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31 May 2018

सच को संवेदनशीलता से उकेरती कहानियाँ


आज की भागमभाग भरी ज़िन्दगी में जो कुछ छीज रहा है, उसे संवेदनशीलता के साथ उकेरती हैं इस संग्रह की कहानियाँ | डॉ. फ़तेह सिंह भाटी ने किताब की भूमिका में कहा भी है  कि "जीवन एक कला है। सुख, एक दूसरे के प्रति अपनापन, प्रेम, समर्पण, त्याग और समझ से अनुभूत कर सकते हैं, साधनों से नहीं। इंसान सुख के साधन बढ़ाता जाता है और इस हद तक कि उसके जीवन का लक्ष्य ही पैसा हो जाता है। सारी ऊर्जा इसमें लगाकर अंततः वह स्वयं को छला महसूस करता है।" संग्रह को पढ़ते हुए पाठक को यही बात या यूँ कहें  कि यही सबक, उनकी कहानियों में भी मिलता  है | मर्मस्पर्शी भाषा में आंचलिक शब्दों का प्रभावी इस्तेमाल कर रची गई इस संग्रह की कहानियाँ मन जीवन से जुड़े  कितने ही सच सामने लाती हैं | यूँ भी सामाजिक जीवन के सच को उकेरते हुए शब्द जब कहानियों में ढलते हैं, तो वो कहानियां कहीं गहरे उतरती हैं । 'पसरती ठण्ड'  संग्रह में भी  परिवेश और पात्रों के विचार-व्यवहार का चित्रण आश्वस्त करता है कि हर कहानी आम जीवन से जुड़ी है । जिससे पाठकों का जुड़ाव भी सहजता से होता है | 

पारिवारिक  संबंधों  की  बिगड़ती  रूपरेखा पर की गई बात कहानियों में मौजूदा दौर की उस  विडंबना  को रेखांकित करती हैं जहाँ रिश्तों में स्वार्थ का बोलबाला है | ये कहानियाँ बहुत सहजता से बताती-समझाती हैं कि परिवेशगत जटिलताओं और सामाजिक ताने-बाने में उपस्थित क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में  कितना कुछ समाया होता है ।  मित्रता, स्त्रीत्व और इंसानी जीवन से जुड़े  कई मानवीय भाव कहानियों का हिस्सा बने हैं | जो लगते तो आम हैं पर इन्हें खास अंदाज़ में कहते हुए डॉ. भाटी ने इन कहानियों में  मरूभूमि की पृष्ठभूमि लेते हुए पात्रों को जीवंत बना दिया है | 'झलक-1 और झलक-2 ' में यही सामजिक विडंबना उकेरी गई है |  यहाँ आभासी संसार का ज़िक्र भी आया है | जिसने हालिया बरसों में रिश्तों में दिखावा संस्कृति की सोच को विस्तार दिया है | व्यावहारिक सोच के नाम पर किस कदर असंवेदनशीलता हमारे व्यवहार में पैठ बना चुकी है, दो भागों में लिखी इस  कहानी का  अंत इसी बात को कहता है कि "भावनाशून्य हृदय के लिए पिता हो या पति या फिर बच्चे सब अवसर हैं अपनी खुशियों के लिए अवसर |" 

स्त्री जीवन के मर्म को को रेखांकित करती  "पतित" और "उमादे" कहानियों में भले ही वर्तमान और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अंतर हो, नारीमन की पीड़ा एक सी लगती है | दोनों का मर्म यही है कि स्त्री को हिम्मत से  खड़े होकर अपने आत्मसमान के लिए लड़ना होता है | अपनी गरिमा सहेजनी होती है | कहानियों को जिस तरह शब्दों में बाँधा गया है, वह वाकई  सराहनीय  है । विशेषकर तब जब ये कहानियाँ सवाल भी लिए हैं और समस्याएं की सामने रखती हैं |   "दो पेड़",  "शापित धोरा"  और " पलायन"  स्थानीयता और आंचलिकता की सुगंध से सराबोर हैं | साथ ही लोक जीवन में मौजूद रूढ़िवादी विचारधारा और सामाजिक जकड़नों  की भी बात करती हैं |   "ठूँठ" और  "मुक्त प्रेम" जैसी कहानियां  पाठक के मन-मस्तिष्क को मनन-चिंतन  की राह सुझाती हैं | आज़ादी के नाम पर स्वछंदता के परिणामस्वरूप उपजीं कई सामाजिक विद्रूपताएं पाठक को सचेत करती हैं | पढ़ने वाले के मन को परिष्कृत करती हैं |  कहानियों  के संदर्भ मौजूदा समय में  सामाजिक  और  व्यक्तिगत जीवन के विरोधाभासों को सामने रखते  हैं  | दुखद है कि यही वह कटु सच है जिसने हमारी  पूरी सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को ही नहीं हमारे मनोविज्ञान को प्रभावित किया है | नतीजतन, मन-जीवन में असंवेदनशीलता अब परायों के लिए ही नहीं अपने  करीबी रिश्तों एक लिए भी जगह बना रही है  | 

कहानी संग्रह में लेखक की भाषा जिस संवेदनशीलता का बहाव उत्पन्न करती है, वह भी पढ़ने वाले को पात्रों के और करीब ले जाता है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब मानवीय भावशून्यता और संवेदनहीनता से  हमारी  झोलियाँ भरी हैं, ये  कहानियाँ सोचने को विवश करती हैं कि हमारे  परिवेश की दिशा क्या है ? आखिर कौन से  शिखर पर जाने की होड़ है, जिसमें हम खुद ही पीछे छूट रहे हैं | यकीनन ‘पसरती ठण्ड’ संग्रह की कहानियाँ हमारे आज के समाज का आइना हैं |  संबंधों की दिशाहीनता का बोध करवाती हैं | जो अंततः बिखराव ही लाएगा | सुखद है कि सहज और सरल भाषा में गुंथी ये कहानियाँ हमें सचेत करती हैं | उस बिखराव के खामियाजे सामने रखती हैं जिसे हम स्वयं आमंत्रित कर रहे हैं |  समग्र रूप  से देखें तो  डॉ. फ़तेह सिंह भाटी  के इस पहले कहानी संग्रह के पन्नों से गुजरते हुए पाठक का  कई विचारणीय प्रश्नों से साक्षात्कार होता है | वह अपने परिवेश  आ रही विसंगतियों को लेकर सोचने लगता है कि बदलाव के नाम पर वो सब क्यों नहीं बदला जिसे असल में परिवर्तन की दरकार थी | इन्हीं बदलावों को लेकर लेखक द्वारा ज़ाहिर की गयी  चिंता भी कहानियों में साफ़ दिखती है |  
  

5 comments:

Rohitas Ghorela said...

बेहद प्रभावित करने वाली और रुचिकर समीक्षा है आपकी.

कविता और मैं


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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-06-2018) को "अब वीरों का कर अभिनन्दन" (चर्चा अंक-2989) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गिरधारी खंकरियाल said...

पुस्तक समीक्षा बड़ी ही विलक्षणता प्रस्तुत की है आपने।

दिगम्बर नासवा said...

अच्छी समीक्षा कहानियों को लेकर ... कहानियां सामाजिक चेतना और नयी सोच के ताने बाने को ले कर बुनी हुयी लगती हैं ...

Atoot bandhan said...

सामाजिक सरोकारों से जुडी कहानियों की बेहतरीन समीक्षा

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