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01 February 2013

अब नहीं आती गौरैया





मेरे घर की मुंडेर पर 
अब नहीं आती गौरैया 
ना ही वो नृत्य करती है 
बरामदे में लगे दर्पण में 
अपना प्रतिबिम्ब देखकर  

फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती 
आँगन में अब तो 
और ना ही वो चहकती है 
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए 
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की 
शाख़ पर घौंसला बनाना भी 

वो कहीं दूर निकल गयी है 
क्षितिज के पार 
बसाने एक नया संसार 
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने 
का भय न  हो
और ना ही हो रीत 
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की 



54 comments:

ashish said...

गौरैया अब नहीं आती , ये प्रकृति और समाज दोनों के अवरोह पर एक चोट है कविता . उम्दा.

संतोष त्रिवेदी said...

...गौरैया वाकई याद आती है :-(

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

गौरेया खत्म हो चुकी है और ऐसे ही भारत में बढ़ती जनसंख्या को न रोका गया तो नरमुण्डों के सिवा कुछ न दिखाई देगा.

केवल राम said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो

मानव ने जब हर चीज को सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए ही उपभोग करना शुरू कर दिया तो किसी भी चीज का अस्तित्व कैसे बचा रह सकता है .....! सार्थक रचना ...!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो,,,,

यथार्थ की लाजबाब अभिव्यक्ति,,,

RECENT POST शहीदों की याद में,

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बहुत दुख होता है...
इस घर में, जहां हम आजकल रह रहे हैं, 2001 में आए थे. उन दिनों हमारी सुबह की नींद ही गौरेया के कोलाहल से खुलती थी, इतनी चिड़ियां चहकती थी चारों ओर. अब तो मुंडेर पर रखे पानी के बर्तन पर कभी कभार कोई एक-आध भी दिख जाए तो आश्चर्य होता है.

यहां सड़कों के किनारे पेड़ों की कृत्रिम कतारें उगाई गई हैं, पर उनमें एक भी फलदार पेड़ नहीं, तथाकथित सुंदर दिखने वाले विदेशी नस्लों के पेड़ हैं सब. पहले यहां पीपल, शहतूत, जामुन, बेर इत्यादि हुआ करते थे. पक्षियों के लिए खाने को आज कुछ भी नहीं बचा है...

अजित गुप्ता का कोना said...

मनुष्‍यों की गौरेया भी ऐसे ही छूटती जा रही है। बहुत अच्‍छी रचना। बधाई।

Rajesh Kumari said...

सभी गौरेया चली जायेंगी तो क्या होगा इस देश का काश लोगों को सद्बुद्धि मिलें,इस रचना के माध्यम से बहुत अच्छा संदेश दिया है मोनिका जी हार्दिक बधाई आपको इस सुंदर रचना हेतु

Amrita Tanmay said...

सुन्दर भाव-प्रवाह..

Unknown said...

गौरैया आती है "mere ghar pala hai maine bade pyar se ***सुबह की नींद ही गौरेया के कोलाहल से खुलती है , वाकई वो कहीं दूर निकल गयी है बहुत दुख होता है...
क्षितिज के पार ***अच्‍छी रचना। वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की

कुमार राधारमण said...

अपने ही बिछाए जाल में
फंसते जाते मनुष्य को
सह-अस्तित्व की मर्यादा
याद दिलाएगी गोरैया कभी!

vandana gupta said...

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (2-2-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बहुत सुंदर तरीक़े से आपने गौरैया की मर्मस्पर्शी मनोभावों का चित्रण किया.....
दुख होता है! उस गौरैया बिना सब सूना-सूना लगता है.... :(
~सादर!!!

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

बहुत सुंदर तरीक़े से आपने गौरैया की मर्मस्पर्शी मनोभावों का चित्रण किया.....
दुख होता है! उस गौरैया बिना सब सूना-सूना लगता है.... :(
~सादर!!!

Pratibha Verma said...

मेरे घर की मुंडेर पर
अब नहीं आती गौरैया ...
बहुत खूब ...

रश्मि प्रभा... said...

गौरैया भौतिकता की चकाचौंध के भयानक शोर से निकलकर कहीं छुप गई .... गाहे-बगाहे आँगन की खोज में कभी कभी नज़र आ जाती है

शिवनाथ कुमार said...

शोर बढ़ रहा है हर तरफ
शोर से दूर कौन नहीं रहना चाहता

सुन्दर रचना .
मुझे भी याद आ गयी गौरैया ..

सदा said...

फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती
आँगन में अब तो
और ना ही वो चहकती है
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की
शाख़ पर घौंसला बनाना भी
बिल्‍कुल सच
नहीं दिखती अब गौरेया

सदा said...

फुदकती गौरैया की चूँ-चूँ
भी सुनाई नहीं देती
आँगन में अब तो
और ना ही वो चहकती है
खलिहानों की मिट्टी में नहाते हुए
छोड़ दिया है गौरैया ने
नुक्कड़ के पीपल की
शाख़ पर घौंसला बनाना भी
बिल्‍कुल सच

Kumar said...

nice mam !!!

Dr. sandhya tiwari said...

अब तो दिलों के साथ साथ घर भी छोटे होने लगे हैं तो गौरैया शायद ही आये ............

ANULATA RAJ NAIR said...

देखो ना ,हमने मजबूर कर दिया उसे....नन्हे पंछी को तक नहीं छोड़ा...
बहुत सुन्दर रचना मोनिका जी...

अनु

जयकृष्ण राय तुषार said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की
बहुत ही खुबसूरत और अतीत में ले जाती कविता |बिलकुल लोकलुभावन ग्रामीण परिवेश की याद दिलाती है |

रेखा श्रीवास्तव said...

बहुत समझदार निकली गौरैया क्योंकि उसमें इंसान से अधिक संवेदनशीलता है की वह अपने अस्तित्व को बचने के लिए सजग हो गयी और हम उसी में छटपटाते रहते हैं और फिर दम तोड़ देते हैं।

Yashwant R. B. Mathur said...

गौरैया तो अब बस किताबों मे सिमट गयी है।

सादर

Harihar (विकेश कुमार बडोला) said...

जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने का भय न हो
और ना ही हो रीत दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की..........मनुष्‍यता हो कहीं तो गौरैया का विचार आए। विचारणीय कविता।

G.N.SHAW said...

वातावरण में सुधर जरूरी है अन्यथा एक दिन कुछ भी नहीं आएगा , न ही मिलेगा | सार्थक कविता |

डॉ टी एस दराल said...

सुन्दर प्रस्तुति।
एक समय था जब हमारे विदेशी मित्र चिड़ियों की चहचहाहट रिकोर्ड कर के ले जाते थे। अब यहाँ ही वो आवाज़ सुनाई नहीं देती।

Maheshwari kaneri said...

सच है उड़ गई वो इंसानो की इस स्वार्थी दुनिया से...

प्रवीण पाण्डेय said...

छत पर बैठ कर गौरया को गेहूँ खिलाना याद है..सुन्दर भाव..

Anupama Tripathi said...

सुंदर भाव .....कितना कुछ सँजोने का मन करता है ......काश कि सँजो पाएँ .....

कालीपद "प्रसाद" said...

गौरैया को अब मनुष्य की संगत अच्छी नहीं लगती .इसलिए दूर कहीं दूर अपना बसेरा बना लिया है.
New post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र

विभूति" said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति.....

Sunil Kumar said...

यथार्थ की लाजबाब अभिव्यक्त......

मेरा मन पंछी सा said...

स्वार्थी मनुष्य ने भगा दिया गौरैय्या को..
अब तो यह केवल चित्रों , कवितायेँ और कहानियो में ही पाई जाती है... भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

Arvind Mishra said...

हाँ परिंदे वहीं को उड़ चलते हैं जहाँ वे निर्विघ्न अपनी सन्तति का विस्तार कर सकें -मनुष्य भी तो!

Shalini kaushik said...

बहुत सही भावनात्मक अभिव्यक्ति बेटी न जन्म ले यहाँ कहना ही पड़ गया . आप भी जाने मानवाधिकार व् कानून :क्या अपराधियों के लिए ही बने हैं ?

Ramakant Singh said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की

सचमुच ऐसा क्यों हो रहा है

विभा रानी श्रीवास्तव said...

शुभप्रभात :))
बगेड़ी की चाह में गौरैया भी हलाल हो गई !!
शुभकामनायें !!

Arshad Ali said...

सही कहा आपने ....
गौरैया नहीं आती अब
लगता है बचपन में आने वाली शरारत की वो बहन थी ...अब शरारत और गौरैया ...दोनों लुप्त हो गए ...या फिर आती भी होगी नए रूप रंग में और हम पहचान नहीं पाते होंगे ...

बेहतरीन रचना ....

मदन शर्मा said...

बहुत सुन्दर सच्चाई से रूबरू कराती अभिव्यक्ति .......

ताऊ रामपुरिया said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार

गौरैया तो अब शायद क्षितिज के पार भी नही होगी. बहुत ही संवेदशील रचना.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार

गौरैया तो अब शायद क्षितिज के पार भी नही होगी. बहुत ही संवेदशील रचना.

रामराम.

virendra sharma said...

एक तरफ विश्व स्तर पर टूटते पारिश्थितिकी एवं पारितंत्र दूसरी तरफ भारत का पुत्र केन्द्रित /बलात्कारी कुत्सित समाज दोनों पर करारा तंज है यह रचना .सशक्त लेखन .

Tamasha-E-Zindagi said...

गौरैया को देखे और सुने तो ज़माना हो गया | सच में लुप्त हो गई वो | बहुत अच्छी रचना | शानदार अभीव्यक्ति | बधाई

Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page

दिगम्बर नासवा said...

इंसान की भूख जाने कितनों को खा गई है ओर कितनों को खाना बाकी है ...

इमरान अंसारी said...

कंक्रीट के जंगल इन बेचारों को खाए डाल रहे हैं.......बहुत सुन्दर ।

Ankur Jain said...

वो कहीं दूर निकल गयी है
क्षितिज के पार
बसाने एक नया संसार
जहाँ हर दिन घरौंदे टूटने
का भय न हो
और ना ही हो रीत
दाने-चुग्गे के साथ
जाल बिछा देने की......

सुंदर भावों को व्यक्त करती प्रस्तुति।।

Satish Saxena said...

हमने उसका दिल दुखाया है ...

virendra sharma said...

शुक्रिया आपकी सद्य टिपण्णी का .सौद्देश्य रहतें हैं आपके ब्लॉग पोस्ट के विषय समाज सापेक्ष .जीवन एवं हमारी रहनी सहनी से जुड़े हुए .पर्यावरण चेतना पैदा करती है प्रस्तुत रचना .किसी फेक्टरी का जब पर्यावरण टूटता है सबसे पहले उसके परिसर से पाखी उड़ जाते हैं .

mridula pradhan said...

behad samyik rachna.....

kavita verma said...

ham hi inke apradhi hai...inki duniya par hamne atikraman kiya hai..sundar abhivyakti

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

चूँ - चूँ करती , धूल नहाती गौरैया.
बच्चे , बूढ़े , सबको भाती गौरैया .

कभी द्वार से,कभी झरोखे,खिड़की से
फुर - फुर करती , आती जाती गौरैया .

बीन-बीन कर तिनके ले- लेकर आती
उस कोने में नीड़ बनाती गौरैया.

शीशे से जब कभी सामना होता तो,
खुद अपने से चोंच लड़ाती गौरैया.

बिही की शाखा से झूलती लुटिया से
पानी पीकर प्यास बुझाती गौरैया.

दृश्य सभी ये ,बचपन की स्मृतियाँ हैं
पहले - सी अब नजर न आती गौरैया.

साथ समय के बिही का भी पेड़ कटा
सुख वाले दिन बीते, गाती गौरैया.

ronikren said...

गौरैया कहीं नहीं गयी है , हम लोगों ने ही उस को खत्म दिया है .
खेतों में हम खाद और केमिकल के रूप में इतना ज़हर डालते हैं
की नन्हा प्राणी उन दानों को खा कर जीवित नहीं रह सकता .
हम लोग च्युइंग गम खा कर कहीं भी थूक देते हैं ये निरीह पक्षी उस
को निगल जाते हैं और मर जाते है।
हम लोग धीरे धीरे सारे ब्रह्माण्ड में तबाही मच रहे हैं
आज न नदी का पानी पीने लायक है और न धरती के भीतर का .
हम स्वयं उस डाली को काट रहे हैं जो हमको सहारा देती है .

विनाश काले विपरीत बुद्धि ........................

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