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17 April 2012

घर छोड़कर जाता छोटू

जयपुर में हाल ही मे हुई एक घटना में माँ की डांट से व्यथित होकर दस साल के भाई और आठ साल की बहन ने घर  छोड़ दिया। दोनों मासूम बिना सोचे समझे घर से निकल पड़े  । यह सुखद रहा कि पुलिस इन्हें वापस घर ला पाई लेकिन ऐसा हर उस बच्चे के साथ नहीं हो पाता जो जाने-अनजाने ऐसा कदम उठा लेता है। पुलिस के पूछने पर दोनों ने बताया कि उन्हें नहीं मालूम वे कहां जाते ? बस, मम्मी की डांट दुखी थे इसलिए घर से छोड़ दिया। 

कुछ समय पहले टीवी पर एक उत्पाद के विज्ञापन में अपने मन की ना होने पर एक बच्चा बड़ी  मासूमियत से कहता है कि ‘मैं घर छोड़कर जा रहा हूं।’ बच्चों के मुंह से ऐसी बातें सुनकर किसी के भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है, पर असल जिंदगी में होने वाले ऐसे हादसे बच्चों का ही नहीं पूरे परिवार का जीवन बदल देते हैं। इसीलिए जरूरी है कि समय और उम्र के हिसाब से  बड़े  ही मासूम बच्चों के मन को समझें । बच्चों को भी उनके मन की कहने दें। बच्चों को संबोधित करने से लेकर अपनी बात कहने तक, अभिभावक संयमित व्यवहार करें। ऐसी घटनाओं से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि अधिकतर मामलों में बच्चों के घर छोड़ने की सबसे बड़ी वजह बड़ों  के द्वारा उनके साथ किया गया अपमानित व्यवहार ही होता है। इस बात का खास ख्याल  रखें कि माता-पिता बात बात में बच्चों को अपमानित करते हुए बात ना करें। आज के दौर में बच्चे बहुत सेंसेटिव हो गये हैं। ऐसे में अभिभावकों के लिए जरूरी है कि वे उनके साथ सोच विचार कर बात करें। बाल मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगर बच्चों से कोई गलती हो जाती है तो उनके साथ कम्युनिकेट करें क्योंकि सजा देना किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। उल्टा अभिभावकों का ऐसा व्यवहार बच्चों का हिंसक बना देता हैं। उनके मन में आक्रोश और बदला लेने की सोच पनपने लगती है। जिसके चलते भी बच्चे कई बार घर छोड़  देते हैं। 

हमारे देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा बच्चे हैं। बावजूद इसके  आए दिन बच्चों द्वारा ऐसे कदम उठाने की घटनाएं हमारी पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं। सर्वे बताते हैं कि पेरेंटस के झगड़ों के चलते भी कई बच्चे अपनों से दूर हो जाते हैं। मौजूदा दौर में टूटते परिवार भी ऐसी घटनाओं का कारण बना रहे हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि जो बच्चे अपने पिता के साये में नहीं पलते वे 15. 3 गुना ज्यादा बिहेवेरियल डिसऑर्डर के शिकार होते हैं। यही वजह है कि दुनियाभर में घर छोड़ने  वाले बच्चों में अधिकतर फादरलैस घरों के बच्चे ही होते हैं। कई मामलों में यह सामने आता है कि बड़ों के बीच होने वाली अनबन के चलते बच्चे ने घर छोड़ा  है क्योंकि अपने आसपास ऐसा माहौल देखकर बच्चे स्वयं को असुरक्षित पाते हैं। माता-पिता के झगड़े देखकर उन्हें लगता है कि बड़े  उनसे भावनात्मक लगाव ही नहीं रखते।  इतना ही नहीं हद से ज्यादा एकेडैमिक प्रेशर और पारिवारिक तनाव के साथ ही अभिभावकों का हद से ज्यादा आलोचनात्मक और तुलनात्मक रवैया भी बच्चों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा करता है। पेरेंटस के समय की कमी होना भी इस समस्या की एक बङी वजह है। आजकल शहरी परिवारों में ऐसे परिवारों की संख्या बढी है जिसमें दोनों अभिभावक कामकाजी हैं। नतीजतन बच्चों से संवाद ना के बराबर होता हैं। ऐसे में बच्चे कई बार गलत संगत में पड़ जाते हैं तो कई बार अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो जाते हैं।  बच्चों की अधिकांश परेशानियों का हल यही है कि अभिभावक  उन्हें समय दें और उनके व्यवहार के बदलाव को समय रहते समझें। 

परिवार से रूठकर यूं घर से निकल जाने वाले बच्चे ना जाने कैसी कैसी विपत्तियां झेलने को मजबूर हो जाते हैं। कई बार शोषण के ऐसे भंवर में फंसते हैं कि पूरी जिंदगी बाहर नहीं निकल पाते।  यूँ अपना घर छोड़ देने वाले अधिकतर बच्चे जीवन भर के लिए भीख मांगने, वेश्यावृत्ति, ड्रग्स और अपराध की अंधेरी दुनिया में फंस जाते हैं और कभी वापस नहीं लौट पाते,  इसीलिए  बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के लिए घर-परिवार के सदस्य  बच्चों के प्रति संवेदनशील बनें ।

88 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

इस पोस्ट पर आये कुछ कमेंट्स.....


5 टिप्पणियाँ - मूल पोस्ट दिखाएं
टिप्पणियों को संकुचित करें
expression ने कहा…
बिलकुल ठीक कहा आपने..........
आज बच्चे संवेदनशील हैं....और बहुत एग्रेसिव भी हैं.......सो नतीजे खतरनाक हो सकते हैं...
अगर बच्चा कहीं बाहर हॉस्टल में है तब तो हमें बहुत संयम से काम लेना है...


शुक्रिया इस सार्थक पोस्ट के लिए.

April 17, 2012 10:16 PM
Anupama Tripathi ने कहा…
सार्थक आलेख ....बच्चों को भलीभांति बड़ा करना भी अपने आप में एक चुनौती है आज कल ....!!

April 17, 2012 10:36 PM
Ramakant Singh ने कहा…
यूँ अपना घर छोड़ देने वाले अधिकतर बच्चे जीवन भर के लिए भीख मांगने, वेश्यावृत्ति, ड्रग्स और अपराध की अंधेरी दुनिया में फंस जाते हैं और कभी वापस नहीं लौट पाते, इसीलिए बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के लिए घर-परिवार के सदस्य बच्चों के प्रति संवेदनशील बनें ।
AAPAKO IS POST KE LIYE PRANAM .
AAPANE SADAIW KI BHANTI EK BURNING
PROBLEM PAR LIKHA HAI .AABHAR NAHIN
NAMASKAR.

April 17, 2012 11:04 PM
संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…
सार्थक चिंतन ... विज्ञापन का भी बहुत असर होता है बाल मस्तिष्क पर ...

April 17, 2012 11:20 PM
dheerendra ने कहा…
आज के बच्चे बहुत संवेदनशील होते है,अगर उन्हें बचपन से देख रेख निगरानी और सयम से न रखा जाए,तो आगे चलकर परिस्थियां नाजुक बन जाती है परिणाम परिवार को भुगतना पडता है,...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति,बेहतरीन पोस्ट ,...

डॉ. मोनिका शर्मा said...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

बच्चों की मानसिकता को समझना बहुत बड़ी चुनौती है. इसे ठीक से निभाना चाहिए अन्यथा कभी भी बड़ी परेशानी हो सकती है.

राजन said...

मोनिका जी,बिल्कुल एक गंभीर समस्या की तरफ आपने ध्यान खींचा हैं.बच्चे बहुत सी गलत बातें बडों से ही सीखते हैं खासकर माता पिता से.आपस में लडना झगडना,अपनी बात मनवाने के लिए दबाव बनाना या धमकी देना धीरे धीरे उनकी आदत में शुमार हो जाता हैं जो उन्हें गुस्सैल नखरेबाज और चिडचिडा बना देता हैं.
टी.वी. का भी बहुत नकारात्मक प्रभाव पडता हैं.कई अभिभावक सोचते हैं कि हमारा बच्चा तो कार्टून प्रोग्राम्स देख रहा हैं इसलिए कोई चिंता की बात नहीं.जबकी आप ध्यान से देखें तो कार्टून कार्यक्रमों मेँ तो आजकल ज्यादा हिंसा दिखाई जाती हैं जैसे एक बिल्ली के सिर पर हथोडा मारा तो वह एक बार पूरी तरह फ्लेट हो गई और फिर से सही होकर भागने लगी.ऐसे दृश्य इनमें आम हैं.अत: इस तरफ भी माता पिता को ध्यान देना जरूरी हैं.

संतोष पाण्डेय said...

बच्चों की अधिकांश परेशानियों का हल यही है कि अभिभावक उन्हें समय दें और उनके व्यवहार के बदलाव को समय रहते समझें।
जी हाँ बिलकुल सही कहा है. विशेषकर बच्चो के प्रति हमारा व्यव्हार ज्यादा संवेदनशील और जिम्मेदाराना होना चाहिए.

जयकृष्ण राय तुषार said...

यह घटना बहुत से अभिभावकों के लिए चेतावनी है |

Minoo Bhagia said...

bachhe bahut sensitive hote hain , unhein sahi margdarshan dena hi parents ka kaam hai

Smart Indian said...

सचमुच ऐसे माहौल में घर के बाहर बच्चे सुरक्षित नहीं हैं, मगर घर में सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये माता-पिता को भी परिपक्वता सीखनी पड़ेगी। जब बड़ों का बचपना देखता हूँ तो यही ध्यान आता है कि उनका बचपन कैसा बीता होगा! बड़ा सामयिक आलेख है। हर माता-पिता को तो एक बार पढकर मनन करना ही चाहिये (और उन सभी को भी जो नॉर्वे की हालिया घटना से अपमानित महसूस कर रहे थे)

ashish said...

.बच्चो की मानसिकता और उनके मनोविज्ञान का अभिभावकों को ध्यान रखना चहिये , बढ़िया आलेख .

vijai Rajbali Mathur said...

निश्चय ही यह अभिभावकों का दायित्व है कि वे बाल-मनोभाव की कदर करते हुये बच्चों के साथ सलूक करें।

Yashwant R. B. Mathur said...

बाल मनोविज्ञान को समझने की बहुत बड़ी आवश्यकता है।


सादर

संध्या शर्मा said...

बच्चों की परेशानियाँ सुनकर उनका हल करना हर माता -पिता का कर्त्तव्य होता है लेकिन आजकल के व्यस्त जीवन में उनके पास अपने बच्चों के लिए भी वक़्त नहीं है. बिना सोचे समझे अपने फैसले उनपर थोपने से ही ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होता है. जरुरत है उनके बालमन को समझने की. मोनिका जी सार्थक आलेख के लिए आभार...

प्रवीण पाण्डेय said...

बच्चों से यदि सतत संवाद स्थापित रहे तो घर छोड़ने जैसी स्थिति नहीं आती है।

कुमार राधारमण said...

अब माता-पिता की अपनी महत्वाकांक्षाएं हैं। उसकी पूर्ति से बचा समय ही बच्चे को मिल पाता है। अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय न रह जाने का ही हम नतीज़ा देख रहे हैं कि बच्चे अब बालसुलभ बातें करते कम ही देखे जाते हैं। दुर्भाग्य,कि ऐसी स्थिति में भी परिवार इतराता है कि देखो,अभी से कितना समझदार हो गया है।

सदा said...

बिल्‍कुल सही कहा है ..बालमन हर बात को सहज और सत्‍य मान लेता है चाहे वह विज्ञापन हो या घर पे हुई कोई बात ... इन्‍हें पर्याप्‍त समय देना और इनके मन को समझना आवश्‍यक है ...आभार ।

Saras said...

सबसे ज्यादा ज़रूरी है की माता पिता जो बच्चों को सिखाएं उसे स्वयं प्रक्टिस करें ....बच्चे बड़ो की इज्ज़त तभी करेंगे जब बड़े उनकी भावनाओं की कद्र करें..उन्हें भी due रेस्पेक्ट दें जो हर व्यक्ति का अधिकार है ..और बच्चे तो बहुत ही सेंसीटिवे होते हैं, मान.....अपमान को लेकर..दूसरी बात और जो ज्यादा ज़रूरी है वह यह की माता पिता को बच्चों में इतना कांफिडेंस inculcate करना चाहिए की वे हर बात खुल कर उनसे कर सकें...एक दोस्त बनकर .....कमसे कम दोनों में से एक तो ऐसा होना चाहिए जिससे बच्चे खुलकर बात कर सकें...अक्सर यह रिश्ता माँ से ही बन पाता है ... बहुत बढ़िया विषय उठाया आपने मोनिका जी

Dr (Miss) Sharad Singh said...

'बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के लिए घर-परिवार के सदस्य बच्चों के प्रति संवेदनशील बनें '

गहन चिन्तनयुक्त विचारणीय लेख .....

shikha varshney said...

सच कहा बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं.और उन पर किस बात का किस तरह असर होगा समझ में नहीं आता.बहुत सावधानी बरतने की जरुरत होती है.

Mukesh Tyagi said...

एक संवेदनशील विषय पर अत्यंत सार्थक पोस्ट! सभी के लिये पठनीय और उपयोगी भी!
हार्दिक धन्यवाद!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश

G.N.SHAW said...

बच्चो का पहला आशियाना अपना घर ही है ! सुन्दर लेख !

Anonymous said...

सटीक विषय पर सार्थक पोस्ट।

Pallavi saxena said...

बहुत सही विषय को चुना है आपने सहमत हूँ आपकी लिखी बातों से बच्चे सब कुछ बड़ों को देखकर ही सीखते है। तो ऐसी स्थिति में बच्चों के प्रति बड़ों का व्यवाहर और रवैया ही ठीक नहीं होगा तो ऐसी घटनाओं में वृद्धि होती ही रहेगी। सार्थक एवं विचारणीय आलेख....

मुकेश कुमार सिन्हा said...

ham jaise chhote bachche ke parents ke liye ek sarthak rachna......

Satish Saxena said...

मासूमियत पर ध्यान देना आवश्यक है ....
शुभकामनायें !

रश्मि प्रभा... said...

इससे बचने के लिए अभिभावकों को खुद पर नियंत्रण और बच्चों को सही समझाना ज़रूरी है

Suman said...

sarthak aalekh......

Kewal Joshi said...

बाल मन को समझना जरुरी है..

Dr.NISHA MAHARANA said...

sahi bat hai ....

M VERMA said...

प्रवीण जी से सहमत
संवादहीनता ही यह स्थिति लाती है

सुज्ञ said...

चारों और से ज्ञानवर्धक सूचनाओं के प्रवाह के साथ साथ कुसंस्कृति का आक्रमण भी जारी रहता है। बजारवाद नें मर्यादाओं को तार तार कर दिया है। अधैर्य, उग्रता और आक्रोश उगते बच्चों के स्वभाव में स्थान ले रहे है। जीवन नैया में हजारों छिद्र है, एक-दो छिद्र हो तो बंद भी किए जाय पर हजारों?

ऋता शेखर 'मधु' said...

बच्चों की समस्या धैर्यपूर्वक सुनना जरूरी है...वे खुद को असुरक्षित महसूस न करें.

vikram7 said...

'' वेश्यावृत्ति, ड्रग्स और अपराध की अंधेरी दुनिया में फंस जाते हैं और कभी वापस नहीं लौट पाते, इसीलिए बहुत ज़रूरी है कि बच्चों के लिए घर-परिवार के सदस्य बच्चों के प्रति संवेदनशील बनें ।''
सहमत हूँ आप की बात से ,प्रवीन पाण्डेय जी ने सही कहा की बच्चो से ससत संबाद बनाए रखना चाहिए, साथ ही उनकी भावना आहत न हो,

Arvind Mishra said...

पैतृक जिम्मेदारियों निर्वाह में ऐसी चूकों के परिणाम बहुत बुरे होते हैं -आपने एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार रखे हैं .

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

बच्चो से ससत संबाद बनाए रखना चाहिए, साथ ही उनकी भावना आहत न हो,इसका ध्यान रखना जरूरी है

MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...

Rohit Singh said...

बहुत ही सटीक विशलेषण किया है आपने। पर क्या करें बचपन अभिशप्त है। इंटरनेट ने उन्हें जवान तो जल्दी कर दिया है पर मानसिक रुप से अभी भी बच्चे बच्चे ही हैं। समय से पहले आई परिपक्वता कुछ ऐसे ही है ज्यादातर बच्चों के लिए कि नादान हाथों में दी गई बंदूक।

Anand Rathore said...

aap sahi maayene mein lekhak dharm nibhati hain... sirf man ka nahi likhti , hamesha wahi likhti hain jahan bolne ki kahne ki zarurat hai...hamesha ki tarah ek behtar aalekh.. yun hi likhte rahiye... shukriya.

सुशील कुमार जोशी said...

सार्थक लेखन !

विवेक रस्तोगी said...

बच्चों से लगातार संभाषण होता रहे तो ये नौबत नहीं आती।

अजित गुप्ता का कोना said...

बच्‍चों पर कौन सी घटना का क्‍या असर हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता है। इसलिए परिवार में स्‍वस्‍थ वातावरण की हमेशा आवश्‍यकता रहती है। अच्‍छा सार्थक आलेख।

अशोक सलूजा said...

आप की चिन्ता जायज़ है ......
अब बारी माँ-बाप की है ....
शुभकामनाएँ!

दिगम्बर नासवा said...

दरअसल आज ये चुनौती है अविभावकों के सामने की कैसे बिना डाट के बच्चों से व्यवहार करें ... संवेदनशीलता बढ़ रही है बच्चों में भी ...

Maheshwari kaneri said...

Bahutu sarthak lekh...

VIVEK VK JAIN said...

yesa nhin h ki bachpan bigad gya h but haan, bachho ko samajhna bahut zaruri h

sangita said...

सार्थक पोस्ट है,मोनिकाजी आज की हमें बच्चों के प्रति संवेदनशील होना ही होगा ।

पी.एस .भाकुनी said...

बच्चो की मानसिकता और उनके मनोविज्ञान का अभिभावकों को ध्यान रखना चहिये.सार्थक आलेख के लिए आभार...

गिरधारी खंकरियाल said...

baccho ka vywhaar samajhna kathin karya hai. iske liye samvedan shil hone ki awshyakta hai.

kanu..... said...

:) monka ji baat to ekdam sahi hai family walo ko samwedansheelta dikhani hi chahiye....wo din yaad aa gae jab hamara bhi mn kar jata tha bhag jaenge ek din....

Unknown said...

कच्ची उम्र में अक्ल कहाँ होती है...

ये एक मनो-वैज्ञानिक पहलु है ... इस तरह की घटना से बचने के लिए बच्चों के साथ सतत संवाद बनाये रखना बहुत ही आवश्यक है

वाकई एक बहुत ही संवेदनशील विषय पर लिखा है आपने... आपकी ये पोस्ट बहुत ज्ञानपरक लगी...
धन्यवाद

कविता रावत said...

aajkal ke bachhon ko samjhna bahut mushkil hai...
bahut hi sachetak prastuti ke liye aabhrar!

Kailash Sharma said...

बहुत सार्थक आलेख...बच्चों की भावनाओं को समझना बहुत जरूरी है...

rashmi ravija said...

अब सचमुच वक्त बहुत बदल गया है..और बच्चों से पेश आने के तरीके में भी बदलाव जरूरी है...

टी.वी. सीरियल..विज्ञापनों का भी बच्चों की इन हरकतों पर बहुत असर पड़ता है...कल ही एक सीरियल में देखा..बच्चा धमकी दे रहा है...घर छोड़ कर चला जाऊँगा..और माँ मनाने में लगी है...माँ के साथ साथ बच्चे भी बैठ कर टी.वी. पर क्या क्या देख रहे हैं...इन सब पर ध्यान रखना जरूरी है.

मनोज कुमार said...

लोग आज भौतिकता की सुविधा, चका चौंध और जीवन की आपाधापी में इस कदर व्यस्त हैं, कि सबसे ज़्यादा उपेक्षित बचपन ही हो रहा है।
विचारोत्तेजक आलेख।

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण किया है. सचमुच बच्चों की भावनाओं के प्रति सम्वेदनशील होना बहुत जरुरी है.

वाणी गीत said...

बच्चों का मन बहुत कोमल होता है , उनके मन पर लगी जरा सी ठेस उनके आत्मविश्वास को हमेशा के लिए समाप्त कर सकता है , अँधेरी गालियों में ढकेल सकता है !
अभिभावकों को ध्यान रखना ही चाहिए , कितना प्यार देना है , कहाँ सख्ती बरतनी है कि वे टूटे नहीं , मजबूत बने !
सार्थक पोस्ट !

संजय भास्‍कर said...

बाल मन को समझना जरुरी है..अच्‍छा सार्थक आलेख।

Amrita Tanmay said...

संवेदनशील..सार्थक विश्लेषण..

Brijendra Singh said...

बच्चों के मनोविज्ञान की संवेदनशीलता को पूरी सार्थकता से दर्शाया है आपने.. आभार !!

Vaanbhatt said...

हम पेरेंटिंग के नाम पर बच्चों को सिर्फ धौंस दिखाते रहते है...जबकि बच्चों को सहृदय कौंसिलर की तरह अच्छे से पाला जा सकता है...

Vaanbhatt said...

हम पेरेंटिंग के नाम पर बच्चों को सिर्फ धौंस दिखाते रहते है...जबकि बच्चों को सहृदय कौंसिलर की तरह अच्छे से पाला जा सकता है...

DUSK-DRIZZLE said...

THIS POST ARISES THE QUESTION ABOUT THE HOME AND THE NATURE OF PARENTS? HOME HAS LOST ITS REAL MEANING.

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बालमन बहुत कोमल होता है...

SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR5 said...

मौजूदा दौर में टूटते परिवार भी ऐसी घटनाओं का कारण बना रहे हैं। सर्वेक्षण बताते हैं कि जो बच्चे अपने पिता के साये में नहीं पलते वे 15. 3 गुना ज्यादा बिहेवेरियल डिसऑर्डर के शिकार होते हैं। यही वजह है कि दुनियाभर में घर छोड़ने वाले बच्चों में अधिकतर फादरलैस घरों के बच्चे ही होते हैं।
डॉ मोनिका जी बड़ी चिंता का विषय है ये बहुतेरे पिता तो काम काज के लिए परदेशी ही हो गए हैं ..माँ को पिता का भी स्नेह देना और सम्हालना होता है ..
अच्छी जानकारी ..आभार
भ्रमर ५
भ्रमर का दर्द और दर्पण

Manoj K said...

बच्चे फिर बच्चे ही हैं.. अभिभावक उनकी बात नहीं समझेंगे तो कौन समझेगा !!

virendra sharma said...

सबसे ज्यादा ज़रूरी है बच्चों से दोस्ताना व्यवहार .हम उन्हें अपनी सनक का निशाना नहीं बना सकते .हर बच्चे की एक जेनेटिक लोडिंग भी है .नर्चार और नेचर दोनों से होता है बाल मन का निर्धारण ,बौद्धिक विकास .

Asha Joglekar said...

विचारणीय और चिंतनीय पोस्ट । आज के बच्चे बहुत ज्यादा संवेदनसील हैं ऐसे में माँ बाप की जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ जाती है । कोई भी गलत कदम बच्चों की जिंदगी पटरी से उतार सकता है ।

abhi said...

माता पिता को कम से कम इतना संवेदनशील और समझदार तो होना ही चाहिए

रचना दीक्षित said...

अच्छा विषय उठाया मोनिका जी.

बच्चों की मानसिकता भी आज के माहौल टीवी के अतिक्रमण से बहुत बदली है.

उन्हें समझने का नजरिया हमें भी बदलना पड़ेगा.

प्रेम सरोवर said...

Bahut hi Sundar prastuti. Mere post par aapka intazar rahega. Dhanyavad.

महेन्‍द्र वर्मा said...

बच्चे भावनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं।
माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के संवेगात्मक उतार-चढ़ाव को समझते रहें।
अभिभावकों को आगाह करता अच्छा आलेख।

महेन्‍द्र वर्मा said...

बच्चे भावनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं।
माता-पिता को चाहिए कि बच्चों के संवेगात्मक उतार-चढ़ाव को समझते रहें।
अभिभावकों को आगाह करता अच्छा आलेख।

Monika Jain said...

har rishte mein understanding bahut jaruri hai...vicharneey lekh

mark rai said...

चाँद के निकल आने और छुप जाने का समय पूर्व निर्धारित होता है काश !!!!
.....सार्थक विश्लेषण..

Jyoti Mishra said...

their perception power is very weak.. they r naive.. jst kids..
we gt to be very cautious with wat we do n say !!

DR. ANWER JAMAL said...

अच्छी पोस्ट.
ब्लॉगर्स मीट वीकली 40 में आपका स्वागत है.
देखिए अपनी पोस्ट इस लिंक पर
http://hbfint.blogspot.com/2012/04/40-last-sermon.html

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

वाकई बच्चों की मानसिकता को समझने के लिए बहुत ही संवेदनशील होना पडेगा..
सामाजिक दायित्वों को निभाता सार्थक लेख

मेरे भाव said...

वाकई यह समस्या बढ़ गई है... बच्चो को समझना जरुरी है...

amit kumar srivastava said...

बहुत कुछ परिस्थिति जन्य होता है |

Rakesh Kumar said...

सार्थक और विचारणीय प्रस्तुति.
बच्चों के 'विषाद योग' की परम
आवश्यकता है.

मेरे ब्लॉग पर आपके आने और प्यारे
चैतन्य को भी लाने का बहुत बहुत
आभार.

संतोष त्रिवेदी said...

दुखद :-(

Sunitamohan said...

bachchon ke prati aapki sanvedansheelta aapke aalekhon se spasht roop se parilakshit hoti hai...nishchay hi aap ek achchhi maan bhi hongi!Chaitanya ka blog bhi khoob sajaya hai aapne. badhai aapko uske liye bhi.

Dr. sandhya tiwari said...

बहुत सही कहा आपने मोनिका जी अब हमें बच्चों के व्यवहार का गौर से अध्ययन करना होगा |

Naveen Mani Tripathi said...

bahut sundar vichar prastut kiya hai apne ...badhai Monika ji

Human said...

बहुत अच्छा लेख । बालमन को समझने के लिए व समझाने हेतु माता पिता को स्वयं भी अपने बालमन से काम लेना चाहिए ।

प्रेम सरोवर said...

यह तो हम सबकी संवेदना ही है जो बच्चों को एक आत्मीय बोध के सुखद भाव से रिश्ते की डोर में बांध देती है । बहुत ही संवेदनशील एवं शोचनीय पोस्ट । धन्यवाद ।

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

भावनाओं के प्रति बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं।
अभिभावकों को आगाह करता बहुत अच्छा आलेख,


MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....

virendra sharma said...

मीठे और बेहद के संवेदन शील होतें हैं नौनिहाल ,मारपीट से हो जातें हैं बे -हाल,अकसर हम उन के साथ होतें हैं असम्बद्ध और क्रूर .कृपया यहाँ भी पधारें रक्त तांत्रिक गांधिक आकर्षण है यह ,मामूली नशा नहीं
शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/04/blog-post_2612.html
मार -कुटौवल से होती है बच्चों के खानदानी अणुओं में भी टूट फूट
Posted 26th April by veerubhai
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/2012/04/blog-post_27.html

रजनीश तिवारी said...

बहुत अच्छा विचारोत्तेजक लेख । बदलते वक़्त में अब बचपन भी पहले जैसा न रहा । आज के तनावग्रस्त और ज़्यादा जानकार बचपन के प्रति संवेदनशील होना
अत्यंत आवश्यक है ।

Udan Tashtari said...

बालमन को संभालना...और समझना!

virendra sharma said...

नहीं है समाज के पास इस बुनियादी सवाल का ज़वाब ,क्योंकि नहीं है अपने ही जायों से वैसा लगाव .कृपया यहाँ भी पधारें -

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

जल्दी तैयार हो सकती मोटापे और एनेरेक्सिया के इलाज़ में सहायक दवा

http://veerubhai1947.blogspot.in/

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