवन के हर अच्छे बुरे वक्त में यह घर उसका अपना घर रहेगा। तो क्या पराये घर जाने वाली बेटी को यह महसूस होगा कि उसके अपने अब छूट गये है हमेशा के लिए ? नहीं ना । 

हमारे परिवारों  में आज भी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है । ना जाने क्यों यही व्यवहार घर की दूसरी स्त्री  के लिए कटु क्यों जाता है ? स्वयं की इस सोच में व्यवहारिक बदलाव लाकर ही महिलाएं  घर के पुरुष सदस्यों को भी महिला सदस्यों के प्रति नई सोच दे सकती हैं । एक दूसरे का व्यक्तित्व और अस्तित्व गढ़ने में सहायक हो सकती हैं । परिवार से शुरूआत कर समाज तक स्त्रियाँ  अपनी जमीन खुद तलाश सकती हैं, एक दूसरे का साथ देकर । एक महिला हर रूप में किसी दूसरी महिला की मददगार साबित हो सकती है, उसे उसके होने का आभास करवा सकती है, बस एक दूजे की पक्षधर बनें तो ।