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28 February 2013

सबको सुपर किड्स की चाह

उसकी उम्र कोई आठ साल सुबह सवेरे उठ स्कूल जाता है। स्कूल से लौट कर आने तक उसके म्यूजिक टीचर घर आ जाते हैं। उसके बाद उसे ट्यूशन क्लास जाना होता है। तब तक स्वीमिंग क्लास जाने का समय हो जाता है। शाम को उसके डांस क्लासेस का वक्त होता है। वहां से लौटकर होमवर्क पूरा करता तब तक उसे उबासी आने लगती है। इतनी व्यस्त दिनचर्या के बाद रात बिस्तर में भी वो बिजी ही रहता है , कोई कहानी सुनने या माँ की गोद में खेलने में नहीं, बल्कि कविता याद करने में जो उसे स्कूल के फंक्शन में सुनानी है | इस भागमभाग के बीच न तो मासूम बचपन को अपनी इच्छा से पंख फ़ैलाने की फुर्सत है और ना ही थककर सुस्ताने की | बस , यंत्रवत जूझते रहना है | उसकी उपलब्धियां क्या और कितनी होंगीं ? यह रेखांकन पहले ही किया जा चुका होता है | जिन्हें समय समय पर उसके अपने याद दिलाते रहते हैं |

ऐसी दिनचर्या आजकल हर उस बच्चे की है जिसके माता-पिता उसे सब कुछ बनाने की चाह रखते हैं। आजकल अभिभावकों ने जाने-अनजाने अपने अधूरे सपनों और इच्छाओं को मासूम बच्चों की क्षमता और अभिरुचि का आकलन किये बिना उन पर लाद दिया है। हर अभिभावक की बस एक ही इच्छा है कि उनका बच्चा हर जगह, हर हल में अव्वल रहे । उनका बच्चा ऑल राउंडर हो , दूसरे बच्चों से अधिक प्रतिभावान हो, हर एक अभिभावक यही चाहता है । अभिभावकों के मन मष्तिष्क में यही सोच होती है कि उनका बच्चा अन्य साथियों सहपाठियों से श्रेष्ठ प्रदर्शन करे। जिसके परिणास्वरूप कई बार बच्चों के प्रति घर  के बड़ों के व्यवहार आक्रामक और असंवेदनशील भी जाता है | जो बच्चों के लिए शारीरिक और मानसिक पीड़ा का कारण बनता है । अभिभावकों की ऐसी महत्वाकांक्षाओं का बोझ मासूमों को अवसाद की ओर ले जा रहा है। अंकों के खेल में अव्वल रहना उनकी विवशता  बन गया है। यही कारण है कि हर साल जब परीक्षा परिणाम आता है, बच्चों की आत्महत्या के दुखद समाचार सुनने में आते हैं ।

अकादमिक ही नहीं सांस्कृतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में भी अभिभावक अपने बच्चों को सबसे आगे देखना चाहते हैं। टीवी पर छाए बच्चों के रीयलिटी शोज़ ने तो मासूमों की जिंदगी में क्रांति ला दी है। अपनी प्रतिभा की सिद्ध करने के इस संघर्ष के नाम पर मम्मी पापा  उन्हें दुनिया भर में अपना नाम रोशन करने का माध्यम समझ बैठे हैं। लोकप्रियता पाने और धन कमाने की चाहत में बच्चे भी नाच-गा रहे है | बेधड़क द्विअर्थी अश्लील संवाद बोल रहे हैं | ऐसे में दर्शकों के समक्ष उनके चमकते चेहरे तो हैं पर उनकी शारीरिक थकान और मानसिक उलझनों कोई नहीं समझ पाता | उन्हें हरफनमौला बनाने के खेल में बचपन की सरलता और सहजता गुम हो चली है | इसे रचनात्मकता नहीं कहा जा सकता । व्यावसायिक रंग में रंगी यह रचनात्मकता बच्चों को कुंठित अधिक करती है । बच्चे स्वाभाविक रूप से बड़े कल्पनाशील होते हैं  । कुछ नया रचने गुनने में रूचि लेते हैं ।  तभी तो आनन्द लेते हुए, खेलते हुए जब किसी कार्य को  पूरा करते हैं, परिणाम बहुत बेहतर होते हैं ।
कभी कुछ यूँ ही ..... हमारे मन का भी हो 
बच्चे जिस क्षेत्र में रूचि रखते हैं उसमें उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है। अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार स्वयं को निखारने का हर प्रयत्न करने के लिए बच्चों का मार्गदर्शन परिवारजन ही कर सकते हैं । पर बच्चों को लेकर 'जो मैं नहीं कर पाया वो मेरा बेटा या बेटी जरूर करेगा ' की आशा रखना उन पर अभिभावकों से मिले बोझ के समान हैं । बच्चों के मन को समझते हुए उन्हें साथ एवं सहयोग कुछ इस तरह से दिया जाय कि बड़ों की आशाएं भार नहीं उत्प्रेरक बनें | माता -पिता के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि बच्चे अभिभावकों के कौशल का प्रदर्शन करने वाले यंत्र भर नहीं हैं । 

51 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

इतनी व्यस्त दिनचर्या के बाद रात बिस्तर में भी वो बिजी ही रहता है , कोई कहानी
सुनने या माँ की गोद में खेलने में नहीं, बल्कि कविता याद करने में जो उसे
स्कूल के फंक्शन में सुनानी है | इस भागमभाग के बीच न तो मासूम बचपन को अपनी
इच्छा से पंख फ़ैलाने की फुर्सत है और ना ही थककर सुस्ताने की .....
बच्चों से बचपन छिन गई है ....।
बाल सुलभ हरकतें अब देखने को कहाँ मिलती है ....।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

syllabus hi gadbad hai poore shiksha tantra ka.

वाणी गीत said...

यह सही है , आजकल बच्चे बहुत दबाव में हैं , चाहे या अनचाहे ! अभिभावक भी उनके भविष्य को लेकर चिंतित हैं , करे तो क्या !

पी.एस .भाकुनी said...

माँ -बाप के बेलगाम सपनो को बचपन की आहुति देकर साकार करने की कोशिश की जा रही है,

Dinesh pareek said...

हर शब्द की अपनी एक पहचान बहुत खूब क्या खूब लिखा है आपने आभार
ये कैसी मोहब्बत है

अज़ीज़ जौनपुरी said...

BEHAD SADGI AUR SARAL SHABDO ME PRASTUT KI GYEE BHAGAM BHAG ZINDGI KO VYAN KARI PRATUTI

सुज्ञ said...

यंत्रवत सुपर किड्स बनाने की अभिलाषा बच्चों के जीवन को बोनसाई बना देती है.कौशल का प्राकृतिक विकास ही श्रेयस्कर है.

अजित गुप्ता का कोना said...

बच्‍चे का आकलन अब पेकेज से होने लगा है, उसकी प्रतिभा से नहीं। इसलिए जहाँ ज्‍यादा पैसा वहाँ बच्‍चों की दौड़।

कालीपद "प्रसाद" said...

शिक्षा आज बिकाऊ है, जिसको जैसा मर्जी वैसा बेच रहे है ,मनमानी कीमत वसूल कर रहे है, कोई नहीं देख रहा है कि इसका प्रभाव बच्चों पर क्या पड़ रहा है. अभिभावक के पास इतना समय नहीं है कि वह देखे कि जो शिक्षा बच्चों को मिल रहा है वह सही है या गलत.
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Pratibha Verma said...

You are right ...and this is all because of parents want their better future ...

Amrita Tanmay said...

अब बच्चों को अपना निर्णय लेना सिखलाना चाहिए जिसमें यथासंभव सहयोग कर के उन्हें उन तक पहुँचने देना चाहिए.

रश्मि प्रभा... said...

रोबोट किड्स और अपना रूतबा !!!
बच्चे की चाह को ध्यान देने की समझ नहीं .... पर बड़ी बड़ी बातें

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा आपने ... बच्‍चे बचपन को तरसते हैं खुद की नहीं ... माँ - बाप की ख्‍वाहिशों में रंग भरते हैं ..
आभार इस बेहतरीन प्रस्‍तुति के लिये

Satish Saxena said...

बेचारा बचपन ...

Saras said...

यह शौक अब आम हो गया है ...क्षणिक पॉपुलैरिटी....की कितनी बड़ी कीमत दे रहे हैं आजके बच्चे...यह तो अभिभावकों को समझना है ...की बच्चे उनकी अतृप्त इच्छाएं पूरी करने का माध्यम नहीं हैं.....यह एक बहुत ही ज्वलंत समस्या है ..जो आजकल के रियलिटी शोज ने खड़ी कर दी है ...बच्चों का बचपन बिखर जाये, इससे पहले माता पिता को चेत जाना चाहिए ...वरना जो हानि होगी उसकी भरपाई...ता-जिंदगी नहीं हो पायेगी ....बहुत ही सारगर्भित लेख मोनिकाजी

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

जो शासन स्‍वयं ही सांस्‍कारिक दीक्षा नहीं ले पाया, वह बच्‍चों के बाबत क्‍या सोच पाएगा।

गिरधारी खंकरियाल said...

नीति शास्त्र कहता है "पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब,खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब" किन्तु शिक्षा शास्त्र कहता है "खेलोगे कूदोगे बनोगे नबाब, पढ़ोगे लिखोगे बनोगे खराब"।

virendra sharma said...

यही सब कुछ दुनिया के सबसे मशहूर मनोरंजन उद्योग प्रधान नगर लासवेगास में होता है .बच्चे फुटपाथ पे तमाम तरह के करतब ,नृत्य ,हवा में कला बाज़ी दिखलाते हैं बस उनके सामने एक डिब्बा

और रखा होता है जिस पर लिखा होता है -माई लिविंग .ये हेलिकोप्टर पेरेंट्स बच्चों को इम्तिहानी लाल (हर इम्तिहान ,परीक्षा में अव्वल आने वाला रोबोट )बनाने पर आमादा हैं .यही रोबोट आगे

जाके स्वयम फैसला लेने लगेंगें इन्हें न्यूट्रल करना माँ बाप के बूते की बात न होगी .बढ़िया बाल उपयोगी समाज उपयोगी पोस्ट .

shikha varshney said...

सही मुद्दे पर अच्छी पोस्ट है.इस पर जरूर सोचना चाहिए. इसी विषय पर ऐसा ही कुछ बहुत समय पहले मैंने भी लिखा था.
http://shikhakriti.blogspot.co.uk/2010/07/blog-post_12.html

vandana gupta said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!

travel ufo said...

सुपर किडस कहो या मजबूरी ना तो बच्चो को अब पहले की तरह घर से बाहर खेलने के लिये छोड सकते हैं ना ही मन मानता है तो उसे बिजी कर देते हैं

Ranjana verma said...

bilkul sahi..bachche .per bahut hi mansik tanav hote hai..bache ke realitiy show ko band kar deni chahiye

rashmi ravija said...

सचमुच आजकल सुपर किड्स की चाह बच्चों को मशीन में तब्दील करती जा रही है.

वीरेंद्र सिंह said...

जी.....आजकल बिल्कुल ऐसा ही हो रहा है। मासूम बच्चों पर जरूरत से ज्यादा ही बोझ डाला जा रहा है। माता-पिता को थोड़ा व्यावहारिक होना चाहिए।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

ज्यादा तर बच्चे अपना निर्णय स्वम लेते है,लेकिन यदि निर्णय गलत है तो माँ बाप का दाइत्व होता है की बच्चो को समझाये,,,,

RECENT POST: पिता.

SANJAY TRIPATHI said...

आपने तथ्य्परक और आज के संदर्भ में अर्थपूर्ण तथा सबके ध्यान देने योग्य आलेख लिखा है.बधाई!

जयकृष्ण राय तुषार said...

सार्थक और सुन्दर पोस्ट |आभार

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बिल्कुल सही कहा आपने! जब भी मौका मिले... बच्चों को उनकी इच्छानुसार भी वक़्त बिताने देना चाहिए....-ये उनका हक़ है!
~सादर!!!

Ramakant Singh said...

डॉ साहिबा आपने मेरे मन की बात लिख दी .एक पोस्ट इसी तरह की ***जीना सिखलाएँ *** मेरे द्वारा लिखी गई है . मन पड़े तो एक नज़र डालें शायद कुछ समाधान मिले ...

Arvind Mishra said...

लगता है अब हम पीछे नहीं लौट पायेगें! मनुष्य के लिए भविष्य के कोख में क्या है ? कौन जाने -मगर आपने विचारणीय विषय उठाया है!

Dr. sandhya tiwari said...

आजकल बच्चे बहुत दबाव में हैं बच्चों को उनकी इच्छानुसार भी वक़्त बिताने देना चाहिए.........सुपर किड्स की चाह मे बच्चे बहुत दबाव में हैं...

ओंकारनाथ मिश्र said...

सुन्दर लेख. सच में बच्चों की मासूमियत छिनती जा रही. अपने समाज में देखा हर किसी को अपने बच्चे को डॉक्टर, इंजिनियर या अफसर बनाने की उत्कट लालसा. क्या वो बने बिना जीवन सफल नहीं हो सकता? आपसे सहमत हूँ बच्चे की स्वाभाविक रूचि पर ध्यान देना चाहिए. पर जो भी रूचि हो उसमे गहराई तक जाने के लिए प्रेरित करना चाहिए.

Jyoti Mishra said...

correct.
Everyone sees a tendulkar and einstein in his child

शोभना चौरे said...

एक बच्चे से दुसरे बच्चे की तु लना करना बच्चो को हतोत्साहित करना ही होता है
और फिर टी वि के कार्यक्रमों से तुलना करना बिलकुल भी जायज नहीं है ।
अच्छा संतुलित आलेख ।

शोभना चौरे said...

एक बच्चे से दुसरे बच्चे की तु लना करना बच्चो को हतोत्साहित करना ही होता है
और फिर टी वि के कार्यक्रमों से तुलना करना बिलकुल भी जायज नहीं है ।
अच्छा संतुलित आलेख ।

इमरान अंसारी said...

बिलकुल सही कहा आपने........अंधी दौड़ में खुद तो लगे ही हैं कम से कम इन मासूमों को तो इनसे अलग रखें.........चैतन्य की तस्वीर अच्छी है ।

Shalini kaushik said...

monika ji bahut sahi kah rahi hain aap .aaj maa-baap ye samajh hi nahi pa rahe hain ki ve kaise apne bachche ko sahi vatavaran de sakte hain .apne bachche ko sabse aage badhane me hi unhe uske aur apne sapnon kee purti nazar aa rahi hai aur nahi dekh rahe ki isme bachche ka bachpan to gum hi hota ja raha hai .एक एक बात सही कही है आपने . आभार छोटी मोटी मांगे न कर , अब राज्य इसे बनवाएँगे .” आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते

प्रवीण पाण्डेय said...

अपने ख्वाब बच्चों पर न थोपे जायें, एक स्वस्थ बचपन अपने आप में शत संभावनायें लिये होता है।

रचना दीक्षित said...

बच्चों से उनका मासूम बचपन छीनना उनके साथ अन्याय है. आपने इस विषय को चर्चा के लिये उठाया इससे शायद कुछ अभिभावक कुछ चिंतन जरूर करेंगे.

रेखा श्रीवास्तव said...

हम अपनी अधूरी महत्वाकांक्षाओं के आकाश में बिचरते हुए जब खुद को असफल पते हैं तो फिर वह सब अपने बच्चों से की आज माता -पिता में आ गयी है वह बच्चे के बचपन को तो छीन ही हैं और कभी कभी वह परिणति मिलाती है की अफसोस कर अपने को दोषी मानते रहते है . बच्चों को एक सामान्य बच्चा बनकर जीने दीजिये मेधा उन्हें उनकी मंजिल तक जरूर ले जायेगी . बहुत अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है . आभार !

G.N.SHAW said...

आधुनिकता की कलाई में दबते बच्चे | सार्थक

virendra sharma said...

शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .समाज उपयोगी सार्थक लेखन के लिए बधाई .

ताऊ रामपुरिया said...

अहम मुद्दा उठाया आपने, बच्चे तो जैसे कठपुतली हो गये हैं, मां बाप समझ नही पा रहे कि किधर जायें?

रामराम.

dr.mahendrag said...

समस्या यह है कि इस भोतिक युग में देखा देखी सब की महत्वकंषाएं बढ़ गयी हैं.माँ बाप का यह भी सोच बन गया है कि जो कुछ वोह अपनी ज़िन्दगी में नहीं कर सके , कम से कम उनके बच्चों को वह जरूर प्राप्त हो जाये.या उनके दबे सपनों को वे साकार कर दें.अब उन बच्चों में इतना टैलेंट है या नहीं उस पर धयान नहीं देते.

Coral said...

हर बच्चा दबाव मे जी रहा है हम बच्चो के भविष्य की चिन्तामे इतने मशगुल हो गए है उनका वर्त्तमान भूल रहे है ( जो हमने बहुत अच्छेसे से जिया है ). लिख रही हू पर अनजाने मे कही मै भी यही करती हू.

बहुत उम्दा प्रस्तुती ...

Tamasha-E-Zindagi said...

बच्चे अगर इस दौड़ से दूर ही रहें तो बेहतर है | सार्थक लेख |


कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

दिगम्बर नासवा said...

सहमत आपकी बात से ... आजकल जितना दबाव है बच्चों पर उतना हमारे समय में नहीं होता था ... ओर इस दबाव को हमने भी बढ़ावा दिया है ... अपनी महत्वकांक्षा को उनपे लाद कर ..

virendra sharma said...

हर बच्चा अपने में विशिष्ठ होता है कुछ न कुछ विशेष लिए होता है ज़रुरत है उसे पहचान ने की उसके विकास के अनुकूल मौके मुहैया करवाने की .ये हेलिकोप्टर पेरेंट्स बच्चों की डेमोक्रेसी (ऐसी की तैसी )किये रहते हैं वैसे ही जैसे कोंग्रेस ने आम आदमी की




हुई है .कोंग्रेस खाब दिखाती है पेरेंट्स खाब देखते हैं .बच्चों के कोमल मन से खिलवाड़ करते हैं उन्हें "जल्दी करो "जाल में फंसा कर .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .

Smart Indian said...

बच्चों को जीता-जागता स्वतंत्र व्यक्ति समझने के बजाय कुछ माता पिता अपने अधूरे सपनों को हक़ीक़त में बदलने का सूत्र समझते हैं तो कुछ माता-पिता अपनी बपौती, इस सबके बीच पिसता है मासूम बचपन ...

Madhuresh said...

कुछेक हिंदी फिल्में हाल फिलहाल ही दोबारा देखी मैंने - पाठशाला, तारे ज़मीन पर , और थ्री इडियट्स। और आपका आलेख भी कुछ दिनों पहले ही पढ़ा था। सवाल ये है कि अभिभावक ये जानते हुए भी कि प्रतिस्पर्धा में अनावश्यक बच्चों को झोंके रखना हितकर नहीं है, फिर भी क्यों वही बात दोहराते जा रहे हैं ... बहरहाल एक सार्थक आलेख फिर से पढने को मिला आपके ब्लॉग पर।

Hema Nimbekar said...

बहुत खूब लिखा है..... बिलकुल सही... आजकल अभिभावक अच्छे संस्कारों को भूल कर बस अपनी लालच से भरी अतृप्त इच्छाए के लिए अपने बच्चों के बचपन की बलि दे देते है.... उन्हें सुपर किड्स बनाने की जगह अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए.... आजकल की चमक धमक वाले रियलिटी शोज में टी.र.पि. बढाने के लिए हो रही दौड़ में वो बच्चों से अभद्र शब्द भी बुलवाने से पीछे नहीं होते.... और फ़िल्मी गाने और फ़िल्मी प्यार से लिपे पुते अश्लील गानों के शब्द...और न जाने क्या क्या.... बच्चों की उम्र का भी उन्हें ख्याल नहीं होता... उनकी पढने खेलने की उम्र है न की बड़ों की तरह फैशन, अल्हड़पन वाले प्यार, बड़ों की तरह समझ की... बच्चो पर इतना जोर, इतना बोझ न डाले... गलतियाँ करने दे और सिखने दे.. खेलने दे धुप ने जलने दे बारिशों में भीगने दे.. न की उन्हें घर में बिठा कर बस विडियो गेम्स या बस tution classes के चक्कर लगाये.... उन्हें खुद पढने की शिक्षा दे...

बहुत सार्थक पोस्ट है
आभार!!!

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