मेरे घर की मुंडेर पर
अब नहीं आती गौरैया
ना ही वो नृत्य करती है
बरामदे में लगे दर्पण में
अपना प्रतिबिम्ब देखकर
फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती
आँगन में अब तो
और ना ही वो चहकती है
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की
शाख़ पर घौंसला बनाना भी
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की
54 comments:
गौरैया अब नहीं आती , ये प्रकृति और समाज दोनों के अवरोह पर एक चोट है कविता . उम्दा.
...गौरैया वाकई याद आती है :-(
गौरेया खत्म हो चुकी है और ऐसे ही भारत में बढ़ती जनसंख्या को न रोका गया तो नरमुण्डों के सिवा कुछ न दिखाई देगा.
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
मानव ने जब हर चीज को सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ही उपभोग करना शुरू कर दिया तो किसी भी चीज का अस्तित्व कैसे बचा रह सकता है .....! सार्थक रचना ...!
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो,,,,
यथार्थ की लाजबाब अभिव्यक्ति,,,
RECENT POST शहीदों की याद में,
बहुत दुख होता है...
इस घर में, जहां हम आजकल रह रहे हैं, 2001 में आए थे. उन दिनों हमारी सुबह की नींद ही गौरेया के कोलाहल से खुलती थी, इतनी चिड़ियां चहकती थी चारों ओर. अब तो मुंडेर पर रखे पानी के बर्तन पर कभी कभार कोई एक-आध भी दिख जाए तो आश्चर्य होता है.
यहां सड़कों के किनारे पेड़ों की कृत्रिम कतारें उगाई गई हैं, पर उनमें एक भी फलदार पेड़ नहीं, तथाकथित सुंदर दिखने वाले विदेशी नस्लों के पेड़ हैं सब. पहले यहां पीपल, शहतूत, जामुन, बेर इत्यादि हुआ करते थे. पक्षियों के लिए खाने को आज कुछ भी नहीं बचा है...
मनुष्यों की गौरेया भी ऐसे ही छूटती जा रही है। बहुत अच्छी रचना। बधाई।
सभी गौरेया चली जायेंगी तो क्या होगा इस देश का काश लोगों को सद्बुद्धि मिलें,इस रचना के माध्यम से बहुत अच्छा संदेश दिया है मोनिका जी हार्दिक बधाई आपको इस सुंदर रचना हेतु
सुन्दर भाव-प्रवाह..
गौरैया आती है "mere ghar pala hai maine bade pyar se ***सुबह की नींद ही गौरेया के कोलाहल से खुलती है , वाकई वो कहीं दूर निकल गयी है बहुत दुख होता है...
क्षितिज के पार ***अच्छी रचना। वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की
अपने ही बिछाए जाल में
फंसते जाते मनुष्य को
सह-अस्तित्व की मर्यादा
याद दिलाएगी गोरैया कभी!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-2-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
बहुत सुंदर तरीक़े से आपने गौरैया की मर्मस्पर्शी मनोभावों का चित्रण किया.....
दुख होता है! उस गौरैया बिना सब सूना-सूना लगता है.... :(
~सादर!!!
बहुत सुंदर तरीक़े से आपने गौरैया की मर्मस्पर्शी मनोभावों का चित्रण किया.....
दुख होता है! उस गौरैया बिना सब सूना-सूना लगता है.... :(
~सादर!!!
मेरे घर की मुंडेर पर
अब नहीं आती गौरैया ...
बहुत खूब ...
गौरैया भौतिकता की चकाचौंध के भयानक शोर से निकलकर कहीं छुप गई .... गाहे-बगाहे आँगन की खोज में कभी कभी नज़र आ जाती है
शोर बढ़ रहा है हर तरफ
शोर से दूर कौन नहीं रहना चाहता
सुन्दर रचना .
मुझे भी याद आ गयी गौरैया ..
फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती
आँगन में अब तो
और ना ही वो चहकती है
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की
शाख़ पर घौंसला बनाना भी
बिल्कुल सच
नहीं दिखती अब गौरेया
फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती
आँगन में अब तो
और ना ही वो चहकती है
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की
शाख़ पर घौंसला बनाना भी
बिल्कुल सच
nice mam !!!
अब तो दिलों के साथ साथ घर भी छोटे होने लगे हैं तो गौरैया शायद ही आये ............
देखो ना ,हमने मजबूर कर दिया उसे....नन्हे पंछी को तक नहीं छोड़ा...
बहुत सुन्दर रचना मोनिका जी...
अनु
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की
बहुत ही खुबसूरत और अतीत में ले जाती कविता |बिलकुल लोकलुभावन ग्रामीण परिवेश की याद दिलाती है |
बहुत समझदार निकली गौरैया क्योंकि उसमें इंसान से अधिक संवेदनशीलता है की वह अपने अस्तित्व को बचने के लिए सजग हो गयी और हम उसी में छटपटाते रहते हैं और फिर दम तोड़ देते हैं।
गौरैया तो अब बस किताबों मे सिमट गयी है।
सादर
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने का भय न हो
और ना ही हो रीत दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की..........मनुष्यता हो कहीं तो गौरैया का विचार आए। विचारणीय कविता।
वातावरण में सुधर जरूरी है अन्यथा एक दिन कुछ भी नहीं आएगा , न ही मिलेगा | सार्थक कविता |
सुन्दर प्रस्तुति।
एक समय था जब हमारे विदेशी मित्र चिड़ियों की चहचहाहट रिकोर्ड कर के ले जाते थे। अब यहाँ ही वो आवाज़ सुनाई नहीं देती।
सच है उड़ गई वो इंसानो की इस स्वार्थी दुनिया से...
छत पर बैठ कर गौरया को गेहूँ खिलाना याद है..सुन्दर भाव..
सुंदर भाव .....कितना कुछ सँजोने का मन करता है ......काश कि सँजो पाएँ .....
गौरैया को अब मनुष्य की संगत अच्छी नहीं लगती .इसलिए दूर कहीं दूर अपना बसेरा बना लिया है.
New post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....
यथार्थ की लाजबाब अभिव्यक्त......
स्वार्थी मनुष्य ने भगा दिया गौरैय्या को..
अब तो यह केवल चित्रों , कवितायेँ और कहानियो में ही पाई जाती है... भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
हाँ परिंदे वहीं को उड़ चलते हैं जहाँ वे निर्विघ्न अपनी सन्तति का विस्तार कर सकें -मनुष्य भी तो!
बहुत सही भावनात्मक अभिव्यक्ति बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की
सचमुच ऐसा क्यों हो रहा है
शुभप्रभात :))
बगेड़ी की चाह में गौरैया भी हलाल हो गई !!
शुभकामनायें !!
सही कहा आपने ....
गौरैया नहीं आती अब
लगता है बचपन में आने वाली शरारत की वो बहन थी ...अब शरारत और गौरैया ...दोनों लुप्त हो गए ...या फिर आती भी होगी नए रूप रंग में और हम पहचान नहीं पाते होंगे ...
बेहतरीन रचना ....
बहुत सुन्दर सच्चाई से रूबरू कराती अभिव्यक्ति .......
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
गौरैया तो अब शायद क्षितिज के पार भी नही होगी. बहुत ही संवेदशील रचना.
रामराम.
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
गौरैया तो अब शायद क्षितिज के पार भी नही होगी. बहुत ही संवेदशील रचना.
रामराम.
एक तरफ विश्व स्तर पर टूटते पारिश्थितिकी एवं पारितंत्र दूसरी तरफ भारत का पुत्र केन्द्रित /बलात्कारी कुत्सित समाज दोनों पर करारा तंज है यह रचना .सशक्त लेखन .
गौरैया को देखे और सुने तो ज़माना हो गया | सच में लुप्त हो गई वो | बहुत अच्छी रचना | शानदार अभीव्यक्ति | बधाई
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
इंसान की भूख जाने कितनों को खा गई है ओर कितनों को खाना बाकी है ...
कंक्रीट के जंगल इन बेचारों को खाए डाल रहे हैं.......बहुत सुन्दर ।
वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की......
सुंदर भावों को व्यक्त करती प्रस्तुति।।
हमने उसका दिल दुखाया है ...
शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .सौद्देश्य रहतें हैं आपके ब्लॉग पोस्ट के विषय समाज सापेक्ष .जीवन एवं हमारी रहनी सहनी से जुड़े हुए .पर्यावरण चेतना पैदा करती है प्रस्तुत रचना .किसी फेक्टरी का जब पर्यावरण टूटता है सबसे पहले उसके परिसर से पाखी उड़ जाते हैं .
behad samyik rachna.....
ham hi inke apradhi hai...inki duniya par hamne atikraman kiya hai..sundar abhivyakti
चूँ - चूँ करती , धूल नहाती गौरैया.
बच्चे , बूढ़े , सबको भाती गौरैया .
कभी द्वार से,कभी झरोखे,खिड़की से
फुर - फुर करती , आती जाती गौरैया .
बीन-बीन कर तिनके ले- लेकर आती
उस कोने में नीड़ बनाती गौरैया.
शीशे से जब कभी सामना होता तो,
खुद अपने से चोंच लड़ाती गौरैया.
बिही की शाखा से झूलती लुटिया से
पानी पीकर प्यास बुझाती गौरैया.
दृश्य सभी ये ,बचपन की स्मृतियाँ हैं
पहले - सी अब नजर न आती गौरैया.
साथ समय के बिही का भी पेड़ कटा
सुख वाले दिन बीते, गाती गौरैया.
गौरैया कहीं नहीं गयी है , हम लोगों ने ही उस को खत्म दिया है .
खेतों में हम खाद और केमिकल के रूप में इतना ज़हर डालते हैं
की नन्हा प्राणी उन दानों को खा कर जीवित नहीं रह सकता .
हम लोग च्युइंग गम खा कर कहीं भी थूक देते हैं ये निरीह पक्षी उस
को निगल जाते हैं और मर जाते है।
हम लोग धीरे धीरे सारे ब्रह्माण्ड में तबाही मच रहे हैं
आज न नदी का पानी पीने लायक है और न धरती के भीतर का .
हम स्वयं उस डाली को काट रहे हैं जो हमको सहारा देती है .
विनाश काले विपरीत बुद्धि ........................
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