हमारे परिवेश में सहानुभूति सदैव मौन व्यक्ति के हिस्से ही क्यों आती है .....? यह सवाल कई बार मेरे मन में उठता है | बोलने वाला व्यक्ति चाहे जितनी सही और सटीक बात कहे अक्सर उसके हाथ न तो प्रशंसा आती है और न ही दूसरों की संवेदना | कई बार लगता है जैसे मौन रहना क्रिया है तो सहानुभूति प्रतिक्रिया |
परिस्थितियां विवादित हों या सामान्य, प्रश्नों के घेरे में सदैव वही आता है जो बोलता है , अपने विचार खुलकर सामने रखता है | मौन रहने वाला व्यक्ति सदैव इन सब बातों से परे रहता है | चूंकि उसने कुछ कहा नहीं तो उसे कुछ सुनना और समझना भी नहीं है | अगर कोई व्यक्ति मौन रहता है तो यही माना जाता है कि फलां व्यक्ति तो हमेशा शांत रहता है उसे कुछ नहीं पता या फिर सब कुछ पता है |
यह बात आज तक नहीं समझ पाई कि मौन क्या सिर्फ व्यवहारगत विषय है ? जिसे हम चुप रहने की आदत भी कह सकते हैं | यानि कि कुछ लोगों की आदत ही होती है कि वे अधिक वार्तालाप नहीं करते | घर हो या बाहर उन्हें संवाद करना नहीं भाता | ऐसे व्यक्ति चाहे महिला हो या पुरुष सिर्फ दूसरों को सुनना पसंद करते हैं | अपने संगी साथियों के विचारों को जानना समझना उन्हें अच्छा लगता है | मेरा अवलोकन कहता है कि यह बातें हर उस इन्सान के साथ लागू नहीं की जा सकतीं जो चुप रहता है |
कुछ लोग अपनी सुविधानुसार मौन या मुखर होते रहते हैं | उनका मौन कभी अनिश्चितकालीन होता है तो कभी निश्चितकालीन | यह भी बाकायदा सोच समझ कर तय किया जाता है कि किस व्यक्ति के सामने मौन रहना है और कहाँ मुखर होना है ? जब इतना सब कुछ सोच समझकर किया जाता है तो चुप्पी को हमेशा सहानुभूति क्यों मिलती है .... या फिर यूँ कहें कि क्यों मिलनी चाहिए ? जब लोग ' मौनं सर्वार्थसाधनम ' मौन सभी कार्यों का साधक है , के भाव को पूरी तरह से अपने जीवन में उतारते प्रतीत होते हैं | किसी के कहे कड़वे वचन मन को गहरे घाव दे जाते हैं पर जब किसी से प्रतिक्रिया( संवाद ) की आशा हो , उस समय सामने वाले व्यक्ति द्वारा सोच समझकर साधी गयी चुप्पी भी मन को बींध देती है |
सोचती हूँ अगर बोलने वाला व्यक्ति पूरी रीति-नीति के साथ अपनी बात सामने रखता है तो मौन खड़े रहना भी तो एक नीतिगत निर्णय हो सकता है | ठीक उसी तरह से सोचा विचारा हुआ जिस तरह से मुखरित व्यक्ति अपने विचार साझा करके करता है |
कई बार तो यह भी देखने आता है कि किसी एक व्यक्ति का हर बात में मौन रहना , संवाद से बचना भी दूसरे व्यक्ति को आक्रोशित करता है | जब कुछ कहा जाना आवश्यक है तब मौन और जब शांतिपूर्ण ढंग बात सुननी हो तो मुखरता | घर हो या दफ्तर ऐसी परिस्थितियाँ हम सबके आसपास कई बार बनती हैं पर हमारी संवेदनाएं तो इन हालातों में भी चुप खड़े व्यक्ति की झोली में ही गिरती हैं | ऐसा क्यों ...?
77 comments:
विचारणीय बिन्दु! सम्वाद में बात का चलना ही नहीं पहुँचना भी शामिल है। बोलने वाले से हमारी असहमति अक्सर हमारे संकीर्ण द्वार के बाहर ही अटक जाती है जबकि वही संकीर्ण द्वार मौन सम्वाद में से सहमति बीनकर या न हो तो उपजाकर बटोर लेते हैं। इसलिये यह सूत्र अक्सर काम करता है। हाँ, द्वार जितने विराट होते जाते हैं, ऐसे फ़िनॉमिना कम होते जाते हैं। लेकिन, दूसरी स्थिति में हताशा का कारण भी दूसरा ही होता है।
डॉ० मोनिका जी नमस्ते |बहुत ही गहन वैचारिक और उम्दा पोस्ट |
बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
मुझे लगता है की मौन हमारी स्वाभाविक प्रकृति है.
मुझे लगता है की मौन हमारी स्वाभाविक प्रकृति है.
डॉ० मोनिका जी
बहुत ही सार्थक पोस्ट !
आज के परिवेश में मौन रहने वाले को कई बार कमजोर भी माना जाता है मगर जरुरी नहीं की हर वो व्यक्ति जो मौन है वो कमजोर है इसलिए हो सकता है की सहानुभूति अधिकतर मौन रहने वाले व्यक्ति के हिस्से में ही आती है ! ऐसा मेरा मानना है !
कहने वाले कहते हैं,
जो सह सकते हैं, सहते हैं।
सहानुभूति हमेशा मौन के साथ नहीं होती है... एक विवश मौन होता है, एक शातिर मौन ! सहानुभूति के भी अलग अलग दाव पेंच हैं - जिससे मतलब है, उससे सहानुभूति .
अहा!
आज तो मनोनुकूल प्रसंग है।
मौन हजार शब्दों पर भारी पड़ता है।
कभी-कभी दुख इसलिए नहीं होता कि हम मौन क्यों रहे, दुख इसलिए होता है कि हम क्यों बोले? इसलिए ...
शब्द तो शोर है तमाशा है,
भाव के सिंधु में बताशा है।
मर्म की बात होठ से न कहो,
मौन ही भावना की भाषा है।
एक और शे’र याद आया ...
हसरतों की जहर बुझी लौ में मौन सा दिल गला दिया मैंने ।
कौन बिजली की धमकियां सहता, आशियां खुद जला दिया मैंने ।
मैं तो मौन समर्थक हूं, इसलिए कुछ और ...
* मौन से मस्तिष्क को आराम मिलता है और इसका अर्थ है शरीर को आराम मिलना।
**मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाक-शक्ति होती है।
*** मौन , क्रोध की सर्वोत्तम चिकित्सा है।
चुप्पी भी मन को बींध देती है |
चुप्पी एक पल को बींधती है पर लेकिन वही चुप्पी हमारी सहनशीलता बनती है ...और क्षणिक आवेग को सँभालने में हमारा संबल भी ..
बहुत गहन चिंतन से ..सार्थक आलेख लिखा है मोनिका जी ....बहुत अच्छा लिखा है ..बधाई आपको
बिलकुल सही कहा आपने.
मौन के बड़े फायदे हैं ...
:-))
शुभकामनायें !
आपने आखिर मे जो सवाल उठाया है उसका उत्तर तो बीच मे खुद आपने ही दे दिया है। पूर्व पी एम नरसिंघा राव जी कहते थे- मौन रहना भी कुछ कहना ही है।
कोई स्वभाव से मौन होता है तो किसी को परिस्थितियां मौन रहने पर विवश कर देती हैं मगर चुप रहने की भी एक सीमा होती है जिसके बाद मौन भी मुखर हो जाता है !
बहुत ही विचारणीय आलेख प्रस्तुत किया है आपने।
सादर
बंद मुठ्ठी लाख की... खुल गई तो खाख की।
कहते हैं अपनी बात कर देने से मौन रहना कई बार श्रेयस्कर होता है।
Aisaa bhee ho sakta hai...maun wyaktee kee soch raha ho," maunam sarvaarth saadhnam!"
अब देश के मौनी बाबा को भी कितनी सहानुभूति मिल रही है, कि बेचारा क्या करे? इसके पास कुछ करने को हीं नहीं है। इसलिए यह तो बेचारा ईमानदार है, बेईमान तो दूसरे ही हैं। साक्षात फायदा दिखायी दे रहा है।
नमस्कार,मोनिका.सबसे पहले तो आपका आभार की आप मेरे ब्लॉग पर आईं | आपकी पोस्ट आम आदमी को भी समझ में आ जाये इतनी सरल है बधाई | मेरी समझ से मौन का कारण जानना जरूरी है कुछ लोगों को संवादहीनता सही लगती हो शायद वे अपनी बात सही ढंग से कह नहीं पाते कभी बोलने वाले के साथ रिश्तों का लिहाज भी रखना होता है कहीं थकान भी| अब सवाल यह है की सहानुभूती किसके साथ तो मोन यदि हथियार है तो सहानूभूती का सवाल ही नहीं और यदि मजबूरी तो सोचा जा सकता है|
अपनी तो ये आदत है ,कि हम कुछ नही कहते .
:-):-)
खुश रहिये !
शुभकामनाएँ!
बोलना बहिर्मुखी प्रकृति है और मौन अंतर्मुखी। बोलने वाला व्यक्ति भी बोल चुकने के बाद,मौन की अवस्था में ही होता है। जो पहले ही से मौन में है,उसने बोलने की व्यर्थता को समझ लिया है। यद्यपि व्यक्तित्व संतुलित होना चाहिए,मौन अवस्था ध्यानस्थ होने में सहायक है,इसलिए ध्यान में उतारने की जो विभिन्न प्रक्रियाएं हैं,उनमें अपनी भड़ास निकलना भी एक है। हममें से अधिकतर लोग बोलते ही हैं,मौन कोई-कोई ही रह पाता है। प्रायः सभी महान् व्यक्तियों और संतों ने अपने जीवन में कुछ समय पूर्ण मौन रहने का प्रयोग किया है।
ऊर्जा संरक्षण का मतलब केवल बिजली की बचत नहीं होता। हम मौन रहकर ही अपनी ऊर्जा का संरक्षण कर सकते हैं। बहुत सी बातें हैं,कितना लिखा जाए...
कई बार मौन एक कूटनीतिक चाल भी हो सकती है, कभी कभी यह विशेष मानसिक अवस्था को भी परिलक्षित करता है, जैसे क्रोध, असहमति या जिद।
मौन के गहरे राज़ भी होते है.
निर्भर करता है व्यक्ति की प्रकृति पर.
दो तरह के लोग होते हैं...एक तो वो जिनमे निर्णय लेने की क्षमता ही नहीं होती कि कब मौन धारण करना है और कब मुखर होना है...और दुसरे वो जो यथेष्ठ समर्थ होते हैं पर अपनी सुविधानुसार मौन या मुखर होते हैं, ऐसे लोग अवसरवादी कहलाते हैं...
वस्तुतः ये दोनों ही चरित्र ,व्यवहार द्वारा जाहिर हो ही जाते हैं..कभी कभी यह लगता है कि अमुक अवसरवादी जीत गया, पर यह स्थायी कभी नहीं हो सकता..व्यक्तिमात्र अपना स्थान और सम्मान स्पष्टवादिता तथा नेकनीयती के कारण ही पाता है...ना ही मूर्ख स्वयं को विश्वासपात्र या सम्मान योग्य बना पाता है, न अवसरवादी...
गहन चिंतन कर डाला आपने ..विचारणीय आलेख.
मौन स्वयं ही अपने में एक भाषा है..मौन व्यक्ति के प्रति सहानभूति शायद प्रकृति का तकाजा है...
मौन की अपनी शक्ति भी है तो कभी बच निकलने की युक्ति भी ...
रश्मिजी से सहमत !
किसी खास परिस्थिति में मौन रहना सही है ,लेकिन जब आवश्यकता हो तो मौन को त्यागना ही श्रेयकर है
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!चर्चा मंच में शामिल होकर चर्चा को समृध्द बनाएं....
आदरणीया डॉ मोनिका जी गंभीर विषय और बड़ा प्रश्न ..अपवाद सब जगह हैं इस लिए ..स्पष्ट कुछ नहीं कहा जा सकता ...
अच्छाई के लिए कल्याण के लिए कभी कभी मौन रह जाना अच्छा होता है ..हर बात में झगड़ना दखलंदाजी करने से मौन अच्छा होता है -मौन रहना कभी कभी जो आप बोल कर चाहते थे वो पूरा हो जाता है ....कुछ स्वभाव भी ऐसा होता है सुनने समझने और करने का ज्यादा बोलने का नहीं ....ऐसे मौन को सहानुभूति मिले तो ठीक है .........
लेकिन यदि एक शातिर चोर धूर्त जानबूझकर मौन बन सहानुभूति बटोरे ...मार डांट से बचे और फिर शुरू ...वो मौन जायज नहीं
जैसा मनोज जी ने कहा मौन ............मौन ही भावना की भाषा है।
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण
हम्म. गूंगों की तो ऐश हो गई.
हमारी कुख्यात/विख्यात "मैं चुप रहूंगी/रहूँगा" विशेषता. भारतीय समाज में हमेशा से चुप्पी को उत्तम माना गया, भले ही वो मुर्खता/कायरता के प्रतिस्वरूप हो. परिणामतः बहुत से धूर्त दुस्साहसी मुखर हो गए. ऐसे ही मौनी, मुखर व्यक्तित्वों ने आज देश को इस गर्त में पहुंचा दिया है. किन्तु अनंत खाई के कगार पर खड़ा ये देश पूरी तरह अडिग भी अगर है तो मौनी, मुखर लोगों के कारण ही. परन्तु ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने मौन या कथन का सटीक उपयोग किया.
बहुत ही विचारणीय बात उठाई है आपने ..मौन को सहानुभूति मिलती है सत्य है ...पर पर मुखर होने की भी सीमाएं होनी चाहिए ..ज्यादा बोलना ..या बोलने की आवशकता होने पर भी न बोलना दोनों ही गलत है कम बोलना सदेव ही सम्माननीय रहा है ...शायद इसी लिए सहानुभूति का पात्र है
मैं भी मौन की समर्थक हूँ. कभी-कभी मौन भी वह सब कह देता है जो शब्द नहीं कह पाते. मौन की भी अपनी भाषा होती है. गहन चिंतन... शुभकामनाये...
सहानुभूति सदैव मौन के हस्से आए यह ज़रुरी नहीं ... लेकिन मौन बहुत से विवादों को होने से बचा ज़रूर लेता है ..
मौन की भाषा हर जगह कारगर नहीं होती ...कभी कभी मौन कायरता का प्रतीक भी बन जाता है ..
कबीर का दोहा याद आ रहा है --
अति का भला न बोलना , अति की भली न चुप
अति का भला न बरसना , अति की भाल न धूप.
bolne vaale ki jagah maun hamesha jeet jata hai lekin bolne vaala saaph dil se sab kuch kah jaata hai bhle hi uska bolna aruchikar lage.
बिल्कुल सही कहा है आपने ।
मोनिका जी
आपका ये आलेख बहुत विचार करने योग्य है . कई व्यक्ति सिर्फ बोलते ही है , कई मौन पसंद करते है . बस अभिव्यक्ति की बात है.
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " कल,आज और कल " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/11/blog-post_30.html
गहन विवेचन 'मौन' का...
.बढ़िया लेख
thanx
सटीक ओब्ज़र्वेशन है आपकी वैसे चुप रहना अपने रक्त चाप को विनियमित रखे रहने की अर्जित कला का नाम है .हम सारे दिन बड बड करते रहतें हैं आरोप है बहुत बोलतें हैं जबकि हम सांझा करते हैं अपने विचार जानकारी .
विचारणीय तथ्य...
किसी फिल्म का संवाद याद आ गया...
"अगर बोलना चांदी है तो चुप रहना सोना"
सार्थक चिंतन...
सादर...
मौन रहना हमेशा आदत नहीं हो सकती ये बिल्कुल सही है. कुछ व्यक्ति समय और परिस्थति की माँग की वजह से मौन रहते है तो कुछ व्यक्ति अपने फायदे के लिए मौन रहते है. कुछ ऐसे भी होते है जिन्हे मजबूरी वश मौन रहना पड़ता है. इसलिए किसी के लिए मौन एक कला है अपना काम बनाने की . किसी के लिए मजबूरी और किसी के लिए सभी के हित का साधन है.
जब वाणी थका दे,
जब बोलना ज्यादा बोझ बन जाए,
तो मौन में उतर जाना ऐसे ही है,
जैसे दिन भर का थका हुआ आदमी
रात सो जाता है ! ओशो !
अच्छी पोस्ट पर मै मौन हूँ इसलिए क़ि,
मौन भी तो मधुर क्षण है !
बने रहो पगला...काम करे अगला...बने रहो लुल...मज़ा लो फुल...जब बिना बोले बात बन रही हो तो बोलने से क्या फायदा...ये अमझ्दा किस्म के लोग होते हैं...जो अपने से ताकतवर के सामने सिर्फ हाँ-जी, हाँ-जी करते हैं...और मस्त रहते हैं...
ham jab b kisi ka lekh/rachna padhte hain to uske lekhan ke aadhaar par uski ek chhavi bana hi lete hai...sach kahun to aisa hi kuchh apke is lekh ko padh kar hua...means ise padh kar aisa laga ki aap mixing nature ki hain aur gossiping nature ki hongi (like me) so apko samne wale ki chuppi akharti hogi...khas taur se tab jab uska kisi matter par bolna jaruri hota hai.
khair meri soch me ye chup rahne wale insan jyada acchhe nahi hote (bahut cunning lagte hain)..aapne ek vicharneey lekh prastut kiya.
aabhar.
क्या बात है । आपेक पोस्ट ने बहुत ही भाव विभोर कर दिया । मेरे नए पोस्ट पर आपका आमंत्रण है ।
this is human nature;;
Baat to apki sahi hai!
समय पर न कही गई बात बहुत सालती है और कई बार ऐसा भी लगता है, चुप रहना ही बेहतर होता. मौन रहने और मुखर होने का विवेक आवश्यक है.
बुज़ुगों ने कहा ही है कि वाक चांदी है तो मौन सोना:)
मेरी भी आदत है कि मैं चुप रहता हूं,
जो भी है आदत है इसी के साथ रहता हूं।।
अति का भला न बोलना अति की भली न चूप..
यह कहकर इतने सुन्दर आलेख का समापन करूं ?
Again a thought provoking post...
maun ko samjhna aasan nahi... shayad tabhi ham maun vykti ke prati sahanubhuti jatate hai..
..maun par manobhavon ko bahut badiya dhang se prastut kiya hai aapne..aabhar
मोनिका जी,
ये कोई जरूरी नहीं हैं कि सहानुभूति हमेशा मौन रहने वाले को ही मिलती हो.आप चूँकि राजस्थान की है इसलिए शायद आपने सुना हो एक शब्द कई लोग प्रयोग करते है,घुन्ना(या महिला के लिए घुन्नी).इसका मतलब ऐसे लोगों से ही है जो चुप रहकर खुद को बेचारा दिखाकर आस पास के लोगों की सहानुभूति बटोरने का काम करते हैं लेकिन भीतर इनके कुटिलता भरी होती है.हालाँकि हर एक मौन रहने वाला गलत ही हो ये भी जरूरी नहीं.
' मौनं सर्वार्थसाधनम ' -- पहले भी पढ़ा था लेकिन आपने याद दिलाया, शुक्रिया ।
मौन एक कला है ! सहानुभूति भी मौन के बाद ही आती है , जो कलात्मक होती ही है !इससे गलती की संभावना कम रहती है ! शब्द ही दुःख के कारण बन जाते है !मौन साधना से ही साधको को शक्ति मिली ! इसीलिए मौन रहने वालो को सहानुभूति मिलने से हमें कोई आश्चर्य नहीं ! वैसे विचारणीय लेख लेखसमसामयिक !
कभी कभी तठस्थ रहने के लिए मौन आवश्यक हो जाता है ... बेहद विचारणीय आलेख ...आभार
मौन कभी सकारात्मक प्रभाव डालता है तो कभी नकारात्मक।
इसीलिए मौन दोधारी तलवार की तरह है।
jo bolta hain usake paas vaise hi kafi kuch hota hain ...yani uske shabd
aur jab koi kuch nahi bolta to lagta hain vo apani pareshani chupa raha hain
सार्थक पोस्ट..
मेरे पोस्ट आपका इंतजार है
शुक्रिया आपकी ब्लोगिया हाजिरी के लिए वैसे साइलेंस को गोल्डन कहा गया है .
जिस व्यक्ति के पास बोलने की कला है उसे कदापि चुप नहीं रहना चाहिए| चाहे सहानुभूति मिले, सम्मान मिले या अपमान|
मैं तो सहानुभूति को एक कमजोरी के रूप में देखता हूँ| फिर चाहे वह बोलने वाले को मिले या चुप रहने वाले को|
आपका ये आलेख ..टाबर टोली के दिसम्बर अंक में प्रकाशित किया है.. इसमें आपका ई मेल, आपका ब्लॉग और फोटो भी प्रकाशित है..बधाई....
मोनिका जी बिलकुल सहमत हूँ.......मौन में भी राजनीति होती है कई बार......एक कहावत है जो बोले वही कुण्डी खोले.......खोखले लोग हर बात से बच के निकलने की सोचते है......कई बार मौन की परिणिती घटक भी होती है..........
एक शेर अर्ज़ है -
"तुम क्या समझे कम लगता है
सच कहने में दम लगता है"
आपकी सुलझी सोच और बेबाकी से सच बोलने की आपकी प्रवत्ति को हमारा सलाम |
एक चुप सौ को हरावे वाली बात भी सही है | मगर आज के दौर में चुप रहने वाला ही हारता है
सार्थक पोस्ट
monika ji..maun rahna aaur maun hona do sarvatha bipreet paristhitijanya sthitiyan hain..aapko dhanywad aapne sabka maun tudwa diya..jab bhee ham pareshan hote he ya koi samasya hoti hai ham maun ho jaate hain.mahaveer bhee buddh bhi gandhi bhee..na jaane kitne maun hue the ..samasya ka nidan dhundhne ke liye maun hona jaruri hai..lekin phir sab jamkar bole..jo maun rahta hai wo is samayavadhi me prapt kisi anmol khajaane ko agar maun rahkar naa baantkar samaj ko banchit kar de to ye durbhagya purn hai..Bheeshm pitamah maun rah gaye the..maun hue nahi the..kyonki is samayabadhi me unhone koi chintan nahi kiya tha..wo saare chintan purv me hee kar chuke the..unke maun ne bachan dene kee mahatta ko stahpit kiya..lekin ek abla ke cheerhar ko rukwane ki samarthy hote hue bhee unka maun rahna nagwar gujra..kintu maine jaisa ki pahle kaha bheesm chintan kar chuke the isliye wo jaante the dropadi kee laj nahi lutegi..kanha kee adbhut shakti ko bo jaante the..lekin jaisa kee aapne kaha ke sahanubhooti milti hai maun rahne walon ko ..kuch logon ne maun rahna seekh liya hai..maun rahna sarvatha galat hai..jaha kaamna hai wahan karm nahi ho sakta ..karm nishkaam hona chahiye...jab sahanubhooti kee kaamna jud gayi to phir kaisa karm....logon ka maun todne ke liye phir se dhanyawad ..aaur apne blog per aapke maun ke tutne ke chaah ke sath
ये सही है की मौन रहना निति हो सकती है ... पर जब बोलना उचित हो और फिर भी मौन रखा जाए .... उचित नहीं ... मौन उदासीनता की निशानी नहीं बननी चाहिए कभी भी ...
कई बार मौन ज्यादा सही जवाब रहता है.
बहुत अच्छा चिंतन ,,,,
डॉ॰ मोनिका शर्मा जी
पर मोन यदि ...चुप रहता है ,
तो भले सारे सवालो से बच जाये पर ..... उसके मोन होने से वो कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पाता
अर्थात मोन रहना मुर्खता भी और बुद्धिमानी भी ....जो हित और लाभप्रद हो पालन करे ////
maun ki pribhasha shabdon ki samvednaon ki abhivkti se bhi ho sakti hai ya hoti hai ..yh kafi logon ka manana ho sakta hai....goodh vishay ko gahnta ki gahraiyon tak le gayi hain aap ....BAHUT SUNDER
maun ki pribhasha shabdon ki samvednaon ki abhivkti se bhi ho sakti hai ya hoti hai ..yh kafi logon ka manana ho sakta hai....goodh vishay ko gahnta ki gahraiyon tak le gayi hain aap ....BAHUT SUNDER
बहुत ही खुबसुरत पोस्ट है यह। अच्छा लगा ।।
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