महिलाओं की असुरक्षा का प्रश्न केवल किसी घटना के घटने और उससे जुड़े समाचारों के प्रसारण-प्रकाशन तक ही आम जन के मष्तिष्क में रहता है | यह आम धारणा है | पर सच इससे कहीं अलग | दिल्ली जैसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के बाद भले ही उस एक हादसे को लोग भूल जाएँ पर घरों- परिवारों में ऐसी दुखद वारदात के निशान सदा के लिए चस्पा हो जाते हैं | फिर हमारे यहाँ तो आये दिन ऐसी घटनाएँ होती हैं | कोई भूले भी तो कैसे ? झकझोर देते है ऐसे हादसे हर उस परिवार को जिसकी बिटिया कुछ करना चाहती है | आगे बढ़ना चाहती है | घर से दूर जाना चाहती है | यूँ भी शिक्षा या नौकरी से जुड़ी सारी आवश्यकताएं एक शहर में ही पूरी हो जाएँ, यह संभव भी नहीं है | बेटियों और उनके परिवारों के ऐसे निर्णय को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे हादसे प्रभावित करते हैं | इस सीमा तक की पूरी सोच ही दिशाहीन हो जाती है | उस भय के चलते जो घर से दूर जाने वाली बेटियों के माता-पिता के मन में इन घटनाओं के चलते उपजता है |
मेरे एक परिचित परिवार की बिटिया ने अपनी पढाई पूरी कर ली है अब किसी महानगर में जाकर नौकरी खोजना चाहती है | आत्म निर्भर बनने के सपने को पूरा करना चाहती है | जिसके लिए उसने दिन रात मेहनत की है | जो डिग्री उपार्जित की है उसमें अव्वल भी आई है | स्वयं को साबित करने की उसकी दौड़ में उसके परिवार ने भी साथ दिया है | परिवार की भी हमेशा यही इच्छा रही कि बिटिया आत्मनिर्भर बने | पर अब उनके मन मस्तिष्क में आये दिन समाचार पत्रों की सुर्खियाँ बनने वाली वीभत्स घटनाओं के चलते अनजाना -अनचाहा भय उनके मन में आ बैठा है | परिवारजन अब बस बेटी की शादी कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं |
ऐसा एक ही परिवार तो नहीं होगा | यह तो हम सब समझते ही है | यह आज के परिवेश का कटु सत्य है कि महिलाओं की असुरक्षा पूरे समाज और परिवार का मनोबल तोड़ रही है | इस देश में अनगिनत परिवार हैं जो ये चाहते हैं कि उनकी बेटी किसी पर आश्रित ना रहे | जीवन में आने वाले भले बुरे वक्त में अपना सहारा आप बने | ऐसी सोच रखने वाले अभिभावकों की मानसिकता को ठेस पहुँचाते हैं ये हादसे | महिलाओं की अस्मिता के साथ होने वाला यह दुखद खेल पूरे समाज की आशावादी सोच को आघात पहुँचा रहा है | उस मानसिकता को आहत कर रहा है जो बेटियों को हर तरह से अधिकारसंपन्न बनाने का स्वप्न संजोये हैं |
देश की आधी आबादी के साथ होने वाली ऐसी निर्मम घटनाएँ अपने ही देश में हमें असहाय होने का अनुभव करवाती हैं | ऐसी परिस्थितियों में पलायन की सोच बहुत प्रभावी हो जाती है | जिसके चलते अनगिनत परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के लिए इतने चिंतित हैं कि बिटिया के भविष्य को लेकर बुने सपनों से ही मुंह मोड़ लेते हैं | यह सत्य है कि यूँ पीछे हटने मात्र से इस सामाजिक विकृति का हल नहीं खोजा जा सकता पर वास्तविकता यह भी है कि पलायनवादी सोच भी अपने पैर पसार ही रही है | कितनी जद्दोज़हद के बाद तो समाज की मानसिकता में परिवर्तन परिलक्षित हुआ है कि बेटियों के आगे बढ़ने में कोई बाधा उपस्थित न हो | ऐसे में अपने पारिवारिक -सामाजिक परिवेश की लड़ाई क्या कम थी जो अब इन घटनाओं के चलते भी आम परिवार बेटी की उन्नति को दोयम दर्ज़े पर रखने को मजबूर हो रहा है |
आम भारतीय परिवार के मनोबल को दुर्बल करने के लिए जितनी ये दुखद घटनाएँ उत्तरदायी हैं उतनी ही जवाबदेह इन्हें रोकने में हमारी प्रशासनिक व्यवस्थाओं की विफलता भी है | लम्बी कानूनी प्रक्रिया हो या अपराधियों को दण्डित करने का निर्णय | हर बार सत्तालोलुप सोच के चलते बस राजनीति ही की जाती है इन हादसों को लेकर | ऐसे में देश के परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हों भी तो कैसे ? ऐसी घटनाओं को लेकर पूरी व्यवस्था ही निर्दयी और संवेदनहीन प्रतीत होती है |
42 comments:
चिंताजनक स्थिति तो है |कानून के साथ सामाजिक बहिष्कार भी होना आवश्यक है |पहले जो अपराधी होते थे उनका सामाजिक बहिष्कार होता था अब समाज में अपराधियों का रुतबा बढ़ता जा रहा है उनका हुक्का पानी बन्द नहीं होता |इसका बहुत बुरा असर समाज पर पड़ रहा है |स्थिति यहाँ तक है की कानून भी उन्ही के इशारे पर चलता है कुछ मामलों को छोडकर |
@ Jaikrishn rai ji अपराधियों के साथ होने वाला ऐसा व्यव्हार भी अंततः आम नागरिक का मनोबल ही तोड़ता है , उसे असुरक्षित महसूस करवाता है
एक संक्राति काल सा बना हुआ है!
किसी एक व्यवस्था को दोष देना शायद न्याय संगत नहीं होगा क्योंकि अभी हाल में ही मेरे गृह ग्राम अकलतरा में घटित तथाकथित गैंग
की घटना की स्थिति इतनी उलझी हुई है कि कुछ भी बिन्दुवत कह पाना कठिन हो गया। कृपया विक्रम वेताल 8 और 9 देखने का कष्ट करें शायद आप सहमत हों। हमें अपने जीवन मूल्यों सहित अपनी अस्मिता को ध्यान बनाये और बचाए रखें जिम्मेदारी हमारी दूसरा किसी को भी दोष क्यों दें।
| हर बार सत्तालोलुप सोच के चलते बस राजनीति ही की जाती है इन हादसों लेकर | ऐसे में देश के परिवार अपनी बेटियों की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त हों भी तो कैसे ? ऐसी घटनाओं को लेकर पूरी व्यवस्था ही निर्दयी और संवेदनहीन प्रतीत होती है |
बहुत सार्थक बात .......आजकल राजनीति ही प्रबल है |बस वोट के लिए सोचना है ...समाज के लिए नहीं ......सामाजिक बदलाव के लिए कहीं कुछ आशा की किरण दिखती है तो मन खुश हो जाता है .....
स्तिथि और आंकड़ों में कोई सुधार नहीं है ... अभी भी ऐसी वीभत्स घटनाओं के बारे में समाचारों में पढने सुनाने को मिल ही जाता है ... कभी सुना था की पूरे समाज को sensitize करने की आवश्यकता है। लेकिन सवाल तो वहीँ आकर खड़ा हो जाता है कि हो कैसे? राजनेताओं को बस कुर्सी से मतलब है, अभी तक मैंने किसी भी राजनेता को इस मामले पर सटीक उपाय सुझाते नहीं सुना - वो खुद ही sensitized नहीं हैं!
sundar, bahut hi ghana kohra chaya hua hai charotaraf,
हम अपने नैतिक संस्कार, सभ्यता को भूल रहे हैँ। कानून से पहले जरूरी है सामाजिक जागरुता.
1111
http://yuvaam.blogspot.com/p/blog-page_9024.html?m=0
आपकी बात से में बिलकुल सहमत हूँ
जब तक हम खुद इस की जिमेवारी नहीं लेंगे तब तक कुछ नहीं हो सकता क्यूँ की वो दरिन्दे है तो हम में से ही हम खुद उनका विरोध ही नहीं कर पाते है करते भी है तब तक काफी देर हो चुकी होती है
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
वाकई यह बडी चिंताजनक स्थिति है जिससे निजात पाना अकेले सरकार के बस की बात भी नही है. जब तक हम अपनी सोच और नैतिक दायरे को विस्तृत नही करेंगे तब उम्मीद बेमानी है. हमारी सामाजिक परिस्थितियां इस मामले में अब भी कुछ खास नहीं बदली हैं.
रामराम.
इस समस्या का समाधान इतना आसान नहीं - बहुत गहरी जड़ें हैं ,और जिन पर अंकुश लगना चाहिये उन्हे छूट मिली है.
पीछे देखने पर यही दिखता है महिलाओं की यह स्थिति ना सिर्फ अपने समाज में है बल्कि विश्व के दूसरों हिस्सों में भी है. आज के जो विकसित देश है वहां पर भी आज से कुछ दशक पूर्व तक महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी, उन्हें बराबर के अधिकार नहीं थे. ऐसे में ये सवाल आता है कि आखिर ऐसी स्थिति हर तरफ क्यों है/रही है. यह एक संस्कृति या समाज की समस्या होती तो एक ख़ास हिस्से में होती. पलायनवादी सोच के जो हैं उनके लिए दुखी हूँ क्योंकि घर के अन्दर कर लेने से महिलाएं सुरक्षित तो नहीं हो जाती. आंकड़े तो कुछ और ही कहते हैं .
सबसे ज़रूरी है न्यायिक प्रक्रिया में सुधार ... साथ ही आम नागरिक का सहयोग .... ज्वलंत समस्या पर सटीक विचार रखे हैं ।
पता नहीं, वह सम्मिलित सुरक्षा का भावना कब आ पायेगी हमारे समाजों में...उद्वेलित करता हुआ आलेख..
बिल्कुल सही कहा आपने ... सार्थकता लिये सशक्त लेखन
हम कहने को भले ही 21 सदी मेन विचरण कर रहे हों मगर आज भी कहीं न कहीं पुरानी दक़ियानूसी विचारधारा से बंधे हुये हैं। औरत को बरसों बाद भी वो हक नहीं मिला जो मिलना चाहिए। उसके लिए सिर्फ सरकार ही नहीं समाज भी दोषी है ।
सहमत हूं आपसे ये एक बहुत ही चिंतनीय स्थिति है ... इसके लिए समाज ओर प्रशासन को कड़ी मेहनत करनी होगी ... समाज में हम भी हैं ओर हमें भी जरूरत है इसे सुधारने की ...
Parents are always one step ahead when it comes to worrying about their children... it is good till it doesn't hampers the growth and development of child..
Incidents like of Delhi.. increases the anxiety and many people suffer..
We cannot blame a single person for this... It's a mutually inclusive problem and mutual efforts are needed..
That we always say...If only it is implemented in reality...
वोट बैंक पर देश न बेचो , अब तो कुछ अस्मत की सोचो
बहुत सह लिया अब न सहेंगें ,जल्द सख्त क़ानून चाहिए,
पूँछ रही है देश की जनता,क्या शाशन को सहयोग चाहिए
अब न दामिनी लुटने पाये , जन - जन का सहयोग चाहिए.
Recent Post दिन हौले-हौले ढलता है,
720 महीनों के शासन को उखाड़कर ही कुछ किया जा सकता है।
अत्यंत ज्वलंत मुद्दे को उठाया है आपने.........हमेशा की तरह कोई तर्कसंगत हल नहीं है इसमें क्योंकि हर आम भारतीय ऐसे मुद्दों पर असहाय हो जाता है.......प्रशासन की कमजोरी सबसे बड़ी है........लोगों को रत्ती भर विश्वास नहीं है अब कानून व्यवस्था पर ।
न्यायिक प्रक्रिया में बिना सुधर किये कुछ भी नही हो सकता,कुछ कठोर कदम उठाने ही पड़ेगे तभी इन दरिंदों से दामिनीयों का बचाव हो सकता है.बहुत ही सार्थक आलेख.
अभी आवाजें उठनी शुरु हुयी हैं फलीभूत होने सें सदियां लग जायेगी।
समस्या इतनी फ़ैल चुकी है कि सुधार की शुरुआत कहाँ से कैसे हो समझ इमं नहीं आता. माता पिता की स्थिति समझी जा सकती है.
सबसे बड़ा रोना तो यही है कि ये हमारे ही बीच में रहतें हैं और हमें एहसास भी नहीं होता ...शर्मनाक तो ये है की जिस नारी की उपज हैं ये उसी को कुचलने में बिलकुल नहीं हिचकते ...
Its alarming situation and People as well as Govt are sleeping!
Delhi accident was a wake up call.
तम आज, गहनतम हैं।
स्तब्ध आम जन हैं।
हौसले अभी टूटे तो नहीं,
हर आंख लेकिन नम हैं।.....
समस्या बहुत गंभीर होती जा रही है, व्यवस्था की कमजोरी भी इसका मुख्य कारण है. लेकिन सामाजिक बंदिशें कुछ तो परिवर्तन ला सकती है . सटीक आलेख
आदर्शवाद कागजों /किताबों में दिखने से माने नहीं रखता , वास्तविक धरातल पर सामाजिक स्थितियां भयभीत करती है!
यह तो सर्वविदित है कि महिलाएं सभी जगह असुरक्षित हैं। लेकिन इसके लिए महिला को भी पहल करनी होगी। थोड़ी सावधानी, थोड़ी हिम्मत और थोड़ा स्वाभिमान से ही समस्या पर कुछ हद तक लगाम लगायी जा सकती है। यह नहीं हो सकता कि चोरों के देश में अपने घर को खुला छोड़ दें और चोरी ना हो, इसकी गारण्टी मांगे। परिवार में भी अपने बच्चों को संस्कारित करना और उन्हें महिला के प्रति सम्मान सिखाना भी हमारा ही काम है।
Mahatwapurn Lekh...
आप की बातो से बिलकुल सहमत हूँ की इन घटनाओ का एक अप्रत्यक्ष प्रभाव भी पड रहा है समाज पर, भले ही वो दिखाई न दे किन्तु उससे सबसे ज्यादा नुकशान लड़कियों का ही हो रहा है, जो असल में ऐसी घटनाओ में पीड़ित होती है । कानून व्यवस्था का मामला पहले है , यदि सुरक्षा व्यवस्था बेहतर हो तो समाज में बहुत से परिवार है जो अपनी लड़कियों को भी आगे बढ़ाना चाहते है , उन्हें भी आत्मनिर्भर करना चाहते है , किन्तु ऐसी एक भी घटना कई लड़कियों को घरो में बंद कर देती है ।
सचमुच ,बडी चिंताजनक स्थिति है
लडकियां फिर भी अकेले पढने ,नौकरी करने जा ही रही हैं पर माता-पिता के मन में एक भय सा बना रहता है .
कब वे निश्चिन्त की नींद सो पायेंगे, पता नहीं
स्थिति चिन्ताजनक से भयावह होती जा रही है और सभी इस विषय को लेकर चिंतित है.यह समस्या सामजिक समस्या बन गयी है जिसमे सरकार को तो मुस्तैद और कठोर कदम उठाने ही पड़ेंगे परन्तु हमें भी अधिक संवेदनशील होना पड़ेगा.
व्यवस्था गत परिवर्तन सामाजिक सोच ,राजनीतिक प्रबंध में ,पुलिस तंत्र में इस स्थिति को बदले तो बदले अभी तो समाज पतनोंमुख है .अफसोसनाक है यह तस्दीक करना .लेकिन सच यही है .
चिंतन,मंथन से ही कुछ हल निकले शायद ।
सामयिक सार्थक आलेख ....।
इमरान अंसारी से भी पूरी तरह सहमत हूँ :- अत्यंत ज्वलंत मुद्दे को उठाया है आपने....। हमेशा की तरह कोई तर्कसंगत हल नहीं है इसमें क्योंकि हर आम भारतीय ऐसे मुद्दों पर असहाय हो जाता है....। प्रशासन की कमजोरी सबसे बड़ी है....। लोगों को रत्ती भर विश्वास नहीं है अब कानून व्यवस्था पर ....।
न्यायिक अवहेलना बढ़ रही है |जो किसी भी समाज के लिए शुभचिंतक नहीं है | जैसा बोवेंगे वैसा ही काटेंगे | सामाजिक कुरीतिय बढ़ रही है | अनुशासन की कमी है ,वगैरह - वगैरह |प्रेरक पोस्ट
चिंतनीय स्थिति है, जिम्मेदारी महसूस करवाती सोच
सच कहा चिंता की बात तो है ....लेकिन बेटियों को शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनना और बनाना भी जरुरी है आत्मनिर्भरता एक व्यक्तित्व देती है ....हालात महिलाओं के लिए कभी अच्छे नहीं थे न ही रहेंगे अब तो बराबरी का प्रश्न है मुश्किलें आयेंगी ही डरने से काम नहीं चलेगा तमाम मुश्किलों के बावजूद बेटियों को माता पिता के प्रोत्साहन की जरुरत है !अपने सपनों को साकार करना है तो हर चैलेन्ज को एक्सेप्ट करना होगा क्या पता आज जो स्थिति है कल नहीं रहेगी !
समाज के पास भी नहीं हैं इसके ज़वाब जो खुद भी आंशिक रूप से ऐसी घटना के लिए कुसूरवार रहता है .जहां तक सरकार की बात है वोट के आगे लार टपकाने वाली राजनीति उसे आतंकवाद के खिलाफ ही ढुलमुल रवैया रखने वाली सरकार बनाए रही है .उसके पास सूचना रहती है फिर अपराध घटित हो जाता है बम फट जाते हैं इससे ज्यादा दुखद क्या होगा .कोई बचावी या अपराध को गह्टने न देने वाली रणनीति सरकार के पास है ही नहीं क़ानून व्यवस्था का पालन तो सरकार खुद भी नहीं करती .
आपकी टिपण्णी हमें प्रासंगिक बनाए रहती है ,ऊर्जित करती है .शुक्रिया आपका तहे दिल से .
very ture...aise halat mein hi hum sab ek bar phir se sochne lge hein ki apne bache ko bahar bheja bhi jye ya nhi ya phir shadi hi kar de...uske sapne dekh ankho mein apna bachpan samne aa jta hein.akhir uski kya galti hein.kaise bachpan mein khel khel mein kabhi doctor to kabhi teacher ban ke muh banati thi..
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.आम परिवार बेटी की उन्नति को दोयम दर्ज़े पर रखने को मजबूर हो रहा है |
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