महिलाओं को अधिकार संपन्न बनाने के लिए जितनी योजनायें हैं उतना ही स्त्री विमर्श भी होता है | लेकिन सच यह है कि हमारे यहाँ औरतों के स्वास्थ्य से जुड़े खतरे कम नहीं हैं | विशेषकर उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर तो ना खुद महिलायें सजग हैं और ना ही समाज और परिवार में दिमागी अस्वस्थता के मायने समझने की कोशिश की जाती है | यही वजह है कि अनगिनत बीमारियों की जकड़न से लेकर बाबाओं के फेर तक, सब कुछ यह साबित करता है कि भारत में महिलायें मानसिक रूप से कितनी परेशान रहती हैं | सामाजिक-पारिवारिक और कामकाजी मोर्चों पर एक साथ जूझ रही महिलायें आज बड़ी संख्या में मानसिक तनाव का शिकार बन रही हैं । महिलाओं के जीवन का अनचाहा हिस्सा बना यह तनाव उन्हें ना केवल अवसाद की ओर ले जा रहा है बल्कि कई मानसिक व्याधियों की भी वजह बना रहा है । दुःखद ही है कि मौजूदा दौर में भी अनगिनत जिम्मेदारियों के दबाव और हमारी व्यवस्थागत असंवेदनशीलता के चलते स्त्रियों को हर कदम पर उलझनों का शिकार बनता पड़ता है । कभी अपराधबोध तो कभी असुरक्षा का भाव उन्हें घेरे ही रहता है । ऐसे में यह वाकई विचारणीय है कि आज के असुरक्षित और असंवेदनशील परिवेश में आधी आबादी का मानसिक स्वास्थ्य भी एक भी चिंता का विषय बना हुआ है ।
यह वाकई चिंतनीय है कि भावनात्मक आधार पर परिवार और समाज की रीढ़ बनने वाली महिलाएं आज इन मानसिक व्याधियों का शिकार बन रही हैं । गृहिणी हों या कामकाजी मानसिक तनाव और अवसाद महिलाओं के जीवन में जड़ें जमा रहा है । आज के देश की आधी आबादी का मानसिक स्वास्थ्य एक बड़ी चुनौती बन रहा है। जो यकीनन एक विचारणीय समस्या है । महिलाओं में बढ़ रहे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामले इसलिए भी अहम हैं क्योंकि वे हमारी पूरी सामाजिक और पारिवारिक ढांचे को प्रभावित की धुरी हैं। 2012 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार तकरीबन 57 फीसदी महिलाएं मानसिक विकारों की शिकार बनी थीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर 5 में से 1 महिला और हर 12 में से 1 पुरुष मानसिक व्याधि का शिकार है। कुलमिलाकर हमारे यहां लगभग 50 प्रतिशत लोग किसी ना किसी गंभीर मानसिक विकार से जूझ रहे हैं। सामान्य मानसिक विकार के मामले में तो ये आँकड़ा और भी भयावह है। इनमें महिलाओं के आँकड़े सबसे अधिक हैं।
दरअसल, मानसिक सेहत आज के दौर में सभी वर्गों और हर उम्र उम्र के लोगों के लिए वाकई चिंता का विषय है । लेकिन महिलायें तेजी से इसकी गिरफ़्त में आ रही नहीं क्योंकि वे आज भी अपनी परेशानियां खुलकर नहीं कह पातीं हैं । जिसके चलते अवसाद और तनाव के जाल में ज्यादा फंसती हैं । कई बार तो वे इस समस्या से घिर भी जाती हैं और उन्हें भान तक नहीं होता कि वे किस उलझन में हैं । हमारे वैसे यहाँ मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आज भी जागरूकता की कमी है । विशेषकर महिलाओं के बारे में तो यह बात विचारणीय ही नहीं मानी जाती । इतना ही नहीं इन रोगों के जाल में फंसे लोग और उनके परिवारजन भी इलाज के बारे में कम ही सचेत हैं । ( हाल ही में प्रकाशित लेख का अंश )
7 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-11-2017) को चढ़े बदन पर जब मदन, बुद्धि भ्रष्ट हो जाय ; चर्चामंच 2782 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, बुजुर्ग दम्पति, डाक्टर की राय और स्वर्ग की सुविधाएं “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
बहुत बहुत आभार
बहुत बहुत शुक्रिया
बहुत संवेदनशील विषय है। लेख की फोटो ZOOM नही हो पा रही है।
मानसिक बीमारियों क प्रति अक्सर लोग बेख्याली में रहते हैं , खासकर महिलाओं की | जब मामला बहुत बढ़ जाता है केवल तभी डॉक्टर को दिखाया जाता है | आपने जो आंकड़े दिए हैं वो बहुत ही चौंकाने वाले हैं | इस समस्या को हलके में न लेकर इस पर शीघ्र ध्यान देने की आवश्यकता है |
बिल्कुल सही कह रही है ,विचारणीय है
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