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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

25 August 2014

बहती भावनाओं का संकलन…… तुम्हारा नदी हो जाना...

बनवारी कुमावत 'राज' 
आम जीवन से जुड़ा विमर्श और मिट्टी से जुड़ाव की महक । बनवारी कुमावत 'राज'  की कवितायेँ इन्हें अद्भुत ढंग से समेटे है । प्रेम के स्पंदित भाव को समर्पित बनवारी की कवितायेँ जीवन के हर उस रंग को लिए हैं जो कहीं गहरे दस्तक देता है । विचारणीय बात ये है कि  बनवारी की अभिव्यक्ति में भाव भी हैं और प्रभावी बिम्ब भी । दोनों साथ चलते है और पढ़ने वाले को एक प्रवाहमयी धारा  में बहा ले जाते हैं । हर कविता अपने आप में भावों का पूर्ण प्रकटन है । मन की बात बस कह दी जाती है और 'तुम्हारा नदी हो जाना' पढ़ने वाले के मन तक पहुँच भी जाती है । सहज सरल पर प्रभावी भावाभिव्यक्ति । यह बनवारी  का पहला कविता संग्रह  है। 88 कविताओं का ये संग्रह कुछ दिन पहले ही मिला और पढ़कर इस युवा कवि का दृष्टिकोण जाना । हर कविता कुछ कहती सी, बहती सी लगी । जैसे स्त्री मन की अनकही पीड़ा को बहती नदी के बिम्ब ले बनवारी ने कुछ यूँ  शब्दों में उकेरा है ।  

नदी औरत / हमेशा बहती हैं 
सवाल दोनों के मन में है / जवाब 
कोई नहीं देता । 

ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी रचना है 'घर बनाती बेटी' । यह आम जीवन से जुड़ी सी रचना है। घरौंदा बनाती  छुटकी हर आँगन में दिख जाती है । बस, उसी भाव और अवलोकन को लिए है ये कविता  । खुश होकर बेटियां घर बनाती है पर समय के साथ कैसे ढह जाता है उनका ये मिट्टी का घरौंदा और गुम  हो जाती है उनकी खिलखिलाहट, एक कटाक्ष भी है और उस विडंबना का आइना भी जो हमारे समाज और परिवार का अनकहा सच है ।

मिट्टी का घरौंदा बनाती / आज बहुत खुश है
मेरी छुटकी………
अपना घर बनाती बेटी / नहीं जानती  
हाथों की मिट्टी धोने से पहले / ढहा दिया जायेगा घर 
और ढहते हुए घर के साथ / ढह जाएगी 
इसकी खिलखिलाहट/ इसके सपने
संसार……… सब कुछ ।  

बनवारी की कविताओं में प्रेम के रंग भी बिखरे हैं । प्रेम का सहज दृष्टिकोण इन पंक्तियों में परिलक्षित होता है जहाँ प्रेम के अहसास में गुम मन इससे बढ़कर क्या सोच सकता है कि अपने अस्तित्व को ही उसके होने से जोड़ दे । साथ ही स्वयं को मुकम्मल करने के लिए किसी और का अस्तित्त्व विलीन हो जाये ऐसी चाह भी नहीं । बनवारी की ये प्रेमपगी दो रचनाएँ ऐसी ही भाव लिए हैं । 

ये सच है / कि तुम हो 
मेरा होना / इस बात को पुख्ता करता है । 


मुझे समंदर कहकर / तुम्हारा नदी हो जाना 
और फिर दूर पहाड़ों से ज़मीन पर गिरकर / ढूंढते हुए मुझमे मिल जाना 
मुझे अच्छा नहीं लगता / मुझ में मिलकर तुम्हारा खारा हो जाना । 

कविता 'पहली जीत' युवा मन के उत्साह के उस आधार को लिए है जो सकारात्मक भी है और सुखद भी । जिसमें आशाएं तो हैं ही, विश्वास को पुख्ता करने वाले भाव भी भरे हैं । नयी उम्मीद जागती ये रचना बस मन की कहती है ।  

मुरझा गए पौधे पर /ओस की बूंदों से 
जब तुमने लिखा/ वो वक़्त पर 
मेरी पहली जीत थी । 

बनवारी की रचनाओं में गांव, खेत, खलिहान, पनघट, बरगद सब हैं । सब, जो ग्रामीण जीवन की जीवंत अनुभूति करवाते हैं । ऐसी ही एक रचना  है 'कविता में किसान', जो ज़मीन जुड़ी गहरी अभिव्यक्ति लिए है । इसमें बनवारी का ग्रामीण जीवन का देखा जिया अनुभव झलकता है । इस कविता के अंत में कुछ विचार हैं जो एक बड़ा प्रश्न उठाते हैं । कविता में अभिव्यक्त भावों को आधार देते हैं ……… 
शब्दों में महकती हैं फसलें । विज्ञापनों में खिलखिलाते हैं किसान । ये कौन है , जो हल की नोंक थामे पसीने में बह रहा, खुद को किसान कहता है………   यह एक पढ़ने वाली रचना है । मन में हमारे अन्नदाता के प्रति संवेदना जगाती  है । सोचने को विवश करती  है । इस संग्रह में ऐसी ही एक और कविता है 'क्रांति का ज्वार' , जो समाज में बदलाव के नाम पर उपजे दोगलेपन को प्रतिबिंबित करती  है । जिसमें क्रांति के नाम पर आम आदमी के छले जाने और मानवीयता के खो जाने का सन्दर्भ लिए है । ये रचनाएँ आज के दौर का कटु सच सामने रखती हैं । जो मन मष्तिष्क को  झकझोरती है । हकीकत बयां करती है । 

जब गाँव और घर छूटते हैं तो कई रिश्ते नाते भी । ऐसे में माँ से जुड़ा बंधन कभी विस्मृत नहीं होता । वो हमेशा याद आती है और माँ भी हमें याद करती है, हमारा इंतज़ार करती है, ये हम सबका मन जानता है ऐसी ही एक मर्मस्पर्शी रचना है ' माँ ' जो इस संग्रह में शामिल है । यह हर पढ़ने वाले के मन को छूने वाली कविता है ।  

माँ  के हाथों में / ये जो 
आड़ी- तिरछी लकीरें हैं / ये महज लकीरें नहीं 
पीछे छूटते  / मेरे सफर की पगडंडियां हैं ।

बुढा गये घर से पीठ सटाये / माँ घर की नींव बनी बैठी है 
गली के बच्चों से मन बहलाती / माँ तेरा बचपन देखती है ।   

युवा कवि को इस अर्थपूर्ण रचनात्मक प्रयास के लिए बधाई । बनवारी कुमावत 'राज' को सतत लेखन की शुभकामनाएं,  शब्दों और ज़मीन से जुड़ाव का ये भाव सदैव बना रहे । 

25 comments:

अरुण चन्द्र रॉय said...

शुभकामनायें युवा कवि को. बढ़िया लेख.

Banwari Kumawat Raj said...

पुस्तक के मर्म को छुआ है आपने.....निश्चय ही यह मेरी रचनात्मक उपलब्धि है... बेहद सुंदर और अर्थपूर्ण समीक्षा के लिए आपका तहेदिल से शुक्रिया और आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बेहतरीन कवितायेँ हैं, यूँ ही लिखते रहें ...शुभकामनयें बनवारी ...

कालीपद "प्रसाद" said...

सुन्दर समीक्षा ! युवा कवि के लिए शुभकामनाएं !
धर्म संसद में हंगामा
क्या कहते हैं ये सपने ?

Maheshwari kaneri said...

पुस्तक के मर्म को छूते हुए सुन्दर समीक्षा की है मोनिका गी आप ने.....बनवारी कुमावत जी को मेरी तरफ से भी बहुत बहुत शुभकामनाएं

Surendra shukla" Bhramar"5 said...

बहुत अच्छी रही बनवारी जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा हार्दिक शुभ कामनाएं
भ्रमर ५

ज्योति सिंह said...

बनवारी जी की रचनाये बेहद खूबसूरत है ,शुक्रिया मोनिका जी इस परिचय के लिये

Suman said...

बढ़िया समीक्षा की है आपने मोनिका जी,बहुत बहुत शुभकामनायें इस युवा कवि को और उनके इस सुन्दर
रचनात्मक प्रयास के लिए ! परिचय करवाने का आभार !

राजीव कुमार झा said...

बहुत सुंदर समीक्षा.बनवारी जी की कविताएँ बेहतरीन हैं.

कौशल लाल said...

बढ़िया समीक्षा..........बनवारी जी को हार्दिक शुभ कामनाएं ....

Kailash Sharma said...

बहुत सुन्दर और प्रभावी समीक्षा...शुभकामनायें!

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

सुन्‍दर। शुभकामनाएं।

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बढ़िया

lori said...

aap ek achhi lekhak hi nhi, sameekshk bhi hain monika ji!
kawi ki Abhiwyaktiyon ko swar dene me apka koi saani nhi......

abhi said...

जितना भी पढ़ा है इस समीक्षा में, पढ़कर अच्छा लगा. बनवारी जी को जानना भी अच्छा लगा इस पोस्ट के माध्यम से !

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

ब्लॉग बुलेटिन की गुरुवार २८ अगस्त २०१४ की बुलेटिन -- समझें और समझायें प्यार की पवित्रता को – ब्लॉग बुलेटिन -- में आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ...
एक निवेदन--- यदि आप फेसबुक पर हैं तो कृपया ब्लॉग बुलेटिन ग्रुप से जुड़कर अपनी पोस्ट की जानकारी सबके साथ साझा करें.
सादर आभार!

प्रेम सरोवर said...

आपकी संवेदनशील रचना मन के भावों को दोलायमान कर गई। मेरे नए पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है। शुभ रात्रि।

प्रेम सरोवर said...

आपकी संवेदनशील रचना मन के भावों को दोलायमान कर गई। मेरे नए पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है। शुभ रात्रि।

Asha Joglekar said...

बहुत सुुंदर कविताओं की उतनी ही सुंदर समीक्षा। इस पोस्ट से एक और संवेदनशील और ुत्तम कवि के बारे में जाना, पढना होगा
इन्हें।

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत बढ़िया ...

महेन्‍द्र वर्मा said...

समीक्ष से यह स्पष्ट होता है कि बनवारी जी के कविता के कथ्य और कहने का अंदाज़ नितांत नवीन हैं।
युवा कवि के लिए शुभकामनाएं।

Sangeeta Suman said...

सरल शब्दों की जुगलबंदी में बड़ी सहजता से अपनी बात कह देने का आला हुनर रखते हैं कवि बनवारी 'राजÓ... और इसी तरह राज की कविताओं को सार्थक बनाती आपकी यह समीक्षा। कवि को शुभकामनाएं एवं बेहतरीन समीक्षा के लिए समीक्षक को बधाई

दिगम्बर नासवा said...

बनवारी जी के शब्दों में गहरी संवेदना, और नया दृष्टिकोण देखने को मिल रहा है ... बहुत ही प्रभावी अंदाज़ में बातों को रखा है इन्होने ... बहुत बहुत शुभकामनायें हैं बनवारी जी को ...

Dr.NISHA MAHARANA said...

sundar samiksha ...

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर समीक्षा.बनवारी जी की कविताएँ बेहतरीन हैं

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