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20 April 2014

सामाजिक स्वीकार्यता से मिलेगा गरिमामयी जीवन जीने का अधिकार






एक ऐतिहासिक और मानवीय फैसले में भारतीय उच्चतम न्यायालय ने किन्नरों को थर्ड जेंडर यानि कि तीसरी लिंग श्रेणी की मान्यता दी है। संवेदनशील और मनुष्यता का मान करने वाले इस फैसले के बाद भारत दुनिया के ऐसे इक्के-दुक्के देशों में शामिल हो जायेगा जहां ट्रांसजेंडर्स को यह दर्ज़ा  मिला है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से भी वंचित इस तबके लिए यह निर्णय यकीनन मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा करने वाला है। उनके लिए अपनी ही पहचान अब परेशानी का विषय नहीं। अब उन्हें भी शिक्षा, समाजिक समानता और काम पाने का पूरा अधिकार है। यह फैसला 2012 में (नालसा) नेश्नल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी द्वारा दायर की गयी अपील को लेकर आया है। इस याचिका में किन्नरों के लिए समान अधिकार और सुरक्षा की मांग की गई थी। 

सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में किन्नरों के साथ होने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लेकर भी चिंता जताई और कहा कि वे इस देश के नागरिक हैं, उन्हें अपने अधिकार मिलें यह सुनिश्चित करना प्रशासन का काम है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि किन्नरों की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां काफी कमज़ोर है । इसलिए उन्हें पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण का भी लाभ मिलना चाहिए। 

सवाल ये है कि क्या न्यायालय के निर्णय की सार्थकता बिना सामाजिक स्वीकार्यता के संभव है ? किसी इंसान के मन की पीड़ा को समझने के लिए जो संवेदनशील सोच ज़रूरी है वो केवल कानूनों के माध्यम से पैदा नहीं की जा सकती। मनुष्यता के मायने ना समझने वाले लोग आज भी कुदरत की भूल से मिले दंश को झेलने वाले किन्नर समुदाय की  वेदना नहीं समझ सकते। शारीरिक विकार के चलते आत्मगलानि में जी रहे थर्ड जेंडर के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाना ही उनको सबसे अधिक पीड़ा देता है। इसीलिए कानून के इस सराहनीय फैसले के साथ ही समग्र रूप से पूरे समाज की सोच में बदलाव बदलाव आना भी ज़रूरी है। असल मायने में देखा जाये तो सामाजिक स्वीकार्यता का भाव ही थर्ड जेंडर की इस कानूनी मान्यता को मानवीय आधार दे पायेगा। 

2009 के चुनावों से चुनाव आयोग अन्य की श्रेणी में उन्हें मतदाता पहचान पत्र दे रहा है। इतना ही नहीं हमारे देश में तकरीबन 28, 341 किन्नर मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं। 2011 की जनगणना में इस समुदाय के लोगों की गिनती अन्य में की गई थी जिसके आँकड़े जारी नही किए गए पर गैर सरकार संगठनों की माने तो किन्नरों की आबादी 5 लाख तक होने का अनुमान है। समाज में हमेशा से हाशिये पर रहे किन्नर समुदाय की इसी सामाजिक स्वीकार्यता को लेकर देश की शीर्ष अदालत भी चिंतित है क्योंकि ये देश की एक बड़ी आबादी हैं जो अपने मानवाधिकारों से ही वंचित हैं। तभी तो सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि किन्नरों के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाई जाएं और उनके प्रति होने वाले सामाजिक भेदभाव के को लेकर जन समुदाय को जागरूक बनाने के अभियानों को बल दिया जाए। वैसे तो हमारे देश में संविधान के ज़रिए यह सुनिश्चत है कि धर्म, जाति या लिंग के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव ना हो। इस फैसले के बाद किन्नर समुदाय भी किसी आम महिला या पुरूष की तरह संविधान द्वारा प्रदत्त सभी तरह के अधिकारों के दावेदार होंगें। अब तक इन अधिकारों से वंचित होने के कारण किन्नरों को  कई तरह की मानसिक प्रताडऩा, हिंसा और यौन हमलों का भी शिकार होना पड़ता था।  इसीलिए देश के इस तबके को मिलने वाली प्रताडऩा और भेदभाव से मुक्ति समाज के हर इंसान के मन में सम्मान और समानता मिले बिना संभव नहीं। इस निर्णय की सार्थकता को सही अर्थों में आधार सामाजिक स्वीकार्यता मिलने पर ही मिल सकेगा। ऐसा होने पर ही पक्षपात और हीनता भरी दृष्टि से मिलने वाले अकल्पनीय दर्द से वे खुद को बचा पायेंगें।  आवश्यकता इस बात की है आमजन के साथ ही प्रशासन भी थर्ड जेंडर के प्रति संवेदनशील बने ताकि खुद को अलग-थलग पाने और समझने के बजाय इन्हें गरिमामयी जीवन जीने का अधिकार और हौसला मिले। 

28 comments:

वाणी गीत said...

वाकई एक स्वागतयोग्य पहल है। मगर आरक्षण की सुविधाओं का लाभ उठाने का प्रयास करने हेतु इनकी सही पहचान आवश्यक है !

राजीव कुमार झा said...

बिना सामाजिक स्वीकार्यता के यह मुमकिन नहीं लगता.आज भी समाज के अधिकांश तबकों में उन्हें उपेक्षा और हिकारत भरी नजरों से ही देखा जाता है.शायद अब लोगों की सोच बदलेगी.

प्रतिभा सक्सेना said...

लिंग के आधार पर मानवी गरिमा से वंचित करना सामाजिक अपराध है, एक व्यक्ति होने के नाते किन्नर भी समाज के एक घटक हैं और समान व्यवहार के अधिकारी भी हैं.

Aditya Tikku said...

saral va ispasht sabdo mai -behtren post-***

Shalini kaushik said...

sahi kah rahi hain aap samajik sweekaryta se hi kanooni manyata ko mahtv milna sambhav hai .nice article .

Rahul... said...

supreme court ke faisle ke saath-saath social level par unhe samman aur adhikaar mile, tabhi badlaaw hoga......

Shikha Kaushik said...

आवश्यकता इस बात की है आमजन के साथ ही प्रशासन भी थर्ड जेंडर के प्रति संवेदनशील बने ताकि खुद को अलग-थलग पाने और समझने के बजाय इन्हें गरिमामयी जीवन जीने का अधिकार और हौसला मिले। -this is more important that society must given respect to transgenders .well written .

गिरधारी खंकरियाल said...

संवेदन शील मानवीयता की आवश्यकता है।

Himkar Shyam said...

विचारणीय और सार्थक पोस्ट। किन्नर समाज सदियों से अपनी अलग पहचान का मोहताज रहा है। सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक फैसले में किन्नर समाज को नई पहचान दी है। उन्हें इज्जत से सिर उठा कर जीने का हक दिया है। दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है, जब 'थर्ड जेंडर' को औपचारिक ढंग से पहचान मिली है। यह स्वागतयोग्य निर्णय है। लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी और कल्कि सुब्रह्मण्यम जैसे ट्रांसजेंडर्ड का प्रयास तारीफ के काबिल हैं। किन्नर समाज को क़ानूनी लड़ाई में जीत हासिल हो गयी है अब सामाजिक रूप से पहचान हासिल करनी है। किन्नरों को भी समाज में आत्मरसमान के साथ जीने का हक है। किन्नरों के प्रति समाज के सोच और व्यवहार में बदलाव की जरूरत है।

VIJAY KUMAR VERMA said...

विचारणीय और सार्थक पोस्ट।

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

किन्नरों के समुदाय का एक बहुत ही भयानक पहलू, उनकी अपराधों में संलिप्तता रही है. यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो सामाजिक तिरस्कार एवम हँसी का पात्र बना दिये जाने के कारण उनका समाज से कट जाना और समाज के नियमों और मान्यताओं पर से विश्वास उठ जाना भी इसका एक कारण है. मैंने बचपन में देखा था कि हमारे पड़ोस से किस तरह वे एक बच्चे को उठाकर ले गये थे, क्योंकि वह बच्चा प्रकृति की क्रूरता का शिकार था. फिर उनके द्वारा किये जाने वाले ऐसे अपराध भी सामने आए जिसमें उन्होंने बलात किसी पुरुष को शलय चिकित्सा द्वारा अपने जैसा बना दिया.

यह निर्णय उन्हें मुख्य धारा में लाने का एक बड़ा और ऐतिहासिक कदम है. हालाँकि समाज की स्वीकार्यता मिलना उतना सहज नहीं होगा, ऐसा मेरा अनुमान है!! आपका आलेख सराहनीय है!

Bhavana Lalwani said...

bahut achha mudda uthaya hai aapne .. Third gender jiska hona naa hona samaaj ke liye barabar hai. hopefully SC ke faisle ke baad unki haalat mein sudhaar aayega.

virendra sharma said...

सबको सम्मान मिले बुनियादी अधिकार मिलें यही प्रजातंत्र के मानी हैं। बढ़िया मुद्दा उठाती विमर्श पूर्ण पोस्ट।

Suman said...

बहुत सार्थक विचारणीय आलेख है !

दिगम्बर नासवा said...

दरअसल न्यायपालिका ने तो अपना काम कर दिया है अब समाज कि बारी है .. यही एक कठिन काम है ... समाज में बदलाव की प्रक्रिया इतनी धीमी होती है कि कई बार तो धैर्य खत्म हो जाता है ... परन्तु समाज को समझना होगा कि सब को सामान से जीने का अधिकार है ...

मुकेश कुमार सिन्हा said...

सबको सम्मान, ये बुनियादी अधिकार .......पूरी होनी ही चाहिए !!

Satish Saxena said...

आपकी इस पोस्ट के लिए आभार !
उनको यह अधिकार बहुत पहले मिल जाना चाहिए , अफ़सोस है इस बारे में सामाजिक चेतना का नितांत अभाव रहा है, हाँ, हमें उनसे शिकायतें बहुत रही हैं मगर हम अपने गरेवान में झांकने के आदी नहीं ! मंगलकामनाएं आपको

संध्या शर्मा said...

समय भले लगे लेकिन इन्हे सामाजिक मान्यता देना समाज और मानवता के हित में होगा। … सार्थक पहल

abhi said...

ये सच में एक बहुत ही अच्छी खबर है...!! एक ऐतिहासिक कदम, हालांकि ये बहुत पहले हो जाना चाहिए था. !!!

Amrita Tanmay said...

ये निर्णय देर से ही दुरुस्त कदम है ..

Dr (Miss) Sharad Singh said...

महत्वपूर्ण मुद्दे पर सार्थक लेख ....

Kailash Sharma said...

बहुत सारगर्भित और संवेदनापूर्ण विवेचन...प्रत्येक इन्सान को उसका हक़ मिलना ही चाहिए...

virendra sharma said...

curative petition कुछ और फेरबदल कर सकता है।सुनवाई होना अभी बाकी है। बढ़िया पोस्ट।

Basant Khileri said...
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Rakesh Kumar said...

विचारणीय प्रस्तुति.
समाज में सभी को यथोचित अधिकार व सम्मान मिलना ही चाहिये.

सदा said...

बेहद सार्थक व सशक्‍त प्रस्‍तुति

संजय भास्‍कर said...

महत्वपूर्ण मुद्दे पर सार्थक लेख ....सार्थक पोस्ट।

Vinod Singhi said...

सार्थक.

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