तकनीक ने जीवन को जितना सरल किया है उतना ही उलझाया भी है। यंत्रवत हो चले
जीवन से संवेदनाएं कुछ यूं गुम हुई हैं कि हम अपने मन की कहने और अपनों के
मन की सुनने के बजाय मात्र एक आभासी उपस्थिति दर्ज करवाने के आदी हो रहे
हैं। आपाधपी भरे आज के जीवन में यूँ तो सभी की दिनचर्या व्यस्त है ही । अपने रोजमर्रा के क्रियाकलापों के अलावा मिलने वाले समय में भी अगर
घर-परिवार के लोगों में संवादहीनता की स्थिति आ जाये तो
संबंधों में साथ रहते हुए भी दूरियाँ अपनी जगह बना ही लेती हैं।
परस्पर संवाद की कमी और एकाकीपन की इस जीवनशैली को बढावा देने में अपनों को छोड़ सारे संसार के साथ बना आभासी संबंध काफी हद तक जिम्मेदार है। जिसके चलते हम सबने अपने वास्तविक परिवेश को छोड़ एक अलग ही दुनिया बसा ली है । जिसके कुछ परिणाम तो हम सबके समक्ष हैं और कई सारे आने वाले समय में हम सबके सामने होंगें । समय के साथ बदलते हुए तकनीक को अपनाना, उसे जीवन में स्थान देना अनुचित नहीं है । लेकिन उपकरणों के मायावी संसार में हमारा अपना मन-मष्तिष्क ही एक उपकरण बन कर रह जाये, यह तो निश्चित रूप विचारणीय है । हमारी इस तकनीकी जीवनशैली ने सबसे ज्यादा पारिवारिक संवाद पर प्रहार किया है । हम मानें या ना मानें आपसी रिश्तों में एक अघोषित अलगाव की स्थिति बन गई है।
जिस तरह ईंट पत्थर से बना मकान तब तक घर नहीं बनता जब तक उसमें बसने वालों की भावनाएं और संवेदनाएं वहां अपना डेरा नहीं जमातीं । ठीक उसी तरह आपसी संवाद के बिना रिश्ते भी नाम भर को रह जाते है । जिनमें ऊपर से सब ठीक ही दिखता है पर भीतर बहुत कुछ अनमना सा, बेठीक सा होता है । आज की तथाकथित आभासी जीवनशैली इसी असमंजस और अलगाव को दिनोंदिन और पोषित कर रही है । तकनीकी संवाद ने परिवार और समाज की सामूहिकता को विखंडित कर हमें संवेदनहीन सा बना दिया है ।
आभासी संसार का बढ़ता समुदाय हमें लोगों से जोड़ रहा है या अपनों से तोड़ रहा है यह समझने का समय किसी के पास नहीं। आस-पड़ौस और रिश्तेदारी का दायरा तो अब पूरी तरह सिमट गया है । जिस तरह हम इस आभासी संसार में खो रहे हैं लगता है कि जल्दी ही विकसित देशों की तरह हमारे यहाँ भी घर के लोगों का आपसी संवाद स्क्रीन की दीवार पर लिखे शब्दों के माध्यम से हुआ करेगा। आगामी पीढियां सामाजिक -पारिवारिक संबंधों के प्रत्यक्ष संवाद से तो अपरिचित ही रहेंगीं । यूँ भी अब हमें प्रत्यक्ष संवाद सुहाता ही कहाँ है ? आभासी संसार वाले कुनबे के सदस्यों की तरह बात हो तो सिर्फ खूबियों की हो । अपनी खामियों के विषय में सुनने और समझने का धैर्य तो हम कब का खो चुके हैं ।
आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं। यकीन मानिये अब तो हम सब स्वयं को भी पहले से कम ही पहचानते हैं ।
78 comments:
अपने समय से संवाद करता एक महत्वपूर्ण (परिपूर्ण आलेख ).समस्या को रेखांकित करता अब न संभले तो देर हो जाएगी .
डॉ .मोनिका !आपने आगे क्या होगा इसे बिलकुल दो टूक देख लिया है चिंता हमें भी है ,आभासी जीवन शैली की बाँझ कोख से अनेक रोग निसृत होने लगें हैं .frozen shoulder ,spinal problem,obsessions
आम हैं .आखिर में यह अति अवसाद की और ही ले जाएगी .शुरुआत हो चुकी है .एक महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या को आपने उठाया है .
हमने मेहमान कक्ष्ा में पहले टेलीविज़न रखा ही नहीं हुआ था. बच्चों की वजह से रख दिया पर जब भी कोई आता है तो सबसे पहले टी.वी. बंद किया जाता हैं वरना मैंने पाया कि लोग साथ साथ बैठे होने के बाद भी, बात करने के बजाय अनजाने में ही टी.वी. देखने लगते हैं ... सवाल सिफ़ै इस बात का है कि हम मीडियम का प्रयोग करें न कि मीडियम हमारा उपयोग करने लग जाए.
सही लिखा है आपने.
Very true,this like being alone and feeling lonely in the crowd! Thanks to latest commxnication technologies!
आपका लेख विचारणीय है ... इस लेख के माध्यम से जाना की इस युग से हम किस तरह एकांकी बनते जा रहे हैं।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं।
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
जिस तरह ईंट पत्थर से बना मकान तब तक घर नहीं बनता जब तक उसमें बसने वालों की भावनाएं और संवेदनाएं वहां अपना डेरा नहीं जमातीं । ठीक उसी तरह आपसी संवाद के बिना रिश्ते भी नाम भर को रह जाते है ।
आज के समय की विसंगति पर एक सार्थक लेख .....यंत्रवत जीवन ने व्यक्ति की संवेदना पर प्रभाव डाला है और इससे उसका संवाद कहीं ख़त्म हो गया है ....!
तकनीक के भी अच्छे बुरे दोनों पहलू हैं ...कई बार आभासी दुनिया के रिश्ते वास्तविक हो जाते हैं तो कभी वास्तविक भी सिर्फ आभासी रह जाते हैं .. हर रिश्ते की अपनी अहमियत, बस निर्भरता कम रखी जाए !
यंत्रों के साथ रहकर भावनाएं भी यंत्रवत हुई है !
सार्थक लेख ...
@ आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं।
सहमत! हम सिर्फ़ बढ़ती संख्या के गिनने में व्यस्त हैं।
वाह ! बहुत ही सामयिक और सार्थक पहलू , जीवन शैली के बदलाव का |
उड़ान से पहले जमीन को छोड़ना ही पड़ता है |जमीन पर रहने पर आसमान नहीं मिलता ,आसमान पर रहने पर जमीन दूर हो ही जाती है लेकिन हर परिंदा उड़ान के बाद अपने नीड़ में वापस लौट आता है |अच्छी पोस्ट के लिए आभार |
अर्थपूर्ण लेख ...
संवेदनशीलता की जगह हर जगह दिखावा और संवाद हीनता ने ले लिया है !
आज अपनों के पास बात करने के लिए विषय ही नहीं बचा है !
हमें खुद को टटोलना होगा !
hamare drawing room me na tv hai na clock...:)
hamare drawing room me na tv hai na clock...:)
विचारणीय आलेख
संवादहीनता को ही मृत्यु शायद कहा जा सकता है क्योकि संवाद की स्थिति बनी रहे तो हम जीवित हैं और संवाद की स्थिति ही समाप्त हो जाये तो शायद मृत्यु ....
बहुत सही कहा है आपने .
आभासी संसार का बढ़ता समुदाय हमें लोगों से जोड़ रहा है या अपनों और अपने आप से तोड़ रहा है यह समझने का समय किसी के पास नहीं। आस-पड़ौस और रिश्तेदारी का दायरा तो अब पूरी तरह सिमट गया है
सटीक विचार रखे हैं .... विचारणीय बातें ।
इस स्टेटस के चक्रव्यूह में सारे सम्बन्ध मृतप्रायः हो गए
यंत्रवत चलेगा जीवन ..
तो संवेदनाएं तो गुम होंगी ही ..
सही कह रही हैं मोनिका जी आप ये आभासी संसार हमें आज वास्तविक संसार से तोड़ रहा है कारण ये है कि यहाँ झूठी प्रशंसा है सराहना भी .सराहनीय प्रस्तुति आभार
विचारणीय एवं सार्थक लेख...
aaj rishton me failte faanslo par ek bahut acchha lekh. bahut hi durooh sthiti bani hui hai aur dar hai yeh sthiti aage aur bhi bhyanak parinaam lane wali hai. bahut gambheer aur vichaarneey vishay hai ye..hame is aabhaasi duniya se bahar nikalna hi chaahiye....warna vo din door nahi ki India bhi rishton aur sankriti ke mamle me america ban jayega.
विचारणीय सुन्दर अभिव्यक्ति .... सहमत हूँ ....
वाह बहुत ही बढ़िया बिना किसी लाग लपेट के लिखा गया एक सामयिक संतुलित एवं सार्थक आलेख...
बिल्कुल सही कहा है आपने ...
सार्थकता लिये सशक्त प्रस्तुति।
"आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं। यकीन मानिये अब तो हम सब स्वयं को भी पहले से कम ही पहचानते हैं ।"
सच तो बस यही है....!
बहुत सही लिखा आपने ..
बिल्कुल सही लिखा है. आभासी दुनिया के रिश्ते भी आभासी ही होते हैं.
यह बात सभी समझते भी हैं , और लिप्त भी रहते हैं, वास्तविक रिश्तों को भूलकर .
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ ,पढ़कर अच्छा लगा लोग आभासी दुनिया में इतने खो गयें हैं की खुद से भी दूर हों जा रहे हैं ....
जिसके कारण नई नई बीमारियाँ पनपी हैं ,हर बिमारी का कारण मनुष्य की सोच वा रिस्पोंस हैं |
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ ,पढ़कर अच्छा लगा लोग आभासी दुनिया में इतने खो गयें हैं की खुद से भी दूर हों जा रहे हैं ....
जिसके कारण नई नई बीमारियाँ पनपी हैं ,हर बिमारी का कारण मनुष्य की सोच वा रिस्पोंस हैं |
सही बात है, जैसे-जैसे साधन और तकनीक विकसित हो रही है, परिवार में पारस्परिक संवादहीनता बढ़ती जा रही हैं... सार्थक आलेख के लिए आभार
samy se rubru karati sundar prastuti
कल का सवाल !
यह अपनापन क्या होता है ???
जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं,,,,,ये सब आभासी दुनिया का रंग है,,,,
RECENT POST : समय की पुकार है,
सार्थक मुद्दे पर एक बेहद उम्दा आलेख ... बधाइयाँ !
पृथ्वीराज कपूर - आवाज अलग, अंदाज अलग... - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
sahi likha aapne aaj ham bhavnao se dur hote ja rahe hai bhale hi takniki ne duniya ko global village bana diya hai lekin dil ki duriya badhti ja rahi hai
एक बहुत ही महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या को आपने उठाया है . .. अर्थपूर्ण और विचारणीय लेख ..
विकास की इस दौड़ में , हम कितना बदल गए हैं ,
जन्मदिन भी अब तो , फेसबुक पे मनाते हैं सभी |
बहुत सटीक और सार्थक लिखा है आपने |
सादर
So true.. :(
बहुत ही गहन चिंतन और सटीक बात,
आपसी दूरियाँ बढती जा रही हैं
शत प्रतिशत पते की बात ...कटु सत्य...yah maatr doosron ke liye hi nahi hai...swayam mai apne me jhaank ke dekh raha hoon...
बिलकुल सही बात लिखी है. यह एक सच है की अगर आभासी और यथार्थ की दुनिया में एक साम्य ना बनाया जाय तो जीवन का मज़ा कम हो जाएगा.
टेक्नोलॉजी से फायदे तो हुए हैं, मगर हमारी दूरियां भी अजीबोगरीब बढ़ गयी हैं अपनों से .. सार्थक आलेख
सादर
मधुरेश
स्टेट्स अपडेट्स के दौर में पारिवारिक संवादहीनता
अपने समय से संवाद करता एक महत्वपूर्ण (परिपूर्ण आलेख ).समस्या को रेखांकित करता अब न संभले तो देर हो जाएगी
.आलम यह है अब आभासी दुनिया से जुड़े रोगों पर भी चर्चा होने लगी है :
(1)FROZEN SHOULDER
(2)OBSESSIVE COMPULSIVE BLOGGING DISORDER .
(3)DEPRESSION .
(4)SPINAL PROBLEMS.(5)मोटापा
ये सब आभासी दुनिया की सौगातें हैं .
आभासी दुनिया के रिश्तों में हमे अपनी कमियों को देखने से बचते रहते है जो शायद हमारे व्यकतित्व का कमजोर पक्ष है .
सार्थक पोस्ट....
जितने साधन बढ़े है,,,उतने ही हम एक-दुसरे से अलग होते जा रहे है...
अपने रोजमर्रा के क्रियाकलापों के अलावा मिलने वाले समय में भी अगर घर-परिवार के लोगों में संवादहीनता की स्थिति आ जाये तो संबंधों में साथ रहते हुए भी दूरियाँ अपनी जगह बना ही लेती हैं। bilkul sahi .....
सच कहा आपने, भौतिक और आभासी विश्वों के बीच साम्य बिठाना होगा, नहीं तो ऊर्जा बह जायेगी।
बिलकुल मेरे मन की बात कह दी है आपने मोनिका जी!!
सुख-सुविधा के साधनों ने दुख-दुविधा ज्यादा दी है।
संवादहीनता से रिश्तों की डोर कमजोर होती जा रही है।
समाधान तलाशना होगा।
मनुष्य यंत्र वशीभूत हो गया है इसका उपचार आवश्यक है।.
जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल के बोल याद आ रहे हैं...
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी...
शायद यही सहज सामान्य है| फोन की घंटी बजाते ही लोग सामने प्रत्यक्ष बैठे व्यक्ति को इग्नोर करके अनायास ही दूरस्थ को तवज्जो दे देते हैं वैसे ही अपने आसपास के अपनेपन को पहचाने बिना दूरियों में नज़दीकी ढूँढने वालों की कमी नहीं है|
सटीक मुद्दे पर एक सार्थक पोस्ट।
भीड़ में वयक्ति के अकेलेपन को सौ वर्ष पहले महसूस किया जाने लगा था. आपने आभासी संसार में अकेले होते व्यक्ति को रेखांकित किया है जो आज का सच है. जहाँ हम पहुँच रहे हैं वहाँ से वापसी संभव प्रतीत नहीं होती. क्या विकास की इस दिशा को नकारात्मक दिशा मान लिया जाए? स्वीकार कर लेने के बाद भी क्या वापसी हो सकती है?
बहुत बढ़िया आलेख.
एक साथ रह कर भी एक दूसरे से अनजान -बस ऊपरी टीम-टाम !
जन-जन के जीवन से जुड़े मुद्दों को रेखांकित करते हुए आपके आलेख अत्यंत प्रभावशाली होते हैं जो उनके दुष्परिणामों के प्रति आगाह करते हैं साथ ही सचेत रहने की प्रेरणा भी देते हैं - आभार
जन-जन के जीवन से जुड़े मुद्दों को रेखांकित करते हुए आपके आलेख अत्यंत प्रभावशाली होते हैं जो उनके दुष्परिणामों के प्रति आगाह करते हैं साथ ही सचेत रहने की प्रेरणा भी देते हैं - आभार
as always informative and thought provoking post. sochne ki zarurat hai...
bahut hi chinta ka vishay hai...sahmat hun poori tarah
बिलकुल सही बात लिखी आपने
आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं। यकीन मानिये अब तो हम सब स्वयं को भी पहले से कम ही पहचानते हैं ।
...बहुत सार्थक चिंतन...संवादहीनता अनेक सामाजिक बुराइयों को जन्म दे रही है..
आपकी बातों से हम पूर्णतया सहमत है आज हम ही अपने घर मे देखते है कि घर के सदस्य आकर टी वी देखते है । संवादहीनता हर जगह अपना पैर पसार रही है ।
जरूरी और बहुत ही जरूरी मुद्दे पर बातचीत की है अपने... बहुत से लोगों को देखता हूँ कि वे २४ में से ४८ घंटे ऑनलाइन दीखते हैं... आप किसी भी वक़्त फेसबुक या जीमेल और दूसरी साईट खोलिए वो आपको अंगद की तरह वही जमे मिलेंगे....
आभासी दुनिया में भी अछे सम्बन्ध बनते हैं इस बात से इनकार नहीं है, लेकिन जो जमा पूंजी पहले से है उसे तो सहेजना ही होगा, उसे भी तो वक़्त चाहिए
Children faces the real danger .They are so much hooked to technology,they just don ,t know what are they being fed .Their focus is Wii games and a sort of
tecnologies. They don ,t watch the colour and texture of food ,just eat .
Children faces the real danger .They are so much hooked to technology,they just don ,t know what are they being fed .Their focus is Wii games and a sort of
tecnologies. They don ,t watch the colour and texture of food ,just eat .
बहुत प्रासंगिक लेख। सचमुच छीजते जा रहे संबंधों के पीछे यह माध्यम ही है। हम अब इस आभासी दुनिया के फेर में अपनों से दूर होते जा रहे हैं।
मोनिका जी आपने अपने इस लघु लेख में हक़ीकत बयान की है ऽअज के हर व्यक्ति के जीवन में जो अन्तर्मुखी दृष्टिकोण विकसित हो रहा है , उसका मूल कारण संवादहीनता ही है। आपकी ये पंक्तियाँ बेहद प्रभावित करती हैं-''आज के दौर में हमारे पास एक दूसरे को जानने -समझने के जितने साधन बढे हैं उतने ही हम अजनबी हो गए हैं। यकीन मानिये अब तो हम सब स्वयं को भी पहले से कम ही पहचानते हैं ''।
अफ़सोस,कि जो मशीन मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है था,वही मनुष्यता की सबसे बड़ी बाधा साबित हुआ है।
आज के दौर मे पारिवारिक मेल मिलाप और सच्चा प्यार सिर्फ ख़ानाबदोश लोगों मे ही देखने को मिलता है। भले ही उनका कोई निश्चित ठिकाना नहीं मगर वो उम्रभर साथ तो रहते हैं।
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हम मानें या न मानें आपसी रिश्तों में एक अघोषित अलगाव की स्थिति बन गई है।
सहमत हूं आपसे
आदरणीया डॉ. मोनिका शर्मा जी !
टीवी ने कम और नेट/ब्लॉग/फेसबुक के संबंध में आपका लेख अधिक लागू हो रहा है ।
… विस्मित भी हूं कि इतनी सक्रिय ब्लॉगर होने के नाते आभासी दुनिया से गहरा जुड़ाव रखने के साथ ही इस विषय और इससे उत्पन्न संभाव्य हानियों के बारे में आप न केवल सोचती हैं , बल्कि औरों को सजग भी करने का प्रयास इस लेख द्वारा किया है …
:)
उपयोगी पोस्ट के लिए बधाई और आभार !
दीवाली की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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हम मानें या न मानें आपसी रिश्तों में एक अघोषित अलगाव की स्थिति बन गई है।
सहमत हूं आपसे
आदरणीया डॉ. मोनिका शर्मा जी !
टीवी ने कम और नेट/ब्लॉग/फेसबुक के संबंध में आपका लेख अधिक लागू हो रहा है ।
… विस्मित भी हूं कि इतनी सक्रिय ब्लॉगर होने के नाते आभासी दुनिया से गहरा जुड़ाव रखने के साथ ही इस विषय और इससे उत्पन्न संभाव्य हानियों के बारे में आप न केवल सोचती हैं , बल्कि औरों को सजग भी करने का प्रयास इस लेख द्वारा किया है …
:)
उपयोगी पोस्ट के लिए बधाई और आभार !
दीवाली की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
मैम !एक दुर्घटना लगातार घट रही है ,आभासी संवाद ही संवाद लगने लगा है .आभासी दुनिया से कटते ही आदमी असंतोष और खीझ से भरने लगा है यहाँ भारत लौटने पर यात्रा बहुलता(बहुलता
) से
अल्पता
की ओर होती है .यहाँ आकर इंटर नेट भी सरकार की तरह लूला लंगड़ा हो जाता है .इसी अनुपात में खीझ बढती जाती है ,ख़ुशी आभासी दुनिया से जुड़ने लगी है .क्या यह सब ठीक है बहस इस पर
भी
हो असली संवाद है क्या ?
आपकी टिपण्णी हमारे ब्लॉग की शान रहे ,यही हमें अभिमान रहे .आदाब .
आभासी संसार का बढ़ता समुदाय हमें लोगों से जोड़ रहा है या अपनों से तोड़ रहा है .......ये प्रश्न नहीं , उत्तर है मोनिकाजी!. हमें कुछ तो अवश्य करना पड़ेगा.
जीवन शैली बदल गई , खत्म हुए सम्वाद
आपाधापी यूँ बढ़ी , रही न खुद की याद
रही न खुद की याद,निमंत्रण मेल से मिलते
उजड़ गये सब बाग , फूल स्क्रीन पे खिलते
पॉलीथिन के बैग , खा गये झोला-थैली
खत्म हुए सम्वाद , बदल गई जीवन-शैली ||
jawab nhi!
http://meourmeriaavaaragee.blogspot.in/
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