नार्वे में भारतीय मूल के अभिभावकों से उनके बच्चे इसलिए ले लिए गए क्योंकि बच्चों को अपने हाथों से खाना खिलाना और अपने साथ सुलाना , इस देश में बच्चों की उचित देखभाल न होने का मामला है । सात महीने तक अपने माता-पिता से अलग रहने के बाद खबर है कि अब दोनों बच्चों को उनके चाचा को सौंपा जायेगा ।
पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो अपने बच्चों को अपने साथ नहीं सुलाते और हाथ से खाना भी नहीं खिलाते । बच्चों को लेकर बने नियम -कानूनों में बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मौखिक रूप डराना या ऊंची आवाज़ में बात करना भी गैर कानूनी है । ये यहाँ के कानून भी हैं और सामाजिक- पारिवारिक मानसिकता भी। यहाँ बच्चों की परवरिश भी पूरी तरह औपचारिकता के साथ की जाती है । हमारे देश में तो ऐसे समाचार सबको चौंका देने वाले हैं कि नवजात बच्चों को भी अपने साथ तो क्या अपने कमरों में भी नहीं सुलाया जाता ।
पश्चिमी देशों में बड़ी संख्या में ऐसे परिवार हैं जो अपने बच्चों को अपने साथ नहीं सुलाते और हाथ से खाना भी नहीं खिलाते । बच्चों को लेकर बने नियम -कानूनों में बच्चों पर हाथ उठाना, उन्हें मौखिक रूप डराना या ऊंची आवाज़ में बात करना भी गैर कानूनी है । ये यहाँ के कानून भी हैं और सामाजिक- पारिवारिक मानसिकता भी। यहाँ बच्चों की परवरिश भी पूरी तरह औपचारिकता के साथ की जाती है । हमारे देश में तो ऐसे समाचार सबको चौंका देने वाले हैं कि नवजात बच्चों को भी अपने साथ तो क्या अपने कमरों में भी नहीं सुलाया जाता ।
इन देशों की जीवन शैली में एक बात हमेशा से रही है । यहाँ विज्ञान से जुड़ी बातों को ही सब कुछ माना जाता है । मनोवैज्ञानिक स्तर पर कभी भी रिश्तों के बारे में उस तरह से नहीं सोचा जाता जैसा हमारे यहाँ होता है । बच्चों को हाथों से ख़िलाना या साथ सुलाना भी यहाँ विज्ञान से जुड़ा विषय ही है । अनगिनत रिसर्च आये दिन लोगों के सामने लायीं जाती हैं कि क्यों बच्चों को साथ न सुलाया जाय ? बच्चों के लिए को-स्लीपिंग के क्या खतरे हैं ?
आमतौर पर बच्चों को दूर रखने की जो वजहें दी जाती हैं उनमें कुछ बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े बिंदु हैं और कुछ उनके साथ बिस्तर में हो सकने वाली दुर्घटनाओं का अंदेशा । यहाँ गौर करने की बात यह है कि भारतीय परिवारों से अलग पश्चिमी देशों में रहने वाले लोगों की जीवनशैली भी इन कठोर नियमों के लिए जिम्मेदार है । वहां शराब और सिगरेट का चलन बहुत पहले से और बहुत ज्यादा है, खासकर माताओं में । इसीलिए कई बार नशे की हालत में रात को कुछ माता- पिता होश में ही नहीं रहते और बच्चों पर रोलओवर कर जाते हैं । इस तरह के मामलों में कई नवजात बच्चे साँस घुटने के चलते जान भी गवां बैठे हैं । हर साल वहां ऐसे हादसे होते हैं जिनके आंकड़े स्वास्थ्य विभाग लोगों के सामने रखता है । इसके आलावा निकोटिन के सेवन से पैसिव स्मोकिंग का खतरा भी बना रहता है जिसके चलते डाक्टर्स भी यह सलाह देते हैं कि बच्चों को अपने साथ न सुलाया जाये । इन देशों में बच्चों को अभिभावक अपने साथ सुलाएं या नहीं यह एक बड़ा विवादास्पद मुद्दा है।
इस विषय पर जो भी कारण दिए जाये हैं वे वैज्ञानिक स्तर पर तो सही हो सकते हैं पर किसी भी भारतीय अभिभावक के मन के लिए तो ये समझ से परे है कि बच्चों के पालन पोषण में औपचारिकता आ जाये । यक़ीनन बच्चों को पालना उन्हें बड़ा करना सिर्फ विज्ञान का नहीं मनोविज्ञान का विषय है । हमारे यहाँ तो आज भी जिस परिवार में छोटा बच्चा होता है, उस घर का हर सदस्य लाइन लगा के खड़ा हो जाता है कि आज ये नन्हा मेहमान किसके साथ सोयेगा , किसके साथ खायेगा...?
भावनात्मक अलगाव को आधार बना इस भारतीय परिवार से बच्चों को दूर कर दिया गया । अब मन में बस यही उहापोह है कि अपने बच्चों को अपने हाथों से खिलाना,अपने साथ सुलाना भावनात्मक लगाव कहा जाये या अलगाव ।
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है । रात के समय नीद में भयभीत होने पर माँ के हाथ की हलकी सी थपकी पाकर ही बच्चे गहरी निश्चिंत नींद सो जाते हैं । बच्चों में बड़े होकर जो सामजिक भाव पनपते हैं उनमें माता-पिता का यह साथ बहुत मायने रखता है जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े रखता है । ख़ुशी है कि हमारे यहाँ आज भी बच्चों को बड़ा करना महज जिम्मेदारी पूरी करना भर नहीं है । पश्चिमी देशों में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है । शायद यही कारण है कि समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं ।
माँ के स्पर्श से बढ़कर एक बच्चे के लिए कोई भावनात्मक सहारा नहीं हो सकता । माँ का साथ बच्चे के मन से असुरक्षा और डर को दूर करता है । रात के समय नीद में भयभीत होने पर माँ के हाथ की हलकी सी थपकी पाकर ही बच्चे गहरी निश्चिंत नींद सो जाते हैं । बच्चों में बड़े होकर जो सामजिक भाव पनपते हैं उनमें माता-पिता का यह साथ बहुत मायने रखता है जो उन्हें भावनात्मक स्तर पर जोड़े रखता है । ख़ुशी है कि हमारे यहाँ आज भी बच्चों को बड़ा करना महज जिम्मेदारी पूरी करना भर नहीं है । पश्चिमी देशों में स्थिति इससे बिल्कुल उलट है । शायद यही कारण है कि समाज और परिवार के नाम पर इन देशों में मात्र औपचारिक रिश्ते ही बचे हैं ।