तकनीक का अजब खेल है कि आज हम सबके पास स्वयं को अभिव्यक्त करने के अनगिनत साधन भी मौजूद हैं। ट्विटर, फेसबुक या ब्लॉग। जहाँ जो मन में आया लिख डाला, किसी के लिखे पर मन का कह डाला। आज के दौर में ये संचार और सूचना के इन प्रभावी माध्यमों के प्रयोक्ताओं की संख्या करोड़ों में हैं । रचनात्मक अभिव्यक्ति और विचारों की क्रिया-प्रतिक्रया को अभिव्यक्त करने के लिए दिनोंदिन इन प्रयोक्ताओं की संख्या में इज़ाफा हो रहा है। अच्छी बात है कि इन साझा मंचों पर विचारों को अभिव्यक्ति मिल रही है पर इस तरह जो विचार बिना सोचे समझे साझा किये जा रहे हैं उससे सिर्फ और सिर्फ हमारी अभिव्यक्ति की विश्वसनीयता पर प्रश्न ही उठ रहे हैं । आँकड़े बताते हैं कि 2014 तक मोबाइल पर इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की संख्या साढ़े सात करोड़ हो जायेगी। बड़े शहरों से लेकर दूर-दराज़ के गांवों कस्बों तक होने वाला यह विस्तार अभिव्यक्ति के इन माध्यमों को और प्रभावी बना सकता है यदि इन पर ज़रूरी-गैर ज़रूरी सब कुछ ना परोसा जाए। विचारों का आदान-प्रदान करते समय नकारात्मकता और कटुता से बचा जाए। दरअसल, देखने में ये आ रहा है कि संवाद के इन साझा मंचों पर रचनात्मक और वैचारिक ऊर्जा का जिस तरह प्रयोग होना चाहिए था काफी कुछ उससे उलट ही हो रहा है । वैचारिक स्वतंत्रता देने वाले मंचों पर एक दूसरे के विचारों के प्रति सहिष्णुता का भाव तो बस नाममात्र को बचा है । हाल ही में हुए आम चुनावों के दौरान भी इस कटुता और असहिष्णुता का खेल खुलकर खेला गया। जिसमें भाषा के स्तर के सभी मानक ध्वस्त कर दिए। आए दिन किसी ना किसी विषय को लेकर ऐसे कटु और अव्यावहारिक विचार इन प्लेटफॉर्मस पर अवतरित होते रहते हैं।
आज़ादी जब भी, जिस रूप में भी मिलती है हमें अधिकार संपन्न बनाती है । जब अधिकार मिलेंगें तो कर्तव्यों के रूप में जिम्मेदारी भी तो हमारे ही हिस्से आएगी । जिम्मेदारी की यह सोच हमें स्वतंत्र बनाये रखती है पर स्वच्छंद नहीं होने देती । ठीक इसी तरह अभिव्यक्ति के लिए उपलब्ध इन साझा माध्यमों के लिए भी हमारे विचार ही नहीं जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार भी अपेक्षित है। स्वयं को अभिव्यक्त कर पाने की स्वतंत्रता की विश्वसनीयता को बनाए रखने का यही एक रास्ता है। सूचना क्रांति के इस दौर में आभासी दुनिया में परोसी गईं अफवाहें और कटुता का प्रभाव वास्तविक जीवन पर भी पड़ता है। किसी विचार को साझाा करने से पहले संतुलित आत्ममंथन हर नागरिक का नैतिक उत्तरदायित्व है।
अभिव्यक्ति अब कोलाहल बन रही है। अपनी कहने का हर ओर ऐसा शोर मचा है कि देख सुन कर भी सब कुछ अविश्वसनीय सा ही लगता है। हम सबका का देखा, जाना और माना एक सच यह है कि हर भारतीय को हर हाल में कुछ कहना होता है । हमारे विचार प्रवाह की तीव्रता इतनी अधिक है कि कभी किसी विषय को लेकर अधिवक्ता बन बहस करने लगते हैं तो कभी स्वयं ही जज बन निर्णय भी सुना देते हैं । स्वयं को अभिव्यक्त करने की आदत या ज़रुरत हर हिन्दुस्तानी के जीवन का अहम् हिस्सा रही है, आज भी है । हो भी क्यों नहीं ? हम तो हर परिस्थिति के लिए कुछ न कुछ कह सकते हैं । अपनी विचारशीलता को प्रस्तुत करने का कोई अवसर हम न अपने घर-परिवारों में छोड़ते हैं और न ही देश-दुनिया के मसलों को बतियाने-गरियाने के मामले में पीछे रहते हैं । वैचारिक दुराग्रह इतना है कि संवाद और सेाच की गुणवत्ता के बारे में सोचने की फुरसत ही नहीं किसी को। सोशल मीडिया पर अपनी बात साझा करने की भागमभाग में संवाद का सलीका ही गुम हो गया लगता है।
क्या हम सब इसी तरह की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं ? जब हमारी कही बात की विश्वसनीयता ही न रहे । भारतीय संविधान में तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नागरिकों के मूल अधिकारों में शामिल है। लेकिन यह अधिकार अबाध नहीं है। इसमें विवेकपूर्ण अभिव्यक्ति का बंधन है। सोच-विचार कर अपना मत साझा करने की बात कही गई है। जो तर्कसंगत और मर्यादित हो। निश्चित रूप से इन मर्यादाओं को सरकार या व्यवस्था के बजाय आम नागरिकों को स्वयं परिभाषित करना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मापदंडों को समझते हुए कुछ पैमाने तय करने ज़रूरी हैं। तभी हमारा विचार व्यक्त करना सार्थक हो सकता है। अभिव्यक्ति के इन प्लेटफॉर्मस पर हमारे विचारों की विश्वसनीयता ही यह तय करेगी कि किसी विषय पर दिए हमारे मत का क्या मूल्य है ?
17 comments:
सही पोस्ट...विश्वसनीयता हर जगह जरूरी है...घर-परिवार हो,कार्यक्षेत्र हो या फिर सोशल साइट्स !!
बिल्कुल ...अधिकारों के साथ ज़िम्मेदारी भी जुड़ी होती है .....
बहुत बढ़िया.... विचारणीय
स्वतंत्रता के आगे कुछ भी विश्वसनीय नहीं रहा, अभिव्यक्ति के साधनों के आगे शोर है, समझ से परे
अभिव्यक्ति सोच समझ कर ही व्यक्त करनी चाहिए।
हम लोग खुशनसीब हैं जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं...सही-गलत ये पाठकों को चुनना है...हर तरह का साहित्य बाज़ार में है...लोग अपनी पसंद के अनुसार पत्र-पत्रिकाओं का चयन करते हैं...
बिलकुल सही बात । अभिव्यक्ति में ईमानदारी और विश्वसनीयता बहुत ज़रूरी है। सिक्का अपनी खनक से बताता है कि वह खरा है या खोटा ...
डॉ. मोनिका जी समय के चलते मिडिया के नए आयाम पर आपने वाजिब चिंता जताई है। ऊपरी प्रतिक्रियाओं को पढा। एक भी गैरजिम्मेदाराना प्रतिक्रिया नहीं। जो आदमी जिम्मेदार है वह आधुनिक साधनों का सही और उचित प्रयोग करता है। सहज उपलबधता के कारण फिसलने वाले की संख्या भी उतनी ही है पर एक वास्तव यह भी है कि फिसलन जिंदगीभर की नहीं होती। सोशल मिडिया में चंद क्षणों के लिए फिसलने वाले संभलते भी हैं। जो संभलते नहीं वह विकृत है और ऐसे विकृत मानसिकता वालों की संख्या बहुत कम है। ईमानदारी और विश्वसनीयता स्थायी आनंद देती है तो फुहडता, बेमानी, अविश्वसनीयता घिन्न पैदा करती है; लिखने वाले, सांझा करने वाले, पढने वाले... के लिए भी। अंततः उसकी ओर कोई देखता नहीं, चौकता नहीं। उसे दुर्लक्षित किया जाता है, ऐसी चिजों की मौत दुर्लक्षिता में ही है।
बहुत सुंदर और विचारणीय पोस्ट ...जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी विषय पर विचार करना और उन्हें प्रकट करना किसी भी नागरिक का अधिकार है. ऐसा करना नागरिक का कर्तव्य भी है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ -साथ कुछ दायित्व भी होते है, जिम्मेदारियां भी होती हैं. हमें यह समझना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में तर्कसंगत और विवेकपूर्ण बात कहने की मर्यादा जुड़ी हुई है.
सच लिखा है अभिव्यक्ति में ईमान दारी और स्वतंत्रता का सबसे ज्यादा महत्त्व है ... जो भी अभिव्यक्त करना हो इसका रूप और उसका आंकलन कैसा हो ये पढनेवाले पर निर्भर होना चाहिए ... अपना कार्य मर्यादा और विवेक में रह कर ही करना चाहिए ...
आपकी बात ठीक है, पर इस देश में अधिकांश मनुष्यों की सामाजिक और सरकारी स्थिति कीड़ों से भी गई गुजरी है। ऐसे में उन्हें यह आलाप-प्रलाप ही अपनी कुण्ठा और समस्याओं का हल नजर आता है। निरर्थक अभिव्यक्ति कम्प्यूटर के प्लेटफार्म पर ही नहीं है, गली-मोहल्लों और सार्वजनिक स्थलों पर भ्ाी है। और इसके लोगों को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके पीछे केवल और केवल वह तंत्र ही जिम्मेदार है, जो इस दुर्व्यवस्था को दशकों से हांक रहा है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग उसकी विश्वसनीयता पर आघात करता है चाहे वह गली-मोहल्ले का मच हो चाहे इंटरनेट का .सहज प्राप्य सुविधा पर मनमानी करने की लोगों की आदत पर हर जगह नियंत्रण होना आवश्यक है..
ईमानदारी एक आदर्श शब्द बन चूका है जिसे लोग आदर्श ही रहने देना चाहते हैं, भारतियों के अभिव्यक्ति में ईमानदारी तो महज़ एक कल्पना रह गयी है।
एक मिनट रूककर इस विषय पर गंभीरता से सोचने की फुर्सत किसी को है क्या ? बस सब अपनी सुनाने में ही लगे रहते हैं भले ही कोई सुने या नहीं .
बिलकुल सही बात सहमत हूँ आपसे !
सटीक आलेख !
बिलकुल सही कहा आदरणीया.... व्यक्तिगत विचारों अभिव्यक्ति के व्यापक माध्यम उपलब्ध होने से इनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठना स्वाभाविक है ।
बहुत सुन्दर...
निःसंदेह अभिव्यक्ति प्रस्तुति में विश्वसनीयता का होना आवश्यक है।
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