निर्भया के साथ दिल्ली में हुए वीभत्स हादसे ने पूरे देश को हिला दिया था । इसके बारे में अब तक बहुत कुछ कहा और लिखा गया है । अनशन ,धरने और कैंडल मार्च सब हुआ | अनगिनत लोग सड़कों पर उतर आये । जनता का आक्रोश उचित भी था । पर अफ़सोस तो यह है कि उस कड़े विरोध के वाबजूद वैसी घटनाओं का होना भी जारी रहा और कुत्सित मानसिकता के नए उदारहण भी सामने आते रहे ।
महिला दिवस आने को है तो महिलाओं के सशक्तीकरण और अस्मिता की दुहाई देने का वातावरण बना रहेगा कुछ दिन । ऐसे में निर्भया के साथ दरंदगी को अंजाम देने वाले अमानुषों के विचार सामने आये हैं । जिनको न तो अपने किये का कोई पछतावा है और न ही शर्म । उल्टा ये कुतर्क ज़रूर दिया है कि अगर निर्भया प्रतिरोध नहीं करती तो बच सकती थी । इनका कहना तो ये भी है कि रात को घर से बाहर निकलने वाली लड़कियां स्वयं ही ही अपने साथ होने वाले हादसों के लिए दोषी हैं । मन मस्तिष्क को सुन्न कर देने वाले ये कुतर्क बस यूँ सुनकर नहीं भुलाये जा सकते । क्योंकि महिलाओं की असुरक्षा का प्रश्न केवल किसी घटना के घटने और उससे जुड़े समाचारों के प्रसारण-प्रकाशन तक ही आम जन के मष्तिष्क में रहता है | यह आम धारणा है | पर सच इससे कहीं अलग | दिल्ली जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भले ही उस एक हादसे को लोग भूल जाएँ पर समाज के घरों- परिवारों में ऐसी दुखद वारदातों के निशान सदा के लिए चस्पा हो जाते हैं |
इस कुत्सित सोच कि बानगी और महिलाओं के साथ लगातार घट रही अमर्यादित घटनाओं को देखते हुए यह प्रश्न उठना वाजिब है कि क्या सड़कों पर उतर आना ही काफी है ? इस घटना के बाद भी देश भर में लोग घरों से बाहर निकले । सबने खुलकर विरोध किया । अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग की और आज भी कर रहे हैं । ऐसे में इस ओर भी ध्यान दिया जाना ज़रूरी है कि आन्दोलन कर अपनी आवाज़ उठाने के आलावा हमें अपनी ही देहरी के भीतर भी झांकना होगा । यह जानना ही होगा कि आज की पीढ़ी को संस्कारित करने में क्या और कहाँ चूक हो रही है ? क्योंकि दिल्ली में हुआ यह हादसा सिर्फ शरीरिक शोषण और जोर ज़बरदस्ती का केस भर नहीं हैं । यह हमारे ही समाज से निकले मानवीयता की हदें पार करने वाले अमानुषों का उदाहरण है| जिनको मिलने वाला दंड उनके ही जैसी प्रवृति पाले बैठे लोगों की मानसिकता नहीं बदल पायेगा । ऐसे कृत्यों को रोकने में परिवार की भूमिका ही सबसे बढ़कर हो सकती है । अपने बच्चों को ऐसे आपराधिक कृत्य करने वाली मानसिकता से बचाने के लिए उन्हें संस्कारित करने के साथ ही उनके मन में यह भय भी पैदा किया जाय कि अगर वे जीवन में कभी ऐसे कुकृत्य करते हैं तो सबसे पहले उनका अपना परिवार ही उनका साथ छोड़ देगा ।
ज़रा सोचिये तो हमारे समाज में ऐसी घटनाएँ कैसे रोकी जा सकती जा सकतीं हैं जहाँ स्वयं परिवार वाले ही ऐसे भयावह कृत्य करने वाले लाडलों को बचाने निकल पड़ते हैं ? ऐसे समाज में इस तरह के हादसे क्यों थमें भला, जहाँ शारीरिक और मानसिक पीड़ा भोगने वाली लड़की को ही गलत ठहराया जाता है ? कभी पहनावे को लेकर कभी घर से निकलने के वक़्त को लेकर | इस घटना के बाद हमें ऐसा पारिवारिक और सामाजिक माहौल तैयार करना होगा कि इस तरह के अमानवीय अपराध करने वाले अगर लचर सरकारी व्यव्स्था के चलते सजा पाने से बच भी जाएँ तो भी समाज और परिवार उन्हें निश्चित रूप से दंडित करेगा । ऐसे अपराधियों को यह आभास होना चाहिए कि ऐसे कुकृत्य करने बाद न परिवार उनका रहा न समाज अब जियें भी तो क्यों? उनका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हो । इस सीमा तक कि वे दंड से बचने की तरकीबें न खोजें बल्कि स्वयं अपने लिए सजा मांगें ।
21 comments:
बहुत सही और सार्थक..लेख..
विल्कुल स्ही और सार्थक लेख
मोनिका शर्मा जी आपका कथन बिल्कुल ठीक है। ऐसे जघन्य कुकृत्यों के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार तत्व अच्छी परवरिश का न होना ही है। आपका आर्टिकल बेहद उत्तम और सार्थक है।
सामाजिक बहिष्कार ही इसकी सबसे उचित सजा है .
बचों को सही संस्कार देने की प्राथमिकता तो सर्वोपरी है ही ...बढ़िया आलेख .
इतनी आबादी वाले देश में कोई भी खडा हो जाए तो ८-१० हजार तमाशबीन तो वैसे ही खड़े हो जाते हैं और जहां का मीडिया भी इतना संवेदनहीन और बे-लगाम हो वहां का तो भगवान् ही मालिक है ... कल हर टी वी चेनल पर इसकी डिबेट चल रही थी और अपने अपने फायदे अनुसार सब इसका इस्तेमाल कर रहे थे ... एक चेनल वाले तो निर्भया के माता पिता को बुला कर इस वीडियो के प्रसारण को जायज ठहरा रहे थे ... सर शर्म से झुक जाता है इतना सब कुछ देख कर ...
बिलकुल सही कहा है आपने। सिर्फ कानून और सजा के बल पर इस समस्या का निवारण संभव नही, कमी हमारे समाज और परवरिश में है जिसे दूर करना ही होगा …
पौराणिक कथाओं में राक्षसो का चित्रण भयावह होता था, ऐसा लगता था कि देव और मनुष्य के बाद तीसरी प्रजाति रही होगी, किन्तु नही। वे सब इसी तरह के मनुष्य थे। तब भी थे आज भी हैं अन्तर सिर्फ इतना है कि वे रात मे विचरण करते थे, ये दिन और रात दोनो मे सक्रिय रहते है। मीडिया तो तमाशबीन नम्बर एक है, सिर्फ टी आर पी के लिये काम करता है।
सब कुछ तेजी से टूटता जा रहा है। न तो बच्चों की परवरिश में संस्कार का ख्याल है और न ही कोई अनुशासन। परिणाम भी वैसा ही होगा।
सुन्दर पोस्ट है आपका।
सार्थक आलेख.
नई पोस्ट : मी कांता बाई देशमुख आहे
पुर्णतः सहमत हूँ आपसे ...निर्भया कांड ने पूरे देश को हिला दिया था। लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला। जिस मानसिकता के चलते निर्भया से बलात्कार हुआ था, उस मानसिकता के लोग अब भी समाज में मौजूद हैं। महिलाएं अब भी असुरक्षित हैं।
एकदम सहमत...सार्थक लेखन एवं चिन्तन..
इस देश में सामूहिक वहिष्कार के स्थान पर पूरा तंत्र एकजुट होकर बचाने में लग जाता हैं तो क्या कहा जाए ?
एक बार जब इंसानियत पर हैवानियत सवार होती है तो फिर जान ले लो या बहिस्कृत करो...कोई दर नहीं बचता...नैतिक शिक्षा से यदि कोई विरत है तो वह हिंसक पशु है जिसका वध समाज के लिए हितकर है।
मौज़ू सवाल उठाती पोस्ट शुरुआत हो चुकी है बेटी बचाओ अभियान से पहले उन्हें आने तो दो जन्मने तो दो।
कम से कम अब हम इस विषय पर विमर्श और विचारों का आदान प्रदान तो कर रहे हैं.. समाधान भी अब ज़रूर आएगा.. समय तो लगेगा ही.. यह कोढ़ हज़ारों वर्षों का है..
सही तो है। कोलकाता में 72 वर्षीय नन के साथ दुष्कर्म जैसा काम ऐसे ही लोग करते हैं। एक दिन महिला दिवस बाकि दिन महिला विवश। हिंदुस्तान का हर परिवार अपने लड़कों को ऐसे संस्कार दे कि वो आगे चलकर जिम्मेदार नागरिक बन सके।
पुरुषों की आदिम सोच को बदलना होगा
एक बहुत ही सार्थक एवं समायिक लेख जो इस समय के सत्य को कहता है।
कोटि कोटि नमन कि आज हम आज़ाद हैं
सार्थक आलेख !
सटीक और सामयिक आलेख। कमी हमारी परवरिश में ही है। जब पिता ही माँ को सम्मान न दे तो बच्चे कैसे नारी का आदर करना सीखेंगे। यह जिम्मेवारी परिवार समाज और पाठशाला तीनों की है। इसके साथ ही लडकियों को मार्शल आर्ट का प्रशिक्षण लेना जरूरी है।
Bahut sarthak aalekh. Yah vimarsh tab tak chale jab take stree ko uska abheesht na mil jaye likhti Raven.
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