3-1-2016
पेशे से पत्रकार और संवेदनशील विचारों वाले अतुल श्रीवास्तव जी समाज में मौजूद विषमताओं को लेकर अपने लेखन में अक्सर सवाल उठाते रहते हैं सत्यमेव जयते ब्लॉग के अतुल जी ने देहरी के अक्षांश पर को पढ़ते लिखा है.........
डॉ. मोनिका शर्मा की किताब मुझे लगता है, स्याही से नहीं, भावनाओं से लिखी गई है, इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए........ क्या सरल शब्द, क्या भाव........
पढ़ते हुए एक ही रिश्ता ध्यान में आया "माँ"
अपने विचार दते हुए उन्होंने मेरे संग्रह से यह कविता साझा की है । आभार अतुल जी
फिरकनी
दिन भर फिरकनी सी खटती वो
कितना कुछ थामे रहती है
आँगन की बुहारी
रस्में तीज त्यौहारी
बच्चों की पढ़ाई
बड़ो की दवाई
किसे देनी है कितनी सौगात
कहाँ कहनी है कोई बात
रिश्तेदारी के बुलावे
अपनों के छलावे
कभी बेवजह की रोकटोक
कभी आशाओं की छौंक
लौकिक व्यवहार
मसाले और आचार
दुनियावी बर्ताव
फल-सब्जियों के भाव
बड़ों के ताने
बच्चों के बहाने
कभी दाल भात
कभी संदेह के चक्रवात
जबरन हँसके बतियाने का खेल
तो कभी मन का मन से मेल
रिश्तों की बुनकर सी
वो साधे रहती है ताने बाने को
उलझने नहीं देती कोई डोर
भीतर अैर बाहर
हर ऊँच-नीच को समतल करने में
जुटी गृहिणी को
निरूत्तर कर जाता है
ये प्रश्न-
कि दिन भर घर में करती ही क्या हो? .......आपको शुभकामनाएं, बधाई डॉ. मोनिका शर्मा
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1-1-2016
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आरती प्रसाद जी मर्मस्पर्शी टिप्पणी...... आभार आपका
गृहिणी
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28-12-2015
पेशे से पत्रकार और संवेदनशील विचारों वाले अतुल श्रीवास्तव जी समाज में मौजूद विषमताओं को लेकर अपने लेखन में अक्सर सवाल उठाते रहते हैं सत्यमेव जयते ब्लॉग के अतुल जी ने देहरी के अक्षांश पर को पढ़ते लिखा है.........
डॉ. मोनिका शर्मा की किताब मुझे लगता है, स्याही से नहीं, भावनाओं से लिखी गई है, इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए........ क्या सरल शब्द, क्या भाव........
पढ़ते हुए एक ही रिश्ता ध्यान में आया "माँ"
अपने विचार दते हुए उन्होंने मेरे संग्रह से यह कविता साझा की है । आभार अतुल जी
फिरकनी
दिन भर फिरकनी सी खटती वो
कितना कुछ थामे रहती है
आँगन की बुहारी
रस्में तीज त्यौहारी
बच्चों की पढ़ाई
बड़ो की दवाई
किसे देनी है कितनी सौगात
कहाँ कहनी है कोई बात
रिश्तेदारी के बुलावे
अपनों के छलावे
कभी बेवजह की रोकटोक
कभी आशाओं की छौंक
लौकिक व्यवहार
मसाले और आचार
दुनियावी बर्ताव
फल-सब्जियों के भाव
बड़ों के ताने
बच्चों के बहाने
कभी दाल भात
कभी संदेह के चक्रवात
जबरन हँसके बतियाने का खेल
तो कभी मन का मन से मेल
रिश्तों की बुनकर सी
वो साधे रहती है ताने बाने को
उलझने नहीं देती कोई डोर
भीतर अैर बाहर
हर ऊँच-नीच को समतल करने में
जुटी गृहिणी को
निरूत्तर कर जाता है
ये प्रश्न-
कि दिन भर घर में करती ही क्या हो? .......आपको शुभकामनाएं, बधाई डॉ. मोनिका शर्मा
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मेरे काव्य संग्रह देहरी के 'अक्षांश पर को लेकर 'को लेकर 'बस यूँ ही' ब्लॉग के अमित श्रीवास्तव जी के विचार सहज और सधी भाषा में कही गई एक सारगर्भित टिप्पणी समान हैं । स्त्रीमन को समझने वाले इन विचारों के लिए आपका आभार अमित जी ।
डॉ. मोनिका जी ने जैसे स्त्री के मन का मंथन कर डाला हो और उससे निकले अमृत रुपी भावों को अपनी कविता का रूप दे दिया है । सच ही है कि गृहिणी को कभी उतना महत्व , सम्मान और श्रेय नहीं मिलता जितने की वह हक़दार होती है । आर्थिक स्वतंत्रता का न होना या हर छोटी बड़ी जरूरतों पर पुरुष पर निर्भर होना एक बड़ा कारण होता है । आवश्यकता बस स्त्री के मन को छू कर उसे यह एहसास कराने की है कि परिवार और समाज का वजूद बस उसके वजूद से ही संभव हुआ है ।
स्त्री के जीवन का सार बस इन्ही दो कविताओं में है ,एक "संकल्प और विकल्प " और दूसरा " मौसम " ।
एक बेहतरीन संकलन कविताओं का , बहुत बहुत बधाई डॉ मोनिका जी को
मौसम |
1-1-2016
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आरती प्रसाद जी मर्मस्पर्शी टिप्पणी...... आभार आपका
घर की हर दीवार पर
सजा है दर्पण यों तो
पर दिनभर नहीं मिल पाती मैं
अपने ही प्रतिबिंब से ।
सजा है दर्पण यों तो
पर दिनभर नहीं मिल पाती मैं
अपने ही प्रतिबिंब से ।
गृहस्थी के वयस्तताओं के बीच मैं जब डॉ .मोनिका शर्मा की किताब "देहरी के अक्षांश पर " पूरी पढ़ी ,तो ये लगा की ये तो हर गृहिणी के अंतर्मन की गाथा है । मोनिका जी की कवितायें जैसे एक- एक शब्द हरेक स्त्री के मन के भावों की एक धागे में पिरोई हुई मोतियों की माला हो । आप का बहुत बहुत धन्यवाद । माँ सरस्वती आप पर कृपा बनाएँ रखे .... और हमें ऐसी किताबें पढ़ने को मिलती रहे..... ।
गृहिणी
अपनी
अवणिर्त
अवणिर्त
अकल्पित
अभूतपूर्व
अनमोल
असाधारण
भूमिका के निष्पादन हेतु
नहीं मांगती कोई पारिश्रमिक
न ही पारस्परिक रूप से
चाहती है कोई सेवा -सहायता
उसका अनुरागी हृदय
अधिकार से करता है अपेक्षा
अपनों से - सम्मान भरे व्यवहार की
अभूतपूर्व
अनमोल
असाधारण
भूमिका के निष्पादन हेतु
नहीं मांगती कोई पारिश्रमिक
न ही पारस्परिक रूप से
चाहती है कोई सेवा -सहायता
उसका अनुरागी हृदय
अधिकार से करता है अपेक्षा
अपनों से - सम्मान भरे व्यवहार की
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28-12-2015
प्रवीन मलिक जी खुद घर और बाहर दोनों जगह अपनी ज़िम्मेदारियाँ संभल रही हैं । मेरे काव्य संग्रह को पढ़ने के बाद उन्होंने एक सरल और सार्थक टिप्पणी की है जो गृहिणियों के जीवन की भावभूमि से जुड़े रंग साझा करती है । आभार प्रवीन जी
मोनिका जी आप द्वारा रचित "देहरी के अक्षांश पर" पढ़ा। बहुत ही खूबसूरती से आपने एक गृहिणी के जीवन को उकेरा है । सुना था की गृहिणी के बिना घर घर नहीं होता पर आपकी रचनाएँ पढ़कर और अपने व् माँ के जीवन को देखते हुए लगता है कि ये बिलकुल सही कहा गया है । एक गृहिणी सुबह से लेकर शाम तक शाम से लेकर रात बल्कि हर पल अपने घर परिवार को समर्पित रहती है । उसकी ख़ुशी , उसके सपने , उसकी दुनिया बस उसका घर परिवार ही होता है । वो गृहिणी चाहे कितना भी पढ़ी लिखी हो या फिर अनपढ़ हो पर अपने घर परिवार के गणित को अच्छे से जानती है । अपने घर को स्वर्ग बनाने में वो अपनी हर संभव कोशिश करती है भले ही उसके लिए कितनी भी उपेक्षा से गुजरना पड़े। अपनी इच्छाओं को वो जरा भी मान नही देती अगर बात अपने परिवार की हो तो । माँ को देखा था अक्सर कितने ही समझोते करते हुए । फिर कई बार खुद को भी देखती हूँ कि कई बार मन न होते हुए भी कुछ अनचाहे से रिश्ते निभाते हुए क्योंकि वहां फ़र्ज़ जुड़ा होता है । अपनी सही बात को भी साबित न करते हुए क्योंकि अपनों को दुःख होता है ।
आपका ये संग्रह हर किसी को पढ़ना चाहिए खासतौर से पुरुष वर्ग को अवश्य क्यूँकि अक्सर वही जाने अनजाने ये कहते रहते हैं की आखिर तुम करती क्या हो पूरा दिन ।
आपने लिखा माँ को जाना है माँ बनकर बिलकुल सही लिखा है । माँ को माँ बनकर ही जाना जा सकता है । माँ की परेशानियां , माँ की चिंताएं अब समझ आने लगी हैं क्योंकि अब हम भी माँ हैं । आप ही की रचित रचना से मैं सौ फ़ीसदी सहमत हूँ कौनसी देखिये जरा......
घर की हर दीवार पर
सजा है दर्पण यों तो
पर दिनभर नहीं मिल पाती मैं
अपने ही प्रतिबिम्ब से ।
कितना भी प्रगति कर ले हमारा समाज और हमारे समाज की नारी पर गृहिणी तो ऐसी ही रहेगी और ऐसी ही रहे तो बेहतर है । घर परिवार खुश रहेगा आबाद रहेगा ।
एक किस्सा बताती हूँ अपने ही जीवन का -
एक दिन घर में काम करने वाली सहयोगी(मैड) नहीं आई तो मैं घर में झाड़ू लगा रही थी की पति जी बीच दिन में ही किसी कारणवश घर पर आ गए और मुझे झाड़ू लगाते हुए देखकर मजाक कर बैठे-ओह्ह आज कंपनी की मालकिन झाड़ू कैसे लगा रही है ?
और मेरे मुंह से बस इतना ही निकला क्यूँकि घर में तो मैं एक गृहिणी ही हूँ ना ।
न दिन देखती है न रात
परिवार की सेवा में जुटी
गृहिणी की बस यही खास बात ।
कुछ न करते हुए भी दिन-भर जो खाली नहीं होती वो बस एक गृहिणी ही होती है।
हर गृहिणी की तरफ से आपको बहुत बहुत शुभकामनायें !!
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26-12-2015
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सुधिनामा ब्लॉग की साधना वैद जी ने जब देहरी के अक्षांश पर को पढ़कर अपने विचार दिए तो बहुत ख़ुशी हुयी ।उनके ब्लॉग पर लम्बे समय से उनकी रचाएं पढ़ती आ रही हूँ । मर्म छूने वाली उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति तो कमाल है ही कई सम -सामयिक विषयों पर उनके विचार भी पढ़ने-गुनने योग्य होते हैं । आभार साधना जी, इस हौसला देने वाली विस्तृत टिप्पणी के लिए ।
डॉ. मोनिका शर्मा के काव्य संकलन ‘देहरी के अक्षांश पर’ को पढ़ कर एक अनिर्वचनीय विस्मय के अनुभव से गुज़र रही हूँ ! हैरान हूँ कि इस पुस्तक की रचनाओं में व्यक्त नारी की हर वेदना सम्वेदना, हर व्यथा कथा, हर पीड़ा कैसे विश्व के किसी भी भूभाग में, किसी भी देश में, किसी भी शहर में, किसी भी मकान में अपनी मशीनी दिनचर्या में जुटी किसी भी उदास अनमनी गृहिणी के मनोभावों की हमशक्ल हो जाती है और किसी भी कविता को पढ़ कर उसके मुख से यही उद्गार प्रस्फुटित होते हैं कि ‘ अरे ! यह तो मेरे ही मन की बात है’ या ‘ऐसा ही तो मेरे साथ भी हुआ है’ !
पुस्तक के हर पेज की दीवार पर विभिन्न आकार प्रकार के अनेकों दर्पण टंगे हुए हैं जिनके सामने से निकलने वाली हर नारी को अपना चेहरा उसमें दिखाई दे सकता है ! लेकिन यह भ्रम मन में मत पाल लीजियेगा कि यह केवल नारी प्रधान काव्य संग्रह है ! यह नारी मन की बात अवश्य कहता है लेकिन इसका संवाद उन सभी श्रोताओं के साथ भी है जिन्हें अपने घर में, अपने समाज में और अपने जीवन में नारी के अस्तित्व को लेकर अनेकों भ्रांतियां हैं और जिनमें परिमार्जन और परिष्कार की अपार संभावनाएं हैं !
मोनिका जी की रचनाएं अत्यंत संयत शब्दों में नारी मन की वेदना को अभिव्यक्ति देती हैं ! ये कवितायें मुखर स्वरों में विद्रोह का शंखनाद नहीं करतीं लेकिन धीमी धीमी उष्मा देकर सोये हुओं को जगाती हैं, दर्पण में उनका यथार्थ उन्हें दिखाती हैं तथा क्या है, क्या हो सकता था और क्या होना चाहिये का संकेत देकर अपना अभीष्ट पूरा कर लेती हैं ! इन्हें पढ़ने के बाद मन मस्तिष्क को वैचारिक मंथन के लिये यथेष्ट पाथेय मिल जाता है !
‘अनमोल उपलब्धियां, ‘कुछ आता भी है तुम्हें’, ‘अनुबंधित परिचारिका सी’ ‘फिरकनी,’ ‘सिंदूरी क्षितिज’, रसोईघर’, ‘देहरी के अक्षांश पर’ जैसी रचनाएं जहाँ एक आम गृहिणी की गृहस्थी के मोर्चे पर कभी शेष ना होने वाली भूमिका की ओर संकेत करती हैं तो वहीं ‘अभी बहुत काम पड़े हैं’, ‘यथार्थ की माँग’, ‘देह के घाव’, ‘रिपोर्ट कार्ड’ ‘संकल्प और विकल्प’, ‘घर’, ‘स्त्रियों का संसार’ आदि अनेक रचनाएं हैं जो नारी की चेतना को धीमे से सुलगा कर जागृत करती हैं और उसके अंदर छिपी अनंत शक्तियों से उसका परिचय कराती हैं !
कई रचनाएं ऐसी भी हैं जिनमें कवियित्री स्वयं से रू ब रू होती है और अपने इस रूप पर स्वयं गर्वित और विमुग्ध भी होती है क्योंकि अपने इस रूप में उसे अपनी माँ की छवि दिखाई देती है ! सामाज में व्याप्त अनाचार ने भी कवियित्री को झकझोरा है ! ‘मानुषिक प्रश्न’, ‘बंदूकों के साये’, ‘आखिर क्यों जन्में बेटियाँ’ और ‘आखिर क्यूँ हुए विक्षिप्त हम’ ऐसी ही रचनाएं हैं जिनमें कवियित्री के संवेदनशील हृदय की पीड़ा मुखरित हुई है !
इतने सुन्दर काव्य संकलन को अपने निजी पुस्कालय में संग्रहित करके अत्यंत हर्षित हूँ ! मोनिका जी की कलम को मेरी अनंत अशेष शुभकामनायें ! वे इसी तरह लिखती रहें और अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण के लक्ष्य संधान में निरत रहें यही कामना है ! उनका सशक्त लेखन निश्चित रूप से पाठक को आंदोलित करता है और समाज में विस्तीर्ण अप्रिय व अवांछनीय को बदल डालने की अपार क्षमता व संभावनाएं भी रखता है इसमें कोई संदेह नहीं है ! शुभकामनायें मोनिका जी !
-साधना वैद
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23-12-2015
कुछ अपने से लगने वालों भावों में संजोकर संतोष जी ने मेरे कविता संग्रह को पढ़ते हुए अपनी टिप्पणी दी है ।जितनी सहजता से उन्होंने इन कविताओं के मर्म को समझा उतनी ही सरलता से उन्हें स्त्री जीवन की परस्थितियों से जोड़कर भी देखा है । आभार संतोष जी
व्यस्तताओं को परे कर आज जब ले कर बैठी मोनिका जी की " देहरी के अक्षांश पर" किताब को तो जब तक पूरा ना उतार लिया इसे मन पटल पर , तब तक नहीं छोड़ पाई इसे....
एक एक कविता जैसे जैसे पढ़ती गई ,लगा कि ये तो हर देहरी का चित्रण हैं,,जैसे मेरी ही देहरी का चित्रण हैं ।
एक अनवरत यात्रा करती स्त्री,उपलब्धियों को परे कर गृहिणी हर रुप स्वीकारती ,हर दिन कुछ आता भी हैं तुम्हें सुनती स्त्री,अनचाहें अघात को अनुबंधित परिचारिका बन निभाती,दिनभर फिरकनी सी खटती , फिर भी सुनती की दिन भर घर में करती क्या हों ?
अपनी अनुपस्थिति में याद होती , अलसाई भोर और सिंदूरी क्षितित की अभिलाषा को निहारने का मन ले कर, स्वादहीन व्यंजनों को भी गुड की डली संग ले कर, एक ही प्रश्न पूछती कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें?
अपने ही प्रतिबिम्ब से अनजान, गृहिणी बन ठहर गई एक जगह,, नहीं देखती खिड़की के पार क्यूंकि सीमा पूर्व निर्धारित हैं, अपने एकांत और बेस्वाद जीवन का स्वाद रसोईघर के स्वाद नें ढूढती स्त्री, मावठ में भीगे बावले मन को समझाती, अधूरे सपनों को सहेजती, देह के,मन के घाव छुपाती.....
सात फेरों संग मिले रिश्तो को सहेजती, सूत्रधार बनी सबके जीवन की गतिशीलता को निभाती,,अपने घर रुपी संसार में अनकही बंदिशो के बीच, अपने अस्तित्व को ढूढती, हर रूप को निभाने की अनथक प्रयासो के बीच माँ जैसा पवित्र रूप निभाने में अपना जीवन लगाती स्त्री, माँ के रूप को जितना समझा हैं, आत्मसात किया हैं , वो एक बेटी ही कर सकती हैं, एक माँ बनने के बाद.....
क्यूंकि अब वो माँ को समझती हैं,
अपने स्त्रीत्व पर गर्व करती स्त्री,
अन्त मैं इतना ही सार कि
एक एक कविता जैसे जैसे पढ़ती गई ,लगा कि ये तो हर देहरी का चित्रण हैं,,जैसे मेरी ही देहरी का चित्रण हैं ।
एक अनवरत यात्रा करती स्त्री,उपलब्धियों को परे कर गृहिणी हर रुप स्वीकारती ,हर दिन कुछ आता भी हैं तुम्हें सुनती स्त्री,अनचाहें अघात को अनुबंधित परिचारिका बन निभाती,दिनभर फिरकनी सी खटती , फिर भी सुनती की दिन भर घर में करती क्या हों ?
अपनी अनुपस्थिति में याद होती , अलसाई भोर और सिंदूरी क्षितित की अभिलाषा को निहारने का मन ले कर, स्वादहीन व्यंजनों को भी गुड की डली संग ले कर, एक ही प्रश्न पूछती कि कितनी मैं बची हूँ मुझमें?
अपने ही प्रतिबिम्ब से अनजान, गृहिणी बन ठहर गई एक जगह,, नहीं देखती खिड़की के पार क्यूंकि सीमा पूर्व निर्धारित हैं, अपने एकांत और बेस्वाद जीवन का स्वाद रसोईघर के स्वाद नें ढूढती स्त्री, मावठ में भीगे बावले मन को समझाती, अधूरे सपनों को सहेजती, देह के,मन के घाव छुपाती.....
सात फेरों संग मिले रिश्तो को सहेजती, सूत्रधार बनी सबके जीवन की गतिशीलता को निभाती,,अपने घर रुपी संसार में अनकही बंदिशो के बीच, अपने अस्तित्व को ढूढती, हर रूप को निभाने की अनथक प्रयासो के बीच माँ जैसा पवित्र रूप निभाने में अपना जीवन लगाती स्त्री, माँ के रूप को जितना समझा हैं, आत्मसात किया हैं , वो एक बेटी ही कर सकती हैं, एक माँ बनने के बाद.....
क्यूंकि अब वो माँ को समझती हैं,
अपने स्त्रीत्व पर गर्व करती स्त्री,
अन्त मैं इतना ही सार कि
घर- परिवार की
धुरी वह
फिर भी
अधूरी वह
धुरी वह
फिर भी
अधूरी वह
स्त्री मन के चित्रण को इतना सुन्दर रुप देने के लिये मोनिका जी का धन्यवाद और बहुत बहुत बधाई....
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मेरे पहले काव्य संग्रह को लेकर हौसला देतीं समीक्षात्मक टिप्पणियाँ आपसे साझा कर रही हूँ । जो रश्मि प्रभा जी, डॉ. अरविन्द मिश्रा जी और सारिका चौधरी ने दी हैं। … आप सभी का आभार ।
देहरी के अक्षांश पर ...
कलम में परिवर्तन की आग भरकर, हर परिस्थिति को ध्यान में रखकर लिखना डॉ मोनिका शर्मा की विशेषता है, तभी - बिना उनके आग्रह के मैंने उनका संग्रह "देहरी के अक्षांश पर" मँगवाया, जो बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। नवरात्री के बीच में पुस्तक मेरे हाथ में थी, शक्ति शक्ति के आगे नतमस्तक थी।
मोनिका के शब्दों को जेहन में रखकर संग्रह को पन्ने पन्ने पढ़ा है, "अच्छा लग रहा कि एक गृहणी के तौर पर जिस आँगन में जिम्मेदारियों से जूझते हुए, एक- एक अक्षर और शब्द को सहेजते हुए अपने सृजनकर्म आगे बढ़ा रही हूँ वह पुस्तक के रूप में मेरे सामने है । हालाँकि नियमित लेखन और घरेलू उत्तरदायित्वों को निभाते हुए यह कर पाना कठिन भी रहा
ऐसे में सभी सखियों से कहना चाहूंगी कि हमारे सामाजिक-पारिवारिक ढाँचे में महिलाओं का सृजनशील रहना आसान काम नहीं है । लेकिन खुद को सक्रिय रखिये । हर परिस्थिति में और उम्र के हर पड़ाव पर । आप जिस क्षेत्र से भी जुड़ी हैं, चलती रहिये । ठहराव ना आने दीजिये । हाँ, मुश्किलें भी आएँगी और सब कुछ सहजता से भी नहीं होगा | लेकिन क्रियाशील रहिये .... सबको संभालिये लेकिन आपके भीतर जो आप बसती हैं.... उसे जीवित रखने की जिम्मेदारी भी उठाइये ।"
घर परिवार की धुरी वह
फिर भी अधूरी ....
यह है एक संक्षिप्त भाव उस बहुत गहरी स्थिति का, जिसे हम समझते हुए भी नहीं समझते, जिसे देहरी के आगे ज्वलंत शब्दभावों के तेल से भरकर मोनिका ने अखंड जलाया है ! मैं कोई समीक्षक नहीं, लेकिन जीवन की इन बारीकियों को बारीकी से पढ़ने की कोशिश करती हूँ, क्योंकि उस अक्षांश के अनुभवों से गुजरी हूँ ! गौर कीजिये इस संग्रह पर और इस समर्पण पर -
"गृहस्थी की धुरी पर सतत संघर्षशील माँ को समर्पित "
"देहरी के अक्षांश पर":एक फेसबुकीय टिप्पणी
अनेक तरह की सामजिक सीमाओं और वर्जनाओं में प्रतिपल कैद रहने वाली गृहिणी की अपनी पहचान स्थापित करने की कशमकश और कशिश कवयित्री के पहले कविता संकलन 'देहरी के अक्षांस पर' में बेलौस अभिव्यक्त हुयी है। उसके हर पल का संघर्ष, परिवार समाज के प्रति उसकी ईमानदार प्रतिबद्धताओं की निरंतर अनदेखी से उपजा आक्रोश इस संकलन की कविताओं में अपनी रचनात्मक नि:सृति और शमन पाता है।
देहरी या चौखट का प्रतीक उसकी असीम ऊर्जावान संभावनाओं पर पितृसत्तात्मक अंकुश को बयां करता है। वह जीवन के हर पल की विसंगतियों में जहां तालमेल और संतुलन बनाने का जीतोड़ संघर्ष करती हैं वहीं उसके हिस्से की शाश्वत विडंबनाएं उसे संतप्त किये रहती हैं और इसी द्वंद्व से फूटती है कविता की अजस्त्र धार जो बहुत ही सहजता से बेबस और विवश किन्तु निरंतर संघर्षरत नारी की अंतर्कथा को व्यक्त कर जाती है। कवयित्री निसंदेह एक सिद्धहस्त शब्द शिल्पी भी हैं और उनकी यह क्षमता कविताओं की बुनावट में एक विशिष्ट प्रभावान्विति उत्पन्न करती है।
इस संकलन पर कवयित्री डा.मोनिका शर्मा को कोटिशः बधाई। अभी उनसे बड़ी उम्मीदें हैं!
मोनिका दी की लिखी किताब 'देहरी के अक्षांश' पर एक शब्द में कहूँ तो पूर्ण रूप से एक स्त्री व माँ को समर्पित किताब हैं.....इनकी लिखी मन की बात सच मन को छू जाती हैं.....कुछ कविताएँ बहुत छोटी होने के बाद भी सन्देश बड़ा देती हैं...."अनमोल उपलब्धियां" नामक कविता पढ़कर आप स्त्री के त्याग को बख़ूबी समझ सकते हैं......आप हर कविता पढ़कर बस मन में एक ही बात सोच पाते हैं अरे, यह तो मेरे ही बारे में लिखा गया हैं.....और मोनिका दी की यह खूबी हैं कि वो जो लिखते हैं उसमें पाठक अपने आपको उन शब्दों के करीब पाता हैं, उसे यहीं लगता हैं कि हां, यह तो मेरे ही बारे में लिखा गया हैं.....इनकी माँ पर लिखी गई कविताएँ बताती हैं कि यह खुद भी एक बेहद अच्छी व प्यारी माँ हैं और बेटी भी। तभी तो अपने आपको माँ से भी बख़ूबी जोड़ लेना आता हैं ।
.बेटियों को समर्पित "उड़ान के लिए" एक बेहद अच्छी कविता हैं जिसकी आखरी पंक्ति ' अपने ही काट देते हैं उनके स्वप्न-पंख' बिल्कुल सही व सार्थक हैं......चाहे कुछ भी करो पर कभी खोना मत बेटियों बात में दम है। "आभासी अभिव्यक्ति" भी एक बेहतरीन कविता है
और हम गदगद हैं
कि क्लिक से क्रांति आ रही हैं …
"स्त्री हूँ मैं" कविता पूरा प्रभावित करती हैं और अपने होने के वजूद पर मुझे भी थोड़ा गौरवान्वित करती है। "मनुष्यता के मोर्चे" नामक कविता अपने आपमें बिल्कुल सही व सार्थक हैं......कुछ कविताएँ शब्दों पर लिखी गई हैं और शब्दों पर इनके द्वारा कुछ लिखा गया मैंने पहले भी इनके ब्लॉग पर भी पढ़ा है। इतनी अच्छी पकड़ हैं इनकी शब्दों पर जो बख़ूबी बताते हैं कि यह शब्दों का महत्व जानते हैं तभी तो शब्द, मात्र अक्षरों के समूह भर से कहीं अधिक हैं इनके लिए । अब यूँ एक-एक कविता का जिक्र करूँ तो शायद पोस्ट बेहद बड़ी हो जायेगी । पर बस इतना हैं कि यह हर एक गृहिणी को समर्पित किताब है फिर चाहे वो मेरी माँ हो या मोनिका दी की या आप सबकी अपनी । .आप उनकी अनुपस्थिति में ही उनकी कीमत अच्छे से समझ पाते हैं कि सच गृहणी किसी भी नौकरीपेशा औरत से कम नहीं है ।
गृहिणी एक साधारण स्त्री होकर भी सच में भूमिका असाधारण निभाती है.....यह किताब पूरी तरह से एक गृहिणी व गृहस्थी की धुरी पर सतत् संघर्षशील माँ को समर्पित है। सबको एक बार जरुर पढ़नी चाहिए पाठक की तरह मेरी भी यहीं राय है । मोनिका दी का शुक्रिया औरतों को इतना मान व सम्मान देने के लिए।
2 comments:
यह पुस्तक पढी तो है पर पास में है नंही हैं ......
गया था लेने को पर कंही नजदीक उपलब्ध मिली नंही...
पर इसमें एक अनोखा रस जरुर हैं
बहुत सुन्दर पुस्तक का व्यख्यान हार्दिक बधाईयाँ।
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