परम्पराएँ ज़मीन से जोड़ती हैं । बांधती नहीं बल्कि हमें थामें रखती हैं । इनमें जो विकृति आई है वो हमारा मानवीय स्वाभाव और स्वार्थ ही लाया है । गहराई से देखें तो रीत रिवाज़ और परम्पराओं ने हमें बिखरने नहीं दिया । हमारी जड़ों को मज़बूती ही दी है । तभी तो जब भी कोई त्योहार आता है गाँवों से शहर आये बच्चों से लेकर देश से विदेश जा बसे बड़ों तक, हर कोई बचपन की स्मृतियाँ बाँटने लगता है । याद करता है हर रंग और ढंग जो हमारे त्योहारों ने हमारे जीवन में भरे हैं । रंग जो कभी विस्मृत नहीं होते । तभी तो हमारे पर्व त्योहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं जिन्हें मनाना या यूँ कहें की बार-बार मनाना, हर साल मनाना हर भारतीय को अच्छा लगता है।
आँगन के रंग .... चैतन्य के ब्लॉग से |
ये सब देखकर लगता है कि हम परम्पराओं से दूर नहीं हो रहे हैं , संभवतः कभी हो भी नहीं पायेंगें । बस, उन्हें नए ढंग से समझने और उनकी व्याख्या करने की कोशिश कर रहे हैं । कितने वीडियो और गीत देश के हर हिस्से से जुड़े त्योहारों के विषय में साझा किये जा रहे हैं । किसी में जानकारियां छुपी हैं तो कोई वहां के सुर ताल लिए है । सब कुछ वापस लौटने की उस चाह को दिखाता है जो अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहती है । हमारा मन और जीवन दोनों ही उत्सवधर्मी है | मेलों और मदनोत्सव के इस देश में ये उत्सव हमारे मन में संस्कृति बोध भी उपजाते हैं | हर बार स्मरण हो आता है कि हमारी उत्सवधर्मिता परिवार और समाज को एक सूत्र में बांधती है। संगठित होकर जीना सिखाती है। सहभागिता और आपसी समन्वय की सौगात देती है ।
हमारी अधिकतर परम्पराओं का आधार तार्किक और प्राकृतिक है । इन्हें समझने जानने के लिए इनके प्रति समपर्ण भरी सोच की आवश्यकता है । महिलाओं के लिए तो ये पर्व त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ह्रदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव हैं । सच, कभी छठ की छटा तो कभी दीपावली की रौशनी, परम्पराएँ घर लौटा लाती हैं । आँगन से जोड़ देती हैं । हर साल वे हमें एक अदृश्य डोर से खींचती हैं और हम ख़ुशी ख़ुशी उस राह पर मुड़ जाते हैं | अपनों से जुड़ जाते हैं । जब तक ये अपनापन और घर का आँगन हमें बाँधे हैं हम भी स्वयं को थामने और सहेजने में कामयाब रहेंगें । शिखर पर जा पहुंचेंगें पर विस्तार और गहराई से नाता नहीं टूटेगा, और चाहिए ही क्या हमें ?
33 comments:
शिखर पर जा पहुंचेंगें पर विस्तार और गहराई से नाता नहीं टूटेगा ..... सहमत हूँ
सार्थक लेखन ......
गहराई से देखें तो रीत रिवाज़ और परम्पराओं ने हमें बिखरने नहीं दिया । हमारी जड़ों को मज़बूती ही दी है । तभी तो जब भी कोई त्योहार आता है गाँवों से शहर आये बच्चों से लेकर देश से विदेश जा बसे बड़ों तक, हर कोई बचपन की स्मृतियाँ बाँटने लगता है । ............मोनिका जी सुंदर आलेख । पढ कर अच्छा लगा ।
आभार
परम्पराएँ ज़मीन से जोड़ती हैं । बांधती नहीं बल्कि हमें थामें रखती हैं ।
खूबसूरत पंक्तियाँ ....
परम्पराओं के आँगन में आस्था का दीपक जब भी जलता है विश्वास का संबल साथ रहता है .... सार्थकता लिये सच बात कही आपने आलेख में
" हमारे पर्व त्योहार हमारी संवेदनाओं और परंपराओं का जीवंत रूप हैं जिन्हें मनाना या यूँ कहें की बार-बार मनाना, हर साल मनाना हर भारतीय को अच्छा लगता है..............." - सही कहा आपने ! यह हमारे एक ही ढर्रे पर चलते हुए जीवन को उत्साह से भर देते हैं ! सरल,सहज और सुंदर आलेख !!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी है और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - शुक्रवार- 31/10/2014 को
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः 42 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें,
आभार
सचमुच ये परम्पराएँ एक सेतु जैसी होती हैं जोड़े रखती हैं अपनों को आपस में, रोजमर्रा की नीरस दिनचर्या में ताज़गी भर देती हैं … सार्थक आलेख
कभी कभी महसूस होता है कि हमारे पूर्वज कितने समझदार थे। विभिन्न परम्पराओं के माध्यम से उन्होंने हमें अपने परिवार , समाज , देश और प्रकृति से जोड़े रखने का बंदोबस्त किया। जब इतनी स्वस्थ परमपराओं के बावजूद हम अपने परिवार , समाज , देश की दुर्दशा किये बैठे है , ये न होती तो जाने और भी क्या करते !!
सही बात है .......यही परम्पराएं ही तो हमारे देश की एकता को मजबूत करने में महतवपूर्ण भूमिका निभाती है!
"हमारी अधिकतर परम्पराओं का आधार तार्किक और प्राकृतिक है । इन्हें समझने जानने के लिए इनके प्रति समपर्ण भरी सोच की आवश्यकता है "
सच है इसी सोच की गहराई से हमारी जड़ें मजबूत होंगी और प्रगति पल्लवित पुष्पित होती रहेगी
आशा औए उम्मीद लिए ताज़े झोंके सी है आपकी पोस्ट ...
सच है की परम्पराएं कभी नहीं तोड़ती बल्कि और मजबूती से जोडती हैं ... ग़ज़ल परम्पराएं अपने आप नहीं तो सामाजिक आन्दोलनों से ख़त्म हो जाती हैं ... पर अच्छी परम्पराओं को बना के रखना हम सब का काम और कर्तव्य भी है ...
really nice...
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बहुत सुंदर और सार्थक ...
Sunder va sarthak prastuti...
सुम्दर व संपूर्ण प्रस्तुति,परंपराएं नाहोतीं तो जीवन नीर्स हो जाता.
लेकिन अब परंपराओं को देखना-दिखाने ी भावना से अधिक देखा जा रहा है.
जरूरी है--उनकी आत्मा को सहेज कर रखने की.
आभार.
sadhana vaid has left a new comment on your post "घर लौटा लाती हैं परम्पराएँ":
ये परम्पराएं उत्सव और त्यौहार ही हमारे एक रस, बेरंग से जीवन में हर्ष और उल्लास के रंग भर जाते हैं और हमें सजने संवारने और मुस्कुराने की वजहें मिल जाती हैं ! सार्थक चिंतन !
परंपराएँ एक स्तर पर ला खडा करती हैं जिससे समान आस्थाओँ और अपनत्व का दायरा और बढ़ जाता है ..
बहुत सुन्दर और विचारपरक आलेख।
सुंदर और सार्थक...तमाम उतार-चढ़ाव व बदलाव के बावजूद ये परम्पराएं जीवित हैं। जीवन में इन परम्पराओं और उत्सवों का बड़ा महत्व है। हमारी ये उत्सवधर्मी परंपराएं समाज को संबल प्रदान करती हैं। जीवन की विषमताओं और विसंगतियों में भी आनन्द का स्रोत खोज लेती हैं।
परम्पराएँ और हमारे उत्सव एक माध्यम है आपस में जुड़े रहने के , नवस्फूर्ति , नवसंचार के आपसी स्नेह और प्यार के....
फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी वाली बात है, गणेश पूजा ऑनलाइन ही सही पर होगी जरूर :)
हिंदी फोरम
सुंदर लेख, मंगलकामनाएं आपको !
भावों को निरंतर अभिव्यक्त करते रहना होगा , हमें खुद को ये यकीं दिलाने के लिए भी कि , हां हम जगे हुए हैं , निरंतर परिवर्तन गतिमान है , हमें समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना ही होगा । सामयिक पोस्ट
जी बिलकुल भारत की संस्कृति में तीज त्योहारों तथा परम्परायओं का विशिष्ट स्थान है ।।
इस बार दीवाली पर बेटा नहीं आ सका बहुत सुना सुना सा लगा था दीवाली का त्योहार, सच कहा जीवन में त्योहार होअपनों का साथ हो इससे अधिक हमें क्या चाहिए ! व्यस्त जीवन से हठकर अपनों के साथ कुछ वक्त बिताने के लिए ही तो हमारे त्योहार बने होंगे ! सार्थक आलेख !
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति.... आभार।
इनकी एक और खूबी है ........यह बिखरे हुए परिवार को एक जुट कर देते हैं.......हर एक घर लौटने को लालायित...पर्व तो वे जिस शहर में हैं उसमें रहकर भी मना सकते हैं ............पर अपनों से मिलने का यह एक बहाना बन जाते हैं .......और वह एक तार उन्हें मीलों दूरसे अपनों के पास खींच लाता है
परम्पराओं के आँगन में आस्था का दीपक जब भी जलता है विश्वास का संबल साथ रहता है
बहुत ही शानदार रचना। चलते चलते पढ़ी तो पूरा पढ़कर ही उठ पाई।
बहुत अच्छा आलेख !
सही कहा हमारी युवा पीढी भी जु़डी हुई है इन परंपराओं से।
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