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17 March 2017

स्मृतियों में गाँव और गणगौर



 ईसर गणगौर 

गणगौर मेरे लिए त्योहार की तरह नहीं आतीं । मैं कहीं भी रहूँ  यह त्योहार मुझे मेरे गाँव ले जाता है । हर साल मन को  पीहर  के आँगन में ले जाकर खड़ा कर देती गणगौर। गाँव  के  उस एक अकेले रोहिड़े के पेड़ के नीचे खड़ा कर देती है , जिसके तले चुन्नी का पल्ला फैलाये कितनी  बार खड़ी रही कि एक फूल तो झोली में आ गिरे पूजा के लिए । गणगौर, भोर अँधेरे दूब पर टिकी ओस की बूंदों का वो स्पर्श साथ लाती है जिसका नरम मुलायम अहसास कहीं खो सा गया है |  गणगौर,  खेतों की उन पगडंडियों पर ले जाती है जिनपर पूजा के लिए दूब लेने के लिए कितने अधिकार से चलती थी हम बेटियों की टोलियां । मुझे गणगौर  गाँव के उस अँधेरे में ले जाती है जिसमें आज के रौशनी से लबरेज़ शहरों की तरह भय नहीं था । लालटेन लेकर चलते हुए गणगौर की बिंदोरी के लिए  बहू बेटियों की टोलियाँ गाँव  में देर रात तक नाचती-गाती, खिलखिलाती, हंसी ठिठोली करती चलतीं पर डर और असुरक्षा क्या होता है,  मानो पता ही नहीं था ।  उल्टा होता तो यह था कि सामने से आ रहे गाँव  के पुरुष हमारे लिए रास्ता छोड़ एक ओर खड़े हो जाते और मुस्कुरा देते । जैसे कि वे मान के चलते थे  कि इन सोलह दिन इनका ही राज चलेगा :)  क्यों ? ये आज समझ आता है | अब बहुत अच्छे समझ से समझ  पाती हूँ, उनके मन का वो स्नेह और सुरक्षा भरा भाव जिसके तले हँसती -खिलखिलातीं  छोरियाँ भले ही अलग-अलग घरों से होतीं थीं पर बेटियां पूरे गांव की थीं  हम । 

हाथों में सजे मेंहदी के बूंटे और लोकगीतों की मनभावन धुन वाला यह पर्व मेरे मन में बसी बेटी को साल भर के लिए उल्लास देकर जाता है । यूँ भी राजस्थान के बारे कहा जाता है यहाँ इतने तीज-त्योहार  होते हैं कि महिलाओं के हाथों की मेहंदी का रंग कभी फीका नहीं पड़ता । फिर शिव गौरी के दाम्पत्य की पूजा का पर्व गणगौर मानो प्रकृति का उत्सव है । माटी की गणगौर बनती हैं और खेतों से दूब और  जल  भरे  कलश  लाकर  उनकी पूजा की जाती है ।  एक  ऐसा  त्योहार  जब सब सखिया रळ-मिल हर्षित उल्लासित हो माँ गौरी से सुखी और समृद्ध जीवन के लिए प्रार्थना  करती हैं । आज भले ही समय बहुत बदल गया है पर मैंने स्वयं इस त्योहार  को अपने गाँव में कुछ इस तरह मनाया है कि बहू -बेटियां पूरे हक़ से चाहे जिस खेत में जाकर दूब ला सकतीं थीं । कोई रोक-टोक नहीं होती थी । होली के दुसरे दिन से शुरू होकर पूरे सोलह दिन तक चलने वाली गौर पूजा सचमुच उल्लास से भरे दिन होते थे । सिंजारे की मान-मनुहार और मेंहदी रचे हाथ, मेरे जीवन की सबसे खूबसूरत यादों में से एक हैं ।  

गणगौर पूजा के लिए आज भी नवविवाहित युवतियां पीहर आती हैं । शायद इसीलिए गणगौर के गीतों में पीहर का प्रेम, माता -पिता के आँगन में बेटी का आल्हादित होना और अपने ससुराल एवं जीवन साथी की प्रीत से जुड़े सारे रंग भरे  हैं । गणगौर पूजा में तो ये लोकगीत ही  मन्त्रों की तरह गाये जाते हैं । पूजा के हर समय और हर परम्परा के लिए गीत बने हुए हैं, भावों की मिठास और मनुहार लिए । महिलाएं सज-सँवर कर सुहाग चिन्हों को धारण किये  हँसी ठिठोली करती हुईं  पूजा के लिए एकत्रित होती हैं । मुझे आज भी याद है कि  घर की जिम्मेदारियों और खेती किसानी की भागदौड़ के बीच कैसे माँ और गाँव की दूसरी महिलायें गणगौर  की पूजा के लिए समय निकालतीं थीं  |  सारी  दुःख-तकलीफ़ भूल वे बहू -बेटियों के साथ नाचती- गातीं थी | कितना  सुखद था कि माटी की गणगौर  जीवन जीने का उत्साह और उमंग अपने साथ लाती थी | वाकई, श्रृंगारित धरा और माटी की गणगौर का पूजन प्रकृति और स्त्री के उस मेल को बताता है जो जीवन को सृजन और उत्सव की उमंगों से जोड़ती है ।

यही वजह है कि सोलह दिन तक उल्लास और उमंग के साथ चलने वाला यह पारंपरिक पर्व सही मायने में स्त्रीत्व  का उत्सव लगता है मुझे तो ।  एक महिला के ह्रदय के हर भाव को खुलकर कहने, खुलकर जीने का उत्सव । विवाह  के बाद पहली गणगौर मनाने के लिए  ब्याही बेटियों का पीहर आना और सब कुछ भूलकर फिर से अपनी सखियों संग उल्लास में खो जाना रिश्तों को नया जीवन देने वाला है | यादों की उस पगडंडी पर जाने कितने ही गीत और रंग बिखरे पड़े हैं जो नारीत्व का उल्लास लिए हैं | आज  भागदौड़ भरी इस जिंदगी में जब त्योहार और रीति रिवाज महज रस्म अदायगी बनकर रह गये हैं, हर बरस आने वाला गणगौर का पर्व हमें फिर से हमारी संस्कृति की याद दिला जाता है। बहू-बेटियों की खिलखिलाहट से खिले नारीत्व के उन रंगों से रूबरू करवा जाता है जिनके बिना हर आँगन सूना है । 

13 comments:

HARSHVARDHAN said...

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति भारत के दो नायाब नगीनों की जयंती का दिन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

गिरधारी खंकरियाल said...

रस्म अदायगी भी हो तो भी बड़ी बात है किन्तु अब पता ही नही चलता है कि कब कौन सा पर्व आकर चला गया, खासकर नयी पीढ़ी को।

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत शुक्रिया

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार आपका

डॉ. मोनिका शर्मा said...

जी अब तो यही हाल है | अखरती है ये बात

Sadhana Vaid said...

बहुत ही खूबसूरत आलेख ! बचपन के उल्लास भरे दिनों की कितनी मनोरम यादों का दरवाजा खोल गया जैसे ! सारे पर्व, सारी सहेलियों की स्मृतियाँ और तार सप्तक में गाये समूह गीतों की अनुगूंज से मन को रोशन कर गया ! इतनी समृद्ध पोस्ट के लिए आभार आपका मोनिका जी !

कौशल लाल said...

बहुत सुन्दर ,इस प्रकार के त्यौहार लगभग सभी समाज में किसी न किसी नाम से मनाए जाते है किंतु अब शायद सही में रस्म अदायगी भर ही है।

तरूण कुमार said...

शहरी जीवन में त्योहार सिमट कर रह गए हैं, अब तो बहुत याद करने पर हली और दिवाली के अलावा किसी त्योहार का नाम याद आता हैं। खुशी हैं शहर से दूर कहीं गाँओं में त्योहारों की परम्परा आज भी जिंदा हैं।

सु-मन (Suman Kapoor) said...

बहुत सुंदर

महेन्‍द्र वर्मा said...

लेख की लालित्यमयी भाषा हमारी संस्कृति का मोहक चित्र आरेखित कर रही है ।
बधाई ।

दिगम्बर नासवा said...

तीज त्योहारों का अपना ही मजा होता है ... चाहे आज ये सिर्फ रस्म के नाते ही रह गयी हैं पर फिर भी यादों को उकेरने के लिए काफी हैं ... जो दिल को सुकून दे जाते हैं ... रोचक आलेख ...

JEEWANTIPS said...

बहुत प्रभावपूर्ण रचना......
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपके विचारों का इन्तज़ार.....

jaswant said...

Man ko choo jane wali rachna . Tyohaar wo bhi bachpan ke .... harshollas , khushi , aanand ..

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