नार्वे में भारतीय मूल के अभिभावकों से उनके बच्चे इसलिए ले लिए गए क्योंकि बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाना और अपने साथ सुलाना , इस देश में बच्चों की उचित देखभाल न होने का मामला है । सात महीने तक अपने माता-पिता से अलग रहने के बाद खबर है कि अब दोनों बच्चों को उनके चाचा को सौंपा जायेगा ।
पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो अपने बच्चों को अपने साथ नहीं सुलाते और हाथ से खाना भी नहीं खिलाते । बच्चों को लेकर बने नियम -कानूनों में बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मौखिक रूप डराना या ऊंची आवाज़ में बात करना भी गैर कानूनी है । ये यहाँ के कानून भी हैं और सामाजिक- पारिवारिक मानसिकता भी। यहाँ बच्चों की परवरिश भी पूरी तरह औपचारिकता के साथ की जाती है । हमारे देश में तो ऐसे समाचार सबको चौंका देने वाले हैं कि नवजात बच्चों को भी अपने साथ तो क्या अपने कमरों में भी नहीं सुलाया जाता ।
पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो अपने बच्चों को अपने साथ नहीं सुलाते और हाथ से खाना भी नहीं खिलाते । बच्चों को लेकर बने नियम -कानूनों में बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मौखिक रूप डराना या ऊंची आवाज़ में बात करना भी गैर कानूनी है । ये यहाँ के कानून भी हैं और सामाजिक- पारिवारिक मानसिकता भी। यहाँ बच्चों की परवरिश भी पूरी तरह औपचारिकता के साथ की जाती है । हमारे देश में तो ऐसे समाचार सबको चौंका देने वाले हैं कि नवजात बच्चों को भी अपने साथ तो क्या अपने कमरों में भी नहीं सुलाया जाता ।
इन देशों की जीवन शैली में एक बात हमेशा से रही है । यहाँ विज्ञान से जुड़ी बातों को ही सब कुछ माना जाता है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर कभी भी रिश्तों के बारे में उस तरह से नहीं सोचा जाता जैसा हमारे यहाँ होता है । बच्चों को हाथों से ख़िलाना या साथ सुलाना भी यहाँ विज्ञान से जुड़ा विषय ही है । अनगिनत रिसर्च आये दिन लोगों के सामने लायीं जाती हैं कि क्यों बच्चों को साथ न सुलाया जाय ? बच्चों के लिए को-स्लीपिंग के क्या खतरे हैं ?
आमतौर पर बच्चों को दूर रखने की जो वजहें दी जाती हैं उनमें कुछ बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े बिंदु हैं और कुछ उनके साथ बिस्तर में हो सकने वाली दुर्घटनाओं का अंदेशा । यहाँ गौर करने की बात यह है कि भारतीय परिवारों से अलग पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली भी इन कठोर नियमों के लिए जिम्मेदार है । वहां शराब और सिगरेट का चलन बहुत पहले से और बहुत ज्यादा है, खासकर माताओं में । इसीलिए कई बार नशे की हालत में रात को कुछ माता- पिता होश में ही नहीं रहते और बच्चों पर रोलओवर कर जाते हैं । इस तरह के मामलों में कई नवजात बच्चे साँस घुटने के चलते जान भी गवां बैठे हैं । हर साल वहां ऐसे हादसे होते हैं जिनके आंकड़े स्वास्थ्य विभाग लोगों के सामने रखता है । इसके आलावा निकोटिन के सेवन से पैसिव स्मोकिंग का खतरा भी बना रहता है जिसके चलते डाक्टर्स भी यह सलाह देते हैं कि बच्चों को अपने साथ न सुलाया जाये । इन देशों में बच्चों को अभिभावक अपने साथ सुलाएं या नहीं यह एक बड़ा विवादास्पद मुद्दा है।
इस विषय पर जो भी कारण दिए जाये हैं वे वैज्ञानिक स्तर पर तो सही हो सकते हैं पर किसी भी भारतीय अभिभावक के मन के लिए तो ये समझ से परे है कि बच्चों के पालन पोषण में औपचारिकता आ जाये । यक़ीनन बच्चों को पालना उन्हें बड़ा करना सिर्फ विज्ञान का नहीं मनोविज्ञान का विषय है । हमारे यहाँ तो आज भी जिस परिवार में छोटा बच्चा होता है, उस घर का हर सदस्य लाइन लगा के खड़ा हो जाता है कि आज ये नन्हा मेहमान किसके साथ सोयेगा , किसके साथ खायेगा...?
भावनात्मक अलगाव को आधार बना इस भारतीय परिवार से बच्चों को दूर कर दिया गया । अब मन में बस यही उहापोह है कि अपने बच्चों को अपने हाथों से खिलाना,अपने साथ सुलाना भावनात्मक लगाव कहा जाये या अलगाव ।
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है । रात के समय नीद में भयभीत होने पर माँ के हाथ की हलकी सी थपकी पाकर ही बच्चे गहरी निश्चिंत नींद सो जाते हैं । बच्चों में बड़े होकर जो सामजिक भाव पनपते हैं उनमें माता-पिता का यह साथ बहुत मायने रखता है जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े रखता है । ख़ुशी है कि हमारे यहाँ आज भी बच्चों को बड़ा करना महज जिम्मेदारी पूरी करना भर नहीं है । पश्चिमी देशों में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है । शायद यही कारण है कि समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं ।
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है । रात के समय नीद में भयभीत होने पर माँ के हाथ की हलकी सी थपकी पाकर ही बच्चे गहरी निश्चिंत नींद सो जाते हैं । बच्चों में बड़े होकर जो सामजिक भाव पनपते हैं उनमें माता-पिता का यह साथ बहुत मायने रखता है जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े रखता है । ख़ुशी है कि हमारे यहाँ आज भी बच्चों को बड़ा करना महज जिम्मेदारी पूरी करना भर नहीं है । पश्चिमी देशों में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है । शायद यही कारण है कि समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं ।
97 comments:
हमे तो अपने देश की शैली ही पसंद है। नार्वे का सिस्टम समझ से परे है।
आप को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
विचारणीय पोस्ट ....सहमत हूँ आपके विचारों से
कुछ रिश्तों को कानूनी या औपचारिक झमेले से दूर रखना ही बेहतर होगा.बच्चे प्यार और स्नेह से पाले जाते हैं , नियम-कायदों से नहीं !
नॉर्वे की घटना वाकई दुःखद (और शर्मनाक भी) है। लेकिन आपके आलेख में दोनों पक्षों और उनके कारकों को जिस संतुलन के साथ प्रस्तुत किया गया है वह हिन्दी ब्लॉगिंग में कम ही दिखता है।
मामला अंतर्राष्ट्रीय हो चुका है। शायद नॉर्वे प्रशासन को सभ्यता की विविधता समझ आयेगी और मासूम बच्चों को जल्दी ही उनके माता-पिता वापस मिलेंगे। गणतंत्र दिवस की पूर्वसन्ध्या पर भारत सरकार के प्रतिनिधियों को अपने चार निर्दोष नागरिकों के पक्ष में रीढ सीधी करके खड़ा होना सीखना पड़ेगा।
गणतंत्र दिवस की बधाई!
यह समाचार सुनकर बस यही निकला था मुँह से,
विचित्र लोगों का विचित्र देश।
जैसा वो करते हैं हम वैसा सोच भी नहीं सकते हैं।
कृपया इसे भी पढ़े-
क्या यह गणतंत्र है?
क्या यही गणतंत्र है
Bachhon kee parwarish pyaar aur aatmeeyase honee chahiye na ki qaanoonan!
मैं इसके साथ इसका एक और पहलू देखता हूँ जिसे हमारे देश के लोगों को देखना चाहिये.
कोई तो देश ऐसा है जहाँ फोर्स फीडिंग को लेकर इतने सख्त नियम हैं कि ऐसा होने पर बच्चों को अलग रख दिया जाता है. और हमारे यहाँ बच्चों को खाने के लिए भी नहीं है. दस दस साल के बच्चे नौकर के रूप में ऐसे लोगों के यहाँ लगे हैं जो बाल श्रम रोकने के अधिकारी हैं. नार्वे से तो बच्चों को अवश्य छुडाया जाए और हमारे यहाँ सभी बच्चों की स्थिति सुधारने के लिए कठोर उपाय किये जायें.
'स्पर्श' को पश्चिमी संस्कृति आज भी पूर्णतः physical मानती है, जबकि हमारी संस्कृति में इसके spritual महत्व हैं. अभी भी ये शोध की केंद्र-बिंदु से बाहर हैं. परन्तु निस्संदेह, ये 'लगाव' जो physical न होकर 'spiritual' है, इसे मायने पश्चिमी संस्कृति के लोगों के समझ में आ पाना कठिन है!
बहुत ही अच्छा आलेख है आपका, सधन्यवाद!
नॉर्वे प्रशासन की इस घटना को अच्छे आलेख में प्रस्तुत किया आपने |
आप को इस गणतंत्र दिवस की ढेर हार्दिक शुभकामनाएं |
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता ।
खुबसूरत प्रस्तुति , धन्यवाद |
पश्चिमी देशों कि तो सभ्यता हि अलग है
उनके सोचने का रहने का तरीका भारतीय सभ्यता से बहूत भिन्न है
इससे अच्छा तो हमारी देश कि सभ्यता है जो बच्चो को उनके माता पिता से दूर नही करती है ....
बेहतरीन पोस्ट है
क्या यह सभ्यता इसी धरती की सभ्यता है ? मैं तो हतप्रभ हूँ!
इन जोकरों के लिए आदमी भी मशीन है.
इस बारे मै तो अपना भारत हि महान है ।
नया हिन्दी ब्लॉग
हिंदी दुनिया
सभ्यता और मानसिकता के इस टकराव में बच्चे सुलझा आलेख . गणतंत्र दिवस की बधाई .
पश्चिमी सभ्यता हमारे संस्कृति को भी दूषित कर रही है...इस से बड़ा उदहारण कोई अन्य नहीं...गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना !
मैं तो आपकी बात से सहमत हूँ
गणतंत्र दिवस की शुभकामनायें ..जय हिंद !!
ऋतू बंसल
kalamdaan.blogspot.com
सही कहा आपने .
kaise kaise log !
मुझे तो किसी भी ततीके से उनकी बात गले नहीं उतरती ... ये जरूर लगता है की अपने क़ानून के नाम पे वो कुछ भी कर लेते हैं दूसरे मूल के लोगों के साथ ...
जी हाँ इस विषय से संबन्धित आपने जो तर्क दिये है वह सौफी सदी सही हैं। लेकिन इस घटना को लेकर मुझे भेदभाव ज्यादा नज़र आया क्यूंकि जैसा मेरा अनुभव रहा है, ऐसे किस्से ज्यादा तर UK में उन जगहों पर ज्यादा होते हैं, जहां अंग्रेजों की जनसंख्या ज्यादा होती है और ऐसे स्थान जहां भारतीय लोग ज्यादा रहते हैं। जैसे लंदन या इसके आस पास का इलाका वहाँ ऐसी घटनाएँ बहुत कम सुनने में आती है।
ऐसा मुझे इसलिए ज्यादा महसूस हुआ क्यूंकि जिस समय वो उन बच्चों को लेगाए थे तब बच्ची कि उम्र मात्र 4 महीने कि थी और इतनी छोटी बच्ची अपने आप अपने हाथ से नहीं खा सकती है। यह खुद वो भी जानते है। यह अंग्रेज़ लोग खुद भी ऐसा ही करते हैं। मगर एक हिन्दुस्तानी ने किया तो राई का पहाड़ बना दिया उन्होने इस सब से ही साफ ज़हीर होता है, कि सब एक जानबूच के कि गई साजिश के जैसा है
सबके अपने अपने तर्क हैं अपने अपने तरीके हैं पर क्या मां के दुलार, पिता की डांट के बगैर बडा होने की कल्पना हम कर सकते हैं.. नहीं....
बढिया पोस्ट।
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं....
जय हिंद... वंदे मातरम्।
पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली भी इन कठोर नियमों के लिए जिम्मेदार है । वहां @ शराब और सिगरेट का चलन बहुत पहले से और बहुत ज्यादा है, खासकर माताओं में । इसीलिए कई बार नशे की हालत में रात को कुछ माता- पिता होश में ही नहीं रहते और बच्चों पर रोलओवर कर जाते हैं ।
क्या ऐसी जीवन शैली पश्चिमी देशों में आम है कि इन दुर्घटनाओं की सावधानी के लिए ऐसे असम्वेदनशील कानून बनाने पडे?
बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति|
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें|
सही विश्लेषण किया है आपने. पश्चिमी देशों में जो संस्कृति है उसके तहत वाकई कई जगह बच्चे सफर करते हैं परन्तु हमारे भारतीय परिवेश में यह सब सोचना भी असंभव है और इस संस्कृति भेद को है देश और सरकार को सोचना समझना चाहिए.
news channels par ye khabar aajkal khoob chhaai hai..aapne jo insight dee hai ki kyon europe mein bachchon ko sath nahin sulaate wo kaafi informative lagaa..thnks for writing on this sensitive issue.
तभी तो हृदयहीन नागरिक तैयार हो रहे हैं जो बंदूक चलाकर मासूमों की जान लेने से भी नहीं कतराते॥
ham to theth bhartiya hain, aise hi rahenge, aur aise hi bachche palenge bhi..:)
आपके विचारों से सहमत हूँ ,पर हर देश के अपने कानून-नियम होते हैं तथा उनका पालन करना भी अनिवार्य होता है|जहाँ तक भावनाओं की बात है हम सही हैं और जहाँ सिस्टम की बात आती है तो हमारे पास कोई जवाब नहीं है | यहाँ तो माता-पिता को उनका बच्चा मिल जायेगा क्योंकि हम सही हैं पर आगे हमें ध्यान भी रखना होगा |
पश्चिमी देशों कि तो सभ्यता हि अलग है
उनके सोचने का रहने का तरीका भारतीय सभ्यता से भिन्न है|
हमें तो अपने देश की ही सभ्यता पर गर्व है.यहाँ भावात्मक संबंध तो है.. गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं.
इसी विषय के एक ब्लॉग पर मैंने नीचे लिखी टिप्पणी दी थी...उसे पुनः चेप रहा हूँ...
एक हिन्दुस्तानी होने के नाते मै इस घटना से विचलित हूँ...पर...विकसित देशों में एक खूबी है...कि कानून सबके लिए एक है...जिस देश में हम रह रहे हैं वहां अपना कानून घुसेड़ना उचित नहीं होगा...उनके यहाँ बचपन से ही सोरी / थैंक्यू सिखाया जाता है...सिविक सेन्स, सीट बेल्ट और ट्रेफिक रुल घुट्टी में पिलाये जाते हैं...आज़ादी की जो परिभाषा हमारे यहाँ है कि जहाँ मर्ज़ी वहां थूको...बच्चों को संस्कार के नाम पर पीटो...बड़ों और ताकतवर को कुछ भी करने कि छूट हो...ऐसी आज़ादी तो...बस...यहीं अस्तो...यहीं अस्तो...यहीं अस्तो...
स्वास्थ्यगत पहलुओं के बारे में हमें पश्चिम से सीखना चाहिए और पश्चिम को भावनात्मक पहलुओं के बारे में पूरब से। करुणा की दृष्टि से पश्चिम मुझे बहुत पीछे नहीं दिखता। हमें अपने बिखरते ताने-बाने के प्रति भी सतर्क रहने की ज़रूरत है।
कानून से परे........माँ के प्यार में निस्वार्थ भाव को समेटती विचारणीय पोस्ट ....
बहुत संतुलित लेख!
ये फैसला मुझे तो बहुत क्रूर नजर आ रहा हैं|
राधारमण जी से भी सहमत हूँ कुछ बातें उन्हें हमसे तो कुछ हमें उनसे सीखने की जरूरत है|
पता नहीं संस्कृति के सशक्त पक्ष इन्हें कब समझ में आयेंगे।
Debatable topic..Again no general rule can be applied..
Anyway, In INDIA..though our constitution says RULE OF LAW...but we know we have rule of devil in India..leave these in depth rules to think about, we even not follow traffic rules..
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है ..
आदरणीय मोनिका जी ..उहापोह की स्थिति कुछ नहीं बच्चे प्यार और ममता से पाले जाते हैं दिल से लगा के रखे जाते हैं नैनों में बसाए जाते हैं पलकों से धूप छाँव बचाया जाता है तब बनता है ये प्यारा जहां ..
सुन्दर लेख जय श्री राधे ..
भ्रमर ५
congratulation for precious and HEART touching BLOG. realy you are devoted and dedicated MOTHER.
THANKS
सुन्दर ज्ञान के लिए बधाई .
अपनी अपनी सभ्यता और संसकृति में रचे बसे person और उनकी अपनी सीमाएं उस पर सामाजिक व्यवस्था रीती रिवाज और उसके ऊपर आधुनिकता शायद यही कुछ बातें हमें अपनी संतान से जोड़ती हैं या अलग करती हैं .
आप एक समर्पित माँ होने के नाते बेहतर जानती है
अवकाश मिले तो २०११ के [ जीना सिखलाएँ ] लेख का अवलोकन करें
सुन्दर ज्ञान के लिए बधाई .
अपनी अपनी सभ्यता और संसकृति में रचे बसे person और उनकी अपनी सीमाएं उस पर सामाजिक व्यवस्था रीती रिवाज और उसके ऊपर आधुनिकता शायद यही कुछ बातें हमें अपनी संतान से जोड़ती हैं या अलग करती हैं .
आप एक समर्पित माँ होने के नाते बेहतर जानती है
अवकाश मिले तो २०११ के [ जीना सिखलाएँ ] लेख का अवलोकन करें
बिल्कुल सही कहा है आपने ...गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं ।
मोनिका जी,
हमारे सामाजिको मूल्यों की पैरवी करते हुए विचार जरूर झंझोड देते हैं क्यों हमारे यहाँ भी पश्चिम के अंधानुकरण की वज़ह से कुछ लोग अब बच्चों को अपने से दूर करने लगे हैं और अंततः यही बच्चे हमसे बहुत दूर हो जाते हैं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
और सबसे बड़ी दुःख की बात ये है की इस देश में भी इनकी भौंडी नकल शुरू हो चुकी है.........बहुत सटीक लेख है आपका|
आपके इस उत्कृष्ठ लेखन के लिए आभार ।
ममतावश अपने हाथ से पोसा हुआ पौधा, पिल्ला, या फिर कोई भी बालक प्यारा होता है.
बड़े मनोयोग से अपने हाथों बनायी कृति लुभाती हैं.
भूख में अपने हाथ से पका अन्न कैसा भी हो अच्छा और स्वादिष्ट लगता है.
हमारी संस्कृति में स्पर्श का बड़ा महात्म्य है.... इसी कारण स्पर्श-चिकित्सा भी की जाती है....
'स्पर्श' भावों से सम्बद्ध क्रिया है..... जिसका प्रभाव अचूक और अत्यंत प्रभावी होता है.
इसका प्रयोग सन्त हमेशा करते हैं... और परिवारों में हमारे अभिभावक भी इसका खुलकर प्रयोग करते हैं.
मेरे विचार से तो माता -पिता और बच्चों के आपसी संबंधों को कायदे-कानून से दूर ही रखे तो ही अच्छा है ...
हम ऐसे नियम काएदे से बंधे नहीं है तभी तो अब भी अपनों से बंधे हुए हैं...जुड़े हुए हैं..
सार्थक लेखन...
aapke aalekh se jo vichar mile aur ghatna ka varnan mujhe kaphi prabhavit kar gaya. ham kuch kar to nahi sakte lekin apne vichar se samaj ko avashy jaga sakte hain.
बच्चे प्यार और स्नेह से पाले जाते हैं , नियम-कायदों से नहीं ,शायद नॉर्वे प्रशासन को समझ आयेगी.
आपके आलेख से पूरी तरह से सहमत हूँ।
सादर
भावनात्मक स्नेह ही ...भारतीयों की सच्ची पूंजी है
शुभकामनाएँ!
बहुत सार्थक सोच..शायद यही कारण है कि वहां रिश्तों में लगाव की कमी है...विचारणीय आलेख..
आपके कथन से शत-प्रतिशत सहमत।
समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं । बहुत सार्थक पोस्ट
इन देशों में ये कानून भी बनना चाहिए कि छोटे बच्चों की माताएं नशीली चीजों का सेवन न करें
@माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है ।
बिल्कुल सही विचार हैं।
यह अनुचित है कि विज्ञान की आड़ में बच्चों के साथ वस्तुओं की तरह व्यवहार किया जाए।
मोनिका जी लोग रोबोटिक होते जा रहे है और संवेदना मर रही है सो उनसे क्या उम्मीद? बस संधर्ष करते रहिए, जिंदगी यही है।
अपनी सभ्यता और संसकृति के
भावनात्मक मूल्य सर्वोपरि हैं, दुनियां वालों के कुछ भी हो.
जिस परिवार में छोटा बच्चा होता है, उस घर का हर सदस्य लाइन लगा के खड़ा हो जाता है कि आज ये नन्हा मेहमान किसके साथ सोयेगा , किसके साथ खायेगा...
बिलकुल सही है
वैसे आपके आलेख में दिए गए कारण भी उपरोक्त फैसले के कारक हैं
! सभी देशो के नियम कानून उनके अपने तौर तरीको पर आधारित होते है ! हमारी संस्कृति और पाश्चात्य दोनों भिन्न है ! अतः सामाजिक और घरेलू बदलेंगे ही ! हमारे संस्कार और संस्कृति विश्व में कहीं नहीं है , यह तो सत्य है और भारत सोने का चिड़िया है और रहेगा ! बहुत सुन्दर लेख ! धन्यवाद ! तिरुपति के बालाजी का दर्शन करने पुरे परिवार के साथ चला गया था ! इसी लिए ब्लॉग पर देर से आया !
विचार पूर्ण प्रस्तुति सवाल दागती सी .समाज विज्ञानिक पोस्ट प्रस्तुत की है आपने .वहां परवरिस और परिवेश दोनों भिन्न हैं .बच्चा अनजाने ही फोन कर दे ,पुलिस आजाती है .
१८ साल तक चांदी कूटतें हैं ये उसके बाद फुर्र उड़ा दिए जातें हैं .अपने को तलाश्तें हैं ये किशोर युवावस्था की देहलीज़ पर .
हे ईश्वर!! अच्छा हुआ हमने नोर्वे में जन्म नहीं लिया :(
भारतीयता की समझ का अभाव कभी गीता पर बैन लगवाता है तो कभी नार्वे में बसे भारतीय दंपत्ति से उनके बच्चे छीन लिए जाते हैं। समय आ गया है अब विदेशियों को ॅिर से भारतीय संस्कृति से परिचित कराना होगा, उनकी नई पीढ़ी में यह ज्ञान नही है।
भारतीयता की समझ का अभाव कभी गीता पर बैन लगवाता है तो कभी नार्वे में बसे भारतीय दंपत्ति से उनके बच्चे छीन लिए जाते हैं। समय आ गया है अब विदेशियों को ॅिर से भारतीय संस्कृति से परिचित कराना होगा, उनकी नई पीढ़ी में यह ज्ञान नही है।
"भावनात्मक लगाव या अलगाव" में दोनों ही पक्षों को संतुलित रूप से प्रस्तुत किया है.लेखन कौशल्य को नमन.
पूरब और पश्चिम, देश और विदेश, कायदे और कानून, संस्कृति और औपचारिकता केवल मनुष्य के लिए है. पशु-पक्षी आज भी प्रकृति के अलिखित नियमों के अनुकूल आचरण करते हैं, एक अनुशासित जीवन व्यतीत करते हैं.बच्चों से भावनात्मक लगाव उनमें भी होता है.स्पर्श, निकटता, सुरक्षा के भाव उनमें भी होते हैं.बच्चा अपनी माँ के नजदीक ही रहता है.माँ भी उसे चाट कर दुलार करती है.कोई उसके बच्चे को नुकसान पहुँचाने की कोशिश करता है तो माँ अपने बच्चे की रक्षा के लिए अपनी जान की परवाह नहीं करती. यही प्यार है, यही भावनात्मक लगाव है जो सहज रूप से सभी प्राणियों को सुलभ है.चिड़िया जब अंडे पर सेने बैठती है तो दाना चुगने के लिए भी नहीं उड़ती.अधिकतर समय अपने अंडे पर ही बैठी रहती है. यह भावनात्मक लगाव है.फिर सबसे बुद्धिमान प्राणी भावनात्मक लगाव से दूर क्यों हुआ जा रहा है ? पश्चिमी देशों में इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए.
upbringing n lifestyle in such is so much different their tht comparison b/w them n India looks futile..
thoughtful post !!!
agree...
बहुत सार्थक सोच
हमारे संस्कृति को पश्चिमी सभ्यता दूषित कर रही है
सहमत हूँ.
यही स्पर्श तो हमें पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक जोड़े रखता है
is vishay par aap ne bahut hi umda vichaar rkhe,aap ka lekh tarif ke kaabil hai
हर जगह के कायदे कानून उस देश में रहने वालों का ध्यान रख कर ही बनाये जाते हैं. आपने जो कारन बताये हैं वह सही होंगे इस तरह के कानून के लिये. हाँ हमरे लिये ऐसा कुछ अटपटा हो सकता है.
बच्चों के साथ भावनात्मक लगाव जरूरी है,.
और आपके विचारों से सहमत हूँ
बेहतरीन प्रस्तुति,
देर से आने के लिए क्षमा,....
welcome to new post --काव्यान्जलि--हमको भी तडपाओगे....
ये सभ्यता का घिनौना रूप है ! ऐसे ठंढे रिश्तों का देश तो मुर्दों का देश है ! आप बधाई की पात्र है मोनिका जी,जो ये बात रौशनी में लाई !
सहमत हूँ आप के विचारों से.वाकई विचारणीय है.
सहमत हूँ आप के विचारों से.वाकई विचारणीय है.
भावनात्मक रिश्तों के लिए जिन देशों में कोई स्थान नहीं है , वे तय कर रहे हैं अभिभावकों की जिम्मेदारी ...
हद है !
सहमत हूँ अच्छी पोस्ट है !
बहुत बढ़िया लगा ! शानदार एवं विचारणीय पोस्ट!
संतुलित विवेचन !
अपना देश अभी भी कई मामलों में बहुत ठीक है.
I love my India.
स्पर्श और भावात्मक लगाव का सीधा समानुपातिक सम्बन्ध है हाथ से खिलाने से रागात्मक लगाव बढ़ता है ,बच्चे को गोद में उठाने का भी सकारात्मक
प्रभाव पड़ता है .छुरी कांटे जितने ज्यादा खाने की मेज पर लगाव उतना ही कम .
Bharat mein asa nhi hai ye sach mein bahut achchi baat hai...very nice post :)
सार्थक पोस्ट,बधाई .
सशक्त विचार, धाराप्रवाह अभिव्यक्ति. अब रहा प्रश्न सहमति और असहमति का. जो बिंदु आपने उठाये हैं, उनसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ. पर हमारे यहाँ के लालन पालन में, भावनात्मक लगाव आदि में समय के साथ अब कुछ बदलाव ज़रूरी हैं. जैसे कई अभिभावक यहाँ भी अब नियमित रूप से नशा करने लगे हैं - तो उनपर लागू होने वाले नियम अलग हों या नहीं, ये विचारणीय है. और भी कई ऐसे मुद्दे हैं, जो आपके इस लेख से अलग होकर भी जुड़े हुए हैं. कभी अपने भावों को अगर लेख में अभिव्यक्त किया तो आपको सूचित भी करुँगी, और आपके इस लेख का ज़िक्र भी :)
शानदार |
भारतीय परिवेश में बच्चे भावनात्मक रूप से माता पिता से जुड़े रहते हैं ... संतुलित पोस्ट है ..विचारणीय
like it ...nice
http://ayodhyaprasad.blogspot.in/
uttam lekh , kafi kuch sochne pe majbur krti aapki behtreen prastuti
आपके विचार में
है ठोस आधार...
monika ji
sach me yah ek chounkane wali baat hai hai.aor shayad isliye ki bhi ki abhi tak aisi baaten hamne suni hi nahi thi.
ma ka pyaar bhara ek sparsh hi bachche ke sampurn vikaas ki amuly nidhi hai.hamaari paramparaon ka is vichaar dharaa me vishesh yogdaan raha hai.
bahut bahut hisateek aalekh
badhai
poonam
पहली बार पता चले ऐसे नियम ......
पर कम से कम भारतियों को तो बख्श देना चाहिए ऐसे मामलों में .....
बच्चो से भावनात्मक जरूरी है,सार्थक रचना,
लाजबाब प्रस्तुतीकरण,
my new post...40,वीं वैवाहिक वर्षगाँठ-पर...
आपने इस विषय को काफी प्रभावी ढंग से उठाया है. धन्यवाद.
कानून देश काल की जरूरतों के हिसाब से होते हैं। उनका कानून है तो उसके पीछे के कारण भी बहुतायत में होते होंगे। आपका नजरिया बहुत साधा हुया है। बहुत अच्छा लिखा है।
http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/03/blog-post_21.html
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