लड़का होकर रोता है ? या लड़के रोते नहीं। जैसी सीख हमारे परिवेश में आम है | परिवार, रिश्तेदार, दोस्त यहाँ तक कि अभिभावक भी, बेटों को यही सिखाते हैं कि लड़के रोते नहीं | इतना ही नहीं फिल्मों और टीवी सीरियलों में यह वाक्य आम है | ऐसे में जब घरेलू हिंसा के आंकड़े सामने आते हैं तो लगता है कि लड़के रुलाते नहीं यह भी तो सिखाया जाना चाहिए | बेटों को अपने जज़्बातों पर काबू पाने का पाठ पढ़ाना सही है पर औरों के जज़्बात समझने की संवेदनशीलता भी तो उनके सबक का हिस्सा बननी चाहिए | जाने-अनजाने बेटों को ना रोने की सीख देते हुए यह भी सिखा दिया गया कि घर हो या बाहर किसी महिला का रोना कोई बड़ी बात नहीं | उन हालातों को समझने की दरकार ही नहीं जिसके चलते किसी बेटी, बहू, पत्नी या माँ की आँखें गीली हैं | दरअसल, यह असंवेदनशीलता और अनदेखी ही लैंगिक भेदभाव और यौन हिंसा की जड़ है | घरेलू हिंसा की सबसे बड़ी वजह यह भावनात्मक असहिष्णुता ही है | मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि घर हो या बाहर महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के पीछे पुरुषों की परवरिश की अहम् भूमिका होती है | दरअसल, बुनियादी सोच में बदलाव आये बिना घर के भीतर सम्मानजनक और सुरक्षित व्यवहार स्त्रियों के हिस्से नहीं आ सकता है | यह मनुष्यता के मान का मामला है | स्त्री- पुरुष के भेद से परे हर इंसान के आत्मसम्मान का मोल समझने का विषय है | ऐसे में बेटों की परवरिश के मोर्चे पर सोचा जाना बेहद जरूरी है | माएं इस भूमिका में समाज को बदलने वाला रोल निभा सकती हैं | ( लेख का अंश )
जी नमस्ते, आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-04-2019) को "भीम राव अम्बेदकर" (चर्चा अंक-3306) पर भी होगी। -- चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है। जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित है - अनीता सैनी
ये बातें कई बार बेटों पर उलट भी पड़ जाती हैं वो अपना दुःख पीते रहते हैं और टूट भी जाते हैं ... नारी अपना दुःख कह के बाँट लेती है पर पुरुष अपने दंभ में जहर पीता रहता है ... मेरा मानना है बीटा बेटी कोई फर्क नहीं होना चाहिए किसी भी बात के लिए ... दुःख में दुखी होना, रो उठाना स्वाभाविक होना चहिये ...
आपकी बात बिल्कुल सही है. जो व्यक्ति रो नहीं सकता उसके मनुष्य होने में संदेह है, चाहे वो पुरुष हो या स्त्री. मुझे आज भी याद है कि मेरे दादा जी घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा करके मुझे रश्मिरथी का पाठ करने को कहते थे. और प्रत्येक सर्ग के किसी न किसी अंश में उनके रोना नहीं रुकता था और आँसू नहीं थमते थे. यही बात हम सब भाइयोंंके साथ है. कोई अच्छा गीत, कविता या फिल्म का कोई सम्वाद सुनते ही आँखें भर आती हैं.
9 comments:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-04-2019) को "भीम राव अम्बेदकर" (चर्चा अंक-3306) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
- अनीता सैनी
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति राष्ट्रीय अग्निशमन सेवा दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ये बातें कई बार बेटों पर उलट भी पड़ जाती हैं वो अपना दुःख पीते रहते हैं और टूट भी जाते हैं ... नारी अपना दुःख कह के बाँट लेती है पर पुरुष अपने दंभ में जहर पीता रहता है ...
मेरा मानना है बीटा बेटी कोई फर्क नहीं होना चाहिए किसी भी बात के लिए ... दुःख में दुखी होना, रो उठाना स्वाभाविक होना चहिये ...
सटीक
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 17 अप्रैल 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत खूब...
आपकी बात बिल्कुल सही है. जो व्यक्ति रो नहीं सकता उसके मनुष्य होने में संदेह है, चाहे वो पुरुष हो या स्त्री. मुझे आज भी याद है कि मेरे दादा जी घर के सभी सदस्यों को इकट्ठा करके मुझे रश्मिरथी का पाठ करने को कहते थे. और प्रत्येक सर्ग के किसी न किसी अंश में उनके रोना नहीं रुकता था और आँसू नहीं थमते थे. यही बात हम सब भाइयोंंके साथ है. कोई अच्छा गीत, कविता या फिल्म का कोई सम्वाद सुनते ही आँखें भर आती हैं.
अच्छा लगा !किसी ने तो समझी मन की उलझन
हाँ , ऐसा भी होता है | वैसे मानवीय मूल्य तो सभी लिए जरूरी हैं |
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