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02 August 2016

गृहस्थी की धुरी पर संघर्षधर्मा स्त्री का दस्‍तावेज

अपने स्तरीय लेखन और शोधात्मक आलेखों के लिए मुक्कम्मल पहचान रखने वाले श्रीकृष्ण 'जुगनू' जी का मेरी किताब पढ़ना ही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है | हाल ही मेंउनकी लिखी समीक्षात्मक टिप्पणी अंतराष्ट्रीय ई पत्रिका 'हिंदी की गूज' में प्रकाशित हुई है । किताब पढ़कर अपने विचारों को उन्होंने जो शीर्षक दिया वो बहुत सारगर्भित है ,"गृहस्थी की धुरी पर संघर्षधर्मा स्त्री का दस्तावेज़"


शताधिक मौलिक और संपादित ग्रंथों से जुड़े श्रीकृष्णजी इंडोलोजिकल अध्ययन के लिए एक चर्चित नाम हैं | देश-विदेश में उनके काम की चर्चा होती रही है | उनका शोधकार्य लोक साहित्य से प्रमुखता से जुड़ा है | अब तक उनके हजारों शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं | जिनसे इतिहास, पुरातत्व,संस्कृत, चित्रकला शिक्षा, भाषा-लिपि और संगीत आदि क्षेत्रों को सहयोग मिलता रहा है | अनेक स्तरीय सम्मानों से नवाजे जा चुके 'जुगनू' जी के लेख सभ्यता और संस्कृति के जाने कितने ही उन पक्षों को समाहित किये हैं, जिन्हें सहेजना और समझना आवश्यक है | आप जैसे गुणीजनों से मार्गदर्शन और प्रतिक्रिया मिलना सुखद है | आभार आपका Shri Krishan Jugnu जी |



प्रकाशन जगत में अपनी त्‍वरा टिप्‍पणियों और शोध-विचारित आलेखों के लिए जानी जाती हैं डॉ. मोनिका शर्मा। खूब लिखती हैं और खूब विचार जगाती है मगर वह कविता में भी सोचती है, यह नई बात है। उनका काव्‍य संग्रह आया है : देहरी के अक्षांश पर। अक्ष का अंश अक्षांश होता है और जब कवयित्री देहरी को लेकर सोचती है तो यह विचार  स्वाभाविक  है कि वह निश्चित ही देहरी पर केंद्रीभूत होकर कुछ कहने को आतुर है। कवयित्री का विचार है कि देहरी के भीतर और बाहर अपने परिवेश में जो देखा-जिया, वही अनुभूति मेरी कविताओं का केंद्र है।  गृहस्थी  की धुरी पर एक साधारण स्त्री  की असाधारण भूमिका को प्रतिबिम्बित करती है मेरी कविताएं। यह एक प्रयास है अविराम गतिशील गृहिणी की दिनचर्या में झांकने का। इसी अर्थ में  काव्य संग्रह '  गृहस्थी  की धुरी पर सतत् संघर्षरत मां को समर्पित' को किया गया है।

कवयित्री अपनी धुरी का अर्थ महज चार पंक्ति में देती है और लगता है कि ये परिभाषा वही है जो पाठक का मन देना चाहता है : धर-परिवार की / धुरी वह / फिर भी / अधूरी वह। (पृष्‍ठ 19) समाज में फिरकनी  शब्द  उसी फिरकी का पर्याय है जिसकी तासीर घूमना है। इसी बिंब को  स्वीकार  कर लिखा गया है : रिश्‍तों की बुनकर सी / वह साधे रहती है ताने बाने को / उलझने नहीं देती कोई डोर / भीतर और बाहर / हर ऊंच-नीच को समतल करने में / जुटी गृहिणी  को / निरुत्‍तर कर जाता है / ये  प्रश्न / कि दिन भर घर में करती क्या  हो। (पृष्‍ठ 21) यह बड़ा सच है कि घर के संचालन में केंद्रीभूत होकर भी नारी अकसर इस प्रश्न  से दो-दो हाथ हाेती है। उसकी संवेदना इन पंक्तियों में भी दृढ़रूप हुई है : गृहिणी  / जीवन के झंझावातों / और मन के मौसमी  उत्पातों  को भुला / कभी अलसाई भोर / और अंधेरे का लिहाफ़ ओढ़ती सांझ के / सिंदूरी क्षितिज को / ख़ामोश बैठ निहारना चाहती है पर- /  ज़िम्मेदारियों  के संग / लुका-छिपी खेलने का नहीं है / कोई रिवाज़... देहरी के भीतर। (सिंदूरी क्षितिज, पृष्‍ठ 23)

कवयित्री ने अपने मन की बात को कृति के ओर-छोर सर्वत्र कहने का प्रयास किया है। वह स्त्री  की छवि के मायने इन  शब्दों में उठाती है : एक तयशुदा भूमिका को / रेखांकित कर गढ़ी जाती है / स्‍त्री की छवि / कि वह ढल सके हर सांचे में / अपनी आशाओं और उपेक्षाओं के अनुरूप / और समयानुसार  स्वीकार  कर ले / हर नियम अर प्रतिबंध। (पृष्‍ठ 56) जो हकीकत से भी रूबरू करवाता है ।

एक बात और है जो स्‍त्री जीवन का एक  उज्जवल  पक्ष है : स्‍त्री हर रूप में आलोकित / करती है आंगन को / सजाती है दीप मालाएं / बिखेर देती है प्रकाश / छत मुंडेरों पर / और दमक उठता है सबका जीवन / मां के हाथों / प्रकाशित हुआ दीपक / देता है अंधकार में / सजग हो चलने की सीख / जिसकी लौ की उजास से / विस्‍तार पाती है हमारे / जीवन पथ पर फैली रोशनी। (उनसे जीवन में आलोक, पृष्‍ठ 59) किंतु वह यह भी  स्वीकारती  हैं : एक स्त्री  का अस्तित्‍व / समेटे रहता है / प्रकृति का पावन / गतिशीलता की जीवंत छटा / सहेजे रहता है पृथ्‍वी की / अचल, अदृश्‍य गहराई / और ओढ़े रहता है /  व्योम  का असीमित  विस्तार  / इनसे पृथक / इस सृष्टि में और है ही  क्या । (पृष्‍ठ 58)

कलम के संचालन की दक्ष मोनिका ने अपनी बातों को जिस प्रवाह के साथ लिखा है, उसे पढ़कर लगता है कि सधे सोच की सीधी-सपाट रेखाओं के रूप में इन कविताओं का सर्जन हुआ है। इसी के बरक्‍स फ्लैप पर अपने  वक्तव्य  में श्री नंद भारद्वाज ने लिखा है : कविताएं अपने पहले ही पाठ में सहृदय पाठक को अपने साथ बहा ले जाने की अनूठी क्षमता रखती है, अपने समय और समाज को लेकर कितना कुछ विलक्षण और विचारणीय कहने की समझ और सलीका है उनके पास।

सचमुच यह संग्रह गद्य का हुनर रखने वाली कलमकार के विचार का सुंदर वातायन है। यह समाज को एक विचार देने वाला है, नारी मन के कई भाव-अभाव भरे कलशों को छलकाता है और बहा ले जाता है पाठकों के मन को। गृहस्थी की धुरी पर अनगिनत दायित्वों को जीती स्त्री को लेकर ज़्यादा बात नहीं होती पर  उसका होना घर के हर सदस्य के जीवन को सम्बल देता है । सरल बनाता है । इसी अनकही  भावभूमि को लेकर उकेरी गयी ये कवितायें स्त्री मन की पीड़ा से गहरा परिचय करवाती हैं ।

     

5 comments:

Rashmi B said...

बेहतरीन रचना ...

एक नई दिशा !

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी प्रभावी और विस्तृत समीक्षा ... अच्छी लगी ...

Sadhana Vaid said...

अत्यंत सुन्दर, सटीक एवं सार्थक समीक्षा ! मोनिका जी के लेखन का अप्रतिम जादू सहज ही प्रतिबिंबित हुआ है समीक्षा में ! मोनिका जी व श्रीकृष्ण 'जुगनू' जी दोनों को ही बहुत-बहुत बधाई !

गिरधारी खंकरियाल said...

हार्दिक शुभकामनाये।

Amrita Tanmay said...

ढेरों बधाइयाँ मोनिका जी ।

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